प्रो. मृगेश पाण्डे

विकास के साये में हमारी लोक थाती

विकास के साथ उपज रहे विनाश के खतरों से आगाह करते हुए यह चेतावनी बार बार दी जाती रही है कि स्थानीय संस्कृति लगातार अवमूल्यित हो रही, बरबाद हो चुकी है. इन्हें  बनाये बचाये रखने के प्रयास कमजोर पड़ रहे हैं. पेड़ पौधों और जीव जंतुओं की अनेक प्रजातियां धीरे धीरे सिमटती हुई खत्म होने के कगार पर हैं. उष्ण कटिबंधीय जंगल और पारिस्थितिकीय तंत्र समाप्त होते जा रहे हैं. फ़्लोरा-फोना संकट में है और हम ये भली भांति समझते हैं कि इन्हीं प्रकृति दत्त संसाधनों पर मनुष्य की आर्थिक, कृषि तथा स्वास्थ्य संबंधी गतिविधियां निर्भर हैं. सबसे बड़ी बात तो यह भी ध्यान में रखनी है कि स्थानीय निवासी ही दुनिया के 99 प्रतिशत आनुवांशिक संसाधनों के रखवाले हैं तथा सांस्कृतिक और जैव विविधता के बीच एक महत्वपूर्ण विशिष्ट संबंध विद्यमान है. Uttarakhand Tradition

लोक जीवविज्ञान के संरक्षण की योजना बनाते हुए बार-बार निम्न प्राथमिकताएं महत्वपूर्ण मान रेखांकित की जाती रहीं हैं. जैसे कि सबसे पहले तो विकास सहायता के समुचित भाग को लोक जीव विज्ञान को सूचीबद्ध करने, इसके संरक्षण एवम् प्रबंधन के प्रयासों के लिए निर्धारित करना जरूरी है. फिर स्वदेशी जानकारी रखने वाले विशेषज्ञों और लोकथात के पहरुओं की जानकारी जुटाई जानी जरुरी समझी गयी. प्रकृति दत्त साधनों के उपयोग में उनकी भूमिका को सूचीबद्ध किया जाना जरुरी समझा गया. ये लोक थात को सहेज कर रखने वाले चितेरे माने गए. तभी इन्हें लोक परंपराओं के रक्षक की भूमिका भी दी गयी. पर्यावरण और पारिस्थितिकी को प्रभावित करने वाले हर आयोजन एवम् कार्यक्रम में इनसे सलाह मशविरा कर चलना उस इलाके के अबूझ रहस्यों की परख में सहायक होता. यह बताते जमीन की खूबी, पेड़-पौंधों, कीट-पतंगों, चिड़िया-जानवर सबकी गतिविधियों को समझने जानने में मददगार बनते. फिर उन श्रृंखलाओं व कड़ियों को भी जान लेना जरुरी माना गया जो सांस्कृतिक तथा भाषा  बोली की विशेषता बनाये बचाये रखने के साथ अपनी पहचान, चलन और तमाम खूबियों के साथ प्रचलन में रहें तो गुणात्मक स्तर पर विकास को समृद्ध कर देतीं हैं. ऐसी सभी कोशिशें भी जरुरी थीं जिससे अंचल विशेष की विशिष्ट छाप सबल रहे.

अब यह जानना भी जरुरी है कि स्थानीय व्यक्तियों की स्थानिक विषेशताओं की जो भी सरल सहज़ जानकारी है उससे जैविक संसाधनों का कैसा व किस प्रकार प्रयोग किया जा रहा. उनके बौद्धिक ज्ञान तथा जैविक संसाधनों का  प्रयोग होने पर क्या उन्हें इसका समुचित फायदा मिल रहा? क्या ऐसे तरीके प्रणाली व परिपाटी विकसित हो पायी है जिसके अंतर्गत स्थानीय व्यक्ति अथवा वहां के समुदाय  द्वारा जिन अन्तर्जात बातों, तरीकों ओर तरीकों से सबको उपयोगिता मिल रही हो वह प्रतिफल के रूप में कुछ प्रोत्साहन या पुरस्कार प्राप्त कर भी पा रहे हैं या नहीं. कहीं ऐसा तो नहीं कि इस ज्ञान, तरीके व पद्धति का फायदा कोई और उठा रहा हो और लोक जानकारी का असली स्तोत्र शोषण का शिकार बनते जा रहे  हों. अगर ऐसा है तो इसकी क्षतिपूर्ति के लिए क्या तरीके विकसित किये गए. प्रश्न यह भी है कि समूचे लोक जीव विज्ञान के द्वारा जो लाभ प्राप्त होते रहे हैं जिनसे लोक कल्याण की प्राप्ति होती है, उनके समुचित क्रियान्वयन के लिए शैक्षिक कार्यक्रम बनाये जाने की कोई पहल की  भी गयी या इन्हें उपेक्षित छोड़ दिया गया अंचल के व्यक्ति, परिवार, समूह के  ज्ञान,  विचार,  तरीके, पद्धति -प्रणाली को बनाये बचाये रखने की क्या दशा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि  एक क्रम के बाद, एकअवस्था के गुजरने के बाद यह सिलसिला ही समाप्त हो जा रहा. इस ह्रास को रोकने की  पहल लगातार की जा रही है या माहौल में उदासीनता दिखाई देती है.

जीवन चर्या व स्वास्थ्य को ले कर परंपरागत चिकित्सा का ज्ञान, विधियां व  पद्यतियां लोक में प्रचलित रहीं हैं जिन्हें समय समय पर स्थानीय समुदाय के स्वास्थ्य के लिए उपयोगी भी माना जाता रहा. क्या उन्हें सभी चिकित्सा कार्यक्रमों में सम्मिलित किया जाता है या वह एकांगी छिटकी अलग थलग रह अपना सीमित योगदान दे पा रहीं. मात्र रूढ़ि की तरह मानी जा रही या अपने मूल स्वरुप से हट कर प्रभाव  हीन  हो गईं. और धीरे-धीरे प्रचलन से बाहर भी होती रहीं. स्थानीय संसाधनों के प्रबंध व समेकित उपयोग से सम्बंधित सूचनाओं का स्थानीय समुदाय, खेतिहरों व शिल्पियों  के बीच आदान-प्रदान हो पाया क्या? यदि नहीं तो ऐसी उपेक्षा क्यों होती रही. क्या इसके कारण जानने कि कोई कोशिश की भी गयी या नहीं? 

विकास के क्रम में स्थानिक तत्व, घटक एवं कारक कुछ आंचलिक विशिष्टताओं को जन्म देते हैं जिनके पीछे लोक जैविक व लोक वानस्पतिक स्पर्श निहित हैं. एक इलाका विशेष में रहने वाले लोग अपनी दैनिक गतिविधियों को उस स्थान के पर्यावरण को देखते हुए तय भी करते हैं और विकसित करने में अपने स्तर की छोटी-बड़ी भूमिका भी निभाते  हैं. इन गतिविधियों से ही उस इलाके की एक विशिष्ट सांस्कृतिक संरचना बनती  है जो उस इलाके में रहने वाले समुदाय या समाज की विशेष पहचान बन जाती  है. मध्य हिमालय में उत्तराखंड में अपने पर्यावरण से मित्रता, सदियों से संचित व विकसित परम्पराएं, रीतिरिवाज एवं मान्यताएं एक विशिष्ट लोकथात के प्रारूप को प्रस्तुत  करती रही हैं. अपने पर्यावरण के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण ने यहाँ लोगों में प्रकृति को सृष्टिकर्ता, पालनहर्ता व संहारकर्ता के रूप में स्वीकार करने के भाव  भरे.

इस भूभाग में वन क्षेत्र की बहुलता रही जिससे अरण्य संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन हुआ. एक ग्राम्य जीवन चक्र उत्तराखंड की संस्कृति व पर्यावरण के संबंधों को उभारता रहा. अनुभवसिद्ध अवलोकन से जान लिया गया कि किसी भी अंचल में भूमि का उपयोग उस इलाके के पर्यावरण चक्र से प्रभावित होता है. खेती के तरीके हों,  पेड़-पौंधे या फिर मानव के सहचर जीव धारी, इन सब  के आपसी तालमेल को उस स्थान के रीति -रिवाज़, लोगों की जागरूकता, विश्वास एवं धार्मिक चेतना से प्रभावित व शाषित माना  जाता है.

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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