कला साहित्य

कहानी : बाहर कुछ नहीं था

मेरा एक सीक्रेट है, जिसे मैं किसी से शेयर नहीं कर सकता. मुझे डर है कि जानते ही लोग मुझ पर हँसेंगे. दरअसल खुद मैंने इसे अभी अभी ईजाद किया है. तभी, जब पहलेपहल ऑफिस में यह खबर फैली कि कंपनी का टेकओवर होने जा रहा है, नए साल से पहले, छँटनी होगी और उसके लिए एक लिस्ट तैयार की जा रही है. (Story Sanjay Khati)

एक दिन जब मैं आईएनए मार्केट की ओर मुँह किए खड़ा था, मेरे इर्दगिर्द तेज हवा में पत्ते उड़ रहे थे और मैं सुपर मार्केट के लिए 501 का इंतजार कर रहा था, मैंने पहलेपहल उसे देखा…

ट्रिक यह है कि अपनी साँसें रोक कर नजर को एकदम पास लाएँ, बिल्कुल सामने की हवा में, इस तरह कि उससे आगे की दुनिया अनदेखी हो जाए. और जब अपने से कुछ ही इंच दूर के स्पेस पर नजरें गड़ाएँगे, तो आपको उस पार, इस दुनिया से उस पार की दुनिया दिखने लगेगी. दरअसल वह हमारे इदगिर्द ही है, बस हम उसे देखते नहीं. हमारी नजर चीजों में गुम रहती है, जबकि वह सिर्फ एक इंच दूर है या शायद इससे भी कम. गौर से देखने पर हवा में उसके अक्स धीरे-धीरे उभर आते हैं.

…और मैंने देखा खाड़ू देवता को. वही खाड़ू देवता, जिसने कोसी की धारा उल्टी बहा दी थी और मछलियाँ सोने की तरह चकमने लगी थीं. जो हिमालय की बर्फ में आग पैदा कर सकता था, जिसने कैलाश में शिव जी का आसन हिला दिया था और जो सुग्गे के रूप मे भोटांतक तक उड़ सका था और जिसने शकों की सेना को पत्थरों में बदल दिया था.

और वह खाड़ू देवता, जिसके काले माथे पर बीस साल पुराना रोली का मुरझाया हुआ दाग था, पत्थर का हाथ उठाए हुए कुछ कह रहा था, जैसे किसी नदी का सुसाट हो. मैंने सुना, वह कह रहा था, मुझे भूल गए, मुझे भूल गए, मेरी पूजा नहीं हुई, मुझे बलि नहीं मिली, मैं भूखा रह गया…

तब से कभी भी मैं हवा में एक इंच दूर देखता हूँ और खाड़ू वहाँ होता है, पत्थर की उँगली उठाए हुए, नदी के सुसाट की तरह फुसफुसाता हुआ. वह बेचैन है, नाराज है, वह शाप दे रहा है, उसे बलि चाहिए. गाँव में कोई नहीं है, कोई गाँव नहीं जाता कि उसका उद्धार करे. देवता संकट में है. कोसी नदी की धार पलट देने वाला, शकों की सेना को पत्थर बना देने वाला देवता इस कलियुग में अपनी संतानों को पुकार रहा है.

लेकिन इस वक्त दरवाजे की घंटी बज रही है. कोई है, जो सुबह-सुबह अपना हक माँग रहा है. वह चौकीदार हो सकता है, जिसे सौ रुपए चाहिए, वह जमादार हो सकता है, जिसे पचास रुपए चाहिए. वह किसी कमेटी, अनाथालय या वृद्धाश्रम का कारकून हो सकता है, जिसकी चंदे की कापी मेरा इंतजार कर रही है. मुझे उसे थकने देना है, ताकि वह मायूस होकर लौट जाए और दोबारा जब आए तो मैं उसे मिलूँ ही नहीं. बस पाँच मिनट का सब्र चाहिए और बला टल जाएगी.

लेकिन घंटी फिर बजती है, फिर-फिर बजती है. थोड़े इंतजार के बाद एक बार फिर. वह जो भी है, वहीं है. अब वह कुंडी खड़का रहा है. उसे मालूम है मैं दम साधे यहाँ हूँ और वह निराश होने के लिए तैयार नहीं है. उसे उसका हक चाहिए और दस मिनट बाद भी वह वहीं है. मैं समझ रहा हूँ उससे छुटकारा नहीं है. दरवाजा खुला और मैंने उस अधीर चेहरे को वहाँ पाया. ‘खाड़ू’ मेरे मुँह से निकला, बस निकल ही गया, हालाँकि सिर पर सूखे पत्ते नहीं पड़े थे और न उसके माथे पर पुरानी रोली का दाग था. पसीने, धूल और थकान से लथपथ उस चेहरे पर विस्मय कौध गया. उसने कहा, ‘हाँ, मैं खड़क सिंह हूँ, लेकिन आप मुझे कैसे पहचानते हैं?’

वह मेरे सामने था और वह खाड़ू नहीं था, हो ही नहीं सकता था, लेकिन क्या पता हो. उसने कहा था वह खड़क सिंह है. वह चीजों के पीछे से नहीं झाँक रहा था या क्या पता झाँक रहा हो, आखिर दोनों दुनियाओं के बीच बस थोड़ी-सी हवा ही है.

और अब वह कह रहा था, ‘मेरे पास आपके लिए एक ऑफर है. मैं कंपनी के लिए एक सर्वे कर रहा हूँ, अगर आप मेरे कुछ सवालों का जवाब दें तो यह लाइफ टाइम ऑफर आपके लिए…’

‘जैसे?’

‘जैसे, पहला सवाल ये कि आप कौन-सा टूथपेस्ट इस्तेमाल करते हैं?’

‘कोई भी, जो एक के साथ एक फ्री हो.’ हालाँकि मुझे कहना चाहिए था कि अब मैं काला दंतमंजन इस्तेमाल करना चाहता हूँ, क्योंकि वह सस्ता पड़ता है और इससे भी बड़ी बात कि उससे दाँत मजबूत और नीरोग रहते हैं. किसी भी ऐसे आदमी को, जिसकी नौकरी बस छूटने ही वाली हो, फैशन के बजाय सेहत पर जोर देना चाहिए, उसे पुरखों के जमाने की चीजों के फायदे समझने में देर नहीं करनी चाहिए.

लेकिन मैंने पाया कि वह मेरे जवाब से खुश हो रहा है और चाहता है कि हम बैठ कर बात करें. मैं उसे भीतर ले आया और जब वह सोफे पर बैठने लगा, तो मुझे लकड़ी के चरमराने की आवाज सुनाई दी, जिससे इधर मैं काफी डरने लगा था. मेरे साथ यह नहीं होना चाहिए था.

उसने अपनी डायरी पर फैले फॉर्म पर टिक किया और पूछा, ‘क्या फ्री टूथपेस्ट से वह सब मिल सकता है, जो आपको चाहिए, जैसे सनसनाहट, ताजगी और चमक?’

‘जाहिर है, अगर ऑफर है, तो कंपनी को यकीन होगा कि उसका प्रॉडक्ट काम का है और उसको पॉपुलर बनाया जा सकता है. और कोई भी चीज तभी पॉपुलर होगी, जब वह काम की हो.’

‘यानी हाँ, बहुत अच्छे. अब बताइए कि क्या ऑफर लेते वक्त आप इस बात पर गौर करेंगे कि कंपनी कैसी है और उसके बारे में क्या कहा-सुना जाता है?’

‘नहीं, मेरे दाँत की सफाई से कंपनी का क्या लेना-देना है?’

‘और अगर दूसरे पेस्ट पर बेहतर ऑफर मिले तो?’

‘मैं उसे ले लूँगा. महँगाई के इस जमाने में किफायत जरूरी है.’

खड़क सिंह ने कुछ और टिक लगाए. वह बहुत खुश दिखा, ‘आप पहले कस्टमर हैं, जिसने मेरे सवालों का जवाब दिया, वरना तो लोग सेल्स वालों को देखते ही भगा देते हैं.’

‘लेकिन ऑफर क्या है?’ मेरा धैर्य जवाब देने लगा था.

‘एक बड़ा टूथपेस्ट, एकदम फ्री! इसे हमारी कंपनी ने अभी-अभी इंडिया में लांच किया है. इसमें मिलेगी आप को अद्भुत सनसनाहट, आपको पूरे दिन तरोताजा रखने के लिए…’

‘ताकि आप ऑफिस में कहलाएँ कर्मचारी नंबर वन.’ हम दोनों के मुँह से एक साथ निकला.

‘अरे, लगता है आप इसका कमर्शियल देख चुके हैं.’ उसने कहा, ‘गुड.’

‘हाँ, कई बार.’

‘हम इसके साथ आपको एक स्क्रैच कार्ड भी देंगे, जिससे आपको नेक्स्ट लेवल के गिफ्ट्स भी मिल सकते हैं, जैसे… जैसे बहुत कुछ… लीजिए ये वाला और स्क्रैच कीजिए.’

पिंटी का साबुन: संजय खाती की अविस्मरणीय कहानी

मैंने वह रंगबिरंगा कार्ड लिया और काँपते हाथों से पट्टी पर नाखून रगड़ा, फिर मुझे उसका खयाल आया और मैंने कार्ड और अपने बीच की हवा में नजर गड़ा कर देखा. रंगों की उस झिलमिलाहट के बीच खाड़ू नजर आ गया लेकिन धुँधला-सा और मुझे लगा वह हिल रहा है. तब तक पट्टी पर कुछ उभर आया.

‘बधाई हो, आपने एक इनाम जीत लिया है!’ खड़क सिंह चिल्लाया’, ‘बहुत बड़ी बात है, मुश्किल से निकलता है, लोग तो कहते हैं कुछ होता ही नहीं.’

‘लेकिन क्या?’

‘तीन टूथब्रश! ये भी हमारी कंपनी ने लांच किए हैं, आपके दाँतों के छिपे कोनों से भी अन्नकणों को खींच निकालने वाले. लीजिए, ये आप के हुए.’

अच्छा होता वे तीन नहीं, चार होते. तो भी मुझे खुशी हुई. मैंने तहेदिल से कहा, ‘थैंक यू माई फ्रेंड.’

‘आफर अब भी जारी है.’ खड़क सिंह ने एलान किया, अब आप एक हफ्ते हमारे प्रॉडक्ट का इस्तेमाल करें और अपना अनुभव सौ शब्दों में लिख कर हमें भेजें, तो आपको पाँच साल तक फ्री सप्लाई से लेकर स्कॉलरशिप और यूरोप टूर तक के इनाम मिल सकते है.’

‘मैं जरूर लिखूँगा.’ मैंने कहा और उठते हुए खड़क सिंह का हाथ जोर से भींच लिया, ‘क्या तुम वाकई खाड़ू हो?’

‘मैंने आपको बताया मैं खड़क सिंह हूँ.’ उसने कुछ घबराते हुए कहा. हो सकता है वह मुझे पागल समझ रहा हो, जैसा कि उसने कहा था, कौन सेल्स वालों को इतना वक्त देता है.

‘जो भी हो, तुमने मुझ जैसे परेशान आदमी के लिए काफी कुछ किया है और आगे भी करोगे.’ मुझे लगा कि सच्चे इनसान को अपनी कृतज्ञता जताने में झिझकना नहीं चाहिए. कौशल्या, पिंकी और डब्बू को काला दंतमंजन के लिए तैयार करने का खतरा कम से कम एक महीने के लिए तो टल ही गया है.

बीस साल की सर्विस में मैंने कभी ऑफिस में ऐसी मुर्दनी नहीं देखी. लोगों की चुहलबाजी एक झटके से गायब हो गई थी. जो पहले ऑफिस को सिर पर उठाए रखते थे, अचानक चुप-चुप कंप्यूटरों में सिर घुसाए रहने लगे थे. लंच टाइम की मटरगश्तियाँ और गली में खड़े होकर पान चबाते कमेंट पास करने का रिवाज खत्म हो गया था. प्रोजेक्ट टाइम से पहले पूरे होने लगे थे और यहाँ तक कि फ्लर्टिंग का मजा भी गुजर गया था. हवा इतनी भारी लगती जैसे उसमें जहरीली गैस भरी हो, लोग फुसफुसा कर बात करते और जब कोई बोलता, तो लगता एसएमएस की लैंग्वेज में बात हो रही है. फोन खामोश रहने लगे और बॉस ज्यादातर वक्त अपने केबिन में बंद रहने लगा. शायद वह वीआरएस की लिस्ट को आखिरी टच दे रहा था, जो उसके लॉकर में लाल फाइल में बंद बताई जाती थी.

लेकिन मुझे उम्मीद थी. मैं पहली बार रोजाना दो बार नए टूथपेस्ट का इस्तेमाल कर रहा था, जिसकी सनसनाहट भरी ताजगी देर तक जबान से होती हुई मेरे भीतर तिरती रहती थी, जैसे नन्ही तितलियाँ फड़फड़ा रही हों. टीवी पर सुपर स्टार बताता रहता था कि कैसे वह एक मरगिल्ले कारकून से अपने ऑफिस का कर्मचारी नंबर वन बन गया. सीन के आखिर में बॉस की सेक्सी सेक्रेटरी उस पर न्योछावर हुई जाती थी. मुझे मालूम था वह सुपर स्टार है जो किसी ऑफिस का कारकून कभी नहीं रहा, लेकिन मैं उस पर यकीन करना चाहता था. मैं हर वादे पर यकीन करना चहता था, हर उस चीज पर जो थोड़ा चमकती थी, जिसमें जरा भी सनसनाहट थी.

सातवें दिन मैंने लिखा – ‘मुझे नहीं पता कि मैं कर्मचारी नंबर वन बन पाऊँगा या नहीं, लेकिन आपके टूथपेस्ट ने मेरी जिंदगी में ऐसी हलचल मचा दी है, जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं की. मैं बदल रहा हूँ और जब इनसान के भीतर सनसनी पैदा हो जाती है, तो किस्मत भी उसका साथ देने लगती है, इसका मुझे यकीन है.’ और यह फैसला मैंने उस पते पर भेज दिया, जो कार्ड पर लिखा था.

दिन किसी घोंघे की तरह रेंगते हुए गुजरने लगे, अपने पीछे एक लिसलिसे अहसास की लकीर छोड़ते हुए, जिसमें हम सब फँसे छटपटा रहे थे. ऑफिस का माहौल और भी गाढ़े मटमैलेपन से भर गया था. सुना था कि डाइरेक्टर बोस्टन गए हैं और अपने साथ उस लाल फाइल को भी ले गए हैं, क्योंकि बॉस के कमरे में आने-जाने वालों का कहना था कि लाकर पर ताला नहीं लगा है.

पाँचवें दिन खड़क सिंह ने रात दस बजे के करीब दरवाजा खटखटाया. वह एकदम बदला हुआ लगा. शायद नहा कर आया था. चेहरे पर चौड़ी मुस्कान फैली थी और हाथ में एक बड़ा-सा लिफाफा था, ‘बधाई हो.’ उसने कहा, ‘आपके लिए कंपनी की तरफ से एक खास इनविटेशन!’

लाल लिफाफे को मैंने काँपते हाथों से खोला. भीतर से सुनहरी प्रिंटिग में लिखा हुआ एक मोटा कार्ड निकला. उस पर लिखा था, ‘आप के फीडबैक से कंपनी को इस महान देश के शानदार बाजार में आगे बढ़ने में जो मदद मिली है, उसके लिए हम एक छोटी-सी खिदमत करना चाहते हैं. आप और आपका साथी टॉप बॅास के साथ प्रेजिडेंशियल डिनर में आमंत्रित हैं, जो खास आपके लिए ही आयोजित किया गया है. आपसे चर्चा करके हमें नए आसमान छूने में मदद मिलेगी. कृपया अपने आने का कन्फर्मेशन दें, ताकि आपकी बेहतरीन खातिर की जा सके.’

‘ये क्या है?’ मैंने पूछा.

‘लाखों में आपको सिलक्ट किया गया है, सर जी.’ खड़क सिंह ने अपनी मुसकान के बीच कहा, ‘ऐसा मौका किस्मत से मिलता है. प्रेजिडेंशियल डिनर!’

मुझे लगा मैं उसके जोश में शामिल नहीं हो पा रहा हूँ. यह नामुमकिन था. प्रेजिडेंशियल डिनर? इसका क्या मतलब है? दरअसल मुझे खाने-पीने का ज्यादा शौक नहीं है.’ मैंने उसकी नाराजगी का खतरा उठाते हुए कहा.

‘बात सिर्फ डिनर की नहीं है. वहाँ ग्लोबल सीईओ होंगे, जो इन दिनों इंडिया आए हैं. और सिर्फ टाटा बिड़ला उनसे मिल पाते हैं. आप उन्हें खुश कर सकते हैं. और आप जानते हैं किसी मल्टीनेशनल के सीईओ के खुश होने का क्या मतलब है!’

मैं वर्ल्ड टूर या फिर स्कॉलरशिप या फ्री सप्लाई जैसी किसी गिफ्ट की उम्मीद कर रहा था, डिनर पार्टी की नहीं. लेकिन जो होना था हो चुका था. वैसे भी वर्ल्ड टूर पर मुझे भी कुछ तो खर्च करना पड़ता. मान लिया वेनिस में डब्बू को कुछ पसंद आ जाता? आ क्या जाता, आता ही. उसे बाजार ले जाना हमेशा बस मुसीबत हुआ करता है. फॉरेनर के सामने अपनी गरीबी दिखाना कैसा रहता? ‘ठीक है, मैं डिनर में आ जाऊँगा. शायद अच्छा ही हो. वैसे भी मैंने प्रेजिडेंशियल डिनर नहीं देखा.’

‘सर जी, एक बार फिर बधाई. आपने अपनी ही नहीं मेरी किस्मत भी बदली है. मुझे लगता है प्रमोशन मिलेगी.’ खड़क सिंह ने गर्मजोशी से हाथ मिलाया, ‘और हाँ आप अपने साथी को भी लाएँगे. भाभी जी या या कोई गर्ल फ्रेंड…’ उसने आवाज धीमी करते हुए आँख मारी.

साथी कौन हो, यह एक बड़ा सवाल था. कौशल्या नहीं. उसके पास कोई ढंग की साड़ी नहीं थी. मेरे पास भी सूट नहीं था, लेकिन मर्दों के कपड़ों पर किसका ध्यान जाता है? औरतों का सजे बिना काम नहीं चलता. सोचिए, प्रेजिडेंशियल डिनर में कोई औरत धोती पहन कर पहुँच जाए तो क्या इंप्रेशन पड़ेगा?

पूरा दिन मैं इस उधेड़बुन में लगा रहा. कई दोस्तों के बारे में मैंने सोचा और फिर उन्हें रिजेक्ट करता गया. प्रेजिडेंशियल डिनर के लिए कोई भी लायक नहीं था. वे वहाँ क्या करेंगे? ज्यादा से ज्यादा मुँह फाड़े घूरते रहेंगे, बस. फिर शाम को मैं बॉस के केबिन में गया. वह हैरान परेशान-सा नोट पैड पर एक चुड़ैल की तस्वीर बना रहा था. मुझे देखते ही उसने घबरा कर पैड नीचे गिरा दिया और उठ कर खड़ा हो गया. क्या उसका नाम भी उस लिस्ट में था? मेरी इच्छा हुई, उससे पूछूँ लेकिन अचानक मेरे मुँह से निकला, ‘सर, मैं आपको डिनर में इनवाइट करना चाहता हूँ.’

‘डिनर! कैसा डिनर?’ वह घबराहट में पीला पड़ गया.

‘प्रेजिडेंशियल डिनर, सर.’ मैंने कहा, ‘आप मेरे साथ चल सकते हैं.’

उसके चेहरे पर हद दर्जे की मूर्खता पसर गई, वैसी ही जैसी किसी दूसरे मूर्ख को देख कर आती है. उसने इनविटेशन कार्ड को उलट-पलट कर देखा और फिर टेबल लैंप जला कर उसे गौर से पढ़ने लगा.

इनसान के चेहरे पर भाव कैसे बदलते हैं, कैसे अँधेरे में रोशनी खिलती है, यह मैंने पहली बार देखा. वह अविश्वास से आँखें झपका रहा था और जब वह बोला, तो उसकी आवाज थरथरा रही थी.

‘थैंक्यू थैंक्यू डियर. मैं इस मौके को सात जन्मों में भी नहीं छोड़ सकता. मैं जरूर चलूँगा, हजार बार चलूँगा.’ उसने मेरा हाथ कस कर दबाया, जैसा वह किसी के साथ नहीं करता था.

‘क्या आपके पास स्पेयर सूट होगा? दरअसल मेरा धुला नहीं है…’

‘जरूर, जरूर. कई हैं तुम जो चाहे ले लो. ऐसा करो, मेरे बँगले पर पहुँच जाओ. नहीं, मैं गाड़ी भेज दूँगा. वहाँ से तैयार होकर हम साथ चलेंगे.’

मैं जब मुस्कराता हुआ पलटा, तो उसे बड़बड़ाते सुना, ‘हे भगवान! लगता है मेरी किस्मत जाग रही है.’

आठ बजे का टाइम था. जब हम ग्रेटर नोएडा के उस इलाके में पहुँचे, तो काफी अँधेरा हो चुका था. बत्तियाँ झिलमिला रही थीं और मेरे लिए जगह का सही-सही अंदाजा लगाना मुश्किल था. वह जगह इतनी दूर थी कि बिना बॉस की मदद के मैं वहाँ कैसे आया होता. वही था, जो ड्राइवर को रास्ता बताता आया था और इसके लिए वह अगली सीट पर बैठा था, पीछे मुझे अकेले पसरने के लिए छोड़ कर. हम जिस इमारत के सामने रुके, वह ड्राइव वे से काफी दूर थी और पोर्च में जबर्दस्त रोशनी के बावजूद अँधेरे में किसी काले गुंबद की तरह नजर आती थी. जब हम काँच की तरह चमकते बरामदों से गुजरे, तो मैंने अपने बगल में लगातार गहरी साँसों की आवाजें सुनीं. बॉस किसी मेढ़क की तरह हाँफ रहा था. वह इतना एक्साइटेड था कि उसका काला सूट पहने हुए मुझे कोई शर्म महसूस नहीं हुई.

‘हब में आपका स्वागत है. बॉस आपका इंतजार कर रहे हैं.’ काँच का दरवाजा अपने आप खुला और मॉडल-सी लगती एक लड़की ने अपना हाथ बढ़ाया. बॉस ने फौरन उसका हाथ लपक लिया और लगभग उसे धकेलते हुए ऐसी हड़बड़ी में आगे लपका जैसे दरवाजा बंद हो जाएगा.

जगमगाते गलियारों और एलिवेटर के बाद वह सुंदरी हमें जिस कमरे में ले आई, वह सचमुच किसी राजसी डिनर के लिए सजा लगता था. सुनहरे स्टैंड पर सजी मोमबत्तियों की लौ चाँदी के बर्तनों पर बिखर रही थी. लाल रेशमी पर्दे उस कालीन तक झुके हुए थे, जिस पर चलते पाँव धँसते थे. कहीं से बहुत धीमा स्वर्गीय संगीत आ रहा था. स्वर्ग ऐसा ही होता होगा, मैंने सोचा.

मॉडल ‘प्लीज बी सीटेड’ गुनगुना कर गायब हो गई. हम अभी असमंजस में खड़े ही थे कि दूसरी तरफ से उन्होंने प्रवेश किया. वे तीन थे – दो मोटे इंडियन और तीसरा बेहद लंबा लाल भभूका अंग्रेज. उन्हीं में से एक ने जोरदार आवाज में हमारा स्वागत किया और हमने हड़बड़ी में हाथ मिलाए. उस बीच ये जो इंट्रोडक्शन दिया गया, वह मेरी ठीक-ठीक समझ में नहीं आया, हालाँकि यह समझते देर नहीं लगी कि अंग्रेज कंपनी का सीईओ है, वही हो सकता था. मैंने देखा बॉस उसका हाथ दोनों पंजों में जकड़े सिर नवा चुका है, और जब मैं कुर्सियों से उलझते बैठ रहा था, तो मैंने बॉस को कहते सुना, ‘सर, मैं लाल हूँ, आपका दिल्ली मैनेजर. सर, ये मेरी खुशकिस्मती है.’

‘ओ, सरप्राइज मिस्टर लाल! आप कैसे? वॉज दियर एन अपॉइंमेण्ट?’ एक मोटा इंडियन पूछ रहा था, कुछ हैरानी से. जैसा कि मुझे बाद में लगा, वह हमारा कंट्री हेड था.

‘नो सर. इनवाइटी लकीली हमारा एंपलॉई है. इन्होंने मुझसे साथ चलने को कहा… और सर, मुझे अंदाजा नहीं था, यह हमारा ही इवेंट निकलेगा.’ बॉस टेबल पर दोहरा होने की कोशिश में बोला.

‘क्या इस इवेंट में कंपनी एंप्लाई पार्ट ले सकते हैं?’ एक इंडियन ने दूसरे से पूछा. वह टेंशन में लग रहा था.

‘नो प्रॉब्लम.’ जवाब अंग्रेज ने दिया, ‘हम इन्हें एज ए कंज्यूमर ट्रीट करेंगे. आफ्टर ऑल, असल बात है इनपुट, जो हमें इनसे मिला है. वैसे भी एंप्लॉई से पहले कंज्यूमर होता है. एक कंज्यूमर के तौर पर ये हमारे लिए कीमती हैं. इसका कोई मतलब नहीं कि वे किसके एंपलॉई हैं, हैं भी या नहीं.’

टेंशन छँटता लगा, लेकिन मेरे लिए ये तमाम बातें किसी पहेली की तरह थीं. जब अजीबोगरीब किस्म की डिशें सजाई जा रही थीं, और माहौल वेटरों की वर्दी की सरसराहट और चाँदी की खनक से गूँज रहा था, मैंने फुसफुसा कर बॉस से पूछा, ‘मामला क्या है, सर?’

उसने उतने ही रहस्यमय अंदाज में कहा, ‘जो हमें टेकओवर कर रहे हैं. साले, देखते नहीं ये ग्लोबल सीईओ हैं. बस, ज्यादा मुँह चलाने की जरूरत नहीं. चुपचाप खाओ और खिसको और हाँ, दारू को हाथ भी मत लगाना. बाकी मैं सँभाल लूँगा…’

‘क्या आपको पता था?’ मैंने पूछा, लेकिन तब तक वह अपनी चौड़ी मुस्कान के बीच सीईओ से कुछ कहने लगा. मुझे लगा उसके दाँत किसी भी वक्त बाहर गिर पड़ेंगे.

मुझे कुछ अंदाजा नहीं रहा कि मैं क्या खा रहा हूँ. शायद बीच में मुझसे भी कुछ पूछा गया, लेकिन मैं अपनी कुर्सी पर बॉस की बगल में सिकुड़ा हुआ था. मैंने दो-चार लफ्जों में जो कहा, वह भी पता नहीं किसी ने सुना या नहीं. मेरे पेट में तब तक मरोड़ शुरू हो गई थी और लगता था कोई भीतर जाते खाने को बाहर धकेल रहा है. हार कर मैंने कोशिश छोड़ दी और प्लेट से खेलता रहा. मुझे लग रहा था कुछ बहुत बुरा होने जा रहा है.

लेकिन उधर बातें जारी थीं और वे कंपनी के फ्यूचर के बारे में थीं. बॉस तब तक पूरी रवानी में आ गया था. वह न सिर्फ दबा कर खा रहा था, बल्कि लगातार बोले भी जा रहा था. मेरे कानों में वह शोर किसी भनभनाहट की तरह भर रहा था, जिसमें शब्द और मतलब गायब थे.

जब बॉस ने मुझे कोंचा तो पता चला कि डिनर खत्म हो चुका है. हम कुर्सियों से उलझते खड़े हुए और उस दरवाजे की और बढ़े, जो दूसरी तरफ खुलता था. वहाँ एक बड़ा-सा रूम था, जो किसी म्यूजियम जैसा लगता था. दीवारों पर चौड़े फ्रेम वाली तस्वीरें थीं और रंगबिरंगी रोशनियाँ एक मायाजाल-सा रच रही थीं. वहाँ पुरानी मूर्तियाँ, टूटे गमले, एक पुरानी साइकिल, घोंसले और अजीब किस्म के बरतन पड़े हुए थे, जैसे वे अभी-अभी जमीन से खोद कर निकाले गए हों.

‘लाल, तुम्हें वक्त से पहले यह देखने को मिल रहा है. और हमारे कंज्यूमर को हम बताना चाहेंगे कि यह हमारी कंपनी की फिलॉसफी का मंदिर है. यहाँ टाइम और स्पेस के आरपार ट्रेडीशन और मॉडर्निटी, ओल्ड एंड न्यू, पास्ट एंड फ्यूचर और सिविलाइजेशन का पूरा विकास एक चीज में सिमट जाता है – और वह है हमारी कंपनी का विजन. लुक दिस.’

जिधर इशारा किया गया था, मैंने एक आदमकद मूर्ति देखी. बहुत पुरानी, कालिख और काई से लिपटी हुई. उसके हाथ में वही टूथपेस्ट था और वह मुस्करा रही थी. मैंने उसके माथे पर बरसों पुराना रोली का दाग देखा और मैं चिल्ला पड़ा, ‘खाड़ू.’

लेकिन मेरे मुँह से आवाज निकली नहीं और मैंने किसी को पुरजोश अंदाज में कहते सुना, ‘हमने इसे हिमालय में खोजा और अब यह पेरू के टोटेम की तरह हमें बताती है कि ह्यूमिनिटी को किसी भी युग में एक अच्छे टूथपेस्ट की जरूरत रहेगी. अमरता, अगर है, तो वह एक ब्रांड का नाम होगी, जैसे कि हमारा टूथपेस्ट, जिसने आपकी जिंदगी में सनसनी ला दी.’

यह सिर्फ मेरा वहम है. एक सपना. मैंने सोचा और अपने इंच भर दूर की हवा पर नजर गड़ाई. एक मिनट, दो मिनट. खाड़ू वहाँ नहीं था. वह उस पार की दुनिया से गायब हो चुका था.

उसके बाद मेरे कानों को कुछ सुनाई देना बंद हो गया. सिर्फ किसी नदी के सुसाट-सा दिमाग में गूँजने लगा. मैंने उन्हें बिना आवाज तेजी से मुँह चलाते देखा और चुपचाप एक तरफ को चल पड़ा, जो मेरी समझ से बाहर का रास्ता था. मैं लड़खड़ाता हुआ हॉल में पहुँचा और तब मैंने ऊपर गुंबद में रंगों की झलक देखी. वह दीवार पर चलती एक एड फिल्म थी. उसमें एक घर था, जो मेरे जैसा लगता था, उसमें कौशल्या थी, डब्बू था और पिंकी भी. वे टूथपेस्ट की एक ट्यूब के इर्दगिर्द खिलखिलाते हुए नाच रहे थे. मैं वहाँ नहीं था? मैं कहाँ था?

मुझे बाहर का दरवाजा दिखाई दिया और मेरे पहुँचते ही वह अपने आप खुल भी गया. ताजा हवा का एक झोंका अंदर घुसा और घबरा कर मैंने अपना कदम पीछे खींच लिया.

बाहर कुछ नहीं था.


कथाकार संजय खाती का जन्म 1962 ई. में अल्मोड़ा में हुआ. कथा लेखन के साथ-साथ पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय हैं. अभी हिन्दी के एक प्रमुख दैनिक के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत हैं. दो कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं – ‘पिंटी का साबुन’ और ‘बाहर कुछ नहीं था.’ भारत में उदारीकरण की शुरुआत होने से पहले ही बाजारवाद और उसके कारण भावी संकट को आभासित कर ‘पिंटी का साबुन’ (Story Pinti Ka Sabun) जैसी क्लासिक कहानी की रचना की. इस कहानी पर हाल ही में एक फिल्म भी बनी है.

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Sudhir Kumar

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