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लोकगायिका वीना तिवारी को ‘यंग उत्तराखंड लीजेंडरी सिंगर अवार्ड’ से नवाजा गया

दर्शक दीर्घा से खचाखच भरा नई दिल्ली का केदारनाथ ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से गॅूज उठा जब उत्तराखण्ड की लोकगायिका वीना तिवारी को यंग उत्तराखंड लीजेंडरी सिंगर अवार्ड से सम्मानित किये जाने की घोषणा हुई. मौका था 30 अप्रैल 2022 को यंग उत्तराखण्ड सिने अवार्ड- 2022 के भव्य आयोजन का. यह संस्था पिछले दस वर्षों से उत्तराखण्ड के कला, साहित्य, संगीत आदि के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए प्रतिवर्ष चयनित प्रतिभाओं को सम्मानित करती है.
(Veena Tiwari Uttarakhand Folk Singer)

इसमें दो राय नहीं कि आज के युवा वर्ग के लिए लोकगायिका वीना तिवारी भले एक अनजान सा चेहरा हो लेकिन वह भी समय था जब कुमाऊनी लोकसंगीत की एक मुखर आवाज हुआ करती थी – वीना तिवारी. क्या योगदान रहा है, वीना तिवारी का लोकगायन के क्षेत्र में जानना बेहद दिलचस्प है. वह प्रारंभिक दौर रेडियो का था बल्कि रेडियो तक पहुंच भी कुछ सम्पन्न घरों तक सीमित थी.

पिछली सदी के साठ का दशक रेडियो से ट्रांजिस्टर युग का संक्रमण काल था. जब बड़े आकार के बिजली से चलने वाले रेडियो की जगह बैटरी से चलने वाले पोर्टेबल ट्रांजिस्टर ने दखल दी और आम लोगों तक अपनी पहुंच बनानी शुरू की. शीघ्र ही रेडियो समाचारों के माध्यम से सूचनाओं को प्राप्त करने, संस्कृति , संगीत, कला के प्रसार के साथ ही मनोरंजन का एक मुख्य स्रोत बन गया.

1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद पर्वतीय क्षेत्र के सीमान्त जिलों को राष्ट्रीय धारा में जोड़ने के उद्देश्य से वर्ष 1963 में आकाशवाणी लखनऊ ने शुरू किया – उत्तरायण कार्यक्रम. शुरूआती दौर में 15 मिनट से प्रारम्भ होकर इसने इतनी लोकप्रियता हासिल कर ली कि इसे पूरे एक घण्टे का कर दिया गया. उत्तराखण्ड के पर्वतीय जनजीवन को दिन भर के जी-तोड़ मेहनत के बाद शाम 5.45 बजे उत्तरायण कार्यक्रम का बेसब्री से इन्तजार रहा करता था. अपने पहाड़ से दूर देश की सीमाओं पर मुस्तैद फौजी जवान भी उत्तरायण कार्यक्रम में बजने वाले कुमाऊनी व गढ़वाली लोकगीतों को सुनकर क्षणभर के लिए खुद को अपने परिवार के ही इर्द-गिर्द पाते. उस दौर में गिने-चुने गायक कलाकार हुआ करते जिनके गीत आकाशवाणी लखनऊ से इस कार्यक्रम में प्रसारित होते. तब आकाशवाणी से किसी कलाकार का कोई प्रसारण एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती. शेर दा अनपढ़, गोपाल बाबू गोस्वामी, गोपाल दत्त भट्ट, मोहन सिंह रीठागाड़ी, रमेश जोशी, हीरा सिंह राणा, केशव अनुरागी, चन्द्र सिंह राही, जीत सिंह नेगी, नरेन्द्र सिंह नेगी गायकों के अलावा गायिकाओं में विशेष रूप से कुमाऊनी लोकगीतों के गायन में वीना तिवारी एक ऐसा नाम था जिनके गीत कार्यक्रम में लगभग हर रोज सुनने को मिलते. उस दौर की अन्य कुमाऊनी गायिकाओं में कबूतरी देवी तथा चन्द्रकला पन्त के अतिरिक्त दूसरे नाम मुझे याद नहीं आ रहे हैं.

जहॉ तक मुझे याद है कि हर सोमवार व बृहस्पतिवार को कुमाऊनी व गढ़वाली लोकगीतों का फरमाईशी कार्यक्रम हुआ करता, जिसमें वीना तिवारी एक ऐसा नाम था जिनके गीत एक ही घण्टे के फरमाईशी कार्यक्रम में कई-कई बार सुनने को मिलते. टेलीविजन तो था नहीं जो लोग गायक अथवा गयिका की शक्ल देख पाते, बस रेडियो में उनके गीत सुनकर ही उनकी काल्पनिक छवि बना लेते. वीना तिवारी एक ऐसा नाम था जिसे शक्ल-सूरत से भले कोई न जानता हो कम से कम गायिका के नाम से हर श्रोता परिचित था और उनके गाये गीतों को बतौर बाथरूम सिंगर ही सही गुनगुनाता जरूर था.

बड़े बुजुर्ग तो उनके गीतों के साक्षी रहे ही लेकिन आज 30 की उम्र पार कर चुके युवा लोग भी वीना तिवारी के गीतों को सुनते हुए ही बढ़े हुए. लोकगायकों के एक से एक बेहतरीन गीत होते हैं लेकिन उनमें से कोई एक गीत लोकगायक की स्थायी पहचान बन जाता है. झन दिया बौज्यू छाना बिलोरी एक ऐसा ही लोकगीत है जो बरबस बीना तिवारी का स्मरण करा देता है. संभवतः उनका आकाशवाणी के लिए गाया पहला गीत तो ‘के संध्या झूली रै छ’ था लेकिन ये भी सच है कि ’झन दिया बौज्यू छाना बिलोरी’ गीत को सर्वप्रथम गाया वीना तिवारी ने ही था. हालांकि इसे बाद में अन्य गायकों द्वारा भी गाया गया यहां तक कि हाल ही में इस गीत को आसाम मूल के बालीवुड गायक पापोन ने भी गाने का प्रयास किया है, जो सोशल मीडिया में वायरल हो रहा है. लेकिन ’छाना बिलोरी’ गीत तो वीना तिवारी के नाम से चिपककर उनकी अमिट पहचान बन गया.

शेर दा अनपढ़ के साथ जुगलबन्दी में वीना तिवारी द्वारा गाया गीत- ओ परूवा बौज्यू चप्पल के ल्याछा यस भला कौन भूला है? अगर इस हास्य गीत को छोड़ दें तो जहॉ तक मैं सुन पाया हॅू उन्होंने वही गीत गाये है, जिनके भावों में गम्भीरता है तथा पर्वतीय लोकजीवन व लोकसंस्कृति की छवि झलकती है. बेटी की ससुराल पर विदाई का चित्र प्रस्तुत करता- बाट लागी बरात चेली बैठ डोली मा अथवा दे द्यावा बाबा ज्यू कन्या को दान किस पत्थर दिल इन्सान की भी ऑखे नम नहीं कर देता.
(Veena Tiwari Uttarakhand Folk Singer)

1963 में आकाशवाणी लखनऊ द्वारा उत्तरायण कार्यक्रम की शुरूआत की जिम्मेदारी सौंपी गयी -गढ़वाल के रंगमंचीय कलाकार जीत जरधारी तथा कुमाऊनी साहित्य के मर्मज्ञ वंशीधर पाठक ’जिज्ञासु’ को. जो उत्तरायण के संवाद कार्यक्रमों में परस्पर एक दूसरे को ’’दद्दा वीर सिंह ’’ और ’’भुला शिवानन्द ’’ के नाम से संबोधित करते. जिज्ञासु जी उत्तरायण कार्यक्रम के प्रति कुछ इस तरह समर्पित थे, कि लखनऊ की गलियों में पैदल ही खाक छानते और ढॅूढ-ढॅूढकर पहाड़ियों के मुहल्लों से पर्वतीय प्रतिभाओं को कार्यक्रम से जोड़ते. वीना तिवारी जी का परिवार भी तब लखनऊ में रहता. एक ओर वह भातखण्डे संगीत महाविद्यालय से संगीत की शिक्षा ले रहे थी, उसी दरम्यान वे आकाशवाणी लखनऊ से ’बी हाई ग्रेड’ कलाकार के रूप में जुड़़ गयी. संयोगवश जिज्ञासु जी से मिलना सोने में सुहागा था. उनके कुछ ही गीतों के प्रसारित होने के बाद उनकी खनकती आवाज का हर एक कायल हो गया. फिर तो वो दौर भी आया कि हर गीतकार अपने गीत को वीना तिवारी की आवाज में ही गंवाना चाहता था.

कुमाऊनी कवि गौर्दा, चारूचन्द्र पाण्डे , गोपाल दत्त भट्ट, शेरदा अपनढ़, गिरीश तिवाड़ी ’गिर्दा’, वंशीधर पाठक ’जिज्ञासु’ और हीरा सिंह राणा के कई गीतों को वीना तिवारी ने स्वर दिया. चारूचन्द्र पाण्डे द्वारा लिखा और वीना तिवारी द्वारा गाया होली गीत – फूल बुरांशी को कुमकुम मारो आज भी उतना ही लोकप्रिय है, जितना तब रहा होगा. उनके अन्य चर्चित गीतों में आ लिली बाकरी ली ली छू-छू, पारा का भिड़ पन जांणियां बटोवा रे तथा पारा बुरूशी फूलि रैछ तथा कुमाऊनी लोरी गीत जैसे दर्जनों गीत हैं.

पेशे से संगीत शिक्षिका वीना तिवारी ने न केवल कुमाऊनी लोकगीतों को अपने सुमधुर स्वर से झंकृत किया बल्कि, गढ़वाल की प्रचलित लोकगाथा ’रामी बौराणी’ पार्श्व गायन सहित कई गढ़वाली लोकगीतों को उसी अधिकार पूर्वक गाया जिस तरह कुमाऊनी लोकगीतों में उनकी पकड़ थी. वर्ष 1964 से शुरू हुआ संगीत का उनका सफर अनवरत् जारी है और उम्र के इस पड़ाव में भी हम उनसे लोकसंगीत की दशा व दिशा पर मार्गदर्शन की अपेक्षा करते हैं. न केवल लोकगीतों तक उनका गायन सीमित रहा बल्कि आकाशवाणी रामपुर से कई गीत व गजल भी उन्होंने गाये. लेकिन अफसोस कि वे इनका संग्रह नहीं कर पायी. आज की तरह उस समय ध्वन्याकंन की सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थी. आकाशवाणी द्वारा मैग्नेटिक टेप पर गीतों की रिकार्डिंग होती थी जो आकाशवाणी के संग्रहालय तक ही सीमित रहती. कैसिट का दौर तो अस्सी के दशक में आया. वीना तिवारी को खुद याद नहीं कि उन्होंने कितने गीत आकाशवाणी से गाये, एक अनुमान के अनुसार वे बताती हैं कि लगभग चार-पांच सौ गीत तो उन्होंने गाये ही होंगे. वीना तिवारी बताती हैं कि प्रारंभिक दौर में एक गीत रिकार्ड करने का भुगतान आकाशवाणी द्वारा मात्र 20 रूपये के चैक से किया जाता और उस समय वह धनराशि भी पर्याप्त लगती और वह पैसा ’लहण’ (फलीभूत) होता था.
(Veena Tiwari Uttarakhand Folk Singer)

अस्सी के दशक में आम लोगों तक टेलीविजन के प्रवेश से रेडियो के प्रति लोगों का आकर्षण धीरे-घीरे कम होने लगा और लोग भूलने लगे उन रेडियो कलाकारों को जो कभी उनकी जिन्दगी का हिस्सा हुआ करते थे. जो कलाकार मंचीय थे, वे तो खुद को जिन्दा रख पाये, लेकिन वीना तिवारी ने मंचीय गायन बहुत कम किया और न दूसरे प्लेटफार्म पर कोई म्यूजिक एलबम बनाने की सोची. कुछ अंगुली पर गिने जाने वाले मंचीय कार्यक्रमों में जिसमें नैनीताल में आयोजित माटी से मंच तक में अपनी प्रस्तुति रिश्ते में अपने जेठ लगने वाले गिर्दा के साथ साझेदारी की. हालांकि आकाशवाणी द्वारा समय-समय पर आयोजित होने वाले ’कन्सर्ट’ कार्यक्रमों में भागीदारी उन्होंने जरूर की. 27 जनवरी 1978 को जब आकाशवाणी नजीबाबाद के उद्घाटन समारोह का कार्यक्रम था, तब भी उन्हें आमंत्रित किया गया था. लेकिन आकाशवाणी के स्टूडियों व कन्सर्ट प्रोग्राम के अलावा मंचीय कार्यक्रमों में उनकी भागीदारी उतनी नहीं रही कि श्रोता उनसे फेस टू फेस जुड़ सकें.

आकाशवाणी से इतर लखनऊ में आयोजित एक भव्य समारोह की याद दिलाते हुए साहित्यसेवी ज्ञान पन्त लिखते हैं- वर्ष 2010 या 11 में उमेश डोभाल स्मृति समारोह लखनऊ में वीना दीदी ने बिना साज के एक भजन गाया था. पूरा हॉल शान्त क्या एकदम शून्य हो पड़ा. तब वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर जी ने पुनः सुनाने का अनुरोध किया. वीना दी को पहाड़ियों ने ही भुला दिया. वे हमारे समाज से थी तो फर्ज बनता था ,उनका सहयोग समर्थन करते लेकिन देर से ही सही खुशी है कि पहाड़ ने समझा तो. लखनऊ ने ख्याल नहीं रखा उनका लेकिन हल्द्वानी ऐसा नहीं करेगा, यह विश्वास है.’’

इसी तरह वरिष्ठ पत्रकार चारू तिवारी याद दिलाते हैं कि 2013 में क्रिएटिव उत्तराखण्ड म्यर पहाड़ की ओर से वीना तिवारी जी को सम्मानित किया गया और छाना बिलोरी पर बारामासा में 45 मिनट का कार्यक्रम भी तैयार किया. पुराने दिनों के गौरवपूर्ण क्षणों को याद कर वे भावुक हो जाती हैं, जब नृत्य सम्राट बिरजू महाराज तथा भजन सम्राट अनूप जलोटा के साथ सम्बद्ध रहकर बहुत कुछ सीखने को उन्हें मिला. आज वीना तिवारी के गाये कितने गीत आकाशवाणी संग्रहालय में संग्रहित होंगे, कहना मुश्किल है, लेकिन यदि सभी गीत संग्रहित हों तो उनका डिजिटलाइजेशन किया जाना लोकहित में होगा.

सौभाग्य से वह पीढ़ी अभी जिन्दा है, जिन्होंने वीना तिवारी को खूब सुना है. जिसका प्रमाण है कि नई पीढ़ी के युवा लोगों की पहल पर कुमाऊनी शब्द सम्पदा के फेसबुक पेज पर ‘म्यर पहाड़ म्येरि पच्छ्याण’ श्रृंखला के अन्तर्गत कुमाऊनी भाषा के लिए समर्पित दो युवा हेम पन्त व हिमांशु पाठक ने उनका साक्षात्कार पिछले महीनों आयोजित करवाया. लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी द्वारा उनका साक्षात्कार लिया गया, जिसमें कुरेद-कुरेद कर नवीन जोशी ने उनकी पुरानी स्मृतियों को तरोताजा किया और एक बार वर्षों से विस्मृत वीना तिवारी पुनः चर्चा में आई. इसी वर्ष दिल्ली की अभिव्यक्ति कार्यशाला द्वारा अभिव्यक्ति गौरव सम्मान से उन्हें नवाजा गया, किसी कलाकार को इससे अधिक चाहिये ही क्या?

विस्मृत सी हो चुकी इस लोकगायिका को यंग उत्तराखण्ड सिने अवार्ड द्वारा सम्मानित किया जाना पूरे उत्तराखण्ड के लिए गौरव की बात है. उनके योगदान को इस बहाने याद दिलाने के लिए जूरी के सदस्यों के प्रति आभार तो बनता ही है. हकीकत तो ये है कि कलाकार के व्यक्तित्व को लोग भले भूल जायें, लेकिन उनका समाज को जो अवदान रहता है, वह कभी भूला नहीं जाता. वीना तिवारी का नाम भले लोग भूल जायें, लेकिन ’छाना बिलोरी ’ गीत तो उनकी पहचान जीवन्त रखेगा ही. मॉ शारदे की वरद्पुत्री बीना तिवारी के गीतों के स्वरों में जो मिठास और सरसता है , लोकव्यवहार में भी वह उतनी ही सहज, सरल , सौम्य , मृदु भाषी एवं आत्मीयता से परिपूर्ण है. अपने लोगों से सदैव अपनी ही लोकभाषा में बात करना कुमाऊनी लोकभाषा के प्रति उनके अगाध स्नेह को दर्शाता है. हम उनके स्वस्थ एवं चिरायु जीवन की कामना करते हैं, ताकि लम्बे समय तक वे संगीत प्रेमियों का मार्गदर्शन व उन्हें प्रेरणा देती रहें.
(Veena Tiwari Uttarakhand Folk Singer)

इसे भी पढ़ें ; ओ परुआ बौज्यू की गायिका बीना तिवारी के साथ मुलाकात

– भुवन चन्द्र पन्त

भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

इसे भी पढ़ें: पहाड़ी लोकजीवन को जानने-समझने की बेहतरीन पुस्तक: मेरी यादों का पहाड़

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