किसी इलाके में रहने वाले लोग अपने कामकाज को वहां के पर्यावरण व परिवेश के हिसाब से न केवल निर्धारित करते है बल्कि मात्रा व गुणवत्ता की दृष्टि से उन्हें विकसित करने के प्रयत्न व प्रयास भी करते हैं. मानव समूह की यह गतिविधियां ही उस इलाके में एक विशेष सांस्कृतिक रूप का निर्माण करतीं हैं जिससे वहां निवास करने वाले समुदाय की एक विशिष्ट व पृथक पहचान बनती है. पर्यावरण के सजीव तत्वों में वहां का वनस्पति जगत और प्राणी जगत है जिसमें मानव अपने स्व भाव व्यवहार व गुण, जीवन पद्धति, संस्कार, आचरण पद्धति, रीति-रिवाज, पर्व-त्यौहार, धर्म-दर्शन और कला-कौशल से उस संस्कृति का निर्माण करता है जिसमें वायु,जमीन और जल का उपयोग निहित व स्वीकार्य होता है. पहाड़ की संस्कृति आदर भाव से विकसित संस्कृति का ऐसा नमूना रही है जिसने पर्यावरण के विविध घटकों की पूजा की. उसके सृष्टि कर्ता, पालन कर्ता और संहारकर्ता के परम सत्य को स्वीकार करते हुए जल, जमीन और वायु के निर्जीव तत्वों के उपयोग द्वारा वनस्पति जगत के सजीव तत्वों की महत्ता को स्वीकार कर अरण्य संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन किया. इसी ग्राम्य जीवन चक्र में जल सबसे महत्वपूर्ण था जो पहाड़ की संस्कृति और पर्यावरण के संबंधों को बहुत स्पस्ट रूप से प्रदर्शित करता रहा.
(Uttarakhand Water Management British Era)
ज्ञानी ध्यानी बताते हैं कि जल सम्बन्धी विधान का उल्लेख तीन हजार साल पुरानी मनु संहिता में किया गया था जिसमें जल को लोक सम्पदा-लोक सम्पत्ति कहा गया. इसकी देखभाल व देखरेख आम लोगों के द्वारा की जाती रही और जब भी इसका बेजा इस्तेमाल करने व प्रदूषित करने या इसके ढांचे को नुकसान पहुंचाने की कोशिश हुई तो जन समूह ने ही इसका विरोध किया. सदियों से पानी के उपयोग पर स्थानीय समुदाय का हक बना रहा. 1815 में पहाड़ में अंग्रेजों के आने के बाद उन्होंने पानी के उपयोग को राजस्व वृद्धि के उद्देश्य से बनाये अपने नियम कानूनों के अधीन लिया व प्रकृति के इस निःशुल्क उपहार को संरक्षित करने की नीति बनी.
ब्रिटिश राज लगने से पहले प्रकृति से मिले उपादानों के उपयोग और प्रबंध के लिए स्थानीय परम्पराएं और चले आ रहे रिवाज ही काफी थे. सदियों तक पहाड़ में पानी पर स्थानीय समुदायों का स्वामित्व व नियंत्रण रहा. पहाड़ में जल स्त्रोतों की कोई कमी न थी. मानसून पट्टी में होने से पर्याप्त बारिश होती थी. बारिश के पानी को एकत्र करने के अपने परंपरागत तरीके भी विकसित होते गए. यहाँ हिम मंडित पर्वत श्रृंखलाएं थीं, हिमनद थे जिनसे गर्मी के मौसम में हिमजल प्राप्त होता था. सरिताएं निकलतीं थीं, झरने बहते थे, कुछ चौमास के मौसम में ही फूटते थे तो कई बारहमासा बहते. पहाड़ ताल-तलैया, चाल-खाल, झीलों और जीवनदायिनी नदियों से समृद्ध रहा. पारम्परिक रूप से नौले, धारे, कुंड, नानखाव, चाल-खाल, झील-तालाब, सिमार-गजार, छीण-झरने, गूल और घट-घराट इत्यादि जल की संरक्षण प्रणाली के उपकरण थे तो जल से जुड़ी आस्थाएं धार्मिक क्रियाकलापों व कर्मकांड का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी थीं. पानी के स्त्रोतों को बनाये-बचाये रखने के लिए इनके निर्माण की कला का क्रमिक विकास भी होता रहा. इनकी वास्तुकला निर्माण के तरीके और जल स्त्रोतों को टिकाऊ और सुंदर बनाने के लिए स्थानीय सामग्री व शिल्प का अधिक प्रयोग होता था.
पहाड़ में छोटे-बड़े झरनों और शिलाओं से रिसते-चूते पानी को इकट्ठा कर जो छोटी तलैया बनाई जाती उसे ‘धान’ कहते. इसका पानी जानवरों को नहलाई-धुलाई के काम आता और साग-सब्जी, मसाले-तिलहन की क्यारी सींचने के लिए भी इससे टेक रहती. वहीं पहाड़ों में जहाँ तप्पड़, सेरे या घाटी वाला इलाका होता उनमें धारों के शीर्ष या रिज पर चट्टानों के बीच गहराई में जमा बारिश का पानी ‘खाल’ में जमा हो जाता. गर्मी के मौसम में खाल का यह पानी सिंचाई के काम आता. ऐसे ही पहाड़ के ऊँची जगहों पर शिला व चट्टान की दरारों व छेदों से जो पानी चूता रहता वह ‘चुपटौला’ कहलाता. पशु पक्षी भी इससे अपनी प्यास बुझाते. ऐसी समतल भूमि जहाँ साल भर पानी का कोई सुलभ स्त्रोत होता उससे ‘गूल’ निकाली जाती जो खेतों में सिंचाई के काम भी आती और इससे घट भी चलते. खेती की जमीन का ऐसा भाग जहाँ पानी का स्तर काफी नीचे गहरा होता और जिसकी वजह से वहां कीचड़ की लथपथ रहती ‘सिमार’ कहलाता जो काफी उपजाऊ भी होता.
पीने के पानी हेतु जमीन के भीतर रिसे जल का संचय नौलों में होता. इनको बनाने की परंपरागत कारीगरी ऐसी विशेष होती कि जमीन की सतह पर सामान्यतः वर्गाकार गड्ढ़े की रचना होती जो जमीन के तीन किनारों व ऊपर से बंद होता. चौथे हिस्से को खुला रखते जिस ओर से नीचे उतर कर वहां जमा पानी को भरने के लिए सीढियाँ बनायीं जातीं . नौलों के नजदीक बांज, सिलिंग, पीपल, पइयाँ, तिमिल, उतीस व आंवले के बोट रोपे जाते. जल के स्रोतों में विशेषकर नौलों में उकेरी जा रही वास्तु कला इन पर किया जा रहा भव्य अलंकरण इन्हें कलात्मक स्वरुप प्रदान करता. नौले सार्वजनिक संपत्ति होते व जल की सुलभ आपूर्ति के स्रोत होने के कारण उनकी साफ सफाई व स्वच्छता पर बहुत ध्यान दिया जाता. दूसरी तरफ, धारे में स्त्रोत से या भूगर्भ से पानी पाइप या नलीनुमा निकासी के द्वारा प्रवाहमान होता. सामान्यतः धारे के मुहं में सिंह या गाय के सिर की अनुकृति लगायी जाती. इनके साथ आस्था का वह सम्पुट जनमानस की भावनाओं में निहित था जिसमें स्थानीय देवी-देवता को जल की सुलभ आपूर्ति के लिए पूजा जाता उसका आभार व्यक्त किया जाता. इन सबसे मिल कर बनी जल से जुड़ी संस्कृति जिसमें अपने आसपास के प्राकृतिक जल चक्र के साथ अनावश्यक छेड़ -छाड़ नहीं की जाती.
जल स्त्रोतों को बनाये-बचाये रखना पहाड़ की संस्कृति में पर्यावरण के विभिन्न घटकों के बीच तालमेल के बेहतर व कारगर उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है. भूमि का उपयोग भी पर्यावरण चक्र के अनुरूप होता.निचले भागों को सिंचित भूमि या ‘तलाऊँ’, ऊपरी भागों की असिंचित भूमि ‘उपरौं’, दलदली भूमि को ‘सिमर’, बंजर भूमि को ‘बाँज’ व खेती योग्य तीखे ढलानों को ‘रेलों’ कहा जाता. जो भी उपलब्ध भूमि रहती उसमें अपने खेती बड़ी के कामों को उपलब्ध जल की मदद से निबटा पहाड़ी खेती के तरीके विकसित हुए. तब जमीन पर आबादी का घनत्व कम होने से भूमि की धारक क्षमता अधिक थी व अवलम्बन क्षेत्र में घास-पात, चारे व ईंधन हेतु जंगल से आवश्यक साधन सुलभता व इफरात से प्राप्त कर लिए जाते.
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जल जंगल और जमीन के इन रिश्तों के बीच अपने जीवन यापन व खुशहाली के लिए पहाड़ के रीतिरिवाज व कामकाज के ढंग खेती पशुपालन और परंपरागत शिल्प से प्रभावित थे. इसी परिवेश में उनकी आस्था के प्रतीक स्थानीय देवता और इष्ट देवता होते. हर सुख-दुःख में आपदा विपदा में भगवान का ही भरोसा रहता. उसी के नाम पर हाड़तोड़ परिश्रम होता. खेतीबाड़ी ही जीवन का आधार थी. संक्रांति और फसलचक्र का सीधा सम्बन्ध था, खेती बाड़ी की हर ताथ या व्यवस्था जो भले ही बीजों के अंकुरण की हो या तैयार फसलों की सलामती भूमिया जरूर पूजे जाते. उनके नाम अन्न की पहली भेंट होती, रोट भेट चढ़ते. जल के भी देवता होते. बारिश के तो इंद्रदेव सर्वमान्य हुए ही हर अंचल, इलाके के थान, देवाल में स्थानीय देबता भी पूजे जाते कि पर्याप्त जल बरसे, चौमास में खूब द्यो पड़े, तौड़ाट हो तो अनाज से गोठ भकार भरे रहें. ठाकुर जी दैंण रहें. पर्यावरण चक्र में बदलती ऋतुओं की संजेत रहती. सालभर छह ऋतुओं और बारह महीनों में किसी न किसी त्यौहार, उत्सव व पर्व की सारपतार पहाड़ की लोक संस्कृति की खासियत बनती.
लोकगाथाओं और लोकगीतों में जल जमीन और जंगल के रिश्तों की बात बड़े सीप से बड़े सरल भाव से कही दिखती. इनमें मानव व पर्यावरण के संबंधों की स्पष्ट झलक मिलती. पहाड़ की कठिन व जटिल भौगोलिक परिस्थितियों में खेती पाती की भूमि बहुत सिमित व बिखरी होती. आवत-जावत, चलने- फिरने, घर बाजार की दूरी के लिहाज से से पहाड़ विषम ही होते. महत्वपूर्ण बात यह कि इनमें जीवन चक्र संचरण हेतु अधिकांश गांवों, गांव समूहों, कस्बों और शहरों का विकास जल स्त्रोतों के समीप ही हुआ. यहाँ तक कि अल्मोड़ा शहर भी ऊंचाई पर ‘घोड़े की पीठ’ जैसे आकार की पर्वत श्रृंखला पर एक तरफ कोसी नदी और दूसरी तरफ सुयाल नदी क्षेत्र के मध्य बसा. कहा जाता है कि एक समय यहाँ तीन सौ पचास नौले थे. पहाड़ में पानी के मुख्य स्त्रोत नौले धारे कुंड सिमर-गजार व गूल के साथ खाल, तालाब और झील थे. इन स्त्रोतों से जल की प्राप्ति के पीछे स्थानीय रूप से विकसित मध्यवर्ती तकनीक थी जिनका आज भी उपयोग होता रहा है.
लम्बे समय तक पहाड़ अपनी विशेष जल प्रणाली को आरक्षित संवर्धित करता रहा. परंपरागत जल उपयोग के तरीकों के टिके होने के पीछे इसकी चिरजीवन्तता मुख्य रही. जब बसासत बसने लगीं तब पानी के उपयोग में राज्य का कोई हस्तक्षेप न था और नागरिकों के लिए जल उपलब्ध कराया जाना राज्य की जिम्मेदारी भी न थी. सिंचाई या पीने के पानी के लिए क्षेत्र विशेष में उपलब्ध पानी का सामुदायिक रूप से प्रबंधन होता था जिसमें लोग बागों की आवश्यकताओं को ध्यान रखा जाता था. जल को पवित्र व पूज्य माना जाता था ऐसे में जो भी जल संरचनाएं उपलब्ध थीं उनको साफ़ रखने पर बहुत जोर दिया जाता या उनकी देखरेख भी की जाती. स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों पर निवासियों का हक़ था और राज्य भी उनके इस हक़ को मान्यता प्रदान करता था. औपनिवेशिक शासन से पूर्व विकास और पर्यावरण को लेकर तीन विचारधाराएं प्रचलित थीं जिन्हें विकास आचार नीति, संरक्षण आचार नीति और संवर्धन आचार नीति कहा जा सकता है. प्रकृति दत्त साधनों को ले कर पहाड़ की संस्कृति संरक्षण और संवर्धन आचार नीति का सम्मिश्रण थी जिसके प्रभाव स्वरुप उसने पर्यावरण के साथ मधुर सम्बन्ध रख अपने आपको पर्यावरण का एक घटक माना न की पर्यावरण को अपने लिए अर्थात पर्यावरण को अपने उपभोग की वस्तु माना. इसीलिए उसके द्वारा पर्यावरण का उपयोग स्नेह व सम्मान के साथ किया गया.
अंग्रेजों के शासन से पहले जल को लोक संपत्ति माना गया और इसके उपयोग से जुड़े तौर तरीकों का नियमन लोक स्तर पर ही किये जाने के प्रमाण हैं. लोकस्तर पर ही पानी के उपयोग सम्बन्धी रीति रिवाज प्रचलित रहे.सामान्य रूप से ऊपर से आने वाली पानी की बहती धारा से से पीने का पानी लिया जाता तथा नीचे की ओर बह रहे पानी से नहाने-धोने व अन्य कार्य होते. जल स्त्रोतों को नुकसान पहुँचाने और पानी को दूषित करने पर लोग विरोध करते और गांव के बुजुर्ग और पधान सयाने इसके लिए दंड भी देते. पहाड़ों में भी सिंचाई वाली खेती का प्रचलन तलाऊँ और सेरे वाली कृषि भूमि पर रहा. पेय जल और खेतों की सिंचाई के साथ अनाज की पिसाई में पानी के इस्तेमाल पर कोई रोक टोक न थी. अंग्रेजों का शासन होते समय घट या घराटों के द्वारा ही अनाज की पिसाई होती थी. मौसम के अनुरूप पानी की उपलब्धता से इनका संचालन होता था. अनाज की पिसाई से घट के मालिक को आय मिलती थी जो साधारणतया पीसे गए अनाज का सोलहवां भाग होती थी.
अंग्रेजी राज्य से पहले का ग्रामीण जीवन स्थानीय परम्पराओं एवं रीति रिवाजों पर चलता था. भूमि के सन्दर्भ में न्यूनतम प्रशासन की मान्यता थी तो प्रकृति दत्त संसाधनों का उपयोग करने के साथ ही इनके स्वामित्व के साथ ही इनके प्रबंध का हक़ भी स्थानीय समुदाय रखते थे.यद्यपि राजा ही सभी प्रकृति दत्त संसाधनों के साथ जंगल और बंजर भूमि का स्वामी माना जाता रहा पर इन संसाधनों का उपभोग करने में राज्य की कोई विशिष्ट भूमिका नहीं रहती थी. पानी के साथ ही अन्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने और उसे प्रबंधित करने में स्थानिक प्रथाएं या स्थानीय परम्पराएं ही ध्यान में रखी जाती थीं.
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ग्रामीण जन जीवन के द्वारा पहले से चल रही परम्पराओं और प्रथाओं अनुसरण किया जाता था. अपनी बसासत के अवलम्बन क्षेत्र के जंगल या स्थानीय वन संसाधनों पर वहां निवास कर रहे निवासियों का अधिकार रहता था. पेयजल सिंचाई और पनचक्कियों में जो जल उपयोग में आता था उसका उपयोग करने की स्वतंत्रता स्थानीय निवासियों और समुदायों को मिलती थी. इसी क्रम में पानी का विविध कार्यों में उपयोग करने और जल के प्रबंधन सम्बन्धी कामों में निर्माण कार्यों, मरम्मत व टूट-फूट एवं रखरखाव के कामों के साथ ही पानी के वितरण और इससे सम्बंधित विवादों को सुलझाने में राज्य की निर्भरता नहीं थी. ऐसे सभी मुद्दों को स्थानीय समुदाय आपस में मिल बैठ कर सुलझा लेता था. इस प्रकार पानी के साथ ही प्रकृति से मिलने वाले संसाधन व उनके उपयोग से जुड़े सभी पक्ष स्थानीय समुदायों के सामाजिक जीवन और आधारभूत या सूक्ष्म पर्यावरण के अंग थे. पानी के साथ ही वन संसाधनों के उपयोग में जाति की विशेष भूमिका होती थी.
अंग्रेजों के शासन से पहले विकेन्द्रीकृत न्यायिक व्यवस्था प्रचलित थी. पूरे गांव के द्वारा एक समूह के रूप में राजा को राजस्व दिए जाने की परिपाटी सामान्यतः रही. संक्षेप में, जल तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग एवं प्रबंध हेतु स्थानीय परम्पराएं व प्रथाएं ही प्रचलित थीं. लेकिन जब अंग्रेजी राज आया तो शासन ने राज्य के प्राकृतिक संसाधनों पर अपना नियंत्रण लगा राज्य की सार्वभौमिकता का सिद्धांत आरोपित कर दिया. इस तरह औपनिवेशिक शासन से प्राकृतिक संसाधनों पर राज्य की संप्रभुता लागू हो गयी.इन्हें राजस्व प्राप्ति का जरिया बनाया गया. विकास के ऐसे प्रारूपों से सूक्ष्म व व्यापक दोनों ही स्तरों से जो हलचल हुई उसने संस्कृति में स्वाभाविक रूप से उसके परंपरागत क्रिया कलापों में परिवर्तन और परिवर्धन कर दिया.
प्रकृति से प्राप्त साधनों के उपयोग और इनके प्रबंध में ब्रिटिश सरकार द्वारा थोपी राज्य की संप्रभुता नीति ने जल,जंगल और जमीन के संबंधों में परिवर्तन कर डाले. औपनिवेशिक शासन से पहले राजा को प्राप्त होने वाले राजस्व के आधार पर खेती व बगैर खेती वाली जमीन और या फिर जंगल का निर्धारण नहीं हुआ था. यद्यपि राजा ही प्रकृति दत्त सभी संसाधनों का मालिक था पर उनका वाणिज्यिक उपयोग करने के संदर्भ में राज्य सरकार की कोई भूमिका न थी. अंग्रेजी राज ने प्राकृतिक साधनों पर राज्य की संप्रभुता की नीति को थोप दिया. जहाँ तक जल का उपभोग था तो वह पीने के साथ ही घरेलू उपयोग ,खेती -बड़ी और अनाज पीसने के लिए घट -घराटों में भी किया जाता था. ब्रिटिश व्यवस्था ने जल के उपयोग से जुड़े कई फेर-बदल कर दिए.
सन 1842 में जल से सम्बंधित ब्रिटिश राज का पहला हस्तक्षेप घराटों या पनचक्कियों की गणना से हुआ. अभी तक घट-घराट स्वामी की व्यक्तिगत संपत्ति होते थे जिसे चलाने हेतु वह जरूरत के हिसाब से जल का प्रयोग करने को स्वतंत्र होता था. अब घट चलाने के लिए अनुमति और पानी पर सरकार का अधिकार किया गया. इससे पहले पीने के पानी, घट-घराट चलाने और सिंचाई के लिए नहरों के निर्माण के लिए किसी अनुमति की जरूरत न थी. ब्रिटिश सरकार ने जल स्त्रोतों पर अपना नियंत्रण जमाया ,एक तरफ पीने के पानी पर जनता के अधिकार को बनाये रखा गया तो दूसरी और जल, वन व भूमि सम्बन्धी कानून बनाने की शुरुवात कर दी गयी. इस तरह एक और जल, जंगल व जमीन पर निजी अधिकार को नियंत्रित किया गया साथ ही जहाँ कहीं निजी अधिकार ख़त्म किये गए वहां प्रतिकर देने की व्यवस्था की गयी.
अंग्रेजों ने चले आ रहे भूमि सम्बन्धी सामुदायिक संपत्ति के अधिकार को व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार और हिस्सेदारी के रूप में बदला. यह ऐसा परिवर्तन था जिसमें भूमि का स्वामित्व जल के उपयोग के अधिकार के साथ दिया गया अर्थात अब भूमि के स्वामित्व से जल की सामुदायिक प्रबंध परंपरा जोड़ दी गयी. उन्नीसवीं सदी के अंत तक समस्त ग्रामों की सीमाएं तय कर खेती की सारी जमीन की पैमाइश कर दी गयी और इनके दस्तावेज-अभिलेख तैयार कर दिए गए. यह अभिलेख ही प्रकृति दत्त साधनों पर सरकारी नियंत्रण का आधार बने. इस तरह जल, जमीन और जंगल पैर जनता के सामुदायिक अधिकार ख़त्म कर उनको व्यक्तिगत अधिकार के ताने बाने में सूचीबद्ध कर दिया गया. ऐसा करते हुए ब्रिटिश राज ने अधिकार और करों के लिए अपना सम्बन्ध सीधे जनता की व्यक्तिगत इकाइयों से जोड़ दिया. पानी का उपभोग करने एवं इसके उपयोग पर नियंत्रण हुआ जिसके लिए सरकारी नियम बने.
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सरकार ने एक ओर उपलब्ध जमीन को नाप, बेनाप और जंगल की जमीन में विभाजित किया तो इसके साथ ही इनमें जो पानी के स्त्रोत थे उनको निजी, सामुदायिक और सरकारी के रूप में सूचीबद्ध कर दिया. इस तरह से पानी पर सबसे पहले सीधे-सीधे सरकारी हस्तक्षेप व नियंत्रण की शुरुआत हुई. इसके लिए गांवों में पानी के प्रयोग की आंचलिक या स्थानीय पद्धतियों व रीति रिवाजों से कोई छेड़ा-खानी नहीं की गयी अर्थात पेय जल व्यवस्था में कोई फेरबदल नहीं किया गया. इस पहले चरण में यदि पानी पर कर लगता तो इससे जन समूह असंतुष्ट होता इसलिए पहले- पहल पीने के पानी को कर से मुक्त ही रखा गया. ऐसे ही पानी पर परंपरागत अधिकारों को ले कर सीधे प्रभाव डालने वाला कानून भी नहीं बनाया गया पर पानी के जितने स्त्रोत थे उनको सूचीबद्ध कर दिया गया.पानी के अधिकारों को ही मान्यता दी गयी न की प्रबंध के लिए चली आ रही विधियों और प्रथाओं को. ग्रामीणों के पानी से संबंधित अधिकारों का अभिलेख “याददाश्त-हालात-गाँव” या “वाजिब-उल-अर्ज “के रूप में किया गया.
पानी से जुड़े अधिकार प्रदान करने की दशा से ही भूमि स्वामित्व सम्बन्धी हक़ सभी जातियों और वर्ण के लोगों को प्रदान किये गए. इससे जल संसाधनों को प्रबंधित करने से सम्बंधित सामुदायिक सहयोग के लिए भूमि सम्बन्धी नए अधिकार बने जो व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकारों के साथ संतुलित कर दिए गए. जल के प्रबंध की चली आ रही जो सामुदायिक मान्यताएं थीं उनको क़ानूनी मान्यता नहीं दी गयी. अब मुख्य उद्देश्य राजस्व बटोरना था जिसके लिए राज्य के द्वारा सख्ती की जाने लगी और आम खेतिहर भी इसकी लपेट में आ गया.
पहले-पहल पानी के परंपरागत अधिकार को सीधे-सीधे प्रभावित करने वाला कोई कानून नहीं बना. चालाकी यह रही कि जंगल और जमीन के लिए जो कानून बनाए गए उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से पानी के प्रबंधन को भी प्रभावित किया. जंगल और जमीन के प्रबंधन के लिए अब वन अधिनियम- 1865,भूमि अधिग्रहण कानून 1874 तथा नयाबाद और बंजर भूमि आवंटन कानून – 1893 के साथ भारतीय दंड संहिता राजस्व अधिनियम के द्वारा जल संसाधन को भी आगम प्राप्ति के दायरे में लाया गया. धीरे-धीरे जल से सम्बंधित अन्य कानून थोपे जाने शुरू हुए. इनमें इंडियन एविडेंस एक्ट – 1872, नार्थ इण्डिया कैनाल एंड ड्रेनेज एक्ट – 1873, इंडियन एसेस्मेंट एक्ट – 188, यू पी लैंड रेवेन्यू एक्ट – 1901, कैंटोनमेंट एक्ट – 1924, इंडियन फारेस्ट एक्ट – 1927, कुमाऊं फारेस्ट रूल्स – 1931 व यू पी विलेज पंचायत एक्ट – 1947 मुख्य थे.
ब्रिटिश सरकार ने सबसे पहले तो राजस्व के आगम को बढ़ाने के लिए भूमि बंदोबस्त किया जिसमें खेती की जमीन की माप ली गई, गांव की सीमाओं को निर्धारित किया गया और गांवों के रिकॉर्ड तैयार कर जल जंगल और जमीन पर नियंत्रण सूत्रपात कर दिया गया. अब संसाधनों पर राज्य का अधिकार था और साथ साथ ही आगम बढ़ने के लिए कर की वसूली भी तय कर दी गयी थी. इस प्रक्रिया में पहले पहल सरकार ने कर और आगम की वसूली के मुद्दों पर स्थानीय समूहों से बातचीत और सलाह मशविरा भी किया जिससे जनता का भरोसा जीता जा सके और जो भी विवाद हों वह आपसी रजामंदी से सुलझ जाएँ. अनुसूचित जिला एक्ट – 1874 पहाड़ की स्थानीय जातियों को भरोसे में लेने के तजुर्बे की तरह शुरू किया गया जिसमें इस इलाके के लिए खास तौर से सरकारी नियम बनाये जा सकें. हालांकि इसका मकसद भी अन्य इलाकों की तरह प्राकृतिक संसाधनों के नियंत्रण से राज्य का हस्तक्षेप बढाने का ही रहा.
जल के प्रबंध से सम्बंधित जिन अधिकारों को स्थानीय सामाजिक संस्थाएं जरुरी समझतीं थीं उन्हें ब्रिटिश सरकार ने क़ानूनी परिधि में शामिल नहीं किया. जो भी विवाद होते उन्हें राज्य द्वारा स्थापित न्यायिक संस्थाओं द्वारा सुलझाया जाता. ऐसे सभी विवाद हक़-हकूकों से संपन्न लोगों द्वारा तय प्रथाओं के द्वारा निबटाये जाते. इसका एक नियम यह भी था कि जो पहले से जल का उपयोग कर रहा है उसका अधिकार भी पहला होगा. जो बाद का उपभोक्ता है वह पानी का उपभोग इस रूप में कर सकता था कि इससे पहले उपभोक्ता के अधिकार प्रभावित न हों. इस प्रकार ऐसे केंद्रीयकृत विधि सिद्धांत बनाये गए जिनमें अधिकारों की प्राथमिकता रही थी .पहाड़ी इलाकों में पानी के प्रथम उपयोगकर्ता को प्राथमिकता देने के सिद्धांत को माना गया जबकि परंपरागत रूप से तटवर्ती इलाके में रहने वालों को जमीन के साथ साथ बहती हुई जल धारा के उपयोग का अधिकार मिला था. इस पद्धति से पानी के उपयोग से संबंधित पुरानी प्रथा और रिवाज पर सीधे कुठाराघात हुआ. पहाड़ में जो जल अधिकार थे उन पर विपरीत प्रभाव पड़ा. अंग्रेजों ने इसे व्यवहार में लाने के साथ क़ानूनी जामा भी पहनाया.
ब्रिटिश हुकूमत ने आगम में वृद्धि के लिए भूमि का बंदोबस्त कर ही दिया था तो अब साथ ही साथ उन्होंने जल के उपयोग के अधिकार को राजस्व का स्त्रोत भी बना डाला. अनाज की पिसाई में घट के मालिक को अन्न का एक निश्चित भाग पिसाई के रूप में मिलता था जो उसकी आय थी. सामान्यतः एक घट दिन भर में दो मन अनाज की पिसाई कर लेता था जिससे लगभग पांच सेर अनाज पिसाई के मूल्य के रूप में मिलता था. घट को स्थापित करने की लागत भी अधिक नहीं होती और इसके निर्माण में स्थानीय रूप से उपलब्ध लकड़ी, पत्थर व लोहे का प्रयोग होता. साल भर के भीतर ही निर्माण लागत वसूल हो भी जाती. जल के इस उपयोग और उससे मिलने वाली आय को देखते हुए बैकेट ने इस पर कर लगाने की पहल की. उसने मौसमी घराटों पर एक रुपया और वर्ष भर चलने वाले घटों से दो रुपया हर साल कर तय किया. ऐसे भी घट थे जो धर्मार्थ चलाये जाते थे अतः इन पर कोई कर नहीं लिया जाता. 1842 में बैकेट द्वारा इन्हें आगम प्राप्ति का जरिया बनाने के बाद इनको किराये में देने का रिवाज भी आरम्भ किया गया. बैकेट ने अपनी बीस वर्षीय भू व्यवस्था में पहली बार जल के व्यक्तिगत या सामूहिक स्वामित्व पर नियंत्रण किया. सदियों से लोग अनाज पीसने के लिए घट -घराट व सिंचाई के लिए नहरों का प्रयोग कर रहे थे अब ब्रिटिश सरकार ने इनसे आगम प्राप्त कर राजस्व बढ़ने की योजना बनाई. इसके लिए भूमि उपयोग के नए तरीकों का इस्तेमाल किया गया अर्थात अब जमीन को सिंचाई की सुविधा के आधार पर श्रेणी बद्ध कर दिया गया अब असिंचित जमीन की तुलना में सिंचित जमीन पर टैक्स की दर अधिक की गयी जिससे अधिक राजस्व प्राप्त हो सके.
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शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 के अंतर्गत ‘कुमाऊं वाटर रूल्स, 1917’ बना. जल अधिकारों और जल प्रशासन में सरकार के नियंत्रण सम्बन्धी जिन प्रावधानों को शामिल किया गया उनका आधार 1874 का भूमि अधिग्रहण कानून बनाया गया. इसके अंतर्गत जैसे-जैसे बंजर भूमि को अनुदान दिया गया तो वैसे-वैसे ही अधिकांश बेनाप जमीन नाप जमीन में बढ़ती चली गयी. सरकार अब क़ानूनी रूप से यह निश्चित कर ले रही थी कि जल से मिलने वाली राजस्व की राशि बढ़े व उसके आगम में वृद्धि हो. इसलिए घाट-घराट को भी अपने नियंत्रण में लेने के लिए उसने कुछ नियम बनाये. इनको किराये पर देने की शुरुवात तो सन 1842 से ही शुरू कर दी गयी थी. पहाड़ में जंगल से अधिक आगम प्राप्त होता था और जल संसाधन से बहुत कम इसलिए सरकार ने जल के उपयोग और विकास कार्यों में निजी उद्यमियों को प्रोत्साहन देने और परंपरागत अधिकारों के निजी कानूनों को सरकारी मान्यता देने की रणनीति पर अमल किया.
सन 1874 के अनुसूचित जिला कानून के तहत पहली बार घटों के नियंत्रण से सम्बंधित नियम सन 1917 में बनाये गए. सन 1917 में पहाड़ के सभी जल संसाधनों पर राज्य की सम्प्रभुता की घोषणा कर दी गयी जिसके नियमों के हिसाब से अब घट या घराटों व सिंचाई नहरों के निर्माण के लिए स्थानीय राजस्व अधिकारियों की अनुमति लेना जरूरी हो गया था. पीने के पानी को छोड़ कर सिंचाई की गूल और घट में लगने वाला पानी सरकार के नियंत्रण में ले लिया गया. ऐसे भी नियम बने कि अगर घट से गूल का पानी सिंचाई के लिए कम पड़ जाय तो घट को बंद भी किया जा सकता है. पानी से जुड़े सभी विवाद जिनमें गैर कानूनी घटों पर कर लगाना व जुरमाना वसूलना भी अब स्थानीय राजस्व अधिकारी के द्वारा किया जाना तय हुआ. गूल और घट के निर्माण की अनुमति भी इनसे ही मिलती. सन 1930 में इन नियमों में सुधार किया गया. अब किसी व्यक्ति, समुदाय या व्यक्तियों के समूह अथवा संस्थाओं के द्वारा उपभोग किये जा रहे किसी भी प्रकार के जल पर राज्य का अधिकार हो गया. कुमाऊं वाटर रूल्स के जरिये समुदायों के मान्यता प्राप्त परंपरागत अधिकारों को कानून के अधीन लाया गया इसमें जितने भी समानांतर संसाधन थे उनके उपयोग करने से संबंधित मौजूदा परंपरागत अधिकारों को भी भी मान्यता दे दी गयी. यदि किसी भी तरह का विवाद हो तो राज्य के अधिकार को ही प्रभावी माने जाने की प्राथमिकता भी तय की गयी.
पहाड़ में पानी के उपयोग की परम्पराओं में राज्य ने हस्तक्षेप कर इसे कानून का भाग बना दिया. अभी तक जल का उपयोग परंपरानुसार कई उपयोगों में किया जाता रहा था पर अब वन, कृषि व भूमि के लिए इसके प्रयोग के अलग-अलग नियम बना दिए गए. यह स्पस्ट कर दिया गया कि जंगलों में परंपरागत अधिकारों का प्रशासन भूमि और जल सम्बन्धी पारम्परिक अधिकारों से अलग ही होगा और ये सभी तीनों पारिवारिक कानून या सामाजिक कानून से अलग देखे जायेंगे. अब सरकार ने चले आ रहे या पारम्परिक अधिकारों को कर्तव्यों से अलग कर दिया. अब यह लोगों की जिम्मेदारी थी कि वह इस नयी व्यवस्था का पालन करें. संसाधनों के नियंत्रण में स्थानीय प्रशासन की शक्तियां कम कर दी गई थी और नए कानून बना दिए गए. पानी के प्रयोग से जुड़ी सभी गतिविधियों जैसे निर्माण, रखरखाव और जल वितरण के साथ साथ ही विवादों की सुनवाई, उनका समाधान, कानून के उल्लंघन में अपराध तय करना व उसके लिए दिया दंड इस घेरे में लाये गए.
कुमाऊं वाटर रूल्स , 1917 को पुनः सन 1930 में सुधारा गया. इसमें पेयजल की व्यवस्था यथावत रही. सिंचाई के लिए नहरों व गूलों को बनाया जा सकता था जिसके लिए राजस्व अधिकारियों की अनुमति ली जानी जरूरी थी. यह अनुमति तब ही मिलती जब तीसरे किसी पक्ष के जल सम्बन्धी उपयोग के अधिकार को किसी तरह से हानि न हो. सिंचाई की गूल के लिए यह संशोधन किया गया कि अगर यह दूसरे व्यक्ति की भूमि से हो कर जाती है तो इसके लिए अदालत की पूर्व स्वीकृति ली जाये. ऐसी गूल के बनने पर भी रोक लगनी तय हुई जो किसी सड़क या लोक संपत्ति को नुकसान पहुंचा रही हों तथा जिले के अभियंता ,जिला परिषद् के अध्यक्ष और प्रभागीय वनाधिकारी को यह अधिकार दिए गए कि वह ऐसी गूलों व नहरों के बनने पर रोक लगाएं. घराटों की गूल के लिए नए नियम बने. इन संशोधनों से 1930 के कुमाऊं वाटर रूल्स में सिंचाई और घट घराटों की गूल के नियम भिन्न कर दिए गए. जल कानून की यह खासियत रही कि जल से सम्बंधित किसी मामले या विवाद के होने पर अन्य अदालतें और अधिकारी इसका संज्ञान नहीं ले सकते थे. जल से सम्बन्धी कोई भी याचिका या अर्जी केवल इसी कानून के अधीन लायी जानी तय हुई यदि सिंचाई कार्य में किसी घट से पानी की कमी देखी जा रही है तो जिलाधिकारी उसे बंद करने का आदेश दे सकता था. वह घट के मालिक को उचित मुआवजा भी दे सकता था तथा घट को किराये पर देने या उसे बंद करने या अनुमति के बिना बने घट को ध्वस्त करने का भी अधिकार रखता था. घट की गूलों और सिंचाई की नहरों से सम्बंधित विवादों को सुलझाने के लिए राजस्व अधिकारियों का एक फोरम भी बनाया गया. किसी भी न्यायिक विवाद को सुलझा लेने के लिए कम से कम तीन साल की अवधि तय की गयी. वाद तय करने के साथ ही जिला अधिकारी द्वारा लिए निर्णय के खिलाफ कमिश्नर के दफ्तर में अपील करने की भी व्यवस्था की गयी. स्थानीय निकाय जल स्त्रोतों के संरक्षण और इन्हें प्रदुषण से मुक्त रखने के भी नियम बने.
जल विवादों का नए नियमों में कोई समाधान नहीं किया गया. जल अब राजस्व की प्राप्ति व आगम की प्राप्ति के स्त्रोत के रूप में देखा गया जिससे जनसमूह के परंपरागत अधिकार पर रोक लगी. इसका सबसे बुरा असर यह हुआ कि लोग जल, जमीन और जंगल के प्रबंध की परंपरागत शैली और जल स्त्रोतों के संरक्षण के शिल्प को बनाये और बचाये रखने के प्रति उदासीन होने लगे. संसाधनों को संरक्षित रखने के लिए गांवों और उनमें निवास कर रहे समुदायों के बीच एक सौहार्दपूर्ण रिश्ता था वह भी नए नियम कानूनों की चपेट में विवादों से भरने लगा. ऐसे असमंजस उपजे जिनके पीछे संस्कृति में किये जाने वाले बदलाव व छेड़ -छाड़ मुख्य थी जिससे संरक्षण और संवर्धन के परंपरागत स्वाभाव शिथिल होते चले गए.
(Uttarakhand Water Management British Era)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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