नीचे काली मंदिर सॆ आरती के बाद आ कर रसोई में गई, बिस्किट खा कर पानी पिया और सोने चली आई. करीब नौ बजे पुजारी हरीश गौड़ का फोन आया. अपने फोन में उनका नाम देखकर मुझे ताज्जुब हुआ कि यह नाम कब सेव किया मैंने?
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)
जय माँ काली! आप से बात हो सकती है भास्कर जी ने बताया था आपको पूजा करानी है.
करानी है पर जाने के पहले.
मुझे फिर निकल जाना है बाहर.
ठीक है कल आ जाइए करा दीजिएगा पूजा.
फोन रख दिया मैंने मगर फिर तुरंत ही फोन बजा – क्या मैं आपसे बात कर सकता हूं आप बहुत बिजी हैं क्या इस समय?
नहीं बिजी तो नहीं हूं मगर बात नहीं कर सकते
क्यों?
ऐसे ही हमारे एकांत में बाधा होती है आप फोन रखें
क्षमा करेंगे.
जी… जी क्षमा कीजिए आप भी.
मैंने फोन रख दिया था.
सुबह अपने समय से आए पुजारी. पूजा की थाली मंदिर के पास की दुकान से खरीदवाई जो चुनरी और पूजन सामग्री के साथ चार सौ की थी. अपनी विधि से पूजा करवा कर ऊपर कमरे तक आए साथ में. आते के साथ उनकी निगाह मेरे लिखे पन्नों पर पड़ी.
यह आप थीसिस लिख रही है क्या?
नहीं
आप प्रोफेसर है क्या?
न्ना
क्या करती हैं? मतलब कुछ तो हैं आप.
एक बेहद साधारण स्त्री. वही करती हूँ जो आम भारतीय स्त्रियां करती हैं.
मतलब?
मतलब कुछ नहीं है बालक! कॉफी बनाती हूँ, ग्रहण करके हमें उपकृत करें ब्राह्मण!
अरे मैं बाहर का कुछ नहीं लेता.
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)
पूजा कराई है तो कम से कम कॉफी तो पीनी ही पड़ेगी ब्राम्हण को! ऐसे कैसे जाने देंगे. साथ में बिस्किट नमकीन सब बाहर का था.
यह सब मैं नहीं खा पाऊंगा. बताया ना, बाहर का कुछ नहीं लेता.
कहिए तो पवित्रीकरण मंत्र पढ़ दूँ बच्चे मैं आपके लिए, तब खा लेना कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा आप पर फिर.
नहीं हम सिर्फ कॉफी लेंगे जी.
जैसा आपको उचित लगे. फिर हमारे कॉफी के साथ मूंगफली नमकीन खाने को अभद्रता में नहीं लीजिएगा पंडित जी! हमें भूख लग गई है इस समय तक.
अरे नहीं-नहीं आप खायें नमकीन.
कॉफी पीते हुए पुजारी कुछ बेचैन से इधर-उधर देखते रहे.
एक बात बताइए आपने नीचे मंदिर में रूपं देहि जयं देहि की जगह दूसरी प्रार्थना क्यों की?
मतलब??
आपने अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे…
ज्ञान वैराग्य सिद्धयर्थम भिक्षां देहि च पार्वती!
हाँ यही ,क्यों कहा?
क्योंकि यही स्तुति पसंद है मुझे.
आपका आभामंडल…
कॉफी पियें.
आपकी आध्यात्मिक ऊर्जा खींचती हैं मुझे
हम्म… कॉफी कैसी बनी है,थोड़ी कड़क होगी आपके लिए. जहर सी है ना पी नहीं रहे हैं आप.
पी रहा हूं. उस दिन मैं आया था तो आप कुछ सुन रही थी.
हां ग्रीन तारा मंत्र
हरित तारा मंत्र ना यह वाला नंबर आपका ही है ना, जरा देखिए तो मेरे फोन में किस नाम से सेव है. यह नंबर पढ़िए तो…
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)
जय माँ तारा
हां! आप मुझसे नाराजगी से बात कर रही हैं. बात ही नहीं करना चाह रही हैं मुझसे आप. कल से ही देख रहा हूं मैं.
अरे सुनो, सॉरी अगर मैं रूड हो रही हूं तो. पर मुझसे फालतू के ज्योतिषी, पंडित वाले सवाल नहीं पूछो.
ठीक है नहीं पूछूंगा क्षमा करें. अच्छा कुछ दिन के लिए नीचे जा रहा हूं आपको कुछ मंगवाना है?
नीचे?
ऋषिकेश, देहरादून.
अच्छा पेपर बोर्ड ले कर आना एक.
वह कॉफी पी कर चले गए बालक पुजारी. मैं उस बेचारे से रुखाई से बात करने के अफसोस से भरी बैठी रही कुछ देर तक. क्यों ऐसा कर देती हूं मैं… कुछ देर तक सामने के पहाड़ों को देखती रही. नदी की तेज आवाज को सुनते हुए थोड़ी देर बाद याद आया कि कहीं पानी ना चला जाए तो जल्दबाजी में स्टूल पर से जूठे गिलास प्लेट गिराती, नमकीन फैलाती भागी बाथरूम में. देखा आ रहा था पानी. राणा जी के दिए एल्मुनियम के पतीले में पानी भरकर उबालने को रख दिया. बरामदे की सफाई की और बर्तन धोए बाथरूम में जा कर. फिर वहाँ से आ कर के खिचड़ी बनाई, खाई और बरामदे में टहलने लगी यूं ही…
नीचे देखा दो वृद्ध स्त्री-पुरुष दिखे. टीन का ढलुवा शेड शायद उनकी रिहाइश है. उन्होंने लोहे की जाली से अच्छा खासा एरिया ढक रखा है जिसमें उन्होंने सब्जियां लगाई हुई हैं. वे दिन-भर अक्सर अपनी जमीन पर निराई-गुड़ाई कुछ खोदते, फावड़ा चलाते दिखते हैं. बरामदे से जितने भी घर दिखते हैं सब की ढ़लवा छतों के किनारे और उनकी पानी की टंकियों के ढक्कन पर बड़े-बड़े टीन के काँटे से लगे हैं. बंदरों के उत्पात के कारण ऐसा होगा मैं सोचती हूं.
टहलते हुए बरामदे के उस कोने पर खड़ी होती हूँ जिधर से नदी में वह बड़ा लाल पत्थर दिख रहा है जिस पर काली-काली बहती धारा जैसी लकीरें हैं. यह रक्त शिला है, पुजारी ने बताया था. शारदीय नवरात्र में मंदिर के मुख्य पुजारी यहां अष्टमी तिथि की रात में आ कर मशाल मारते हैं इस पत्थर पर. रक्त की लकीरें बहती दिखाई देती हैं आज भी! यह प्रमाण है कि देवी ने काली का रूप धर के यही असुरों और रक्तबीज का वध किया था. मैं मुस्कुराई थी पुजारी के इस बात पर. आप स्कंद पुराण देख लो उसमें इस स्थान का जिक्र है!
जो भी हो, यहाँ इस कोने से, इस शिला के पास से नदी की लहरें जिस तरह फेनिल, धवल स्फटिक होती हुई दिखती हैं, उनको देखते रहने से ऋणात्मक, घनात्मक विचारों का वध तो अवश्य हो जाता है. सोचते हुए मैं मुस्कुराई फिर से. और उसे देखती रही.
पानी के खौलने की महक आई तो जा कर गैस बंद किया. ठंडा होने पर छान के बोतलों में भरकर रखना बाकी रह गया है. साथ लाये छहों बोतल का पानी अब खत्म हो चुका है.
शाम के पाँच बजे थे जब शालिनी का फोन आया. अब तक मैं किसी का भी फोन नहीं ले रही थी घरवालों को छोड़कर. मगर ‘शालिनी’ स्क्रीन पर चमकते इस नाम को नजरअंदाज करना नामुमकिन है.
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)
कहां है तू?
(चहक कर) कालीमठ!
कब चली गयी? कितने दिन हो गये? कब आना है ?(प्रश्नों के बम गोले)
हो गया बस तीन दिन. त्रिलोक देख लिया ना! वापस आ. हो गई बहुत तपस्या तेरी.
अरे मुझे यही ऐसा ही एकांत चाहिए था. बहुत अच्छा लग रहा है मुझे.
ऐसी तैसी तेरे अच्छे लगने की. दोस्त सारे यही हैं और चल दी अकेली. एकांत तुझे मैं हरिद्वार में ही दिला देती हूँ. जब तक जी चाहे रह. क्या जरूरी है पहाड़ों पर टंग के रहने की. नीचे आ स्मिता!
यहां बहुत अच्छा लग रहा है मुझे शालिनी.
हमारे बिना अच्छा लग रहा है तुझे? ग्रुप में लिखती हूँ रुक, तू खा गालियां सबसे. मैं लिखती हूँ कि तू हिमालय पर चली गई है.
ऐसा मत कर (हंसते हुए) रहना मुहाल हो जाएगा मेरा.
वापस आ स्मिता! हमें नहीं अच्छा लगता तेरे बिना.
ऐसे मोह से मत बोल… ऐसे मत बोल… रहने दे मुझे यहां थोड़े दिन. पता है, तू ऐसे बुलाएगी तो पत्थर हो जाएगी सहेली तेरी.
फिर मैंने उसे फोन पर ही सोने का पानी और बोलती चिड़िया लाने गए राजकुमारों की कहानी सुनाई. जिन्हें रास्ते में बैठा साधु पीछे मुड़कर नहीं देखने की सलाह देता है. मगर सब पीछे से आती आवाजों पर मुड़कर देखते हैं और पत्थर हो जाते हैं.
तू मुझे पत्थर मत कर.
तू कौन सी राजकुमार है बड़ी आई ना.
हूँ ना!! अपने जीवन की राजकुमार,राजकुमारी मैं ही हूँ. ना भी लगूं तुझे, तो क्या. लक्ष्य और शर्त वही है.
दोस्तों को भूल जाना? उनकी आवाज नहीं सुनना?
वे तो मेरी शक्ति हैं. इसी शक्ति से ही तो यहाँ तक उर्दू और अंग्रेजी दोनों ही में सफर तय कर पाई. रहने दे कुछ दिन बड़ा अच्छा लग रहा है.
(Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)
ठीक है ज्यादा दिन मत रहना. जल्दी लौट आ हरिद्वार. आ कर मिले बिना मत जाना.
सवाल ही नहीं है. मिलेंगे ना भाई, प्रेम नगर घाट पर! दोनों साथ-साथ जोर से हंसी. इतनी जोर से कि कुछ दूर पर बहती सरस्वती नदी के कल-कल में उनकी खिलखिलाहट मिल कर बहने लगी. हवा से पास के पेड़ों और झाड़ियों की पत्तियों सा स्वर कांपता रहा दोनों का…
और बातों, हँसी से अलग उनके साथ ही दूर पुल पर की घंटियों की तरह दूर से कुछ बजता रहा सखियों के बीच. मंदिर से लगातार बजती घंटी से ध्यान टूटा जैसे. फोन बंद करके रसोई की तरफ भागी. कहीं बाल्टी गलाने जैसा फिर कोई काम तो नहीं कर दिया इस फोन के चक्कर में. खैर हुई, रसोई में शांति थी.
मगर बरामदे की रेलिंग से कपड़े पिन समेत नीचे गिर गए थे तेज हवा से. ओह ये हवा! हाथ अनायास मुँह पर चला गया. तीन दिनों में ही इस तेज बर्फीली हवा से चेहरे की स्किन फट कर ख़ुरदरी हो गई थी. आरती में अभी समय है. घड़ी देखते हुए कमरे के दरवाजे का कुंडा लगाते वह कपड़े लेने नीचे उतर गई.
( Smita Vajpayee Kalimath Travelogue)
जारी…
बिहार के प.चम्पारन में जन्मी स्मिता वाजपेयी उत्तराखंड को अपना मायका बतलाती हैं. देहरादून से शिक्षा ग्रहण करने वाली स्मिता वाजपेयी का ‘तुम भी तो पुरुष ही हो ईश्वर!’ नाम से काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है. यह लेख स्मिता वाजपेयी के आध्यात्मिक यात्रा वृतांत ‘कालीमठ’ का हिस्सा है. स्मिता वाजपेयी से उनकी ईमेल आईडी (smitanke1@gmail.com) पर सम्पर्क किया जा सकता है.
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