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बदलते परिवेश का पहाड़ – दूसरी क़िस्त

कथियान कुछ एक दुकानों, ढाबों, चाय के खोमचों और कुछ एक बेमकसद टहलते युवाओं का ठौर है. इन सबों के अलावा एक बारहवी तक का विद्यालय, एक जंगलात महकमें का डाक बंगला इस कस्बेनुमा जगह की भव्यता में चार चाँद लगाता है. एक अपरिचित दुकानदार से दुआ सलाम की गयी. परिचय दिया गया तो उन्होने बैठने का आमंत्रण दे डाला. सुनने सुनाने का दौरा शुरु हुआ. पता चला कि दारमी घाटी और दारागाड़ घाटी को विभक्त करता कथियान के आस पास वाला क्षेत्र सेब बागानों के लिए प्रसिद्ध है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ग्राम सभा डेरनाड़ में हाल तक साढे तीन लाख सेब की पौध आँकी जा चुकी है जिनमे कई हजार तो पेड़ हो चुके है और अब अच्छी खासी फ़सल देते हैं. आने वाले समय में जिस दिन सभी पेड़ फ़ल देना शुरु करेंगे उस दिन क्षेत्र का आर्थिक स्तर पर काया पलट होना निश्चित है.

जन संवाद यात्रा के दौरान मुझे कथियान में ही आस पास के गाँव के दलित युवाओं के एक समूह से बातचीत करने का मौका मिला जिन्होंने स्थानीय स्तर पर जन समस्याओं के निराकरण हेतु जनजाति क्षेत्र विकास समिति का गठन किया है. ज़ाहिर सी बात है कि लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था में आस्था रखने वालो के लिए यह खुशी की बात हो सकती है लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि इन दलित युवाओ के गाँव का रसूखदार स्वर्ण तबक़ा इस समिति के गठन को पचा नही पा रहा है. स्थानीय अखबार में इस क्षेत्र विकास समिति के कार्यकर्ताओं के नाम सहित छपी एक छोटी सी खबर से वे आगबबूला हो गये और समिति के अध्यक्ष को फोन कर उसे और उसके साथियों को उनकी उस औकात के दायरे में रहने की सलाह दे डाली जो वेदों और पुराणों में उनके लिए निहित है. यहाँ यह अकेला मामला नही है, कुरेदने भर की देर है, पके फोड़े से मवाद के मानिन्द कई विभत्स सच सामने आ जाएंगे. लेकिन यह जानकर अच्छा लगा कि ये दलित युवा इस प्रकार की धौंस धमाली को लेकर प्रतिरोध की मुद्रा में है और इस तरह के अनैतिक प्रयासो के प्रति दबी ज़ुबान में सही, अपना विरोध तो दर्ज कर ही रहे हैं.

इस क्षेत्र विशेष के संबंध में बडी बिडम्बना यह है कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव जैसी असंवैधानिक प्रथाओं से ग्रस्त इस क्षेत्र का स्वर्ण तबक़ा दलितों की तरह ही आरक्षण का लाभ सन् 1967 से ले रहा है और बावजूद इसके वह जातिवाद की सर्वोच्चता का मोह अभी भी त्याग नहीं पाया है. इस क्षेत्र में जो दलित पढ लिख गये हैं उनकी शैक्षिक योग्यता भी मात्र कोटे के तहत सरकारी नौकरी हासिल करने तक ही सीमित रही है बाकि पढा-लिखा तबक़ा, चाहे स्वर्ण हो या दलित, केवल सरकारी नौकरियों में रोजगार के लिए पढ़ाई कर रहे हैं और अभी भी सब के सब जातिवाद के सामन्त वादी और दक़ियानूसी ढर्रे को अपने पूर्वाग्रहों के साथ ढोते आ रहे हैं.

कथियान के बाद अगला गाँव भटाड़ था. सड़क पर से एक युवा से मुलाकात हुई, लोगों की बावत पूछा तो पता चला कि सभी लोग बागीचों में व्यस्त है लिहाजा उस युवक से ही. इस सफ़र में यह पहला युवक था जिसने मुझे खासा प्रभावित किया. समस्या को लेकर मुखर रहने वाले इस दलित युवक ने स्थानीय स्तर की व्यवस्थाओं की बखिया उधेड़ कर रख दी. इस युवा के पास तर्क थे, जानकारी थी लेकिन उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं था . पढते-लिखते हुए सामाजिक पहचान के लिए जूझ रहे इस युवा ने बड़ी मजबूती से अपने क्षेत्र की समस्याओं और उनके समाधानों के साथ अपना पक्ष रखा. इसके बाद मैं हरटाड़ भुनाड़, डांगूठा गाँवो तथा सारनी किस्तूल के खेड़ों ढांढी और केराड़ होता हुआ देर रात चिल्हाड़ गाँव पहुँच गया. कथियान के बाद वाले गाँवों, ख़ेड़ों से गुजरने पर ऐसा कुछ भी अलग नहीं दिख़ा जिसे यहाँ अलग से लिखा जाय. यहाँ भी बुनियादी सुविधाओं को लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिख़ा. इन गाँवों की समस्याएं भी बावर के बाकी गाँवो से लगभग मिलती जुलती ही थी.

अगले रोज सुबह चिल्हाड़ गाँव के युवाओं से बात चीत की. यहाँ की समस्याएं भी तकरीबन वैसी ही है जैसी इस यात्रा के दौरान मैं लिखता आ रहा हूँ. अलग कुछ था तो चिल्हाड़ के एक अधेड़ से एक संवाद, जो कुछ इस प्रकार से थाः

मैने अधेड़ से पूछा, ‘तुम्हारे मुताबिक़ गाँव की मुख्य समस्याएँ क्या है?’
अधेड़ बोला ‘बेरोज़गारी’
मैने कहा, ‘इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?’
अधेड़ बोला, ‘गाँव में बारात घर नही है’
मैने कहा , ‘बारात घर का बेरोज़गारी से क्या संबंध?’
अधेड़ बोला , ‘ठेका मिलेगा.’
मैं बिना कुछ और कहे सुने अगले गाँव बाणा धार की ओर हो लिया.

बाणा धार दारागाड़ और बेनाल केचमेंट से उठते उस पहाड़ के उन अन्तिम गाँवों में से एक है जो वहां से उपर ख़ड़म्बा टाप तक फ़ैले देवदार, बांज जैसे दरख्तों के छितराए जंगलों के साथ अपनी सीमाएं साझा करते हैं. यहाँ भी जीविकोपार्जन के मुख्य स्रोत खेती बाड़ी और पशुपालन ही है. यहाँ भी स्कूल कालेज पढ रहे युवाओं का मुख्य ध्येय मात्र सरकारी नौकरी है. गाँव में बे वक्त पहुँचना हुआ. गाँव के लोग तब तक खेतों और पशुओं में काम हेतु जा चुके थे. कुछ एक महिलाओं से बात हो पाई बस. लेकिन उनके अनुसार तो सारी समस्याएं ही ईश्वर की मर्जी के कारण होती है. इन सबों से विदा लेकर मैं अगले गाँव सिलावड़ा की ओर चल दिया.

अगला गाँव सिलावड़ा शिल्पकारों का गाँव है. पता नहीं कब जातिवाद के दंश ने देवताओं की मदद से इन कारीगरों के पुरखों को दलित घोषित कर दिया होगा जिसके चलते इनकी पीढियां आज भी छुआछूत जैसी कुरितियों को अपनी नियति मान कर ढो रही है. एक जमाने से इस गाँव के वाशिन्दों को काष्ठ एवं पाहान शिल्प में महारत हासिल है. इस पूरे क्षेत्र में रिहाइश के लिए बनने वाले पारंपारिक और आधुनिक मकानो के निर्माण में ये लोग हमेशा से अहम भूमिका निभाते आए है.

सिलावड़ा गाँव में पहुंचने पर स्थानीय निवासी रतिया की पूछ की तो पता चला कि वो तो गाँव वाला घर छोड़ कर सामने सड़क की चपेट में आये एक खेत के बचे अवशेष पर झोपड़ी बना कर रहने लगा है. पूछते-ताछते मैं उसकी झौंपड़ी तक पहुँच गया. झौंपड़ी का दरवाजा अधखुला था, मैने अन्दर झाँक कर देखा तो जमीन पर लेटा रतिया झौंपड़ी की छत ताक रहा था. मैने आवाज लगाई तो वो चौंक कर उठ बैठा. मैने पूछा, मुझे पहचानते हो? बोला, याद नहीं आ रहा. मैने अपना परिचय दिया तो उछल पड़ा. रतिया मेरे बचपन का साथी था लेकिन कई सालों बाद मिलने पर वो मुझे पहचान नहीं पाया. मेरा यूँ अचानक उसके सामने खड़ा होना उसकी स्मृतियों को झकझोर गया. उसकी आँखे गीली हो गयी. हम गले मिले. असहाय और थके मांदे रतिया नें मूक होकर हाथों के संकेत से अपने इर्द-गिर्द की दयनीय परिस्थितियों से परिचित करवाते हुए मुझे बैठ जाने को कहा.

शायद अस्सी के दशक के आख़िरी और नब्बे के दशक के शुरूआती वर्षों की बात रही होगी. जौनसार बावर का गीत संगीत उस दौर तक के मेलों ठेलों और बार त्यौहार से निकल कर ऑडियो कैसेट्स में बन्द होकर टेप रिकार्ड के माध्यम से घर-घर में सुनाई देने लगा था. अपने पड़ोसी, सिरमौर, सतौता, किरण, बंगाण, रंवाई तथा जौनपुर की तरह देश दुनिया से भिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक ताने बाने वाले जौनसार बावर के लोक गीत प्रकृति के साथ संधर्षरत जीवन जीने वाले मेहनतकश समुदाय के लिए उनके जीवन में ऊर्जा के संचार का काम करते आए हैं. जहाँ एक जमाने में गीत बात के लिए साल में विशेष दिनों का इंतज़ार करना होता था वहाँ अब टेप रिकार्डों ने इसे अत्यन्त सुलभ बना दिया.

उस दौर में संस्कृतिधर्मी नन्द लाल भारती की अगुआयी में जगत राम वर्मा ने जौनसार के पारंपरिक और रतन सिंह जौनसारी द्वारा लिखित तथा स्वरचित गीतों को जौनसार बावर के लोगों द्वारा खूब सराहा जाने लगा था. इसी देखा देखी में जौनसार बावर के अन्य युवाओं ने, जो स्थानीय गीत संगीत में दिलचस्पी रखते थे और स्थानीय लोक संस्कृति के प्रति संवेदनशील थे, इस ओर का रूख करना शुरू किया.

इस नए दौर के गीत बात में दिलचस्पी रखने वाले युवाओं में बावर के सिलावडा गाँव का यह युवक रतिया नन्द भी शामिल था. जहाँ तक मुझे याद है स्थानीय बोली के स्वरचित लोक गीतों के साथ रतिया नन्द को गाने का पहला मौका जगत राम वर्मा के साथ ही मिला. लोक गीतों को लेकर अपने जूनून के चलते रतिया नन्द नें बैंकों से कर्ज लेकर देहरादून और दिल्ली स्थित रिकॉर्डिंग स्टूडियो वालों से संपर्क किया तथा स्वरचित गीतों के कुछ एक संग्रह निकाले. रिकॉर्डिंग स्टूडियो वालों की लोभी प्रवृति, मार्केटिंग के मिस-मैनेजमेंट और सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रति सरकारी तथा स्थानीय लोगों की उदासीनता के चलते अपढ़ रतिया नन्द लोक गायक बनने की बजाय क़र्ज़दार बन गया. गरीबी से जूझ रहे रतिया नन्द को यह शगल बहुत मंहगा पडा और वह आगे चलकर दिहाडी मज़दूर हो गया.

लोक गीतों में फूहड़ता, तड़क भड़क और दोहरे संवादों के बरक्स रतिया नन्द के गीतो में प्रेम, स्थानीय समाज की जीवन चर्या और संस्कृति का पुट, युवाओं और युवतियों की चुहलबाजी तथा कृषकों, पशु चारकों का दर्शन विद्यमान था. पहाड पर खेती बाड़ी और पशुओं के पीछे रात दिन खटने वाले स्थानिकों के लिए प्रेम के क्या मायने है, वे खुद को कैसे बहलाते हैं, इसका चित्रण रतिया नन्द के गीतों में स्पष्ट महसूस किया जा सकता है. यदि आसाम का लोक संगीत भूपेन हज़ारिका के बिना, पंजाब का लोक संगीत गुरदास मान के बिना और गढवाल के लोक गीत नरेन्द्र सिंह नेगी के बिना अधूरे है तो जौनसार बावर का लोक संगीत भी रतिया नन्द के बिना पूरा नही होता लेकिन जौनसार बावर के लोक संगीत की बिडम्बना देखिए, आज रतिया नन्द नरेगा के अंतर्गत मज़दूरी कर अपना और अपने परिवार का पेट पाल रहा है.

मेरे आने के कारणों की पड़ताल करने के बाद रतिया मुझे लेकर अपने गाँव की ओर लेकर चल दिया. आजकल रतिया के साथ-साथ गाँव के युवक मनरेगा के तहत मुख्य सड़क से गाँव तक के लिए एक जीप का रास्ता बना रहे थे. दो पहर हो चुकी थी, लिहाजा इस वक्त सभी लोग आराम के लिए अपने-अपने घरों में थे. रतिया मुझे लेकर दलजीत के घर ले गया. मेरे आने की खबर पर गाँव के सभी युवा वहाँ जुट गए. बातचीत का दौर चला. दलज़ीत नजदीक के कस्बे विकास नगर में दुकान चलाता है. वो आजकल इसलिए यहाँ आया हुआ है कि यहाँ के वाशिन्दों को क्षेत्र के देवता महासू के लिए साल के दौरान भेंट किए जाने वाले अनाज की खेप, जिसे कूत भराई कहा जाता है, को लेकर हनोल जाना है. यह उसकी खानदानी जिम्मेदारी है.

आह! कितने भोले लोग है ये. जो व्यवस्था इन्हे सामाजिक तौर पर हाशिए पर ढकेले हुए है, जिस व्यवस्था ने इन्हे अछूत करार दिया है, ये लोग उसी समाज द्वारा विकसित किए गए दकियानूसी ढर्रे क़ूत भराई को अपनी नीयति मान कर आज भी ढो रहे हैं. छुआछूत का दंश झेल रहे इन लोगों की श्रद्धा का स्तर देख कर दिल पसीज गया और देवताओं के अस्तित्व को लेकर घृणा और उद्वेलित हो उठी. लेकिन कमाल की बात यह है कि जातीय व्यवस्था में निचले पायदान पर होना इनके लिए कोई बड़ी समस्या नहीं है. इनकी प्राथमिकताओं में भी शिक्षा, रोजगार, सड़क, पानी और ख़ेती बाड़ी है. एक जमानें में इनके पुरख़ों के दो चार परिवार ही यहाँ थे लेकिन अब यहाँ चालीस के उपर परिवार रहते हैं. जन संख़्या तो बढ गयी लेकिन जमीन तो उतनी ही है. तो खेती बाड़ी करें भी तो कैसे. दिहाड़ी मजदूरी ही एक मात्र विकल्प बचता है, वो किया जा रहा है. सिलावड़ा के युवा चाहते हैं कि यदि सरकार उन्हे पट्टे पर जमीन उपल्ब्ध करवाती तो वो अपनी जमीन पर मेहनत करते.

भरपेट बातचीत के बाद जब मैं जाने को हुआ तो दलजीत कहने लगा, -पंडित जी, हम तो आपको चाय भी नहीं पिला सकते.

मैने कहा, -क्यों नहीं पिला सकते, आप बनाइए, मैं पिऊंगा.

वहाँ बैठे सारे लोग अवाक होकर मुझे देख रहे थे. दलजीत के घर पर चाय बनी, सभी के साथ बैठ कर मैंने चाय पी और उन लोगों से विदा लेकर अगले गाँव भन्द्रोली की ओर निकल गया.

भंद्रोली, चकराता त्यूनी मार्ग से लगता गाँव है. यहाँ के बाशिन्दों की समस्याओं की जो एक लंबी चौड़ी फ़ेरहिस्त है उसमे पेयजल की किल्लत सबसे प्रमुख है. बावर के बाकी गाँवों की तरह बुनियादी सुविधाओं का अभाव स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है. समाधान को लेकर क्या किया जा सकता है, ये यहाँ कोई नहीं जानता. समय काफ़ी था, लिहाजा अगले गाँव डूँगरी की ओर निकल पड़ा. सावड़ा की ओर को आगे बढते हुए चकराता त्यूनी मुख्य मार्ग से निकली एक नई नवेली डूँगरी गाँव को देश दुनिया से जोड़ती है. प्रधान मन्त्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत निर्माणाधीन इस सड़क पर डामरीकरण का काम चल रहा था. डामर को गर्म करने के लिए सड़क के दोनों ओर आस पास के जंगल से सैकड़ों हरे पेड़ों को काट कर ढेर लगाए गए थे. यह सब देख कर जेहन में एक सवाल उभर आया, क्या जंगलात महकमे ने इन पेड़ों को काटने की अनुमति ठेकेदार को दी होगी? हैरत हो रही थी कि पर्यावरण के नाम पर स्थानीय चरवाहों और ग्रामीणों को जलावन की लकड़ी और मवेशियों के लिए चारा पत्ती के लिए बात बे बात परेशान करने वाला वन विभाग इतने पेड़ों के काटे जाने पर खामोश क्यों है?

टौंस और बेनाल के संगम से उठे पहाड़ की चोटी से थोड़ा सा नीचे एक छुपी हुई जगह पर बसा डूँगरी गाँव प्राकृतिक किलेबन्दी का अनूठा उदाहरण है. सैकड़ों सालों से पूरे महासू क्षेत्र में अधिकतर गाँव ऐसी ही जगहों पर आबाद है. दो भागों में बंटा यह गाँव एक जमाने में आदर्श मौसम के चलते समृद्ध खेती बाड़ी के लिए जाना जाता था . लेकिन स्थानीय जीविकोपार्जन के प्रति उदासीनता के चलते यहाँ के अधिकतर बाशिन्दे चकराता त्यूनी सड़क पर स्थित खेड़ों को पलायन कर चुके हैं. सड़क भले ही गाँव तक पहुँच चुकी हो लेकिन अब गाँव में गिनती भर के ही लोग बाकी रह गए हैं.

डूँगरी गाँव से लौट कर चकराता त्यूनी मोटर मार्ग पर कस्बे के रुप में विकसित हो रहे ख़ेड़े सौडा पहुँचना हुआ. मुख्य सड़क के इर्द गिर्द बने ढाबों, दुकानों और मकानों की वजह से वजूद में आ रहे कस्बे का नाम है सौड़ा. सौड़ा एक जमाने में खेड़ा हुआ करता था. त्यूनी चकराता मोटर मार्ग के अस्तित्व में आते ही नेपाली कामागरों और स्थानीय लोगों नें यहाँ ढाबे और छोटी मोटी दुकानें खोलनी शुरु कर दी थी. सौड़ा आज एक अच्छे खासे ग्रामीण बाजार के रुप में विकसित हो चुका है. यहाँ एक बारवहें दर्जे तक का स्कूल है जिसमे विद्यार्थियों की अच्छी खासी संख़्या है. शाम हो चुकी थी. सावड़ा से आगे निकल कर मैं रोटा खड़्ड़ पहुँचा जहाँ अमराड़ गाँव के श्याम सिहं मेरा इंतजार कर रहे थे.

श्याम सिहं के परिवार नें जो मेजबानी की वो आजीवन याद रहेगी. पहाड़ के गाँवों में मेहमानों के आव भगत की परंपरा अनूठी है. श्रमजीवी श्याम सिहं के भरे पूरे खुशहाल परिवार नें हमारी खातिर दारी में दिल निकाल कर रख दिया. माघ को गुजरे महीना होने को था लेकिन खास और अजीज मेहमान की तरह हमारे लिए श्याम सिहं ने सूखा गोश्त पकाया. यह दावत अपने आप में अद्भुत थी. खा पी कर देर रात को आँगन में अमराड़ गाँव के लोगों के साथ सभा की गई.

बातचीत का दौर स्थानीय समस्याओं के साथ शुरु हुई. सुनने और सुनाने का दौर चल पड़ा. अमराड़ गाँव की समस्याएं भी जौनसार बावर के अन्य गाँवों से अलहदा नहीं है. लेकिन सभा में बैठे ग्रामीणों की एक बात नें मुझे भविष्य के प्रति आशांवित कर दिया जब उन्होने कहा कि उनकी जो सबसे बड़ी समस्या है वो है नजदीक में स्कूल का न होना. यह उनकी व्यक्तिगत समस्या नहीं थी. यह इस पूरे ईलाके के गाँवों की समस्या थी. उनका कहना था कि दसवें दर्जे तक का स्कूल भले ही पास के गाँव खरोड़ा में खुल गया हो लेकिन उसके बाद आगे की पढाई के लिए उनके बच्चों को सावड़ा या कोटी जाना पड़ता है. हमारे बच्चों समेत सैंज, कुनैण और कचाणू जैसे दूरस्थ गाँवों के बच्चों को सावड़ा तक पहुँचने में लगभग 10 से 15 किलोमीटर का पैदल सफ़र तय करना पड़ता है. लड़के तो चलो जैसे तैसे यह मुश्किल पार भी कर लें लेकिन जवान होती लड़कियों को इतनी दूर कैसे और किसके सहारे भेजें? इस क्षेत्र में कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज ही नहीं है. हाल के दौरान रोटा खड़्ड़ में एक आवासीय विद्यालय खुलने की बात संज्ञान में आई थी. हम लोग बहुत खुश थे, हमे लगने लगा था कि अब हमारे इस ईलाके के गाँव क़ी बच्चियों को सुरक्षित शिक्षा मुहैया हो जाएगी. लेकिन सत्तासीनों को यह बात नागावर गुजरी. उन्होने इस आवासीय विद्यालय को त्यूनी स्थान्तरित कर दिया. हम लोग ठगे से रह गए. यहाँ जन भावनाओं को नहीं सत्ता को सलाम होता है. पहले हमारी तहसील पहले चकराता हुआ करती थी लेकिन उसे भी अब त्यूनी कर दिया गया है. जब तक चकराता तहसील हुआ करती थी, कोई न कोई अफ़सर या कारकून वहाँ मिल ही जाता था लेकिन त्यूनी की तहसील का तो भगवान ही मालिक है. त्यूनी में इंटरनेट का उपलब्ध न रहना अपने आप में एक बड़ी त्रासदी है. कोई विरला ही हो सकता है जो त्यूनी में इंटरनेट के साथ-साथ संबंधित अधिकारी या कर्मचारी को एक साथ पा जाए… चकाराता तहसील होने के समय यह होता था कि सरकार के दरवाजे पर पड़ने वाले कामों के साथ घर के लिए लाए जाने वाला सौदा पत्ता भी आ जाता था लेकिन त्यूनी से क्या लाएं. त्यूनी जाने के लिए तो समय पर कोई सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था भी नहीं. विकास नगर देहरादून से आने वाली गाड़ियाँ आधा दिन निकलने के बाद यहाँ पहुँचती है, उसके बाद त्यूनी जाते-जाते शाम हो जाती है. अगले दिन दस बजे सरकारी दफ़्तरों के दरवाजे पर काम की फ़रियाद लेकर जाओ, छोटा से छोटा काम होने में भी सरकारी दफ़्तरों में समय तो लग ही जाता है. दस बजे तक हमारे तरफ़ आने वाली सभी गाड़ियां निकल चुकी होती है. परिवहन की सुविधाओं नें पैदल चलने के ख्याल को ही खत्म कर दिया है. लिहाजा तीसरे दिन घर वापस आना हो पाता है. अब आप ही बताईए, समय और धन के अतिरिक्त व्यय के अतिरिक्त त्यूनी की नई तहसील नें हमारी समस्याएं दूनी कर दी है.

अभी तक की जन संवाद यात्रा में अमराड़ मुझे ऐसा इकलौता गाँव मिला जहाँ के बाशिंदे सामुहिक रुप से जन सरोकारों को लेकर सजग नजर आए. बातचीत के बाद उस रात वहीं ठहरना हुआ लेकिन अगले रोज अल सुबह अगले गाँव कुनैण का रुख कर लिया.

प्राकृतिक रुप से कुनैण गाँव जौनसार बावर के खूबसूरत गाँवों में से एक है. जहाँ एक ओर कुनैण गाँव की हद में ख़डे होकर आप मोईला डांडा से लेकर लोख़ंडी, देवबन, खड़ंबा मुंडाली होते हुए कथियान मोल्टा तक श्रंख़ला बद्ध पहाड़ियों का सुगढ अर्ध वृत नजर आता है वहीं दूसरी ओर सामने की तरफ़ बेनाल घाटी के बाद टौंस घटी का फ़ैलाव, जो सामने हिमाचल के साथ सीमा बनाती मुराच और सतोता क़ी पहाड़ियों तक जाता है, नजर आता है. देवदार के जंगल से अपनी सीमाएं साझा करता कुनैण गाँव कृषकों और पशुचारकों के लिए एक आदर्श गाँव है हो सकता है लेकिन पारंपरिक तौर तरीकों से किए जा रही कृषि और पशुपालन इन लोगों को बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी मुहैया करवा पाता है. पारंपारिक लकड़ी के मकानों के बीच-बीच में पैबन्द की तरह दिखने वाले कंकरीट के बेतरतीब ढाँचों की एक श्रंखला की तरह नजर आता है कुनैण गाँव. . सड़क से गाँव में उतरती पगडंडी के दोनो तरफ़ ख़ुले में किए गए शौच बदबू नें मेरे सर से कुनैण गाँव की प्राकृतिक छ्टा का भूत तुरंत ही उतार दिया. एक दूसरे से सट कर बनाए गए मकानों से निकलने वाले गंदे पानी और रास्ते में यहाँ वहाँ बिखरे कूडे के कारण गाँव के बीचों बीच उतरता रास्ता बदबू से सराबोर था. हर ओर गंदगी के चलते मक्खियों के झुंड के झुंड घर मकानों के आँगन, सीढीयों, देहरियों और बरामदों में फ़िर रहे थे. गाँव में कुछ एक मकान थे जो बाहर से देखने पर ठीक ठाक नजर आते थे लेकिन बाकी की स्थिति तो बहुत ही दयनीय थी. गाँव के अन्तिम छोर में बने प्राथमिक विद्यालय में जाना हुआ. स्कूल में पढाई लिखाई के साथ-साथ निर्माण कार्य भी चल रहा था. बच्चों की अच्छी खासी संख़्या थी. स्थानीय युवकों के साथ-साथ शिक्षकों से भी बातचीत हुई. स्कूल में पढाई लिखाई ठीक ठाक थी. बातचीत के दौरान पता चला की स्कूल में सेवारत शिक्षक महोदय अपने पैसे खर्च कर पढाई लिखाई में होशियार बच्चों को नवोदय और एकलव्य आवासीय विद्यालय के लिए तैयारी करवाते हैं और स्कूल के अलावा यह शिक्षक महोदय योग्य बच्चों को अतिरिक्त समय में भी पढाते हैं.. यह बात खासी प्रभावित करने वाली थी. स्थानीय युवाओं से जब यह पूछा गया कि सरकार की महत्वपूर्ण मुहीम सफ़ाई अभियान के तहत शौचालयों के लिए दिए जाने वाले अनुदान के बावजूद भी लोग ख़ुले में शौच क्यों करते हैं, तो वे बिफ़र पड़े. कहने लगे, सरकार 12 हजार देती है. यहाँ कोई ड्रेनेज सिस्टम नहीं है. ऐसे में एक पक्का ग़ड्ढा बनाने में लगभग दस हजार रुपए का खर्च हो जाते है. शौचालय बनाने के लिए इसके अलावा टायलेट शीट, चार दिवारी, छत और दरवाजा भी चाहिए होता है. आपको क्या लगता है, क्या वो दो हजार में ये सब बन जाएगा? मान लिया जाए, यदि हम सरकारी योजना में अंशदान मिलाकर शौचालय तैयार करवा भी लेते हैं तो उसके बाद उसमे इस्तेमाल के लिए पानी कहाँ से आएगा? अभी मार्च का महीना ही चल रहा है. अभी से पीने के पानी की किल्लत है. आने वाले समय में पानी की किल्लत और बढेगी. गर्मियों में बमुश्किल से बीस तीस लीटर पानी मिल पाता है. अब आप ही बताईए, इतना पानी तो दो बार शौच जाने में बह जाएगा, फ़िर पिएंगे क्या? हमारे लिए किसी डेम से रोका हुआ पानी नहीं आता. पिछले दस सालों मे कई नहरे और पाईपलाईन सूखी पड़ी है. हमारी तो यही नियति है जिसे हमारे बाप दादा भोगते आए हैं. कुनैण गाँव के युवाओं के सम्मुख मैं निरुत्तर था. मैने उन सबों से विदा ली और अपने अगले गंत्वय की ओर निकल पड़ा.

कुनैण से निकल कर मैं खरोडा, त्यूना, विणसौण होते हुए देर शाम तक कोटी जा पहुँचा. रात को कोटी से लगते जंगल में मित्र इन्द्र सिहं राणा की नवनिर्मित काटेज में डेरा डाला गया. जंगल के बीचों बीच अपनी पुश्तैनी जमीन पर बनाई गई यह आराम गाह अपने आप में स्वप्न लोक का भान करवाती है. स्थानीय भवन शैली को सुव्यवस्थित आकार देकर बनाई गई काटेजों की वास्तुकला अपने आप में अद्भुत है. यह काटेज ईन्द्र सिहं राणा के संघर्षों की कहानी है. एक समय दिल्ली में सिविल सर्विसेस की तैयारी करने आए ईन्द्र सिहं राणा नें कुछ हट कर करने की सोची. वो चाहते तो नौकरी भी कर सकते थे लेकिन उन्होने कुछ हट कर करने की सोची. उन्होने जब काटेज बनाने का प्रस्ताव अपने परिवार के सामने रखा तो खेती बाड़ी के प्रति पारंपारिक सोच रखने वाले उनके परिवार वालों ने इसका पुरजोर विरोध किया. लेकिन उन्होने जैसे तैसे कर उन्हे मना लिया. इस परियोजना के लिए पूँजी एक दूसरी बड़ी चुनौती थी, लेकिन ईन्द्र सिहं के मजबूत ईरादों नें सब बाधाओं को पार पाकर अपने सपने को साकार कर दिखाया.

अगले दिन लौहारी, जाड़ी दारना धार होता हुआ मैं चकराता पहुँच गया. सभी गाँवों में स्थानीय लोगों के साथ बैठना हुआ. ब्यौरेवार विवरण इसलिए नहीं दे रहा हूँ क्योंकि इन गाँवों की भी वही समस्याएं थी जो कमोवेश बावर के गाँवों थी. इन सभी की प्राथमिकता भी पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली और स्थानीय स्तर पर कृषि, पशुपालन से संबधित रोजगार की थी. सभी लोग अपने-अपने स्तर पर जीविकोपार्जन की कोशिश में लगे हुए है. बावजूद इसके, आने वाले समय में खेती बाड़ी के आदिम और पारंपरिक तरीकों से जीविकोपार्जन आत्मघाती हो सकता है. तेज भागती दुनियां का मुकाबला पारंपरिक तौर तरीकों से तो नहीं हो सकता है. गिनती भर के लोग है जो खेती बागवानी और पशुपालन के आधुनिक तरीकों के लिए अपने आप ही जूझ रहे हैं, बाकी तो इस क्षेत्र की नई पीढी खेती बाड़ी और पशुपालन से विमुख होकर नौकरी और ठेकेदारी के लिए सरकारों के मुँह ताकती नजर आती है.

(समाप्त)

 

स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.

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Sudhir Kumar

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  • दलित के घर में पैदा होना ही अभिशाप है

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