यात्रा पर्यटन

गुप्तकाशी के देवर गांव का सहज जनजीवन

हम शंकित हैं कि इससे पहले सांझ सूरज को अपने पल्लू में ढांपकर सुला दे या फिर बारिश दोनों को ही गीलेपन का जाज़िम ओढ़ा दे. हमसे कैंप में कहा गया है कि हम देवर गांव होकर आ जायें. दरअसल बारिशें बहुत बेईमान होती हैं यहां पहाड़ों की कब बेखटक बरस जायें कुछ कहा नहीं जा सकता है. हम तीनों सहेलियां तो बारिश की फुहारों में ही सराबोर रहना चाहती हैं चार-दिन के इस ट्रिप में किंतु फिर वापस आकर ज़िंदगी की ऊबड़-खाबड़ सड़क पर पुनः दौड़ना भी तो है. अतः हमने छाते रख लिए हैं पहाड़ के इस विचलित मौसम से स्वयं को बचाने हेतु. ओह मैं तो बताना ही भूल गयी..! (Devar village Guptkashi)

जी हां! मैं बात कर रही हूं गुप्तकाशी के देवर गांव की.

यहां के लोगों की ज़िदगी आहिस्ता-आहिस्ता ही सही मगर गुनगुनाते हुए व्यतीत हो रही है.

यहां ना ही लोग ब्रैंड कांशियस हैं ना ही किसी से प्रतिस्पर्धा बस अपने में ही जूझते रहने की आदत है इन्हें. हां ! कौतुहलता ज़रूर बनी रहती है इन्हें कि गांव में आज कौन नये सैलानी आये हैं? इसी कौतुहलतावश खेत में गुड़ाई करते-करते हुए ही स्त्रियां हम से टूटी-फूटी हिंदी में पूछ लेती हैं, कहां से आये हो आप लोग?

इसे भी पढ़ें : उत्तराखण्ड में टोपी पहनने का चलन कब शुरू हुआ?

हम मुस्कराकर जवाब देते हैं देहरादून से, यह सुनते ही पहले से ही दमकते उन स्त्रियों के चेहरे और सुनहरे हो जाते हैं. देहरादून भी तो अपना ही ठहरा उनके लिए. मिट्टी के हाथों को आपस में झाड़ती हुई बड़ी फुर्ती से उठकर हमें अपने घर चाय के लिए आमंत्रण देती हैं. ऐसा एक बार नहीं बार-बार हुआ और हमने विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर चाय का आमंत्रण अस्वीकार किया. क्योंकि हम पूरे देवर गांव को दीठ भर देखकर अपनी दुर्लभ स्मृतियों में संचित कर लेना चाहते हैं.

गुप्तकाशी से लगभग तीन किलोमीटर और केदार कैंप, जहां कि हम ठहरे हुए हैं, से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर देवर गांव है. जहां की स्वच्छ आबो-हवा और मिट्टी की खूशबू मैं अपने साथ लेकर देहरादून लौटी हूं. मिट्टी ही क्यों? वहां के लोक के जीवन जीने का ढब, उनकी कुशल व्यवहार्यता हृदयतल में गहनता से रच-बस सी गयी है.

देवर गांव घूमते हुए हमें बहुत सी लड़कियां स्कंधों पर चंगेरी उठाये हुए मिलीं. बहुत निराशा हुई यह सोचकर कि इन लड़कियों का जीवन भी कितनी दुश्वारियों से भरा हुआ है. क्या बोझा उठाने में ही इनका जीवन गुजर जायेगा? किंतु जब उनकी शैक्षिक योग्यता को हमने जानने का प्रयत्न किया तो कोई बीएससी पूरा कर चुकी थी, कोई एमए फाइनल में थी किंतु जीवन बिल्कुल सहज और सरल, लेशमात्र  दंभ नहीं था उनके चेहरों पर.

मेरी दोनों मित्र जो कि अपने रोजगार में अच्छे ओहदों पर हैं, उन्होंने उनको रोजगार दिलवाने का आश्वासन दिया.

हमने एक दिन देवर गांव का ट्रैक किया. वहां खेतों की कमर पर रास्ता बनाती वक्राकार सड़क बहुत ख़ूबसूरत दिखाई दे रही हैं. जिधर भी नज़र दौड़ाओ हर तरफ प्रकृति अपने सौंदर्य की अद्भुत छटा बिखेरती हुई प्रतीत हो रही है. मोबाइल है कि हाथ से पर्स में जाता ही नहीं है. हर समय हृदय देवर गांव के पहाड़, नदी, मंदिर, यहां के बाशिंदों को कैमरे में कैद करने को आतुर है.

देवर गांव में जगह-जगह आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त होमस्टे बने हुए हैं. ऐसा जान पड़ता है कि हम किसी विदेशी जगह में पहुंच गये हैं. फिर भी यह चिंताजनक है कि ये होमस्टे मानो गांव की सादगी को शहर के वैभव का आईना दिखा रहा है और ग्रामीण भी शहर की चकाचौंध से आकर्षित होकर उस आईने में स्वयं का अक्स देखने को उतारू हैं. लेकिन बहुत सी स्त्रियों को हमने इन होम स्टे के विस्तृत बगीचों में काम करते हुए देखा. रोजगार की दृष्टि से सोचने पर संतोष हुआ कि अच्छा है ग्रामीणों को यहीं रोजगार मिल रहा है. यह पुख़्ता जानकारी है कि गुप्तकाशी और देवरगांव के लोगों ने पलायन नहीं किया है. वे यहीं पैदा हुए हैं और जीवित रहने के लिए यहीं उन्होंने अपनी मिट्टी में उपजाया है.

लाल, नीले, पीले, सफेद होमस्टे हरियावल खेतों के साथ रल-मिलकर एक चटकीली बहुरंगी प्रदर्शनी आयोजित कर रहे हैं. मन को यह सब भा रहा है, किंतु मन में एक पीड़ा भी है कि यूं ही गांवों में होमस्टे बनते रहे तो गांव शहर के लुभावने परिदृश्य में अपनी मिट्टी में रची-बसी संस्कृति को कहीं उतार फेंकेगा.

देवर गांव में ही एक सड़क कटकर ज्वाला देवी मंदिर की ओर जाती है. हरे-भरे बांज से घिरे खुले मैदान में ज्वाला देवी का नयनाभिराम मंदिर है. मंदिर के पृष्ठ भाग में रेतीला विस्तृत तप्पड़ है जिससे होकर थोड़ा समतल चढ़ने पर सामने चौखंभा की हिमआच्छादित पहाड़ी और केदारनाथ के पहाड़ दिखाई देते है. नीचे गहरी घाटी को देखने पर एक महीने रेखा सी बहती रावण गंगा दिखाई दे रही है.

केदारकैंप लौटते हुए हम बहुत सी स्त्रियाँ मिलीं जो हमारी ही हम उम्र हैं किंतु हमसे तिगुनी उम्र की प्रतीत हो रही हैं और दादी-नानी बन चुकी हैं. हमें समझ नहीं आया कि स्वयं पर गर्व करें या इन स्त्रियों से सहानुभूति पैदा करें. ख़ैर यह बात यहीं पर छोड़ते हैं ये अपने जीवन से पूर्णतः प्रसन्न हैं तो हम क्यों इनके जीवन में खामख्वाह घुसपैठ करें.

पहाड़ को बचाना है तो निश्चित ही हमें पहाड़ की ओर लौटना होगा किंतु शहरी परिवेश को लेकर नहीं. खांटी गांव के राग-भाग पहनकर. तभी हमें महसूस होगा कि गांव का लोक और जीवन कितना समृद्ध और सुकून भरा है. ना कोई आपाधापी कहीं जाने की, ना किसी से कोई प्रतिस्पर्धा, ना खालीपन. कट रही है इनकी ज़िंदगी खेतों की हरहराती फसल पर लोकगीत गाती हुई. कुछ अपनी सुनाती कुछ दूसरों की सुनती हुई सी.

देहरादून की रहने वाली सुनीता भट्ट पैन्यूली रचनाकार हैं. उनकी कविताएं, कहानियाँ और यात्रा वृत्तान्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.

इसे भी पढ़ें : कण्वाश्रम : जहां राजा दुष्यंत ने विश्वामित्र व मेनका की कन्या शकुंतला को देखा

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago