यात्रा पर्यटन

केदारनाथ : मान्यताएँ व स्वरूप

उत्तराखण्ड के गढ़वाल मंडल में रुद्रप्रयाग जिले में भगवान शिव का पौराणिक मंदिर केदारनाथ है. द्वादश ज्योतिर्लिंगों में केदारनाथ को ग्यारहवें ज्योतोर्लिंग के रूप में स्थान प्राप्त है. केदारनाथ धाम को सभी धामों, केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री,यमुनोत्री, में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है. (Kedarnath Beliefs and Forms)

स्कन्दपुराण के केदारखण्ड में कहा गया है—

महाद्रिपाश्र्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः.
सुरासुरैर्यक्ष महोरगाढ्यैः केदारमीशं शिवमेकमीडे.

इसका अर्थ है — जो महागिरी हिमालय के पास केदारश्रृंग के तट पर सदा निवास करते हुए, मुनीश्वरों द्वारा पूजित होते हैं. देवता, असुर, यज्ञ और महान सर्प भी जिनकी पूजा करते हैं, उन एक कल्याणकारक भगवान केदारनाथ का मैं स्तवन करता हूँ.  

एक तीर्थ के रूप में केदारनाथ का सबसे पुराना वर्णन शिव पुराण के कोटिरूद्र संहिता में मिलता है. मालव नरेश भोज, जिनका शासनकाल 1076-1098 रहा, ने भी अपने शिलालेख में अन्य ज्योतिर्लिंगों के साथ केदारनाथ का वर्णन किया है.

पौराणिक कथाएं

केदारनाथ में शिव के निवास के बारे में कई पौराणिक गाथाएँ कही जाती हैं. एक कथा के अनुसार शिव ध्यान, समाधि के लिए स्थान की तलाश में यहां पहुंचे और हमेशा के लिए इस मनमोहक, शांत वादियों के होकर रह गए.

एक अन्य कथा के अनुसार— महाभारत के युद्ध के बाद अपने गुरु, कुल, ब्राह्मणों और सगोत्रीय भाइयों की हत्या के पाप के प्रायश्चित के लिए पांडव शिव की शरण में जाना चाहते थे. ऐसा करने का परामर्श उन्हें कृष्ण ने दिया था. पांचों पांडवों ने अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को हस्तिनापुर का राजा नियुक्त किया और शिव की तलाश में निकल पड़े. शिव उनके द्वारा किये गए कृत्यों से खफा थे और उन्हें इतनी जल्दी दोषमुक्ति नहीं देना चाहते थे. जब पांडव काशी पहुंचे तो शिव उनसे बचने के लिए कैलाश पर्वत आ पहुंचे. नारद से खबर पाकर पांडव भी उनका पीछा करते हुए उत्तराखण्ड आ पहुंचे. 

यहाँ पहुंचकर गुप्तकाशी में पांडवों ने देखा कि बुग्याल में एक झुण्ड में विचरते गाय-बैलों में से एक अन्य से भिन्न है. उनकी समझ में आ गया कि उन्हें चकमा देने के लिए शिव ने बैल का रूप धारण कर लिया है. पांवों द्वारा पहचाने जाने पर शिव ने वहां एक गड्ढा किया और जमीन में विलुप्त हो गए.  भगवान शिव यहाँ से केदारनाथ के बुग्यालों में जा पहुंचे. यहाँ भी बैल के रूप में विचरते शिव को पांडवों द्वारा पहचान लिया गया.

पांडव किसी भी हाल में प्रायश्चित करना चाहते थे. इसलिए भीम ने विराट रूप धारण कर अपने दोनों पैर दो पहाड़ी धारों पर टिका दिए. वहां विचरने वाले सभी बैल भीम के दो पैरों के बीच से आगे निकल गए. लेकिन महादेव नहीं निकले. अब पांडवों को यह पक्का हो गया कि शिव ही बैल के रूप में हैं.

यह जानकर भगवान शिव ने दलदली भूमि में अंतर्ध्यान होने की कोशिश की. उन्हें भीम द्वारा पकड़ने की कोशिश की गयी और उनकी पूँछ भीम के हाथ में आ गयी. बैल रूपी शिव का पृष्ठभाग वहीँ पर रह गया. जो यहाँ पर एक शिला के रूप में विराजमान हो गया.

इसके बाद आकाशवाणी हुई कि हे पांडवों!  मेरे पृष्ठ भाग की पूजा-अर्चना व अभिषेक से तुम्हें अपने पापों से मुक्ति मिलेगी. इसके बाद पांडवों ने यहां पर स्वयंभू लिंग की स्थापना कर मंदिर का निर्माण किया.  

1882 में केदारनाथ

पञ्चकेदार

मान्यता है कि बैल रूपी भगवान शिव के शरीर के विभिन्न हिस्से जिस-जिस जगह पर पुनः बाहर आये उन्हें पंच केदार माना गया. पंच केदार केदारनाथ, तुंगनाथ, रुद्रनाथ, मध्यमहेश्वर और कल्पेशवर के नाम से पहचाने जाते हैं.  महादेव के बैल रूप का शीर्ष हिस्सा नेपाल की राजधानी काठमांडू में प्रकट हुआ था. यहाँ महादेव के पशुपतिनाथ स्वरूप की पूजा की जाती है.  प्रथम केदार केदरानाथ में भगवान शिव के पृष्ठ भाग की, तुंगनाथ में भुजा, रुद्रनाथ में मुंह, मध्यमहेश्वर में नाभि और कल्पेशवर में जटाओं की पूजा-अर्चना की जाती है. यह सभी मंदिर 3500 मीटर से ज्यादा की ऊँचाई पर बसे हुए हैं.

इसे भी पढ़ें : उत्तराखण्ड में स्थित भगवान शिव के पंच केदार

मंदिर का स्वरूप

केदारनाथ मंदिर नगर शिखर युक्त कत्यूरी शैली में बना है. मन्दिर को तीन भागों में बांटा जा सकता है 1.गर्भ गृह , 2.मध्यभाग  3. सभा मण्डप. गर्भ गृह के मध्य में भगवान श्री केदारेश्वर जी का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग स्थित है जिसके अग्र भाग पर गणेश जी की आकृति और साथ ही माँ पार्वती का श्रीयंत्र विद्यमान है. ज्योतिर्लिंग पर प्राकृतिक यज्ञोपवीत और ज्योतिर्लिंग के पृष्ठ भाग पर प्राकृतिक स्फटिक माला को देखा जा सकता है. श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग में नव लिंगाकार विग्रह विद्यमान है इसलिए इसे नव लिंग केदार भी कहा जाता है.

केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के चारों ओर पत्थर के चार विशालकाय स्तंभ विद्यमान हैं, जिनको चारों वेदों का धोतक माना जाता है. इन स्तंभों पर मन्दिर की विशालकाय कमलनुमा छत टिकी हुई है. ज्योतिर्लिंग के पश्चिमी ओर एक अखंड दीपक है जो हजारों सालों से निरंतर प्रकाशमान है. इसकी देख और अखण्ड जलते रहने की जिम्मेदारी तीर्थ पुरोहितों की है. गर्भ गृह की दीवारों पर सुन्दर आकर्षक फूलों और कलाकृतियों को उकेरा गया है. गर्भ गृह में स्थित चारों विशालकाय खंभों के पीछे से स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान केदारेश्वर की परिक्रमा की जाती है. पूर्व काल में श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के चारों ओर सुन्दर तराशे गए पत्थरों से निर्मित ज्वेलरी बनाई गई थी. गर्भगृह की अटारी पर सोने का मुलम्मा चढ़ा है. गर्भगृह की छत चौकोर है.

बाहर सभा मंडप से होते हुए गर्भगृह में प्रवेश किया जाता है. सभागृह में प्रवेश करने के लिए तीन दरवाजे हैं, जिस दरवाजे से प्रवेश किया जाये उसी से बाहर भी आना होता है. गर्भगृह की दीवारें सीधी ऊपर की ओर जाती हैं, शिखर की ओर जाते हुए वे ज्यादा संकरी नहीं होती. शीर्ष पर पहुँचने से चार फुट पहले उन्हें भीतर की तरफ ढाला गया है. शीर्ष पर फलकों के ऊपर पत्थरों से ढंका लकड़ी का चौकोर छज्जा है. चोटी पर है पीतल का शिखर. गर्भगृह के अर्घा के चारों कोनों पर पत्थरों के चार मजबूत खम्भे हैं. गवाक्षों में आठ पुरुष प्रमाण कलात्मक मूर्तियाँ हैं.

भैरव मंदिर

मंदिर के पीछे आदि शंकराचार्य का समाधि स्थल है. जहां स्मारक भी बनाया गया है. मंदिर के पीछे पत्थर की दीवार पर कलश सुशोभित है.    

केदारनाथ केदारखण्ड के सभी मंदिरों में सबसे भव्य भी है. मंदिर का निर्माण विशाल पत्थरों को काट-तराश कर किया गया है. 

विधि-विधान

केदारनाथ के रावल (गुरु) महाराष्ट्र या कर्नाटक से होते हैं. ये लोग यहीं से हर साल यात्रा के लिए आते हैं. परंपरा के मुताबिक, केदारनाथ के रावल खुद पूजा नहीं करते, लेकिन इन्हीं के निर्देश पर पुजारी मंदिर में पूजा करते हैं.

केदारनाथ-मन्दिर के खोलने और बन्द करने का मुहूर्त निकाला जाता है, किन्तु यह सामान्यत: नवम्बर माह की 15 तारीख से पूर्व (वृश्चिक संक्रान्ति से दो दिन पूर्व) बन्द हो जाता है और छ: माह बाद अर्थात वैशाखी (13-14 अप्रैल) के बाद खुलता है. शीतकाल के लिए केदारनाथ की पंचमुखी प्रतिमा को 70 किमी की शोभायात्रा के साथ ऊखीमठ के ओंकारेश्वर मंदिर में लाया जाता हैं.

केदारनाथ का मन्दिर दर्शनार्थियों के लिए प्रात: 6:00 बजे खुलता है. दोपहर तीन से पाँच बजे तक विशेष पूजा होती है और उसके बाद मन्दिर विश्राम के लिए बन्द कर दिया जाता है. पुन: शाम 5 बजे जनता के दर्शन हेतु मन्दिर पुनः खोला जाता है. पाँच मुख वाली भगवान शिव की प्रतिमा का विधिवत श्रृंगार करके 7:30 बजे से 8:30 बजे तक नियमित आरती होती है. रात्रि 8:30 बजे केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मन्दिर बन्द कर दिया जाता है.  

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

कानून के दरवाजे पर : फ़्रेंज़ काफ़्का की कहानी

-अनुवाद : सुकेश साहनी कानून के द्वार पर रखवाला खड़ा है. उस देश का एक…

2 days ago

अमृता प्रीतम की कहानी : जंगली बूटी

अंगूरी, मेरे पड़ोसियों के पड़ोसियों के पड़ोसियों के घर, उनके बड़े ही पुराने नौकर की…

5 days ago

अंतिम प्यार : रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी

आर्ट स्कूल के प्रोफेसर मनमोहन बाबू घर पर बैठे मित्रों के साथ मनोरंजन कर रहे…

5 days ago

माँ का सिलबट्टे से प्रेम

स्त्री अपने घर के वृत्त में ही परिवर्तन के चाक पर घूमती रहती है. वह…

7 days ago

‘राजुला मालूशाही’ ख्वाबों में बनी एक प्रेम कहानी

कोक स्टूडियो में, कमला देवी, नेहा कक्कड़ और नितेश बिष्ट (हुड़का) की बंदगी में कुमाऊं…

1 week ago

भूत की चुटिया हाथ

लोगों के नौनिहाल स्कूल पढ़ने जाते और गब्दू गुएरों (ग्वालों) के साथ गुच्छी खेलने सामने…

1 week ago