समाज

अपनी बोली के शब्दों को पीछे धकेलते पहाड़ी

अपनी पृथक पहचान के लिए सृजित पृथक उत्तराखण्ड राज्य के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले पहाड़ी जनमानस में आज स्वाभाविक प्रश्न उठ रहा है कि क्या मात्र प्रशासनिक एंव विधायी शक्तियों के विकेन्द्रीकरण मात्र से ही किसी समाज, किसी संस्कृति की पहचान सुनिश्चित और सुरक्षित हो सकती है. अपनी पहचान के लिए सचेत देशों ने भी यह जान लिया है कि किसी देश- राज्य-समाज की विशिष्ट पहचान के लिए उनकी व्यक्तिवाचक संज्ञाओं की शुद्धता का होना आवश्यक है. अन्यथा एक गलत परम्परा या कहें कि अंग्रेजों के प्रति असीम श्रद्धाभाव ने विश्व को इनता सम्मोहित किया हुआ है कि हमारे महत्वपूर्ण स्थलों के नामों को उनके द्वारा किये गये गलत उच्चारणों को ही हमने मानक रुप में स्वीकार कर लिया है. इसी प्रवृति के तहत हमारे देश का नाम इण्डिया हुआ सर्वविदित ही है. इसी तरह दिल्ली को डेहली, मुम्बई को बॅाम्बे, कोलकत्ता को कैलकटा आदि हुआ. खैर, यहां हम अपने विमर्श को उत्तराखण्ड के विशिष्ट संदर्भ में ही सीमित करना चाहते हैं.
(Uttarakhand Article by Devesh Joshi)

उत्तराखण्ड के जनपदों, मुख्य शहरो के नामों पर ही विचार करें तो हमें मात्र अल्मोड़ा और पौड़ी में ही पहाड़ी महक और मौलिकता महसूस होती है. यह महज संयोग नहीं है कि अल्मोड़ा और पौड़ी ही क्रमशः कुमाऊं और गढ़वाल की सांस्कृतिक राजधानियां मानी जाती हैं. मात्र इन्हीं में कोई छेड़छाड़ नहीं हुयी है या कहें कि कथित शुद्धीकरण का प्रयास नहीं हुआ है वरना नैणीताल को हमने नैनीताल कर दिया है गोथला को गोपेश्वर. टीरी को टिहरी, बाड़ाहाट को उत्तरकाशी, सोर को पिथौरागढ़, पुनाड़ को रुद्रप्रयाग, राणीखेत को रानीखेत, बागेशुर को बागेश्वर, बरमद्यौ को टनकनुर, गौविशाण को काशीपुर और रणिहाट को कीर्तिनगर.

शब्दशास्त्री भले ही चमोली को जड़ें चन्द्रमोलि में तलाशते हों किन्तु स्थानीय जनता की जुबान पर तो चमोला या चम्वाला ही चढ़ा रहा, चमोला महादेव के नाम पर. इससे पहले लालसांगा के नाम से ये तीर्थयात्रियों में खूब लोकप्रिय इसलिए भी रहा कि यहीं वे यात्रा में अलकनंदा का पाश्र्व परिवर्तन करते थे. कालौं डाण्डा को हमने लैंसडाउन कर दिया. लैंसडाउन पर हम मोटे-मोटे ग्रंथ तो लिख सकते हैं पर एक भी लोकगीत इस नये नाम को आत्मसात नहीं कर पाया है जबकि कालौं डाण्डा पर आपको दर्जनों खुदेड़ गीत मिल जाएंगे.

स्थलों के नाम-परिवद्र्वीकरण के पीछे एक तर्क यह दिया जा सकता है कि गढ़वाली-कुमाउंनी हिन्दी की ही उप बोलियां हैं और स्थान विशेष के नामों को उनके निकटतम रूपों में परिवर्तित मात्र किया गया है. किंतु इस तर्क को हिन्दी द्वारा अपनी बोलियों को भक्षण करने के रूप में भी देखा जा सकता है.

बात यहीं तक होती तो तब भी कोई बात थी किंतु जनपदों/कस्बों के नामों की देखादेखी लोगों के गाँवों और तोकों के नामों का भी अंधानुरकण से हिन्दी मानकीकरण करना प्रारम्भ कर दिया है.

कितना हास्यास्पद किस्सा है कि पहाड़ का नवयुवक अपनी मां का नाम ‘डॉळी देवी‘ बताने में शर्म-झेंप महसूस कर डी. देवी लिखता रहा किंतु शहरी कान्वेंट शिक्षित पत्नी द्वारा बेटी का नाम ‘डॉली‘ रखने पर उसे ही गर्व से बताता रहा. संतोष है कि अभी कुमाउंनी ‘इजा‘ प्रचलन में है, गढ़वाली ‘ब्वे‘ तो लगभग प्रचलन से बाहर ही हो गया है. इस खतरनाक प्रवृत्ति को क्या कहिए कि एक ही हिज्जों वाला शब्द हममें झेंप उत्नन्न करता है जब वह हमारी अपनी बोली का हो और हमें गर्वोन्नत करता है जब वह किसी परायी बोली का हो.

एक और उदाहरण द्रष्टव्य है – सिरोली एक पहाड़ी जगह का सुन्दर नाम है किन्तु लोगों को लगता है कि उनका यह नाम बाहरी समाज के लोगों को अटपटा लग सकता है इसलिए वे इसे गैरों की सुविधा के लिए सुरेशनगर कर देते हैं. हां कोष्ठ में सिरोली भी रहने देते हैं ताकि पोस्टमैन भ्रमित न हो. नेशनल हाइवे संख्या 4 चेन्नई-पुणे पर गर्व से खड़े सिरोली का साइनबोर्ड देखकर तो अपने सिरोली का गला घोंटने वालों पर और भी तरस आता है. यह अपने शब्दों और प्रकारांतर से अपनी संस्कृति के प्रति आत्मविश्वास की कमी नहीं है तो और क्या है? आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए कम यह भी तो सोच सकते हैं कि हमारा निरक्षर व्यक्ति भी किसी बाहरी उच्च शिक्षित व्यक्ति को भी पौड़ी और अल्मोड़ा का अर्थ समझा सकता है. वरिष्ठ साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी जी ने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ अपने उपन्यास का नाम क्याप और कसप रखा. उपन्यास को प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो आज बड़े-बड़े बौद्धिक भी अपना ज्ञान प्रदर्शन करते हैं – जानते हो क्याप के मायने क्या होते हैं? कसप क्या चीज है?

यह एक रोचक शोध का विषय हो सकता है कि उत्तराखण्ड में कितने पहाड़ी गांवों ने अपना पारम्परिक नाम छोड़कर पुर का परिधान पहना है या नगर का नवाभिषेक किया है. शहर/कस्बों के मौहल्लों/ वार्डों के नामकरण में तो नगर होना अनिवार्य सा हो गया लगता है. यह भी सब समझते हैं कि गाँधी, नेहरू, सुभाषनगरों की सर्वव्यापकता के कारण किसी एक की पृथक पहचान कठिन हो जाती हो जाती है और बलात् पूछना पड़ता है – कहाँ वाला? बात देहरादून की हो तो कहाँ वाला भी एक उपनगर का भ्रम उत्पन्न कर सकता है, डोईवाला, हर्रावाला की तर्ज़ पर.
(Uttarakhand Article by Devesh Joshi)

एक और गाँव का उदाहरण लें. गुगली एक गाँव है जिसके नवशिक्षितों ने नवज्ञानातिरेक में गुगली को परिवर्द्धित करके गुरूपुर, नारायणनगर, माधवनगर करने के कई प्रयास किए. किंतु यही शब्द जब भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय खेल क्रिकेट की शब्दावली में व्यवहृत हुआ और 1996 क्रिकेट विश्वकप का शुभंकर भी बना तो लोगों को अपने पिछले असफल प्रयासों की हास्यास्पदता समझ आयी. आदि शंकराचार्य स्थापित भारत के चार धामों में से एक द्वारका धाम के रावल गुगली ब्राह्मण होने के तथ्य की जानकारी भी निश्चित रूप से उन्हें नहीं रही होगी. अपनी जड़ों को छोड़ अंधानुकरण में नाम परिवर्तित करने की ललक कितनी घातक सिद्ध होती है इसका एक उदाहरण चमोली जिले का घाट कस्बा भी है. अत्यंत पिछड़े इस कस्बे के लागों ने विकास का शार्टकट तरीका यह ढूंढा कि नाम ही विकासनगर कर दिया. जब मनीऑर्डर और पत्र देहरादून-विकासनगर  पहुँचने लगे तब लोगों को अपनी गलती का अहसास हुआ. विडंबना है कि नंदाक, नंदानगर और चक्रप्रयाग जैसे अतीत से जुड़े सुंदर नामों के विकल्प यहाँ मौजूद थे. स्पष्ट है कि अपने के प्रति हीनताबोध और पराये के प्रति अत्यधिक लगाव से हास्यास्पदता ही मिल सकती है, पहचान नहीं.

संस्कृति के समकालीन भाष्यकारों से भी पूछा जाना चाहिए कि क्या नेताओं /अधिकारियों के सम्मुख उनके दिल बहलाव (या स्वागत) में गीत-संगीत का प्रदर्शन कर ही संस्कृति के सृजक तत्वों का सूक्ष्म विश्लेषण और तदन्तर उनका संरक्षण किया जाना चाहिए. निश्चित रूप से गीत-संगीत, पर्व-त्यौहार, वेश-भूषा और खान-पान संस्कृति के बुनियादी सृजक तत्व हैं किंतु दुर्भाग्य से ये सब मेले-ठेलों में दिखायी जाने वाली चीजें रह गयी हैं. पहाड़ के यर्थात जनजीवन में न सिर्फ गीत-संगीत विलुप्ति की कगार पर हैं वरन पर्व-त्यौहार, वेश-भूषा और खान-पान की भी कमोबेश यही स्थिति है.

तो संस्कृति अर्थात हमारी विशिष्ट पहचान के जो एकमात्र जीवित अवशेष रह गए हैं वे हैं हमारी व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ. व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ अर्थात व्यक्ति और स्थान विशेषों के नाम. वर्ष 2007 में उत्तरांचल पर उत्तराखण्ड की जीत को हमारी सांस्कृतिक जागरूकता के रूप में भी देखा जा सकता है. किंतु यह जागरूकता यहीं थम नहीं जानी चाहिए क्योंकि इससे मूल विमर्श विचलित हो सकता है  कि नाम परिवर्तन क्या सार्वजनिक धन का अपव्यय नहीं है. यहाँ मन्तव्य लोगों को जाने-अनजाने उस अंधानुकरण में सम्मिलित होने के प्रति आगाह करना है जिसके वशीभूत लोग अपने कस्बों, गाँवों और तोकों के पहाड़ी महक से भरे नामों को विकृत कर रहे हैं.
(Uttarakhand Article by Devesh Joshi)

प्रवासी पहाड़ियों द्वारा अपनी जाति संज्ञा बदलना भी हीनताबोध का ही परिचायक है. उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में प्रकाशित एटकिंशन की गजेटियर्स में आए स्थानों और जातियों के नामों में जिस विशुद्ध पहाड़ीपन की मिठास और महक परिलक्षित होती है वह आज के कथित आधुनिक विकसित पहाड़ के संशोधित (या विकृत) नामों में नहीं दिखती है. हमारे एक मित्र की जातिसंज्ञा है – भौंसियाल. वो कहते हैं कि गाँव के तमाम बंधु-बांधव रावत हो गए हैं किंतु मैं अपने पुत्रों को भी कहता हूं कि अपनी इस जातिसंज्ञा पर ही गर्व करो जाति पर नहीं. उनके दोनों पुत्र प्रतिष्ठित सहायक अभियंता हैं. वैसे भी याल और वाल जातिसंज्ञा उसी तरह पहाड़ी होने के ट्रेडमार्क हैं जैसे कर महाराष्ट्रियन होने का. हमारे ये पहाड़ी ट्रेडमार्क जाति प्रत्यय वर्णाधारित व्यवस्था के खानों से मुक्त, समरसता के प्रतीक सभी वर्गों में समान रूप से व्यवहृत हैं. यही नहीं इनसे आदिपुरुषों के बजाय जन्मस्थली के प्रति श्रद्धाभाव प्रकट होता है.

पहचान प्रतिभा की कायल होती है, प्रारूप की नहीं. महेन्द्र सिंह धोनी की प्रतिभा के कायल आज भारतीय ही नहीं विदेशी भी हैं और धोनीमय हुए जा रहे हैं. गढ़वसली-कुमाऊनी को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने की बात अक्सर की जाती है और उचित ही की जाती है. किंतु क्या मात्र इससे कोई भाषा-बोली जीवित रह सकती है, अपना अस्तित्व बचा सकती है? निश्चित ही इसके लिए इसकी आधार इकाई इसके मौलिक शब्दों को उनकी मौलिक महक के साथ बचाए रखना जरूरी है. बचाने से अभिप्राय शोधग्रंथों और कोशों में संकलित करने मात्र से नहीं है बल्कि बोलचाल व लेखन में प्रयुक्त किए जाने से भी है. यथाशक्य और यथाअवसर उन्हें हिन्दी और अन्य भाषाओं में बोलचाल व लेखन में सायास प्रविष्ठ भी करना चाहिए, यथा आज मेरा मन क्याप-सा हो रहा है. धार वाले काका गुजर गए हैं बल. परिवार का मामला ठैरा, जाना ही पड़ेगा.                   
(Uttarakhand Article by Devesh Joshi)

लेखक की पुस्तक घुघुती न बासऽ से

देवेश जोशी

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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. 

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  • जोशी जी ने उचित ही कहा हम पहाड़ियों को अपनी जात या गांव का नाम बताने में शर्म आती है ।

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