गढ़वाल के पूर्वी सीमांत विकास क्षेत्र नैणीडांडा की विपाशा ने अपने मधुर स्वर में उस लोकधुन को फिर से गुँजाया है, जिसे अस्सी के दशक में कालजयी संगीतकार, नरेन्द्र सिंह नेगी ने अपने लोक से तलाशा था और सँवार कर ऑडियो एलबम में प्रस्तुत किया था. आगे चल कर इसी लोकधुन से, हारमोनियम सीखने वाले, हजारों गढ़वाली, संगीत का ककहरा सीखते रहे हैं.
(Vipasha Nainidanda Viral Song)
सरकारी विद्यालय में आठवीं की छात्रा विपाशा ने जिस गीत के मधुर गायन से सोशल मीडिया में सुर्खियाँ बटोरी हैं, उसके बोल हैं – सुलपा की साज… छात्रा की पहली तारीफ़ तो यही कि उसने समकालीन ट्रेंड से हट कर चार दशक पुराने गीत का चयन किया. जाहिर है कि इस लोकधुन को छात्रा ने जब सुना होगा, तो परम्परागत कलावंत परिवार के बालमन ने इसे तुरंत आत्मसात कर लिया होगा. मन की परतों में दबे गीत-संगीत को अंकुरित होने के लिए जरूरी नमी जो मिल गयी थी उसे. मोबाइल से वो बड़े गौर से सुना करती थी, गढ़वाली गीत-संगीत के दिग्गजों को. सुर-ताल की बारीकियाँ उसने सुन कर सीखी, कोकिल-कंठ जन्मना मिला था और प्रोत्साहन-मंच दिया, विद्यालय के सहॄदय शिक्षक ने. फिर क्या था, जिसने भी इस कर्णप्रिय लोकधुन में खूबसूरती से विपाशा के गाये गीत को सुना, वाह-वाह कर उठा.
आखिर क्या है, इस लोकगीत में जिसके सम्मोहन की अनुभूति हर आमो-खास को हो रही है. शब्द, स्वर और संगीत के सर्वश्रेष्ठ स्तर के त्रिवेणी-संगम का अहसास होता है इस गीत में, जिसे नरेन्द्र सिंह नेगी इस मुकाम तक लाए थे, और अब जिसको विपाशा ने अपनी स्वरलहरियों से फिर से चर्चा में ला दिया है.
ये गीत गढ़वाल के बाजूबंद लोकगीत का प्रतिनिधि लोकगीत है. बाजूबंद, मुक्तक शैली के गीत हैं. प्रत्येक मुक्तक को बाजू या दोहा कहा जाता है. पहली पंक्ति तुक मिलाने के लिए होती है जो बहुधा निरर्थक होती है. निरर्थक होते हुए भी पारम्परिक बाजूबंद में इन पंक्तियों में भी सौंदर्यबोध और सलीका देखा जा सकता है. गहराई से देखने पर अर्थ और सम्बंध भी तलाशा जा सकता है. बाजूबंद सभी विषय और भावों पर रचे गये हैं, पर प्रणय भाव वाले सर्वाधिक लोकप्रिय हैं. प्रायः वनप्रांतर के निर्बंध वातावरण में संवाद शैली में गाये जाते हैं. आशुलोककाव्य का बेहतरीन उदाहरण हैं बाजूबंद. औपचारिक शिक्षा से रिक्त, पर अनुभव और भावनाओं से लबालब भरे पूर्वजों के उर्वर हृदय-कंठों से उपजे हैं ये लोकगीत. चुनिंदा बाजूबंद दुनिया की किसी भी भाषा की बेहतरीन काव्योक्तियों के समतुल्य हैं. यूं तो रचनाविधान इनका बहुत सरल है, पर सुन कर जो सीधे दिल में उतरे, वही असली बाजूबंद है.
(Vipasha Nainidanda Viral Song)
नरेन्द्र सिंह नेगी द्वारा संकलित-संगीतबद्ध-स्वरबद्ध इस बाजूबंद लोकगीत का शब्द-संयोजन भी अद्भुत है. कुछ ऐसा कि कल्पना और अभिव्यक्ति की दाद दिये बिना रहा न जा सके. गीत के बोल इस तरह हैं –
हो हो बै, सुलपा की साज, बै, सुलपा की साज.
द्वि बचन बाजू लै दे मुलकी रीवाज.
बै मुल्की रिवाज.
हो हो बै, गुड़ खायो माख्योन,
गुड़ खायो माख्योन.
औरी खांदाना गिचीन, तू खांदी आंख्योन.
ये तू खांदी आंख्योन.
हो हो बै, बेडूं पाक्यां बर, बेडूं पाक्यां बर.
नाथुली को कस लगी तों गलवाड्यों पर
बै तों गाल्वाड्यों पर.
हो-हो बै, दाथी गाड़ी पाती, दाथी गाड़ी पाती.
कैका सिराणा राली सी, चुड्यों भरी हाती,
बै चुड्यों भरी हाती.
हो हो बै, घट को भग्वाड़ी, घट को भग्वाड़ी.
रूबसी खुट्योन मैणा तू चल अगवाड़ी,
ये तू चल अगवाड़ी.
हो हो बै, बंदूकी को गज, बंदूकी को गज.
तु चल अग्वाड़ी मैणा, मैं देखुलो सज.
मैं देखुलो सज.
हो हो बै, झंगोरो लै गोड़ी, हे झंगोरो लै गोड़ी.
रोणु धोणू मैंकू होयां, तु हैंसणों ना छोड़ी,
ये हैंसणो ना छोड़ी.
गीत का पहला बाजू मंगलाचरण-सा है. इसमें मुल्क (गढ़वाल) की परम्परा को निभाने की दुहाई देते हुए बाजूबंद गीत में शामिल होने के लिए साथी का आह्वान किया जा रहा है. सुलपा की साज अर्थात् चरस की चिलम. नशा सिर्फ़ गीत-संगीत में है. निरर्थक ये इसलिए नहीं है कि इससे ये संकेत तो मिलता ही है कि ये रचना सोलहवीं शताब्दी के बाद की है. ऐसा इसलिए कि भारत में चिलम का पहला प्रवेश सोलहवीं शताब्दी में हुआ था. पुर्तगालियों ने ये पहली चिलम बादशाह अकबर को भेंट की थी.
(Vipasha Nainidanda Viral Song)
दूसरे बाजू में कहा जा रहा है कि और सभी तो मुँह से खाते हैं, पर तू तो आँखों से ही खा जाती है. गौरतलब है कि आँखों से खाने वाला बिम्ब, गढ़वाली में पूरी तरह मौलिक है. उर्दू कवि ने इस भाव को क़ातिल निगाहें कह कर अभिव्यक्त किया है तो अंग्रेजी कवि ने she can wound with her eyes या फिर her eyes cut deeper than knife के रूप में. गढ़वाली की बात ही निराली है. यहाँ नायिका चाकू से भी गहरा काट कर किसी को घायल नहीं करती है. क़ातिल होने की तो गुंजाइश ही नहीं है. उसकी आँखों को देख कर गढ़वाली लोककवि को लगता है कि उसे खाया जा रहा है, मंडुवे की रोटी में रखी मक्खन की डली की तरह. पहली पंक्ति यहाँ भी निरर्थक नहीं है. पहाड़ में लम्बे समय तक, गुड़ मीठे और मिठाई का पर्याय रहा है. यह भी गौरतलब है कि लोककवि ने मात्र छः शब्दों में जो भाव व्यक्त कर दिया है, उसी भाव के लिए, गागर में सागर भरने के लिए ख्यात कविवर बिहारी को पूरा एक दोहा कहना पड़ा था.
अगले बाजू में नायक अपने उस स्वप्न के बारे में बता रहा है, जिसमें वो नायिका को नथ पहने दुल्हन के रूप में देख रहा है. वो नायिका के गाल पर लगे नथ के कस से भी चिंतित हो रहा है. कस तो खैर क्या लगना था, दरअसल वो नथ पहनने से गाल पर पड़े टैनिंग के निशान की कल्पना कर रहा है. दाग तो दाग होता है साहब, सोने का ही सही, अच्छा, वो भी नहीं लगता. सोने से भी क़ीमती नायिका के गाल की रंगत है, नायक के लिए. पूरी तरह निरर्थक तो पहली पंक्ति यहाँ भी नहीं है. वो जानकारी देती है कि बेडू (अंजीर की प्रजाति) जेठ के महीने पकता है. संकेत ये कि हमारा प्रेम भी परिपक्व हो गया है और अब फल-प्राप्ति की बेसब्री से प्रतीक्षा है.
अगले बाजू में नायक अपने ही भाग्य पर संदेह करने लगता है. वो कह ही देता है कि न जाने किस नसीब वाले के सिरहाने रहेंगे, ये चूड़ियों भरे हाथ. अर्थात् अपनी तो, इतनी अच्छी किस्मत है नहीं. जाहिर है कि सिर्फ़ सिरहाने हाथ ही नहीं रहेंगे, और भी बहुत कुछ पास रहेगा. लोककवि ने सपाटबयानी और फूहड़ता से कुशलतापूर्वक बचते हुए, सिर्फ़ हाथों की बात कर, नायक के मन में चलता पूरा दृश्य दिखा दिया है. पहली पंक्ति की सार्थकता देखिए – दरांती से घास-पात काट लिया गया है. क्या मेरे खूबसूरत सपने की भी यही नियति होने वाली है.
(Vipasha Nainidanda Viral Song)
अगले दो बाजुओं में नायक, अनिश्चित भविष्य के सपने से निश्चित वर्तमान के यथार्थ में लौट आता है. वो नायिका से कहता है कि जितनी भी दूर हमें साथ चलना है, उसमें मैं चाहता हूँ कि तू अपने खूबसूरत पैरों से आगे-आगे चले. मैं तुझे निहारता हुआ, तेरे पीछे चलूंगा. इन दोनों बाजुओं की पहली पंक्तियों में क्रमश: घट को भग्वाड़ी और बंदूकी को गज प्रयुक्त हुआ है. दोनों को अंग्रेजी के एक-एक शब्द से बेहतर समझा जा सकता है. ये शब्द हैं – Multure और Ramrod. दोनों इन बाजुओं में भी निरर्थक नहीं हैं. यहाँ आशय ये है कि मेरी माया (प्रेम) की भग्वाड़ी नयनसुख ही तो है. अब तू मुझे उससे भी वंचित मत करना. और जिस तरह बंदूक के गज की, बंदूक के मैकनिज़म में कोई भूमिका नहीं होती, पर बंदूक को रवाँ रखने के लिए वो जरूरी होता है, उसी तरह मैं भी हुआ जा रहा हूँ.
अंतिम बाजू में प्रेम की पराकाष्ठा दर्शनीय है. यहाँ प्रेम, रूमानी सीमाओं को पार कर निष्काम (Platonic) हो जाता है. ऐसा प्रेम, जिसमें बदले में कुछ पाने की चाहत न हो. ऐसा प्रेम जिसमें पूर्णत्व हो, निस्वार्थता हो. ऐसा प्रेम जिसमें प्रेमी की खुशी, भलाई और सुरक्षा की कामना हो. ऐसा प्रेम, जो बस प्रेम के लिए हो. प्रेम की इसी पराकाष्ठा में नायक कामना करता है कि सारे ग़म (रोना-धोना) मेरे हिस्से में आएँ. तेरे दामन में इतनी खुशियाँ आएँ कि मुस्कान कभी तेरे चेहरे से दूर न रहे.
नरेन्द्र सिंह नेगी होने का यही अर्थ है कि जहाँ अधिकतर गीतकार सृजित गीतों में भी सुसंगतता और तार्किकता का ध्यान नहीं रख पाते, वहीं नेगी जी लोकगीतों के मामले में भी कितने सचेत, कितने सजग रहते हैं, इस विश्लेषण से समझा जा सकता है. जीवन के पचास वर्ष गढ़वाली गीत-संगीत के नाम कर, एक सुरीला, स्वर्णिम अध्याय अपने मातृप्रदेश के लोक को लौटाने वाले कालजयी कवि-संगीतकार-गायक नरेन्द्र सिंह नेगी जी के स्वस्थचित्त और दीर्घायु होने की कामना है.
नैणीडांडा की नन्हीं, सुरीली, प्रतिभासंपन्न विपाशा को शुभाशीष. उज्ज्वल भविष्य की मंगलकामनाएँ. मुलकी रिवाज़ है, दो बचन बाजू के सुने, गाये नहीं तो अपने मुल्क से आपकी पहचान संदिग्ध रहेगी. और कुछ नहीं तो गाये हुए को शांतचित्त होकर सुन तो सकते ही हैं. पुरखे अपनी सांस्कृतिक थाती को जिस मुकाम तक ले आये हैं, उसे समझ पाना भी एक उपलब्धि है.
(Vipasha Nainidanda Viral Song)
देवेश जोशी
देवेश जोशी सम्प्रति राजकीय इण्टरमीडिएट कॉलेज में प्रवक्ता हैं. साहित्य, संस्कृति, शिक्षा और इतिहास विषयक मुद्दों पर विश्लेषणात्मक, शोधपरक, चिंतनशील लेखन के लिए जाने जाते हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ ( संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित), कैप्टन धूम सिंह चौहान (सैन्य इतिहास, विनसर देहरादून से प्रकाशित), घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित) और सीखते सिखाते (शैक्षिक संस्मरण और विमर्श, समय-साक्ष्य देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी प्रकाशित हैं. आकाशवाणी और दूरदर्शन से वार्ताओं के प्रसारण के अतिरिक्त विभिन्न पोर्टल्स पर 200 से अधिक लेख प्रकाशित हो चुके हैं.
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सुरीली विपाशा
बहुत सुंदर लिखा !
बहुत अच्छा बेटा जी
और जिन्होंने यह ब्लॉग लिखा उनका आभार, 🙏🧡