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रुद्रनाथ डोली यात्रा का एक रोचक अनुभव

कुछ साल पहले रुद्रनाथ की यात्रा करके लौटे कुछ मित्रों ने वहां खींचे छायाचित्र दिखाये थे. बांज, बुरांस इत्यादि के घने जंगलों, वृक्ष-रेखा से ऊपर रंगबिरंगे पुष्पों से सज्जित मखमली घास के बुग्यालों, अमृत-कंुड समान सरोवरों और हिमालय पर्वत शिखरों का विहंगम दृश्य आंखों में बस गया. तभी से इस प्राकृतिक सुन्दरता के प्रत्यक्ष दर्शन की प्रबल इच्छा जगी. रुद्रनाथ मंदिर के कपाट 19 मई को खुलने और गोपेश्वर से 17 मई को भगवान की डोली-यात्रा रवाना होने की खबर पढ़ते ही मन में विचार आया कि इस सुअवसर को जाने नहीं देना है.

अल्मोड़ा से 16 मई की सुबह गोपेश्वर के लिये रवाना हुआ. सुबह पौने पांच बजे स्टेशन पहुंचने पर पता चला कि अल्मोड़ा-गोपेश्वर की सीधी बस सेवा आजकल बंद है, क्योंकि बस चार-धाम यात्रा में चलती है. गरुड़ तक जीप टैक्सी पहुंचा और वहां से ग्वालदम, थराली, नारायणबगड़ और कर्णप्रयाग में कुल छः बार जीपें बदल-बदल कर दोपहर बाद दो बजे चमोली जिला मुख्यालय गोपेश्वर पहुंचा. वहां तैनात पुलिस अधीक्षक तृप्ति भट्ट ने चुनाव-कार्यक्रम में बहुत व्यस्त होने और बिना पूर्व सूचना दिये अचानक पहुंचने के बावज़ूद ठहरने का इंतजाम खुशी से कर दिया. यात्रा की थकान और मौसम खराब होने के कारण विश्राम किया और अगले दिन की तैयारी करके रात को जल्दी सो गया.

17 मई को सुबह आसमान साफ और मौसम बहुत सुहावना था. पंचकेदार में रुद्रनाथ की यात्रा सबसे ज्यादा कठिन होने के कारण पिछली रात मन में छाये हुए खराब मौसम की आशंका के बादल भी छंटने लगे थे. सुबह टहलते हुए 7.30 बजे गोपीनाथ मंदिर पहुंचा. गोपीनाथ मंदिर प्राचीन होने के साथ ही वास्तु-शिल्प की दृष्टि से दर्शनीय है. शीतकाल में रुद्रनाथ जी की पूजा यहीं होती है. मुख्य पुजारी श्री हरीश भट्ट जी से भेंट कर उन्हें यात्रा में शामिल होने की अपनी इच्छा बतायी तो उन्होंने प्रसन्नता ज़ाहिर की. दूसरी चिंता कि मेरे पास स्लीपिंग बैग या बिस्तर का इंतजाम नहीं था, भट्जी के आश्वासन “वहां देख लेंगे’’ से दूर हो गयी. मंदिर के प्रांगण में साधु-संन्यासियों, पुजारियों, छायाकारों सहित यात्रा में जाने को तैयार लोग दिख रहे थे. इसके अलावा बड़ी संख्या में स्थानीय महिला-पुरुष भगवान रुद्रनाथ की विदाई से पहले उनके दर्शन और पूजा-अर्चना करने आ रहे थे. भगवान की डोली सज रही थी और उनका सामान एक विशेष पिटारी में संभाला जा रहा था. जैसा कौतुहल व उल्लास बचपन में किसी निकट सम्बन्घी की बारात में शामिल होते हुए होता था वैसा ही यहां महसूस हो रहा था. यात्रा शुरू होने से पहले सभी यात्रियों ने प्रांगण में एक साथ बैठ कर दाल-भात का भोग ग्रहण किया. इससे पहले एक उल्लेखनीय घटना यह घटी कि जहां भोग तैयार हो रहा था, मैंने वहां जाकर एक फोटो लेनी चाही, लेकिन कैमरा ऑन ही नहीं हुआ. मुझे बड़ी चिंता और घबराहट हुई कि इतनी महत्वपूर्ण, रोमांचक यात्रा की एक भी फोटो नहीं खींच सकूंगा. लेकिन दूसरी ओर जाते ही कैमरा चालू हो गया. वापस भोग तैयार होने की फोटो खींचनी चाह रहा था कि रसोइये ने मना करते हुए कहा कि यहां फोटो नहीं खींच सकते.

भगवान शिव की डोली निर्धारित समय, करीब साढ़े नौ बजे मंदिर से पहले दिन के पड़ाव, पनार बुग्याल को पैदल रवाना हुई. पदयात्रा लंबी और चढ़ाई कठिन थी, इसलिये 4 कि.मी. दूर सगर गांव तक गाड़ी से जाने का निश्चय किया. रुद्रनाथ के लिये सबसे ज्यादा प्रचलित पैदल यात्रा मार्ग सगर से ही है, यद्यपि एक रास्ता आगे मण्डल से माता अनुसूया मंदिर होकर भी जाता है. मेरे लिये सगर से एक स्थानीय गाइड की व्यवस्था की हुई थी, जो वहां सड़क किनारे स्थित चाय की दुकान में मौज़ूद था. गाइड पदमेन्द्र ने बताया कि पिछले एक दशक में वह तेरह-चैदह बार यात्रियों के साथ रुद्रनाथ आ चुका था. उसने कहा कि वह मेरा पिट्ठू ले जायेगा और पूछा कि क्या मैं उसका ‘फूल जितना हल्का’ पिट्ठू ले जा सकता हूं. दुकानदार ने मना करने पर भी चाय बना दी थी ओर पीने के लिये बहुत आग्रह किया, लेकिन आग्रह करने पर भी चाय के पैंसे नहीं लिये. चाय पीने तक रुद्रनाथ डोली यात्रा गोपेश्वर से पैदल चल कर वहां पहुंच गयी. वहीं पता चला कि यह यात्रा एक साल सगर गांव से, दूसरे साल ग्वाड़ से और अगले साल देवलधार गांव से होकर ले जाने की पुरानी परंपरा है. इस साल यात्रा ग्वाड़ से जाने वाली थी.

रुद्रनाथ की डोली यात्रा में भगवान शिव की चांदी की एक मूर्ति को सुसज्जित डोली में चांदी के छत्र के साथ दो लोग कंधे में रख कर चलते हैं. उनके साथ ढोल, नगाड़े, शंख और घंटा बजाते सेवक विशेष परिधान में केशरिया धोती-कुर्ता और सिर पर केशरिया साफा पहने चलते हैं. डोली के साथ ही मखमली कपड़े से मढ़ी हुई, धारीदार बाघ जैसे रंग व डिजाइन की एक ताला लगी पिटारी चल रही थी, जिसके बारे में पूछने पर बताया गया कि इसमें भगवान के श्रंृगार की सामग्री होती है. डोली के पीछे देव-यात्रा में शामिल यात्री चल रहे थे. मुख्य पुजारी हरीश भट्ट जी पीली धोती, सुनहरे कुर्ते के साथ सिर पर केसरिया साफा बाधे थे और गले में रुद्राक्ष की माला थी. मुख्य पुजारी के लिये स्थानीय जन ’बामण’ शब्द का प्रयोग रहे थे. एक विशेष बात यह कि उनकी कमर में मंदिर की घंटी खोंस कर लगी थी. स्थानीय गांववासियों की, सड़क किनारे स्थित दुकानदार हों या गांव के घरों में रह रहे लोग, डोली-यात्रा व यात्रियों के प्रति गहरी श्रृद्धा देखने लायक थी. रोली, अक्षत, कुमकुम और फूलों से सजी पूजा की थाली हाथ में लेकर खड़े स्त्री-पुरुषों की आस्था छलक उठती थी. वे अगरबत्ती, फल और रुपये भी भेंट में दे रहे थे. कुछ महिलायें इतनी भावुक कि अश्रु-प्रवाह रुकता ही नहीं था. ग्वाड़ गांव के दो घरों में डोली की पूजा हुई, बताया गया कि एक जगह व्यक्तिगत, जबकि दूसरी जगह सामूहिक पूजा थी. पूरा गांव स्वागत को उमड़ पड़ा था. लोग फलों का जूस, नींबू पानी, बिस्कुट, नमकीन, मिठाई, मेवे इत्यादि जो सर्वोत्तम उनके पास था उसे प्रेम-भाव से देवता और देव-यात्रियों को दे रहे थे.

ग्वाड़ गांव

ग्वाड़ गांव से र्किठन चढ़ाई है, रास्ता ऐसा कि पुजारी जी का सामान ले जा रहे दो नेपाली पोर्टर जंगल में भटक गये और काफी देर बाद उन्हें खोजा जा सका. दो कि.मी. की पदयात्रा करके दाणी नामक जगह में विश्राम के लिये जंगल में पेड़ों की छाया में सुस्ताने बैठे. स्थानीय ग्रामीणों ने यहां भी चाय और पानी का इंतजाम किया था. यहां से आगे पुनः कठिन चढ़ाई थी जिसके बाद पुल्याणीधार में यात्री-दल ने दूसरी बार विश्राम किया. यह जगह खूबसूरत जंगल से घिरी और मखमली घास से ढकी हुई थी. भेड़पालक अपनी भेड़ों के साथ घास-फंूस से बनाई अस्थायी झोपड़ी में डेरा जमाये हुए थे. मेरे गाइड ने पहले ही सावधान कर दिया था कि खतरनाक दिखने वाले कुत्तों से डरना नहीं है. थोड़ी देर बाद ही वे हम अजनबियों से घुलमिल गये. यहां ताज़े दूध से तैयार स्वादिष्ट चाय पीने को मिली. हमने अपने रुकसैक से बिस्कुट, नमकीन निकाल कर खाये, देवता को भेंट किये गये फल तो रास्ते में ही यात्रियों को बांट दिये गये थे, क्योंकि उन्हें ले जाने वाले जितनी जल्दी हो सके अपना बोझ हल्का करना चाह रहे थे. शाम करीब 5 बजे डोली मौलि- खर्क नामक जगह पर पहुंची. सगर से रुद्रनाथ के लिये पंुग बुग्याल होते हुए जो पैदल मार्ग है उस पर मौलि खर्क 8 कि.मी. की कठिन चढ़ाई करके पहुंचा जाता है, लेकिन रास्ता अच्छा बना है तथा भटकाव की आशंका नहीं रहती. हम जिस रास्ते पर चल कर आये वह कितना लंबा था इसका अनुमान लगा पाना मुश्किल था. स्थानीय ग्रामीणों के अनुसार यह कम लंबा है, लेकिन थके हुए अन्य यात्री उनके दावे पर यकीन नहीं कर रहे थे. यहां फिर से स्वादिष्ट चाय पीते हुए विश्राम का सुख मिला. यात्री दल में देव डोली ले जाने वालों, साधु-सन्यासियों, नेपाली पोर्टरों, स्थानीय व बाहरी यात्रियों समेत लगभग 50 लोग शामिल थे. देहरादून से राजीव काला और दो अन्य छायाकार अपने तामझाम और भारी रुकसैक लादे पोर्टरों के साथ चल रहे थे. स्वच्छता का संदेश लिखे बैनर के साथ पंचबद्री, पंचकेदार और पंचप्रयाग की पदयात्रा कर रहे ग्वालियर के रहने वाले टेनिस कोच 58 साल के दिनेश सिंह कुशवाहा पिछले 33 दिन में आठ सौ कि.मी. से अधिक का सफर तय कर चुके थे.

मौलि खर्क से 2 कि.मी. चढ़ाई के बाद ल्वींटी पहुंचे. यहां भी प्लास्टिक की शीट व घास-फंूस से बनी झोपड़ी एकमात्र भोजनालय व रात्रि-विश्राम स्थल है, जिसे चलाने वाले किशन सिंह जी ने सभी यात्रियों को आग्रहपूर्वक चटपटे चने खिलाये. ध्यान रखने की बात है कि रुद्रनाथ के यात्रा मार्ग में जितने भी पड़ाव हैं वहां एक से ज्यादा चाय की दुकान या विश्राम स्थल की सुविधा नहीं है. यात्रियों की संख्या भी बहुत सीमित रहती है, रोजाना औसतन 30-35 यात्री. इतनी दुर्गम जगह पर चाय, जलपान, भोजन और ठहरने की व्यवस्था करना एक कठिन चुनौती से भरा काम है, इसके बावजूद कमाई उतनी नहीं होती. कभी तो एक भी यात्री नहीं ठहरता.

ल्वींटी

ल्वींटी से पनार बुग्याल तक दो किलोमीटर की यात्रा बाकी थी, लेकिन सूर्यास्त हो चुका था और मौसम का मिज़ाज बिगड़ने लगा था. कुछ यात्री ज्यादा थकान के कारण बहुत पीछे चल रहे थे. गरज के साथ बारिश शुरू हो गयी थी, इसलिये मैंने अपने रुकसैक से वाटर-प्रूफ शीट निकाल ली, जो मित्र से ली थी. अंधेरा बढ़ने के कारण टाॅर्च जलानी पड़ी. पनार बुग्याल तक पहुंचने तक शाम के आठ बज चुके थे. आज की पदयात्रा 16 कि.मी. लंबी थी, लेकिन सगर तक गाड़ी से जाने के कारण मुझे 4 कि.मी. कम चलना पड़ा.

पनार बुग्याल में वन विभाग की एक छोटी सी, दो कमरों की झोपड़ी है. इसी से  लगे घास-फूंस के छप्पर में भोजनालय है. फर्श पर घास बिछा कर ऊपर से गद्दे बिछाये गये थे और ओढ़ने के लिये साफ-सुथरे लिहाफ़ थे. पहुंचते ही गरम चाय का गिलास मिल गया तो थकान मिटने में देर नहीं लगी. शिव की पूजा और आरती के बाद प्रसाद के रूप में पूड़ी, भात, रसदार सब्जी और मेवे युक्त सिंवई आदि स्वादिष्ट व्यंजन परोसे गये. एक छोटे से कमरे में सोलह लोग एक-दूसरे से सट कर सोये, नेपाली पोर्टर समीप स्थित एक गुफा में सोये. जितने ज्यादा लोग एक साथ रहेंगे ठंड उतनी कम होगी, यह सोच कर सभी प्रसन्न थे.

अगली सुबह सूर्योदय से पहले उठ कर बाहर आया दो देखा कि हिमालयी थार (हिरण प्रजाति) का झुंड हमारे आसपास ही विचरण कर रहा था, शायद हमें यह बताने कि यह क्षेत्र ‘केदारनाथ वन्यजीव विहार’ के अन्तर्गत है. हिमालयी थार के अलावा भालू, हिम तेंदुआ इत्यादि पशु और उत्तराखण्ड का राज्य-पक्षी मोनाल सहित विविध आकार-प्रकार के रंगबिरंगे पक्षी यहां पाए जाते हैं. करीब 11 हजार फीट की ऊंचाई पर ठंड काफी थी. एक सिरे पर मोबाइल सिग्नल आ रहे थे, थोड़ा हटते ही चले जाते थे. वहां से दूर-दूर तक के इलाके-गंगोल गांव, सगर, चमोली आदि साफ़ दिख रहे थे. दूसरी ओर हिमालय पर्वत शिखरों की विस्तृत श्रृंखला दिख रही थी. मखमल सी मुलायम घास और निचले ढलानों पर उगे जंगल बहुत सुन्दर लग रहे थे. पौने तीन साल के बेटे के साथ इस कठिन यात्रा पर आये गढ़वाल मूल के दिल्ली में बसे युवा दम्पत्ति से भेंट हुई. रुद्रनाथ जी के लिये बाल भोग की तैयारी हो रही थी, लेकिन कुशवाहा जी और मैंने नाश्ता यहां न करके रास्ते में चलते हुए खाने का मन बनाया और साढ़े सात बजे चल पड़े.

पनार बुग्याल से रुद्रनाथ का रास्ता हल्के उतार-चढ़ाव वाला है. ऊंचाई की अधिकता के कारण यहां जंगल नहीं पाये जाते. हरी, मखमली घास पर उगे पीले, नीले, सफेद रंग फूलों से आच्छादित बुग्याल, भोजवृक्षों और हल्के बैंगनी व सफेद रंग के फूलों से शोभित बुरांस के झाड़ीनुमा पेड़ों की खूबसूरती मनमोहक थी. पुराने ज़माने में, काग़ज का आविष्कार होने से पहले, भोजवृक्ष की छाल पर ही लिखा जाता था. सहयात्री कुशवाहा जी से हिमांचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में की गयी दुर्गम पदयात्राओं के रोमांचक अनुभव सुनते हुए रास्ता कटा. एक-दो जगह पर पगडण्डी के किनारे पर बैठ अंकुरित मंूग, मेवे, नमकीन, बिस्कुट और आड़ू खाकर ऊर्जा बटोरी. टैकिंग के दौरान पौष्टिक खाना-पीना ज़रूरी होता है. पांच कि.मी. की दूरी तय करके पित्रधार पहुंचे, जो रुद्रनाथ यात्रा मार्ग पर सबसे अधिक ऊंची जगह है. कुशवाहा जी ने बताया कि यह समुद्र-सतह से चैदह हजार फीट की ऊंचाई पर है. सुना कि यहां पितरों की पूजा, अनुष्ठान आदि का बड़ा महत्व है. उच्च हिमालयी क्षेत्र होने के कारण दोपहर के बाद मौसम खराब रहता है. पित्रधार से रुद्रनाथ तक पांच कि.मी. के रास्ते में ज्यादा उतराई और कहीं-कहीं चढ़ाई है. पगडंडी बुग्याल के बीच से गुजरती है, लेकिन नीचे घना जंगल और उसके पार बहुत दूर दुमक, कलगोठ आदि दर्गम गांव दिख रहे थे. पित्रधार से दो कि.मी. आगे पंचगंगा है, जहां खाने-पीने व ठहरने की सुविधा है. इससे दो कि.मी. और आगे चलने के बाद देवदर्शनी आता है, जहां से पहली बार रुद्रनाथ के दर्शन हुए तो बड़ी राहत महसूस हुई कि चलो अब पहुंचने ही वाले हैं. यहां से मंदिर केवल एक कि.मी. दूर है.

हम साढ़े ग्यारह बजे के आसपास रुद्रनाथ पहुंच गये. रुद्रनाथ में ज्यादा बद्रीनाथ-केदारनाथ जैसी बसासत व भीड़-भाड़ नहीं है, जिस कारण एकान्तप्रिय सैलानियों की पसंदीदा जगह है. एक युवा ट्रैकर की टिप्पणी यहां हर कोई “आड़ू-बेड़ू-घिंघारू’’ नहीं आता. हमने सबसे पहले एकमात्र यात्री लाॅज में रहने का इंतजाम किया, क्योंकि मंदिर के कपाट खुलने के मौके पर भीड़भाड़ ज्यादा रहने की संभावना थी. इसके स्वामी ने कहा कि अन्य दिनों में भोजन सहित प्रति यात्री साढ़े तीन सौ रुपये लिये जाते हैं, लेकिन आज खाने-पीने की व्यवस्था मंदिर में होने के कारण केवल सौ रुपये ही देने पड़ेंगे. अपना सामान वहां रख कर हम मंदिर की तरफ घूमने गये.

18 मई को दोपहर बाद दो बजे के करीब भगवान की डोली रुद्रनाथ पहुंच गयी. देव डोली, पुजारी जी और देवयात्रा में शामिल लोगों के स्वागतोत्सुक लोग फूलमालाओं के साथ मौज़ूद थे. पूरे मंदिर को हरिद्वार से मंगाये गये गेंदे के फूलों से खूबसूरती से सजाया गया था. मंदिर के बगल में एक कमरे का पत्थरों की चिनाई व गोबर-मिट्टी से पुता छोटा, साधारण भवन है जिसकी दीवार पर लिखा है “पुजारी निवास, समुद्र सतह से ऊंचाई 3554 मीटर’’. एक-दो अन्य छोटे आकार के पुराने घर भी हैं जहां यात्री रह सकते हैं. मंदिर के कपाट खुलने के अवसर पर अखण्ड रामायण का पाठ भी हो रहा था. अपरान्ह में ज़ोर की बारिश के साथ ओलावृष्टि और हल्का हिमपात हुआ इसलिये हम बिस्तर में दुबके रहे. शाम को कड़ाके की ठंड महसूस थी. रुद्रनाथ और इस यात्रा के पड़ावों में बिजली नहीं है, मोबाइल सिग्नल भी नहीं मिलते. सूर्यास्त होते ही सभी यात्रियों को बारी-बारी से एक छोटे से कमरे में घास बिछे फर्श पर बैठा कर भोजन परोसा गया. तत्पश्चात् हम यात्री लाॅज में वापस आ गये जहां तीनों छोटे आकार के कमरे पूरी तरह यात्रियों से पैक हो चुके थे. दो लोगों को एक रजाई ओढ़ने को मिली और सब एक-दूसरे से सट कर सोये. हमारे कमरे में दो महिलायें भी थीं, जिनमें से एक उडुपी (कर्नाटक) की रहने वाली महिला ट्रैकर थी, जो पेशे से डाक्टर थी. ’रुद्रनाथ मंदिर भंडारा समिति’ से जुड़े स्वयंसेवकों की टोली तैयारियों हेतु सप्ताह भर पहले ही पहुंच गये थे. यात्रा के दौरान यात्रियों के भोजन आदि की व्यवस्था यह समिति करती है.

रुद्रनाथ में भगवान शिव प्राकृतिक गुफा में विराजमान हैं, हालाकि पत्थरों की चिनाई करके एक छोटा पूजा कक्ष बनाया गया है. यह पंचकेदारों- केदारनाथ, तुंगनाथ व मदमहेश्वर के बाद चतुर्थ केदार है, जबकि पांचवे नम्बर पर कल्पनाथ है. यहां शिव के एकानन रूप की पूजा होती है. मंदिर के बगल में वन देवी का मंदिर है, जो, मान्यता के अनुसार, इस क्षेत्र की रक्षा करती हैं. ऊपरी तरफ पत्थरों से बनाये छः छोटे आकार के मंदिर हैं, जिनमें से एक दुमंजिला बना है और उसमें दो शिवलिंग हैं. पूछने पर बताया गया कि पांच पांडव, कुंती और द्रोपदी (कुल सात) ने इन्हें बनाया. इसके थोड़ा और ऊपर एक जल स्रोत है, जिसका पानी देवताओं के लिये मुख्य पुजारी द्वारा तांबे के कलश में लाया जाता है. 19 तारीख को सुबह चार बजे उठा. लाॅज में एक ही शौचालय और स्नानगृह होने के कारण बारी आने तक लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ रही थी. इतने यात्रियों के नहाने के लिये गर्म पानी मिलने की उम्मीद नहीं की थी, लेकिन अप्रत्याशित रूप से दो मग पानी मिल गया.

रुद्रनाथ मंदिर के पुजारी

रुद्रनाथ जी के दर्शन करके सुबह-सुबह वापस चल देने के विचार से सूर्योदय से पहले मंदिर पहुंच गया था. नंदादेवी, नंदा घुंघटी, त्रिशूल आदि हिमाच्छादित चोटियों, चारों तरफ विस्तृत् बुग्याल, और मंदिर के पास स्थित सूर्य कुंड व चन्द्र कुंड, सब शांत थे. मानो ये भी मंदिर के कपाट खुलने का इंतजार कर रहे थे! सीलबंद ताला खोलने के बाद मंदिर की सफाई का काम हुआ. मंदिर बंद होते समय  शिव की समाधि पूजा के उपरांत शिव लिंग को यहां पाये जाने वाले बुखला के फूलों से ढक दिया जाता है. मंदिर खुलने पर इन्हें हटा कर एक जगह इकट्ठा करके रख देते हैं. यही रुद्रनाथ का प्रसाद होता है. सुबह छः बजे कुछ अन्य तीर्थयात्रियों के संग रुद्रनाथ जी के दर्शन का सौभाग्य मिल गया, लेकिन गाइड ने कहा कि पंडित जी आपको अभी जाने नहीं दे रहे. जब इतनी दूर से आये हो तो भगवान का श्रृंगार और आरती देखे बिना जाना ठीक नहीं होगा, उसने ठीक ही तो कहा. साथी कुशवाहा जी कहने लगे, “इतना अच्छा अवसर सौभाग्य से ही मिलता है’’.

सफ़ेद बुरांश

 सुनहरी-गुनगुनी धूप में बैठ कर मंदिर खुलने के अवसर पर होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों का साक्षी बनना अविस्मरणीय अनुभव रहा जो मुख्य पुजारी ने अपने सहायकों की सहायता से किये. इस दौरान पुजारी जी को कोई स्पर्श नहीं कर सकता, जिस रास्ते से वह जाते हैं वहां से दर्शनार्थियों को हटा दिया जाता है. सबसे पहले वन देवी की पूजा की गयी. तत्पश्चात् रुद्रनाथ जी का श्रृंगार हुआ. गर्भ-गृह में करीब दो फीट लंबा, एक तरफ को झुका शिव लिंग है. केवल मुख्य पुजारी ही गर्भ गृह में जा सकता है. मंदिर में हवन के बाद शिवलिंग को दूध और जल से स्नान करा कर, साफ कपड़े से पोछा गया. फिर चंदन, चांदी से मूछें व आंखें, छत्र लगाया गया और तब उनकी स्तुति और आरती हुई. आरती के बाद सब को को प्रसाद के रूप में स्वादिष्ट भोजन- पकौड़ी, भांग की चटनी, पूड़ी, सब्जी, मिष्ठान्न आदि परोसा गया. “भगवान की बारात में आये हो, भूखे कैसे जा सकते हो’’, एक यात्री ने टिप्पणी की. दस बजे के बाद ही हम प्रस्थान कर पाये. पित्र धार तक चढ़ाई थी और उसके बाद तो उतरना ही था. पनार बुग्याल में थोड़ी देर विश्राम किया. ल्वींटी बुग्याल में चाय पीने रुके, क्योंकि तेज बारिश हो रही थी. मौलि खर्क से नीचे सुन्दर घना जंगल है, जहां अकेला चलना भालुओं के कारण सुरक्षित नहीं रहता. लेकिन आज तो यात्रियों की काफी आवाजाही हो रही थी. बीस-पच्चीस पैदल व आठ-दस घोड़े पर जाते दिखे. खड़ी चढ़ाई के कारण ज्यादातर बुरी तरह थके हुए थे और सबने यही पूछ रहे थे कि अभी कितना बाकी है. हम उन्हें झूठी तसल्ली देते हुए यूं ही कह देते थे कि थोड़ा सा ही बचा है. शाम चार बजे हम पंुग बुग्याल पहुंच गये थे. सहयात्री कुशवाहा जी को मदमहेश्वर जाना था, इसलिये शाम को सगर से आगे के लिये गाड़ी मिलने की चिंता थी. मुझे गोपेश्वर के लिये गाड़ी की फिक्र हो रही थी. भोलेनाथ जी ने दोनों के लिये इंतजाम कर दिया. पुंग में मुझे गोपेश्वर जाने वाले यात्रियों का एक समूह मिल गया जिन्होंने टैक्सी मंगा रखी थी. कुशवाहा जी को पहले ही रास्ते में मिले दो युवकों ने उनकी गाड़ी में साथ चलने का प्रस्ताव दे दिया था. रुद्रनाथ से करीब सात घंटे में 22 कि.मी. की पदयात्रा करके शाम पांच बजे मैं सगर पहुंच गया. यहां से गोपेश्वर पहुंचा और फिर अगली सुबह पांच बजे अल्मोड़ा को वापस चल दिया. इस तरह रोमांचक यात्रा पूरी हुई.

सभी फोटो: कमल कुमार जोशी

अल्मोड़ा में रहने वाले कमल कुमार जोशी उत्तराखण्ड सेवा निधि पर्यावरण शिक्षा संस्थान, अल्मोड़ा में कार्यरत हैं. यात्राओं और फोटोग्राफी के शौक़ीन हैं. स्वतंत्र लेखक के तौर पर कई नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.

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Girish Lohani

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