खतड़ुवा उत्तराखंड में सदियों से मनाया जाने वाला एक पशुओं से संबंधित त्यौहार है. भादों मास के अंतिम दिन गाय की गोशाला को साफ किया जाता है उसमें हरी नरम घास न केवल बिछायी जाती है. पशुओ को पकवान इत्यादि खिलाये भी जाते हैं. प्रारंभ से ही यह कुमाऊं, गढ़वाल व नेपाल के कुछ क्षेत्रो में मनाया जाने वाला त्यौहार है. इस त्यौहार में पशुओं के स्वस्थ रहने की कामना की जाती है. भादो मसांत के अगले दिन आश्विन संक्रांति के दिन सायंकाल तक लोग आपस में निश्चित एक बाखलि पर एक लंबी लकड़ी गाडते हैं और दूर-दूर से लाये सूखी घास लकड़ी झाड़ी जैसे पिरुल,झिकडे इत्यादि को उसके आस-पास इकट्ठा कर एक पुतले का आकार देते हैं. इसे ही खतडू या कथडकू कहा जाता है. जिसका सामान्य अर्थ किसी दुखदायी वस्तु से है.
(Uttarakhand Festival khatarua)
महिलाएं इस दिन पशुओं की खूब सेवा करती हैं . उन्हें हरा भरा पौष्टिक घास पेट भर कर खाने को दिया जाता है. घास खिलाते हुए महिलाएं लोकगीत गाती है.
औंसो ल्यूंलो , बेटुलो ल्योंलो , गरगिलो ल्यूंलो , गाड़- गधेरान है ल्यूंलो,
तेरी गुसै बची रओ, तै बची रये,
एक गोरू बटी गोठ भरी जाओ,
एक गुसै बटी त्येरो भितर भरी जौ…
यह एक मंगलकामनाओं से भरा हुआ गीत है जिसमें महिलाएं कहती है कि “ मैं तेरे लिए अच्छे-अच्छे पौष्टिक आहार जंगलों व खेतों से ढूंढ कर लाऊंगी. तू भी दीर्घायु होना और तेरा मालिक भी दीर्घायु रहे .तेरी इतनी वंश वृद्धि हो कि पूरा गोठ ( गायों के रहने की जगह) भर जाए और तेरे मालिक की संतान भी दीर्घायु हों. ”
गौशाला के पास गोबर के उपर मोटी घास का एक फूलो से गुथा एक त्रिशूल का आकार बना होता है जिसे बुडि कहा जाता है. ऐसी ही आकृति घरों की छत पर भी लगायी जाती है. शाम के समय कई सारे छिल्लुक ( लकड़ी का एक लंबा पतला टुकड़ा) से बनी रांख ( एक प्रकार की मशाल) को जलाकर कूछ देर गोशाला के भीतर घुमाया जाता है. इस दौरान निकल बुडी, पस नारायण (दरिद्र निकले भगवान का वास हो) या सित निकस करायिन पैठ या निकल कथडकू ( कथडकू का अर्थ दरिद्र वर्ष से है) कहा जाता है.
(Uttarakhand Festival khatarua)
इसके बाद खतड़ुवे में आग लगाकर बुडि उसमें डाली जाती थी. उसमें च्यूडे, दाडिम, ककडी इत्यादि भी डाला जाता और बाद में दाडीम ककडी आदि को सभी को प्रसाद के रुप में बांटा जाता था. लोग छिल्लुक हाथ में लेकर ढेलों रे ढेलों खतडवा ढेलों, गाय पड़ी खेल खतड पड़ो भेल इत्यादि कहते थे. खतडवा के छिल्लुक को घर तक ले जाया जाता है परंतु उसे घर पर नहीं रखा नहीं जाता हैं.
इस त्यौहार के कई वैज्ञानिक पक्ष यह भी हैं जैसे वर्षा ॠतु का अन्त होने के कारण मौसम में बदलाव से इन दिनों पशुओं को कई रोग होने की संभावना रहती है अतः यह पहाड़ के लोगों का पशुओं के प्रति नैतिक कर्तव्य दिखाता है. आश्विन माह से पहाड़ में शीतकाल की शुरुआत भी होती है लोग अपने गर्म कपड़े गद्दे सुखाकर शीतकाल की तैयारी में भी जुटते हैं.
कुमाऊं में शौका जनजाति क्षेत्र (धारचूला व मुनस्यारी के क्षेत्र) में भी इसे बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है लेकिन यह अन्य जगह से थोड़ा अलग तरीके से मनाया जाता है स्थानीय युवक जंगल के किसी बड़े ऊंचे व टीलेनुमा जगह में लकड़ियों को काटकर व सूखी घास को इकट्ठा कर लेते हैं और वहां “ पुल्या ” नामक घास के दो पुतले बनाए जाते हैं जिनमें से एक को बुड्ढा व एक को बुढिया का रुप दिया जाता है और शाम के वक्त चीड़ के छिलकों से मसाले जलाकर युवक व बच्चे वहां पहुंचते हैं. इकठ्ठा घास -फूस और बुड्ढे -बुढ़िया को आग लगाकर उसके चारों तरफ नाचते-गाते यह त्यौहार बहुत ही उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है. आग के खत्म हो जाने पर उसकी राख को लेकर सभी युवक घर को लौटते हैं और उस राख को घर के सभी सदस्यों के माथे पर व सभी पशुओं के माथे पर लगाया जाता है.
यह त्यौहार नेपाल के कुछ हिस्सों में तथा सिक्किम में भी इसी रूप में मनाया जाता है. लेकिन यह त्यौहार उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में नहीं मनाया जाता है. यह सिर्फ कुमाऊं में मनाया जाने वाला पर्व है.
(Uttarakhand Festival khatarua)
-काफल ट्री डेस्क
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आपके इस लेख के लिए आपको तहे दिल से बहुत बहुत धन्यवाद... अत्यंत कम शब्दों में आपने अति महत्वपूर्ण जानकारी दी है... आपके आर्टिकल का हमेशा से इन्तजार रहता है.. बहुत बहुत शुक्रिया
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