पहाड़ में परंपरागत बने मकानों में स्थानीय रूप से उपलब्ध पत्थर, मिट्टी, लकड़ी का प्रयोग होता रहा. हवा और धूप के लिए दिशा ज्ञान या वास्तु का प्रयोग किया जाता रहा. मिट्टी की परख कर स्थान विशेष के निर्णय धर बनाने के लिए किये गए. मकान को घर या कुड़ी कहा जाता है पाथर खानी से निकले पत्थर और पटाल निकाल तथा गाँव की ही ओड़ से गारे मिट्टी से पत्थर की चिनाई की जाती. Traditional House in Uttarakhand
चिनाई दो तरह ही होती. कम साधन होने पर ‘सागरा ‘चिनाई तो हैसियत वाले लोग ‘रदवार’ चिनाई कर तिपुरी या तीन खण्डों के घर बनाते जो ‘खोली ‘ वाले होते. सामान्य लोगों में बाहर से पत्थर की सीढ़ी दुमंजिले के दरवाजे तक जाती. एक ही कमरा होने पर लकड़ी को चीर कर बने तख्तों से विभाजन कर चाख और भीतर का कमरा बन जाता.
स्थानीय रूप से उपलब्ध मजबूत काष्ठ से द्वार व छाजा या खिड़की बनती जिसमें नक्काशी की जाती. घर की छत में मोटी गोल बल्ली या ‘बासे’ डलते, तो धुरी में मोटा चौकोर पाल पड़ता जो ‘भराणा’ कहा जाता. यह चीड़ की लकड़ी का अच्छा माना जाता.
धुरी में भरना डाल छत की दोनों ढलानों में बांसे रख इनके ऊपर बल्लियां रखी जातीं. बल्लियों के ऊपर ‘दादर’ या फाड़ी हुई लकड़ियां बिछाई जातीं या तख्ते चिरवा के लगा दिये जाते. इनके ऊपर चिकनी मिट्टी के गारे से पंक्तिवार पाथर बिछे होते. दो पाथर के जोड़ के ऊपर गारे से एक कम चौड़ा पाथर रखा जाता जिसे ‘तोप’ कहते.
दनयारी से धुरी तक पंक्ति में पाथर बिछा कर छत बनायीं जाती. धुरी में लगभग एक फ़ीट चौड़ी दीवाल चिन कर उसके ऊपर भी पाथर लगते. घर के कमरों में चिकनी मिट्टी और भूसी मिला कर फर्श बिछाया जाता जिसे गोबर से लीपा जाता. दीवारों में एक फ़ीट की ऊंचाई तक गेरू का लेपन कर बिस्वार से तीन या पांच की धारा में ‘वसुधारा’डाली जाती. गेरू और बिस्वार से ही ऐपण पड़ते. अलग अलग धार्मिक आयोजनों व कर्मकांडों में इनका स्वरुप भिन्न होता.
हर घर के भीतरी कक्ष में पुरवा या उत्तर दिशा के कोने में पूजा के लिए मिट्टी की वेदी बनती जो ‘द्याप्ता ठ्या’ कहलाती. भीतर के कक्षों में एक ओर खिड़की के पास ‘रिश्या’ या रसोई होती. रसोई वाले भाग में छत पर करीब आधे-एक फुट की गोलाई का जाला बना दिया जाता जिससे लकड़ी जलने वाला धुंवा निकल जाये व धूप भी आती रहे. एक सरकने वाले पाथर से इसे बंद भी किया जाता जिससे बारिश या द्यो का पानी ना आये.
रसोई में पत्थर-मिट्टी से बने चूल्हे होते और ठीक सामने एक पंक्ति में ‘आटई’ होती जहां थाली, कटोरी, गिलास रख भोजन परोसा जाता. भोजन परोसने वाले और ग्रहण करने वाले के बीच में गोबर या राख की बाड़ डाली जाती. खाना बनाने वाला ‘रिस्यार’ कहलाता जो एक वस्र पहन पक्का खाना बनाता जिसमें दाल-भात शामिल होता. सब्जी-रोटी कच्चा खाना कहलाती. जूठे बर्तन भांडे चूल्हे की राख से धुलते. खाना बनाने से पहले तौली, भड्डू के निचले भाग को छारे से पोत दिया जाता जिससे लकड़ी के धुंवे से वो काले ना पड़ें.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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