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हिंदी में डी.लिट. की उपाधि प्राप्त करने वाले पहले भारतीय ‘डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल’

उत्तराखण्ड में साहित्य, ज्योतिष और दर्शन की परम्परा प्राचीन रही है. उत्तर वैदिक काल में इस अंचल में भारद्वाज आश्रम, कण्वाश्रम, बदरीकाश्रम और शुक्राश्रम जैसे सिद्धपीठों से वेद-वेदागों का पठन-पाठन कार्य होता रहा. अनुश्रुति और मान्यताओं के अनुसार उत्तराखण्ड के इन्हीं आश्रमों में संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों तथा निगमागमों के संग्रह सम्पादन का कार्य सम्पन्न हुआ था.
(Pitambar Dutt Barthwal Biography)

आंग्ल युग में भी उत्तराखण्ड के कई विद्वानों ने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी और गढ़वाली में महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल इनमें एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी, दर्शन और गढ़वाली में एक साथ कार्य करते हुये भारतीय साहित्य में एक कीर्तिमान स्थापित किया है. इस उपलब्धि के बाद भी पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल का नाम हिन्दी साहित्य में उपेक्षित और गुमनामी में खोकर रह गया है.

हिन्दी साहित्य के युग-प्रवर्तक पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल का जन्म 3 दिसम्बर 1902 ई. को पाली (लैन्सडाउन) में एक कर्मकांडी ब्राह्मण के घर पर हुआ था. इनके पिता गौरी दत्त बड़थ्वाल प्रख्यात ज्योतिष और माता धर्मपरायण एवं सत्यवादी थी. बाल्यकाल में ही पिता का साया उठ जाने के बाद इनके ताऊ मणिराम जी ने इनकी देखभाल की. कर्मकांडी संस्कारों के बीच पले पीताम्बर बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि, प्रतिभा सम्पन्न और अन्यन्त मेघावी थे. इसके फलस्वरूप ही इन्होंने, अमर कोष, हितोपदेश आदि के श्लोकों को कंठाग्र कर लिया था.

प्रारम्भिक शिक्षा घर पर करने के उपरान्त पीताम्बर दत्त ने जुनियर हाई स्कूल श्रीनगर (गढ़वाल) से किया. इसके पश्चात् शिक्षा के लिये लखनऊ जाकर इन्होंने 920 ई. में कालीचरण हाई स्कूल से सम्मान सहित क लेकर मैट्रिक शिक्षा उत्तीर्ण की. इसी प्रवास में उनका परिचय हिन्दी के ख्याति प्राप्त व्यक्ति श्यामसुन्दर दास जी से हुआ जो उन्हीं के हैडमास्टर थे.

बाद में यही परिचय साहित्यिक सहयोग में परिवर्तित हो गया था. छात्रवृत्ति के सहयोग से इन्होंने पुनः 1922 में कानपुर से एफ.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की. कुछ समय अस्वस्थ रहने के कारण इनकी शिक्षा में व्यवधान पड़ा. तत्पश्चात् 1926 ई. में इन्होंने बनारस से बी.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की. घोर आर्थिक संकटों के बीच पढ़ते हुये इन्होंने श्याम सुन्दर दास, जो इस समय बनारस में हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष हो गये थे, के सहयोग से एम.ए. हिन्दी में प्रवेश पाया. विलक्षण प्रतिभा के फलस्वरूप 1928 ई. में इन्होंने एम.ए. परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की. इस परीक्षा में उनके द्वारा लिखित छायावाद पर निबन्ध सर्वाधिक चर्चित हुआ. श्याम सुन्दर दास स्वयं इसे प्रकाशित कराना चाहते थे. किन्तु धन उपलब्ध न होने के कारण यह सम्भव नहीं हो सका. 1929 ई. में इन्होंने बनारस से ही कानून परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु साहित्य साधना की ओर उन्मुख पीताम्बर इसे (कानून) पेशा नहीं बना सके.

उच्च शिक्षा ग्रहण के पश्चात् लगातार कुछ वर्षों तक पीताम्बर नौकरी के लिये दर-दर भटकते हुये इन्होंने 140 रुपये प्रतिमाह पर श्याम सुन्दर जी के साथ शोध कार्य प्रारम्भ किया. 1930 में इन्हें इसी विभाग में प्रवक्ता पद पर नौकरी मिल गई. अध्यापन कार्य के बाद इन्हें जो समय मिलता उसका उपयोग इन्होंने शोध कार्य में लगाया. इनकी अध्ययनशीलता को देखकर ही काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने इन्हें अपने शोध विभाग का संचालक नियुक्त किया. इस अवधि में बड़थ्वाल ने सैकड़ों दुर्लभ शोध ग्रन्थों (पांडुलिपियों) का पता लगाकर उनकी परिचय तालिकायें बनाई. 3 वर्ष के कठोर परिश्रम एवं अनवरत साहित्य साधना के फलस्वरूप 1931 ई. में इन्होंने अपना शोध ग्रन्थ ‘दि निर्गुण स्कूल आफ हिन्दी पोयट्री’ (हिन्दी काव्य में निर्गुणवाद) बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया. इनके शोध ग्रन्थ के परीक्षक थे डॉ. टी. ग्राहम वेली (आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के हिन्दी-उर्दू विभागाध्यक्ष), प्रो. रामचन्द्र रानाडे (प्रयाग विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यक्ष) तथा डॉ. श्याम सुन्दर दास.

प्रो. बेली ने राय व्यक्त की कि यह शोध कार्य पी.एच.डी. डिग्री के लिये उपयुक्त है. इस पर बड़थ्वाल ने इसे पुनः वापस लेकर कुछ संशोधों के साथ इसे दुबारा परीक्षण के लिये प्रस्तुत किया. इस बार परीक्षकों ने इसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुये उनके शोध प्रबन्ध पर उन्हें डी. लिट (डाक्टर्स आफ लिटरेचर्स) की उपाधि से सम्मानित किया. 1933 के दीक्षान्त समारोह में उन्हें यह उपाधि प्रदान की गई. डॉ. पीताम्बर दत्त बडथ्वाल को हिन्दी साहित्य में डी. लिट. की उपाधि मिलना भारत के साहित्य जगत में एक उल्लेखनीय घटना थी. इस पदवी को प्राप्त करने वाले वे प्रथम भारतीय हो गये थे. इस गौरव को प्राप्त करने के बाद इनकी गणना देश के ख्याति प्राप्त विद्वानों में होने लगी थी.
(Pitambar Dutt Barthwal Biography)

1937 में डॉ. पीताम्बर दत्त बडथ्वाल को हिन्दी साहित्य सम्मेलन, शिमला में उनकी साहित्य शाखा में निबन्ध पाठ के लिये आमंत्रित किया गया. इसके पश्चात् 1940 ई. में तिरूपति (आन्ध्र प्रदेश) में आयोजित ओरियण्टल कॉन्फ्रेंस (प्राच्य विद्या सम्मेलन) में इन्हें हिन्दी विभाग का सभापति मनोनीत किया गया. इस मंच से इन्होंने पहली बार हिन्दी सन्त साहित्य की निरंजनी धारा का मौलिक विश्लेषण किया. इस तरह अनेक राष्ट्रीय संगोष्ठियों में पीताम्बर ने गवेषणापूर्ण निबन्धों पर व्याख्यान दिये. अध्यापन क्षेत्र में भी इन्होंने हिन्दी साहित्य के क्रमिक विकास और उसके गूढ़ दार्शनिक पक्षों पर छात्रों को प्रभावपूर्ण शिक्षा दी. 1938 ई. में वेतन विसंगतियों के विरोध में बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय को छोड़कर पीताम्बर बड़थ्वाल लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में प्रवक्ता हो गये. बी.एच.यू. में कुलपति मदन मोहन मालवीय ने जब उन्हें अन्य विषयों के समकक्ष वेतनमान देने से इन्कार किया था. तब उन्होंने कहा था कि अन्य विषयों के डी. लिट. के समकक्ष मुझे वेतन न दिये जाने का मुझे एक ही कारण दिखायी देता है और वह यह है मेरा हिन्दी में स्नातक होना. इस कथन से मालवीय तिलमिला उठे थे.

निरन्तर अध्ययन तथा भीतर बाहर के आघातों ने उन्हें रोगी बना दिया था. फलस्वरूप लखनऊ छोड़ कर वे घर चले आये, इस तरह लम्बी रूग्ण अवस्था के बीच 24 जुलाई 1944 ई. को उनका पाली गाँव में देहान्त हो गया.

डॉ. बड़थ्वाल की प्रतिभा बहुमुखी थी. उन्होंने पौड़ी लैन्सडाउन, देहरादून, मसूरी तथा कानपुर तक सभा संगोष्ठियों में व्याख्यान देकर श्रुत परम्परा को गद्य-पद्य में लिपिबद्ध करने का न सिर्फ आह्वान किया वरन इसके लिये प्रयास भी किया. उन्होंने हिन्दी अंग्रेजी में 70 से अधिक शोधपूर्ण निबंध लिखे. इनकी विषय वस्तु मध्यकालीन सन्त कवियों के मूल्यांकन से लेकर महात्मा गाँधी और छायावाद के अध्ययन तक व्याप्त है. इसके अतिरिक्त इन्होंने कठिन परिश्रम से गोरखनाथ से सम्बन्धित वाणियों का सम्पादन “गोरखवानी” के नाम से किया है. यह ग्रन्थ हिन्दी साहित्य की अद्वितीय कृति के रूप में देखा जाता है.

सन्त साहित्य के प्रेरक व्यक्तित्व पीताम्बर बड़थ्वाल ने हिन्दी साहित्य की प्रत्येक विधा में लिखा. इसके साथ ही उन्होंने नाथ और सिद्धों के साहित्य का गम्भीर अनुशीलता भी किया. इसके अतिरिक्त उन्होंने श्याम सुन्दर जी के सहयोग से गोस्वामी तुलसीदास तथा ‘रूपक रहस्य’ का सम्पादन किया. उनकी अन्य प्रमुख प्रकाशित पुस्तकों के विवरण इस प्रकार है. हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास, “कबीर और उनकी कृति”, “युग प्रवर्तक रामानन्द’ ‘हिन्दी काव्य की योग धारा’ “डॉ. बड़थ्वाल के श्रेष्ठ निबन्ध” (सम्पादक डॉ. चातक) ये रचनाएं डॉ. बड़थ्वाल की बौद्धिकता और उनके दार्शनिक चिन्तन का परिचय देती हैं.

डॉ. पीताम्बर एक कवि और कहानीकार भी रहे हैं. 1918 में दुगड्डा से प्रकाशित “पुरूषार्थ” मासिक पत्र में उनकी तीन कवितायें “सुशील,” “कपट और विकट”, तथा “माधवी” प्रकाशित हुई थी. 1922 तक वे निरन्तर इस पत्र से जुड़े रहे. एक कवि केरूप में डॉ. विनय डब्राल ने उन्हें नई पहचान दी है. इनकी कवितायें मुख्यतः शांतरस और वीर रस से परिपूर्ण रही हैं. इनकी रचनायें “अम्बर” उपनाम से “पुरुषार्थ” में 1917 से 1923 तक प्रकाशित होती रही है जो कि राष्ट्र-प्रेम से ओत-प्रोत थी.

डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल गढ़वाली साहित्य के मर्मज्ञ भी थे. उन्होंने पवाड़ों (वीर गाथायें) तन्त्र मन्त्र तथा गढ़वाली लोक साहित्य का अध्ययन और अनुशीलन किया था. उन्होंने भड़वाला राणा, रावत (वीर गाथाओं) का संग्रह भी तैयार किया था, किन्तु यह प्रकाशित नहीं हो सका. इसके अतिरिक्त शान्तिग्राम वैष्णव के गढ़वाली भाषा के पवाणे तथा कहावतों का इन्होंने विश्लेषणात्मक पूर्ण सम्पादन भी किया. 1932 में पौड़ी में स्थापित गढ़वाली साहित्य के स्थाई अध्यक्ष पर रहते हुये उन्होंने गढ़वाली साहित्य की दुर्लभ पाण्डुलिपियों का संकलन किया. इसी अवधि में इन्होंने कुछ गढ़वाली बोली में भी नाटक लिखे.

डॉ. बड़थ्वाल ने अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के अतिरिक्त “मिस्टिसिज्म इन हिन्दी पोयट्री”, “मिस्टिसिज्म इन कबीरा” तथा ‘मार्डन हिन्दी पोयट्री’ आदि रचनायें लिखी हैं. अपने विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने कानपुर में पर्वतीय अंचल के प्रवासी नवयुवकों में साहित्यिक जागृति उत्पन्न करने के लिये अंग्रेजी पत्रिका “हिलमैन” का भी सम्पादन किया.
(Pitambar Dutt Barthwal Biography)

डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल की साहित्य सेवा का मूल्यांकन करते हुये महामहोपाध्याय पं.परमेश्वरानन्द ने लिखा है कि डॉ. बड़थ्वाल जी के देहान्त से साधारणतयाः हिन्दी साहित्य जगत को और विशेषतया गढ़वाल को भारी ठेस लगी है. डॉ. सम्पूर्णनन्द ने उनकी मृत्यु पर अपने विचार प्रकट करते हुये लिखा था कि डॉ. बड़थ्वाल की मृत्यु से हिन्दी संसार को बड़ी क्षति हुई है. उन्होंने हमारे वांगमय के एक विशेष क्षेत्र को जिसका सम्बन्ध आध्यात्मिक रचनाओं से है, अपने अध्ययन का विषय बनाया था. इस दिशा में उन्होंने जो कार्य किया उसका आदर विद्वत समाज में होगा. यदि आयु ने धोखा न दिया होता तो वह गम्भीर रचनाओं का और भी सृजन करते.

स्व. डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल को याद करने और उन्हें पुण्य तिथि पर श्रद्धांजली देने की सच्ची-सार्थकता तब ही है, जब हम उनकी दुर्लभ अप्रकाशित रचनाओं का प्रकाशन कर हिन्दी प्रेमियों को उपलब्ध करा सके. इसके अभाव में उनकी अप्रकाशित सामग्री को तथाकथित साहित्य प्रेमी चोरी छिपे प्रकाशित कर मिथ्याभिमान में जी रहे हैं.
(Pitambar Dutt Barthwal Biography)

डॉ. योगेश धस्माना

डॉ. योगेश धस्माना का यह लेख पुरवासी पत्रिका के सोलहवें अंक से साभार लिया गया है.

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