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आई ज़ंजीर की झनकार ख़ुदा ख़ैर करे

दुनिया में कामयाबी के लिए काबिलियत होना जितना जरुरी है उतना ही जरुरी किस्मत का होना भी है. कभी-कभी जिंदगी कितना हैरान करती है! किसी को पूरी जिंदगी मेहनत करने के बाद भी वो मक़ाम हासिल नहीं होता. और कुछ नाम ऐसे भी हैं, जिन्हें कामयाबी के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. ये बात जिंदगी के सभी पहलुओं पर लागू होती है. सपनों के शहर मुम्बई की फ़िल्मी दुनियां में अपनी जगह बनाना कभी भी आसान नहीं रहा. गायक बरसों तक सैकड़ों गीत गा लेते हैं, पर उनकी आवाज को मुकम्मल पहचान नहीं मिल पाती है क्योंकि यहाँ हर संघर्ष की दास्तान बहुत लम्बी होती है. लेकिन कुछ आवाजें ऐसी होती हैं, जो चंद गीत गाकर भी अमर हो गईं. यों तो बहुत से गाने हैं जो दिल के बेहद करीब हैं. पर ख़य्याम साहब के संगीत के साथ दिल की अंतिम गहराई से गूंजकर निकलती हुई एक अनोखी, रुवाबदार और कड़क आवाज़ है जो सीधे आपके दिल की उसी गहराई में जा पहुंचती है, जिस गहराई से वह निकली थी. यह आवाज़ कब्बन मिर्ज़ा साहब की आवाज़ है. कब्बन मिर्ज़ा ने कमाल अमरोही की फिल्म रज़िया सुल्तान दो गीत इतनी खूबसूरती से गाए कि आज भी संगीत प्रेमी उन्हें शिद्दत से याद करते हैं.

कब्बन मिर्ज़ा साल 1936 में पुराने लखनऊ के बाग शेरजंग इलाके में पैदा हुए और इंतकाल 2003 में मुंबई के उपनगर मुंब्रा में हुआ. मिर्ज़ा साहब लखनऊ के सीदी समुदाय से ताल्लुक रखते थे. यानी अफ्रीकी मूल के वो लोग जो नवाबों के ज़माने में गुलाम के बतौर लखनऊ लाए गए और बाद में पूरी तरह यहीं के हो गए. बीते जमाने में इन्हें हबश वाले या हब्शी भी कहा जाता था. उन दिनों लखनऊ का मोहर्रम सीदियों के बिना सम्भव नहीं होता था. सीदियों का जंजीर का मातम और नौहे बहुत मशहूर थे. कब्बन मिर्ज़ा भी मूलत: एक नौहाख्वां ही थे. घर वालों के मुताबिक बहुत कम उम्र से ही वे नौहे याद करने और गाने का अभ्यास करने लगे थे. कब्बन साहब के जवान होने के साथ उनकी आवाज़ भी जवान होती गयी. इसी आवाज़ ने उन्हे पहले ऑल इंडिया रेडियो के माइक तक और फिर माइक के जरिए घर-घर पहुंचाया. ऑल इंडिया रेडियो के संगीत सरिता और हवामहल जैसे लोकप्रिय कार्यक्रमों की लोकप्रियता की एक वजह कब्बन मिर्ज़ा भी थे. ऑल इंडिया रेडियो ने ही उनसे लखनऊ छुड़वाया मगर वे कहीं भी रहे मोहर्रम के महीने में हमेशा लखनऊ आते थे और नौहे भी पढ़ते थे.

कब्बन मिर्ज़ा

कमाल अमरोही ने अपनी सबसे महंगी फिल्म रज़िया सुल्तान में उनसे दो गाने गवाये थे . इस फिल्म में धर्मेन्द्र एक हब्शी ‘जमाल-उद्दीन याकूब’ बने थे और धर्मेन्द्र के लिए अमरोही साहब को एक भारी-भरकम गैर पेशेवर आवाज़ चाहिये थी. कमाल साहब दीवानगी में डूबकर फिल्में बनाते थे और कहीं भी एक राई-रत्ती की कमी उन्हें मंज़ूर नहीं होती थी. इसलिए उन्होंने खैयाम साहब को इल्तुतमिश और रज़िया सुल्तान के ज़माने का पूरा इतिहास पढ़ा डाला. उस दौर में बजने वाले सारे साज़ों की फेहरिस्त भी थमा दी. जब सवाल आया कि फिल्म में रज़िया सुल्तान (हेमा मालिनी) के ग़ुलाम और फिर आशिक़ याकूब (धर्मेन्द्र) वाला गीत कौन गाए तो मामला उलझ गया. कमाल साहब को उस वक़्त मौजूद कोई मर्दाना आवाज़ इस काबिल न लगती थी.

एक इंटरव्यू के दौरान ख़य्याम साहब ने बताया था “कमाल अमरोही साहब की फ़रमाइश थी कि हमारा जो हीरो है, बहुत बड़ा वारियर, सिपहसालार है, वो कभी-कभी, जब उसको वक़्त मिलता है, अकेला होता है, तब अपनी मस्ती में गाता है. और ये ऐसा है कि वो सिंगर नहीं है. तो बड़ी कठिन बात हो गई कि सिंगर ही ना मिले कोई. अब ये हुआ कि पूरे हिंदुस्तान से पचास से उपर लोग आए और सब आवाज़ों के साथ ये लगा कि वो सब सिंगर हैं. ऐसे ही कब्बन मिर्ज़ा भी आए. हम सब ने सुना उन्हे. मैं, जगजीत जी, कमाल साहब. फिर उनसे पूछा कि आपने कहाँ सीखा? उन्होने कहा कि मैंने कभी नहीं सीखा. कौन से गाने गा सकते हैं? तो वो सारे लोकगीत सुना रहे थे. तो हम लोग मुश्किल में पड़ गए कि भई ये तो बड़ा कठिन काम है! तो हम लोगों ने उन्हे रिजेक्ट कर दिया था.

अगले दिन कमाल साहब का टेलीफ़ोन आया कि आप फ़्री हैं तो अभी आप तशरीफ़ लाएँ. नाश्ता उनके साथ हुआ. नाश्ता हुआ तो कहने लगे कि रात भर मुझे नींद नहीं आई. कमाल साहब, क्या हुआ? ये जो आवाज़ है जो हमने कल सुनी कब्बन मिर्ज़ा की, यही वो आवाज़ है. मैंने कहा ‘कमाल साहब, लेकिन उनको गाना तो आता नहीं’. तो कहने लगे ‘ख़य्याम साहब, आप मेरे केवल मौसीकार ही नहीं हैं, आप तो मेरे दोस्त भी हैं. प्लीज़ आपको मेरे लिए यह करना है, मुझे इन्ही की आवाज़ चाहिए. तो फिर इनको कुछ तीन-चार महीने स्वर और ताल का ज्ञान दिलवाया और उसके बाद गाने की रिकॉर्डिंग्स शुरु हुई. अक्सर हम लोग ये करते हैं कि रिकॉर्डिंग के वक़्त म्यूजिक डायरेक्टर रिकॉर्डिंग करवाता है अपने रिकार्डिस्ट से. तो असिस्टेंट जो होते हैं वो ऑर्केस्टा सम्भालते हैं. तो उस दिन वो नए थे, गा नहीं पा रहे थे, तो मैंने जगजीत जी को यहाँ भेजा, रिकॉर्डिंग में, और असिस्टेंट को बोला अंदर जाओ, और कण्डक्टिंग् मैंने की. यूँ गाना हुआ.

फिल्म में मिर्ज़ा ने जांनिसार अख्तर का लिखा ‘आई ज़ंजीर की झंकार, ख़ुदा ख़ैर करे’ गाया. जांनिसार अख्तर मशहूर गीतकार जावेद अख्तर के पिता और उर्दू के नामचीन शायर थे. उनका गाया दूसरा गाना है – तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है. इस गीत को निदा फाजली ने लिखा था. कब्बन मिर्ज़ा ने फिल्म ‘शीबा’ में भी एक गाना गाया था लेकिन इस गीत के क्रेडिट में उनका नाम नहीं दिया गया था.

एक तरफ रजिया सुल्तान के गीत बज रहे थे वहीं दूसरी ओर मिर्ज़ा साहब के लिए वक़्त एक बुरी खबर लाया था. उन्हें गले का कैंसर हो गया था. मुम्बई के जसलोक अस्पताल में इलाज करवाया गया. मिर्ज़ा साहब की जिंदगी तो बच गई लेकिन सब-कुछ छिन गया. उनका गला हमेशा के लिए खराब हो गया और बाद के दिनों में दूसरी बार गले के आपरेशन के बाद वो बेआवाज हो गए. अब बस दो गीत ही उनकी अमानत हैं.

एक बार वर्ली के आकाशवाणी भवन में कब्बन मिर्जा ने कहा था, भाई इस बात का गम न करो कि मैं केवल दो गाने गा पाया. मुझे इसका सुकून है कि भारतीय फिल्म जगत में जो बेशुमार बेहतरीन गाने बने हैं, उसमें दो गाने मुझे भी गाने को मिले हैं. ख़य्याम साहब ने मेरे लिए अवसर बनाया. उस ऊपर वाले का अहसान कि पहले रेडियो में लोगों को दूसरों के गीत सुनाए और उन गाने वालों में मैं भी शामिल हूं. जब भी लोग मेरे गीतों को सुनने के लिए कहीं फरमाइश करेंगे मेरी रूह को जरूर चैन मिलता रहेगा.

 

सुनील पन्त

रुद्रपुर में रहनेवाले सुनील पन्त रंगकर्म तथा साहित्य की दुनिया से लम्बे समय से जुड़े हुए हैं. हमें भविष्य में इस सक्रिय युवा से बहुत सारे लेखों की प्रतीक्षा है.   

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