पर्यावरण

उत्तराखण्ड के लोकजीवन में रचे-बसे पातीण के पत्ते और पातनी देवी

विजय दशमी पर गांव जाना हुआ ट्राली (Rope way) से टिहरी झील पार की और फिर पैदल गांव को चल पड़ा सोचा मात्र डेढ़-दो मील की दूरी के लिये गाड़ी का इन्तजार क्यों करूं आधा मील ही पहुँचा पातनी; पातीणद्ध देवी में हाथ स्वतः ही जुड़ गये जो मेरे गांव व मदननेगी जाने वाले रास्ते के मिलान पर स्थित है. (Small Flowered Poison Sumac)

पीठ से बैग उतार कर नीचे रखा, यंत्रवत पास ही पातीण के पेड़ से कुछ पत्तियां तोड़ी, उन्हें देवी के थान पर चढ़ाया और झुककर आशीर्वाद लेकर पास ही बैठ गया मेरे गांव के आस-पास अलग-अलग दिशाओं को जाने वाले रास्तों पर पातनी देवी के कई थान (देवस्थान) हैं मेरे गांव ही क्या क्षेत्र में अन्य गांवों के रास्तों पर भी पातनी देवी के ऐसे ही थान हैं पातनी देवी का थान अर्थात बिना किसी ढांचे व बिना मूर्ति का मन्दिर, जिसमें दीप, धूप, चढ़ावा आदि कुछ नहीं चढ़ता बिना ढांचे से कहीं अन्यथा न लिया जाय बल्कि द्वैत भावना यहाँ भी प्रधान है बस, पातनी देवी थान पर पहुँचकर वहाँ पातीण के दो-चार पत्ते डाल दो और शांत होकर हाथ जोड़ लो प्रायः किसी रास्ते किनारे पहाड़ी की ओर रखे हुए केवल दो-चार पत्थर और पातीण के कुछ सूखे हरे पत्तों के ढेर का नाम है पातनीदेवी का थान.

क्या है पातनी देवी? माना जाता है कि धर्म की अवधारणा व्यक्ति को अनुशासन में रखने के लिये हुयी है. सामाजिक बंधनों के साथ-साथ मनुष्य धार्मिक बन्धनों में बांधने से ही अनुशासित रह सकता है, ऐसा हमारे पूर्वजों की सोच रही होगी. लाखों, करोड़ों देवी-देवताओं का उल्लेख हमारे धर्मशास्त्रों में है. तैंतीस करोड़ देवताओं की ‘सूची’ में पातनी देवी का नाम है या नहीं, कह नहीं सकता. परन्तु मेरा मानना है कि जगह-जगह पातनी देवी के थान स्थापित करने के मूल में सम्भवतः पातीण पौधों को समूल नष्ट होने से बचाना भी रहा हो हम इसे पर्यावरणीय चेतना भी कह सकते हैं कुछ लोगों का मानना है कि पातनी देवी वास्तव में वनदेवी ही है और हम उसे प्रकृति का आभार मानकर ही पूजते हैं.

उत्तराखण्ड हिमालय में 2000 से 5000 फीट तक के ऊँचाई वाले क्षेत्रों में पाये जाना वाला पातीण वह पौधा है जिसके पत्तों को किसान प्रायः अपने पालतू पशुओं के नीचे बिछाते हैं. इसके मूल में गोबर खाद तैयार करने की भावना प्रधान है, परन्तु यह मनुष्यों का पशुओं के प्रति अतिशय दया व प्रेम का द्योतक भी है.

पातीण को गढ़वाल में तुंगला व पातीण, कुमाऊँ में तंग तथा जौनसार में निनस, निनावा व निनावं नाम से जाना जाता है इसे हिन्दी में तुंगला व संस्कृत में तिन्त्रिणी कहा जाता है. अंग्रेजी नाम small flowered poison sumac है और वानस्पतिक नाम Rush Parviflora है. जैसा कि संस्कृत नाम (तिन्त्रिणी अर्थात तीन तृणद्) से ही स्पष्ट है, इसकी शाखा पर 0.6 से 2 इंच आकार के तीन पत्ते फूटते हैं, जिसमें ऊपर का पत्ता बड़ा और प्रायः ऊर्ध्वाधर अर्थात आशमान की ओर सिर उठाये होता है जबकि नीचे के दो पत्ते अपेक्षाकृत छोटे व क्षैतिज फैले होते हैं.

मई, जून में पातीण पर फूल निकलने शुरू हो जाते हैं और जुलाई, अगस्त में फल पड़ते हैं. तोर के दानों से भी छोटे अर्थात लगभग चार-पाँच मिलीमीटर ब्यास के इसके फल पकने पर हरे से भूरे रंग में बदल जाते हैं. अंगूर की भांति गुच्छों के रूप में लदे और आयुर्वेदिक औषधि के लिये विख्यात इन फलों को चिड़िया, गिलहरी, बन्दर ही नहीं बल्कि वनों पर आश्रित पशुचारक, घसियारिनें भी बड़े चाव से खाती हैं. टूथपेस्ट-टूथब्रश की पहुँच से दूर या इससे परहेज करने वाले लोग टिमरू व नीम की भांति तुंगला की टहनियों से दातून भी खूब करते हैं. सुबह दिशा शौच जाते हुये तुंगला की एक नाजुक टहनी तोड़ी और शुरू कर दिया दान्तों पर रगड़ना घर आते-आते तक दांत चमाचम.

पातीण-पातनी देवी से अनेक यादें जुड़ी है. उपयुक्त जलवायु होने के कारण हमारे गांव के तीन दिशाओं में स्थित जंगल में पातीण बहुतायत में हैं. अतः स्कूल से छुट्टी के दिन कभी-कभी घर से आदेश मिलता कि खाली बोरी लेकर जाओ और पातीण के केवल पत्ते-पत्ते काटकर ले लाओ. यह तीन-चार घण्टे का ही कार्य (हॉफ डे टास्क) होता, परन्तु यदि मन मुताबिक साथी मिल गये तो हम पूरा दिन भी लगा लेते थे. एक बोरी पातीण काटने में, बोरी ठूंस-ठूंस कर भर देने के बाद उसे जंगल में साफ जगह पर रखा जाता. कभी जंगल में बाधा दौड़ (Hurdle Race) करते तो पातीण के पत्तों से बोरियों की बाधा (हर्डल) बनाकर दौड़ लगाई जाती. कभी लम्बी कूद के लिये दूर से दौड़ लगाकर आते और बोरियों के ऊपर झम्म से कूद जाते, यानि बोरियां गद्दों के रूप में इस्तेमाल होती. घर लौटते समय जहाँ हल्की ढालूदार साफ जगह मिलती वहाँ बोरियां नीचे रख दी जाती और हाथों से ठेलते हुये या लतियाते हुये बोरियां सिर या कन्धे पर ढोने के श्रम से बच जाते. एक-दो बार ऐसा भी हुआ कि जंगल में दिशा-शौच को गये और पानी मिला नहीं वापसी में रास्ते पर पातनीदेवी का थान पड़ जाने पर पातनी देवी अपवित्र न हो वाली भावना से थान से एक निश्चित दूरी बनाने के चक्कर में हाथ-पैर झाड़ियों में कांटों से बुरी तरह छिल गये. बचपन में गौरेया हमारे जीवन में रची-बसी थी

कुछ साल पहले भादों के महीने की एक शाम ननिहाल से अपने गांव लौट रहा था तो रास्ते में पातीण की आड़ में एक जोड़ा प्रेमालाप में लीन था. गांवों से निरन्तर पलायन और घरों में ढोर-डंगर कम होने के कारण अब गांव के जंगलों में घास, पातीण लोग कम ही काटते हैं. जिससे पातीण के झुरमुट खूब बड़े-बड़े हो गये हैं. ऐसे में पातीण की आड़ में एकान्तिक क्षणों का लाभ तो प्रेमी युगल उठायेंगे ही, उन्हें कैसे रोक सकते हैं? परन्तु चिन्ता का विषय यह भी है कि ये झुरमुट कभी जंगली हिंसक पशुओं की शरण स्थली भी बन रहे हैं. जिससे पालतू मवेशियों ही नहीं बल्कि बटोहियों व घसियारिनों को खतरा भी है.  

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देहरादून में रहने वाले शूरवीर रावत मूल रूप से प्रतापनगर, टिहरी गढ़वाल के रहने वाले हैं. शूरवीर की आधा दर्जन से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपते रहते हैं.

        

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Sudhir Kumar

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