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पहाड़ की होली में आज भी परंपरागत सुगंध महसूस की जा सकती है

होली जीवन के रंगों से जुड़ा, राग-लय और जीवन के उत्साह का त्योहार है. मुसलसल सर्द महीनों के दौरान प्रकृति के ऊपर जो ठहराव की परत जम जाती है, ठहराव के उसी केंचुल को उतार फेंकने का उत्सव है होली. जीवन में ऊर्जाशीलता का प्रतीक है होली. हाड़ कंपाने वाली सर्दियों के थक जाने के बाद जब फाल्गुन का महीना आता है, तो ठंड के कारण जीवन में आई निष्क्रियता भी भाप बनने लगती है और हर तरफ जीवन अंगड़ाई लेता दिखाई पड़ता है. Traditional Holi in Uttarakhand.

ऋतुओं के इस संधिकाल में प्रकृति रंग-बिरंगा लिबास पहन कर दुल्हन की भांति सज-धज कर तैयार हो जाती. भांति-भांति के फूल खिल उठते हैं, पतझड़े पेड़-पौधे एक बार फिर नई कोपलों के साथ चमकती धूप का स्वागत करने को तैयार हो उठते हैं. धरा पर हरियाली की नई चादर बिछने लगती है और हर ओर हर्षोल्लास का मौहाल बन जाता है. होली पर्व के जरिए हम भी इसी नवजीवन का उत्सव मनाते हैं.

यूं आधुनिक दौर की होली एक आनंदमय परंपरागत त्योहार का विकृत रूप ज्यादा रह गया है, जो मुझे कभी नहीं भाए. क्योंकि होली में बजने वाले कानफाड़ू संगीत (जिसे आजकल ‘डीजे’ कहा जाता है, जो विचित्र-विचित्र आवाजों में कई गीतों के मुखड़ों का संग्रह होता है) और लोगों के ऊपर शराब पीकर चढ़ने वाला कृत्रिम उत्साह, चीन से बनकर आए कृत्रिम रंग और गुलाल कभी मुझे आकर्षित न कर पाए. कई बार तो होली की हुड़दंग-हुल्लड़बाजी को खतरनाक स्तर तक पहुंचते भी देखा है. पर पिछले दिनों मुझे कुमाऊं हिमालय की परंपरागत होली देखने का मौका मिला, जिसने मुझे अभिभूत कर दिया.

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में मनाई जाने वाली होली आज भी अपनी गहरी परंपरा को साथ लेकर चल रही है. सबसे अच्छी बात यह है कि वे होली गायन में किसी फ़िल्मी गाने और लाउडस्पीकर, म्यूजिक सिस्टम का सहारा नहीं लेते. परंपरा से चले आ रहे ब्रज भाषा के भावपूर्ण गीतों की पंक्तियां और परंपरागत वाद्ययंत्र ही उन्हें थिरकाने को काफी हैं. Traditional Holi in Uttarakhand.

होली की मुख्य तिथि से कई दिन पहले शांतिपूर्ण तरीके से आरंभ होने वाली कुमाऊं की होली जरा अलग ही शैली की होली है. इसे ‘खड़ी होली’ के नाम से जानते हैं. इसमें लोग अपने भगवती मंदिर जाकर आशीर्वाद लेते हैं और चीर बांधते हैं.

इस दौरान लोग ख़ास लय के साथ पहाड़ी नृत्य भी करते हैं. फिर होली गाने वाली टोली (होल्यारी) हर दिन घर-घर जाकर होली खेलती है. इस होली को ‘खड़ी होली’ कहते हैं. दहन के दिन कुमाऊं क्षेत्र में ‘बैठी होली’ मनाई जाती है. गल्ली-बस्यूरा (गोविंदपुर; जिला-अल्मोड़ा) ग्राम के निवासियों ने भी ‘बैठी होली’ मनाकर वसंत के नवजीवन का खूब आनंद उठाया. Traditional Holi in Uttarakhand.

दरअसल फाल्गुन महीने की पूर्णिमा के दिन (होलिका दहन के दिन) कुमाऊं क्षेत्र में चीर दहन का आयोजन होता है. इस दिन भी सुबह से ही गांव के सभी लोग किसी प्रमुख व्यक्ति के आंगन-दरवाजे पर एकत्र होते हैं. आपस में गुलाल लगाकर एक-दूसरे को होली की शुभकामनाएं देते हैं और बैठकर ढोल-तबले, हारमोनियम और मजीरे की ताल पर झूम-झूम कर होली के पारंपरिक गीत गाते हैं. इन गीतों में ‘जल कैसे भरूं जमुना गहरी’, ‘होली खेलें गिरिजा नंदन’ जैसे पारंपरिक गीत प्रमुखता से शामिल रहते हैं. बैठ कर खेली जाने वाली इस होली को ‘बैठी होली’ के नाम से जाना जाता है.  ‘बैठी होली’ के दौरान फल, गुझिए, अन्य मिठाइयां, आलू के गुटके, मेवे इत्यादि परोसे जाते हैं और चाय का दौर चलता रहता है. Traditional Holi in Uttarakhand.

मूल रूप से बेंगलूरु के रहने वाले सुमित सिंह का दिमाग अनुवाद में रमता है तो दिल हिमालय के प्रेम में पगा है. दुनिया भर के अनुवादकों के साथ अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के वैश्विक प्लेटफार्म  www.translinguaglobal.com का संचालन करते हैं. फिलहाल हिमालय के सम्मोहन में उत्तराखण्ड की निरंतर यात्रा कर रहे हैं और मजखाली, रानीखेत में रहते हैं.

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Girish Lohani

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