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वह भी एक दौर था

अतीत की स्मृतियों में  अभी भी ताजा है वो सब– मेरी उम्र की पूरी जमात हंसी-खुशी स्कूल जाती थी, टाट पट्टी में बैठती थी कलम और दवात से तख्ती पर लिखती थी और स्लेट पर खड़िया से आड़ी-तिरछी लकीरें खींचती थी.

स्कूल की इमारतें कोई आलीशान गुंबद नहीं होती थी. सभी स्कूलों का सादा सा गणवेश था और उस गणवेश में आने वाले बच्चों के मन मे निश्चल सा बचपन था. वह एक दौर था जब बच्चे अपनी उम्र से भी छोटे होते थे. स्कूल और अभिभावक के बीच बस माध्यम बच्चे होते थे, फिर वह चाहे अमीर का हो या किसी गरीब का. कोई भेदभाव नहीं था सब बच्चे एक दूसरे की बाहों में बाहें डालकर खेला करते थे .उमंग थी, उत्साह था और प्यारे से सपने भी. वक्त ने बड़ा किया और आज भी हम अपने उन तमाम सहपाठियों के साथ उतने ही घुले- मिले हैं, उतने ही सद्भाव से मिलते हैं व मुलाकात करते हैं.

आज के परिवेश की बात करें तो यह बिल्कुल हमारे समय से उलट है. स्कूल, स्कूल न होकर बाड़े बन गए जहां बच्चों को एक निर्धारित गणवेश में आना है. यह बच्चा किसी दूसरे स्कूल के बच्चे से ना मिल जाए इस बात की चिंता ज्यादा सताती है.

बस्ते के अंदर किताबें नहीं बल्कि किताबों का बोझ है जो उसकी पीठ पर लदा है. अंग्रेजी माध्यम के इन आलीशान स्कूलों में आपका स्टेटस आपके बच्चे पर हावी रहता है और तो और स्कूल का प्रबंधन तंत्र भी आपके साथ उसी तरह का व्यवहार करेगा जिस तरह का आपका स्टेटस होगा. इस बात को बच्चों में भी बो दिया जाता है. आप हाईप्रोफाइल हैं, मिडिल क्लास के हैं या फिर बीपीएल. आपके बच्चे की पढ़ाई भी इस बात  पर निर्भर करती है. बच्चों के व्यवहार में इस भेदभाव को आप बेहतर महसूस कर सकते हैं. किसी एक बच्चे को टॉफी व चाकलेट या गिफ्ट देना, किसी दूसरे बच्चे के लिए आक्रोश भरा हो सकता है और इस आक्रोश को वह घर में आकर व्यक्त करता है.

किस बच्चे को अव्वल रखना है यह भी उस बच्चे की प्रतिभा पर नहीं उसके पिता के स्टेटस पर निर्भर करता है. स्कूलों का यह बर्ताव और व्यवहार चिंता का विषय है जिसका सीधा असर बच्चे के कोमल मन  पर पड़ता है. एक शिक्षक होने के नाते अगर हम भी ऐसा करते हो तो हमें संभलना होगा . बच्चे के साथ हमारा क्षणिक व्यवहार  उसके लिए अहम होता है. वह इसे बखूबी अंकित कर लेता है .

हमारे दौर का मिड डे मील सिर्फ सूखा या गीला दलिया हुआ करता था  जो सब बच्चे बड़े चाव से खाते थे. आज के दौर की बात करें तो अब हर बच्चे के स्कूल का खानपान का भी मैन्यू है जो आपको उसे तय दिन में उपलब्ध कराना होगा. तख्ती, तकली, कलम, दवात और खड़िया से दूर होते यह बच्चे अब क्ले से आकृतियां गढ़ते हैं. और अभी से अपने ही घर में अपना घर-घर खेलते हैं. बच्चे के बनाये इस आभासी घर के दरवाजों को  मां खुला रखना चाहती है लेकिन बच्चा इस दरवाजे को हर बार बंद कर देता है. सच तो यह है कि अब यह बच्चे अपनी उम्र से बड़े हो गए हैं, दादा दादी की उंगली पकड़कर नहीं  बल्कि उनको उंगली पकड़कर चलना सिखा रहे हैं. आसमान गहरा नीला तब भी था और अब भी है. मां अपने बच्चों को सुलाते वक्त चांद-तारों की लोरियां सुनाती थी. सपनों में परियां आती थीं, जाती थीं. मासूम बच्चा सो जाता था. आज कुछ भी तो नहीं है. सोते वक्त बच्चे के हाथ में मोबाइल है.

कुछ मोबाइल में ग्रैनी है, कार रेस है और भी बहुत कुछ है.
माता-पिता के सोने के बाद यह बच्चा भी थका हारा मोबाइल की गिरफ्त से बाहर आकर कब सो जाता है यह सुबह उसके उठने पर ही पता चल पाता है.

आओ शिक्षक दिवस पर इन बच्चों के लिए एक नई इबारत लिखने की सोचें. यह बच्चा पास रहे पास-पास रहे ऐसा कुछ करें—
चुनौतियां हैं लेकिन संभावनाएं भी तलाशने होंगी.

प्रबोध उनियाल पत्रकार व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं. “बच्चों का नजरिया” (मासिक पत्रिका,) स्मरण (स्मृति ग्रंथ) व स्मृतियों के द्वार (संस्मरणात्मक लेखों का संग्रह) के संपादक हैं.

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Sudhir Kumar

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