श्रीदेव सुमन 25 मई, 1916 – 25 जुलाई, 1944
ब्रिटिश राज और टिहरी की अलोकतांत्रिक राजशाही के खिलाफ लगातार आन्दोलन कर रहे श्रीदेव सुमन को दिसंबर 1943 को टिहरी की जेल में नारकीय जीवन भोगने के लिए डाल दिया गया. झूठे गवाहों को खड़ा कर उन पर मुकदमा चलाया गया. मुक़दमे की पैरवी करते हुए श्रीदेव सुमन ने कहा ‘हाँ मैंने प्रजा के खिलाफ लागू काले कानूनों और नीतियों का हमेशा विरोध किया है. मैं इसे प्रजा का जन्मसिद्ध अधिकार मानता हूँ.’
31 जनवरी 1944 को फर्जी मुकदमों की बिनाह पर सुमन को 2 साल की जेल और 200 रुपए जुर्माने की सजा सुना दी गयी. जेल में भी इनका संघर्ष जारी रहा 21 फ़रवरी से श्रीदेव सुमन ने जेल में ही 21 दिन की भूख हड़ताल शुरू की. जेल के कर्मचारियों ने इनकी मांगें मानकर राजशाही से वार्ता करने की बात कही, जिस पर अमल नहीं किया गया. उलटे इन्हें बेंत से पीता गया.
कोई असर न होता देख 3 मई 1944 को सुमन ने दोबारा अपना आमरण अनशन शुरू कर दिया. कोई भी प्रलोभन और अत्याचार इनके हौसले को डिगा न पाया. इनकी यह हालत देख जब जनता भी उद्वेलित होने लगी तो रियासत ने श्रीदेव सुमन द्वारा भूख हड़ताल ख़त्म करने की अफवाह फैला दी. यह भी कहा गया कि उन्हें जल्द ही रिहा किया जायेगा. सुमन को जब रिहा किये जाने का प्रस्ताव दिया गया तो उन्होंने प्रजा को अधिकार दिए बिना अनशन ख़त्म करने से इनकार कर दिया.
जेल में मिल रहे पाशविक अत्याचारों और भूख हड़ताल के कारण 25 जुलाई 1944 को श्रीदेव सुमन की मृत्यु हो गयी. जेल में वे बीमार भी हो गए थे, उन्हें उचित इलाज भी नहीं दिया गया. इनकी शहादत के बाद जेल प्रशासन ने शव भागीरथी के तीज बहाव में फेंक दिया.
इस शहादत के बाद उद्वेलित जनता ने राजशाही के खिलाफ प्रचंड विद्रों अंजाम दिया. इससे घबराकर टिहरी रियासत ने जनता के प्रजामंडल को वैधानिक घोषित किया. 1948 में जनता ने टिहरी, कीर्तिनगर और देवप्रयाग में कब्ज़ा तक कर लिया. टिहरी गढ़वाल के भारतीय गणराज्य में शामिल हो जाने तक यह आन्दोलन चलता रहा.
टिहरी रियासत की राजशाही के खिलाफ विद्रोह कर अंतिम बलिदान देने वाले सेनानी स्ग्रीदेव सुमन का जन्म 25 मई 1916 को टिहरी गढ़वाल के गाँव जुल में हुआ. हरिदत्त बडोनी और तारा देवी के घर जन्मे सुमन का नाम श्रीदत्त बडोनी रखा गया.
गाँव चम्बाखाल में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने टिहरी से मिडिल स्कूल की पढाई की. विद्यार्थी जीवन के दौरान ही 1930 में देहरादून में सत्याग्रही आन्दोलन में शिरकत करने के कारण उन्हें 15 दिन की जेल और बैंतों से पीटे जाने की सजा मिली. उनका अध्ययन भी जारी रहा. उन्होंने पंजाब विश्विद्यालय से रत्न भूषण, प्रभाकर और बाद में विशारद और साहित्य रत्न की परीक्षाएं पास कीं.
सुमन ने दिल्ली में देवनागिरी महाविद्यालय की स्थापना की और कविताएं भी लिखने लगे. इसी दौरान पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय रहे.
लेकिन जनता के लिए प्रतिबद्धता ने इन्हें गढ़देश सेवा संघ की स्थापना के लिए विवश किया जिसे बाद में हिमालय सेवा संघ के नाम से जाना गया. वे जल्द ही पूरी तरह सामाजिक-राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गए. उन्होंने राजशाही के खिलाफ जनता को जागरूक करने की शुरुआत की. 23 जनवरी को देहरादून में टिहरी राज्य प्रजा मंडल की स्थापना के मौके पर इन्हें संयोजक मंत्री चुना गया.
श्रीदेव सुमन हिमालयी रियासतों में जनता को जागरूक करने के साथ ही उनकी समस्याओं को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने का काम भी करते रहे. टिहरी रियासत द्वारा उनके भाषण देने पर रोक लगायी गयी, उन्हें जेल जाना पड़ा, कई प्रलोभन भी दिए गए लेकिन वे अपने इरादों से नहीं डिगे. भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान वे गिरफ्तार किये गए और एक साल तक देश की विभिन्न जेलों में रखे गए.
अपने शरीर के कण-कण के नष्ट हो जाने पर भी टिहरी के नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने का दम भरने वाले श्रीदेव सुमन ने अपने इस संकल्प को निभाया भी. दिसंबर 1943 में जब एक बार फिर उन्हें जेल भेजा गया तो वहां से वे अनंत यात्रा पर निकल पड़े. उत्तराखण्ड जैसा है इसे वैसा बनाने में श्रीदेव सुमन जैसे लोगों के अप्रतिम बलिदानों की भूमिका है.
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एक महान आत्मा को दिल से श्रद्धासुमन अर्पित। गत वर्ष अपने गांव के पास के राजकीय कन्या इन्टर कालेज सारकोट (अल्मोड़ा) में सुमन देव जी स्मृति में छात्राओं के साथ पेड़ लगाने तथा श्री सुमन देव जी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर गुप्तूगू करने का अविस्मरणीय अवसर मिला।
पुन: नमन।
एक महान आत्मा को दिल से श्रद्धासुमन अर्पित। गत वर्ष अपने गांव के पास के राजकीय कन्या इन्टर कालेज सारकोट (अल्मोड़ा) में सुमन देव जी स्मृति में छात्राओं के साथ पेड़ लगाने तथा श्री सुमन देव जी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर गुप्तूगू करने का अविस्मरणीय अवसर मिला।
पुन: नमन।