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देश में सबसे खराब लिंगानुपात वाला राज्य बना उत्तराखंड

सितम्बर 22 को रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इण्डिया (आर.जी. आई) के जरिये आये नतीजे जो सांख्यिकी रपट 2020 की न्यादर्श पंजीकरण प्रणाली (एस.आर.एस) पर आधारित रहे, बताते हैं कि, “उत्तराखंड में प्रति हजार जन्म हुए शिशुओं में अब बच्चियों की संख्या देश भर में सबसे कम 844 रह गई है. 2017 से 2019 की अवधि में यह 848 पाई गई थी. अब ग्रामीण इलाकों में जहां प्रति हजार जन्म पर 853 बच्चियां जन्म ले रहीं हैं तो शहरी इलाकों में इनकी संख्या गिर कर मात्र 821 रह गई है”.
(Sex Ratio Report Uttarakhand 2022)

पहाड़ के सापेक्ष मैदानी इलाकों और शहरी इलाकों में धटती हुई इस बालिका शिशु दर के पीछे छुपे कई कारक हैं जिनमें भ्रूण जाँच की बढ़ती सुविधाओं को जनांकिकी के एक्सपर्टस सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं.पितृसत्तात्मक ढांचे में पुत्र वरीयता की सोच हमेशा से प्रभावी रही है. जिस तेजी से पढ़ाई लिखाई का अवसर मिलने पर लड़कियों ने परिवार के साथ ही अपने गांव, इलाके का मान बढ़ाया तो उसका प्रदर्शन प्रभाव भी तेजी से प्रसारित होता दिखा. सामाजिक स्तरीकरण में कहीं न कहीं यह चाह परिवार में बनी रही कि वंश वृद्धि के लिए तो पुत्र चाहिए ही.

यह प्रवृति सामान्यत: देखी गई कि परिवार में लड़कियां होती रहीं फिर जा कर पुत्र हुआ ऐसे में परिवार का आकार बढ़ता रहा और बच्चों के स्वास्थ्य पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता दिखा. फिर पिछले दशकों से चिकित्सा विज्ञान की प्रगति से यह पता लगा लिया जाने लगा कि गर्भ में पल रहे शिशु का लिंग क्या है. सदियों से पुत्र की चाह का प्रतिमान लिए परिवार के लिए यह सुविधा सोनोग्राफी ने दी तो कन्या शिशु के पैदा होने की प्रायिकता चिकित्सक के हाथो न्यून होती गई. शिशु लिंगानुपात में कन्याओं की संख्या तेजी से गिरी. सामाजिक संरचना पर इसके कई नकारात्मक प्रभाव देखे गये.

अब लिंग परीक्षण पर कठोर सरकारी प्रतिबंध हैं. इसके नियम मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी या एम टी पी एक्ट से कानून के रूप में लागू किये गये. एमटीपी कानूनों के प्रावधानों के अंतर्गत विवाहित महिलाओं और विशेष श्रेणियों, दुष्कर्म पीड़िताओं, दिव्यांगों के लिए अवांछित गर्भ के गर्भपात हेतु चौबीस सप्ताह की अधिकतम सीमा तय की गई. सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी कानून का लाभ संकीर्ण पितृ सत्तात्मक रूढ़ियों के आधार पर तय नहीं करना चाहिए और इसीलिए एम.टी.पी के नियमों में और सुधार की जरुरत है. प्रजनन विकल्प चुनने का हर महिला का अधिकार मानव गरिमा के विचार का केंद्र है. प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल के साथ भावनात्मक व शारीरिक भलाई से वंचित करना भी महिलाओं की अस्मिता पर आघात की तरह देखा जाना चाहिये.

संविधान के अनुच्छेद -21 के अंतर्गत स्वास्थ्य के अधिकार व विशेष रूप से प्रजनन स्वास्थ्य की रक्षा करना राज्य का सकारात्मक दायित्व बनता है. गर्भ में पल रहे शिशु की जाँच के लिए मशीनी रूप से सोनोग्राफी वरदान सिद्ध हुई तो क्रूरता का पैमाना भी. शिशु का लिंग निर्धारित करने में पूरी तरह समर्थ होने के कारण यह विधि कन्या भ्रूण हत्या का साधन बनती गई. इसे रोकने व मात्र कानूनी गर्भपात किये जाने के सख्त प्राविधान बने. जिन्हें अल्ट्रासाउंड की सुविधा वाले हर अस्पताल व मेटेर्निटी सेंटर पर लागू किया गया. परन्तु मात्र पुत्र की चाह में इसका उल्लंघन होता रहा. सख्त चेतावनी के बावजूद निजी चिकित्सालयों में समय -समय पर छापे पड़ने की खबरें सुर्खियां पातीं रहीं. मशीन को जप्त कर सील करने,रेडिलोजिस्ट डॉक्टर का लाइसेंस निरस्त करने के बाद के नतीजों से यह तरीका- प्रतिछाया कीमतों की परिधि में आया जिसकी भारी फीस वसूली गई. गुपचुप होने के आवरण में इसकी समर्थ मांग और बढ़ी देखी गई क्योंकि दूर दराज में भी ऐसे परीक्षण शुरू हो फैल रहे थे. अल्ट्रासाउंड की मशीन से शरीर की कई जांचे सटीक आतीं, वहीं कन्या भ्रूण की प्रायिकता होने पर तमाम नियमों कानूनों का उल्लंघन कर इसके विनिष्ट होने की शत प्रतिशत संभावना भी बढ़ती गई.
(Sex Ratio Report Uttarakhand 2022)

यह उस मानसिकता का नतीजा है जो कई कारकों के दबाव में अपने परिवार की वंश वृद्धि में लड़की के सापेक्ष लड़के की चाहत रखते थे. वह ऐसी समर्थ मांग करते रहे जिसने चिकित्सा के लिए अत्यंत उपयोगी विधा को भ्रूण हत्या के लिए उपलब्ध सेवा की पूर्ति का साधन बना दिया. इस पर कड़ी रोक के विधान भी बने. तमाम कोशिशों के बावजूद इस प्रवृति पर अंकुश लगा पाना मुश्किल भी रहा. इस सिलसिले में निहित था ऐसा सुपर नार्मल प्रॉफिट जो इस सेवा के आपूर्ति कर्ताओं के पिरामिड के शीर्ष तक जा पहुँचा. सरकार प्रचार -प्रसार व विज्ञापन पर काफी रकम खर्च कर जन जागरूकता के लोक कल्याणकारी दायित्व के निर्वहन में संलग्न रहीं. कन्या के जन्म से ही वह उसकी सुरक्षा के प्रति चिंतित बनी. शिशु लिंगानुपात में कन्याओं की गिरती दर से राज्य की विकास गतिविधियों के गुणात्मक पक्ष फिसलते रहे. आधे-अधूरे रह जाने के यह बिम्ब मनोहारी हिमालय के पैनोरमा के ठीक नीचे फैले रौखड़ की तरह उभर गये थे. प्रोफेशनल फोटोग्राफर ऐसा फोटो क्लिक करना पसंद नहीं करते जो सौंदर्य बोध कुंठित कर इफेक्टिव डिमांड ही खतम कर दें हो. तभी संपादन में वह सब कट करने की कोशिश होती है ताकि शोभा बढ़ सके.

बेहतरीन सुविधाओं से सुसज्जित बड़े अस्पताल हों या कम लागत वाले मेटेर्निटी होम, नवीनतम मशीनों की जाँच ने कन्या भ्रूण के पलने की सम्भावना को ही समाप्त कर दिया है. अपने मुनाफे को बनाए रखने के लिए सिजेरियन ऑपरेशन के पैकेज के साथ भर्ती होती है.परिवार को आश्वस्त कर दिया जाता है कि गर्भवती की वर्तमान हालत बहुत खराब है,पर चिंता की कोई बात नहीं. कई किस्म की सुविधाओं के रहते व अल्ट्रासाउंड जाँच के चलते जोखिम की सम्भावना कम होती जाती है.अपनी क्रय शक्ति के चलते बस यह यह तय करना है कि किस पैकेज का चुनाव होगा जो सिल्वर, गोल्ड और प्लैटिनम सरीखी गुणवत्ता युक्त सुविधाऐं देने का करता है.कमरा एयर कंडीशन होता है, निजी होता है. नर्स घंटी बजाते ही हाजिर होती है. सफाई के लिए बार -बार कहने की जरुरत नहीं. बस मनीट्रांसफर की हैसियत और अपनी फैमिली के लिए कुछ कर गुजरने की कुव्वत होनी चाहिए.पहाड़ से नौकरी करने बाहर निकले लोग भी प्रवास के चलते अपना परिवार अधिक सुविधा देने वाले पोस्टिंग स्थल पर रखने को वरीयता देते हैं जिनमें बच्चों की लिखाई पढ़ाई व चिकित्सा के धटक बड़े महत्वपूर्ण हैं.

हालत यह है कि देखते-देखते कई आबाद गांव गैर-आबाद हो गये हैं. जहां आबादी है वहां अब इतने मेहनतकश हाथ नहीं बचे हैं कि पहाड़ में चले आ रहे जीवन निर्वाह के संसाधनों का समर्थ उपयोग कर सकें. पहाड़ की अपनी सीमाएँ हैं, अपनी कमियां हैं जिनसे पार पाने के लिए हाड़-तोड़ परिश्रम करना पड़ता है. युवा पहाड़ से बाहर नौकरी की खोज मे जाते हैं. फिर वहीं उनका परिवार भी बस जाता है. अब तो कस्बे और शहर के साथ गांव में पली बढ़ी किशोरियां भी विवाह के बाद गांव में गृहस्थ जीवन बिताने से साफ मना कर देतीं हैं.

विवाह की आयु के बढ़ने और अपनी बच्चियों को शिक्षित करने जैसे कारकों के साथ ही गर्भ निरोध के साधनों तक आसान पहुँच ने प्रजनन दर कम कर दी है.जनांकिकी के नये विवेचन बताते हैं कि जैसे -जैसे व्यक्ति की आय बढ़ती है, जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए परिवार के आकार को वह छोटा ही रखना चाहता है. विवाह के बाद पुत्र की चाह का पैमाना,सामाजिक रूढ़ियों की परवाह न करने के वाली मॉडर्न एप्रोच के बाद भी उच्च प्रतिमान में बना रहता है.

एस.आर.एस के हाल में जारी 2020 तक के आंकड़े यह बताते हैं कि पिछले एक दशक में सामान्य प्रजनन दर या जी. एफ.आर में 20 प्रतिशत की कमी आई है. जी.एफ.आर,15 से 49 वर्ष की पुनरुत्पादक आयु में प्रति हजार औरतों द्वारा जन्म दिए शिशुओं की संख्या को सूचित करता है. भारत में औसत जी.आर.एफ 2008 से 2010 की अवधि में 86 थी जो दस साल बाद 2018 से 2020 की अवधि में गिर कर 69 रह गई. ये ह्रास, देश के ग्रामीण इलाकों में जहाँ 20 प्रतिशत की दर से होने वाली गिरावट को दिखा रहा था तो शहरी इलाके में सापेक्षतः कम 15.5 प्रतिशत हो गया अर्थात सामान्य प्रजनन दर गाँवो में अधिक तेजी से गिरी.

गढ़वाल कुमाऊं के गावों में बच्चों को निहारते ये सवाल पूछना बड़ा बेमानी सा लगता है कि इनमें सीजेरियन बच्चे कितने हैं? जो ऑपरेशन से हुए. पूछताछ के अनुभव सिद्ध अवलोकन बताते हैं कि प्रसूति काल में आस -पास ही कोई आमा, कोई सयानी होती जिसके हाथों से जस फलता व उसके घर -गोठ में कदम पड़ते ही गुड़ की भेली फोड़ी जाती. इसे दाई कहा जाता. कुछ साफ सूती कपडे और गरम पानी जैसे संसाधन चाहती. साफ दराती, चक्कू या फिर ब्लेड से नाल कटती.शिशु के रोने की आवाज से घर -गोठ में बहार आती.रसोई से पजीरी भूनने की महक फैलती. छट्टी, नामकन्द के संस्कार शुरू हो जाते तो पाशणी से दाल-भात. बच्चे कब बड़े हो गये और अब कर बार के लिए गांव छोड़ गये पता ही न चला.

अब भी गांव जाते कई ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं जिनमें डाँडी पर लिटा, पीठ में लाद जच्चा को गोठ-आंगन से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाया जाता है. आशाकार्य कर्ता, ए.एन.एम के बस में कुछ न होने पर जिला अस्पताल और आखिर कार रिफर कर दी गई प्रसूता, रानीखेत,हल्द्वानी, ऋषिकेश, देहरादून, श्रीनगर या किसी बड़े अस्पताल और मेटरनिटी होम की कष्टप्रद दूरी झेलती ही है. हर बिगड़ा केस भर्ती हो सुधार की प्रायिकता खोजता है.रास्ते में ले जाते, शीत-घाम-बारिश झेलते, जीप में हिचखोले खाते, जंगल के बीच,अस्पताल के बरामदे में प्रति हजार औरतों के कितने प्रसव होते जो न कहीं दर्ज होते व न ही इनका कोई आंकड़ा मिलता. इनकी तो सिर्फ खबर बनती.लोग चाव से पढ़ दुख प्रकट करते. निंदा रस में आनंद आने की आदत से सरकार को कोसते. बड़े बूढ़े कहते अब पहला जमाना कहाँ.

मानव संसाधन विकास पर यू.एन.डी.पी द्वारा सुझाये मापदंड,जो एक गर्भवती स्त्री की जाँच व प्रसव में हर हाल जरुरी हैं, तराई-भाबर और पहाड़ के कितने अस्पताल पूरा कर पाते हैं वाला सवाल आज भी बड़ी धुंधली तस्वीर रख पाता है. पहाड़ उसके खेतिहर इलाके, साग-पात, जानवर-घास, चूल्हा-लकड़ी, पानी-नौला, खड़िया-चूना, पत्थर-बजरी-खनन पट्टी के साथ परंपरागत पेशों में लिपटी-चिपटी दिखती है. इनकी ओट में एच.आर.डी के मानक इतने सिकुड़ जाते हैं कि उनकी खोजबीन सबसे निचले पायदान पर होती दिखती है. हिमालय की उपत्यका भी ऐसे पिछड़े संकेतकों की श्रृंखला में शामिल रहे तो उसमें कोई संदेह नहीं क्योंकि ये दूरस्थ हैं, सुविधा रहित हैं, चिकित्सालय सुविधा यहां से लम्बी दूरी पार कर ही मिल सकती है.

कितनी ऐसी समर्पित डॉक्टरनियां रहीं जो सरकारी अस्पतालों में कठिन से कठिन केस सुलझा माँ की तरह जच्चा-बच्चा को अपने घर स्वस्थ रहने के संस्कार दे विदा करतीं थी. इनकी बातें आमा ठुल ईजा ब्वारी की मोहिली यादों में बसी हैं. दूर दराज के गांवों व पिछड़े इलाकों में स्वास्थ्य के क्षेत्र में जच्चा बच्चा के हित में काम कर रहीं आशा कार्यकर्त्ता, आशा नेत्रियां भी वही थीं जिन्होंने अभूतपूर्व लगन और साहस से कोविड काल में अत्यंत अल्प वेतन व सुविधा रहित होने के बावजूद विश्व स्तर पर अपना नाम स्थापित किया और सम्मान पाया.

लिंगानुपात की दशाएं मात्र जन्म के समय प्रति हजार बच्चों में बच्चियों की संख्या अधिक या कम होने के समंक पर ही विचार नहीं करती. इनके संकेत उन कारकों की ओर ले जाने में भी सहायक है जिनसे गुणात्मक विकास प्रभावित होता है.खास तौर पर वह सोच, वह दृष्टिकोण जो लिंग के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो, बालिका -बालक में कोई विभेद न करे.दूसरी ओर मात्रात्मक रूप से वह व्यय है जो सेहत पर किया जाता है. इसे समझने के लिए जान लें कि कुल स्वास्थ्य परिव्यय के तीन संघटक हैं: इनमें पहला सरकारी खर्च है. दूसरा व्यक्तिगत जो अपने परिवार के स्वास्थ्य को ठीक करने के लिए खुद अपनी जेब से देता है.तीसरे में निजी स्वास्थ्य बीमा, उपक्रमों, लाभ के उद्देश्य से रहित एन. जी.ओ या वाहय स्त्रोतों या फण्ड से मिली वह राशि है जिसका भारत में बाहर से अंतरप्रवाह हो रहा हो. इनमें पहला, स्वास्थ्य पर किया गया सरकारी व्यय है जिसका प्रावधान निश्चित रूप से राज्य सरकार द्वारा तय बजट से होता है. साथ ही स्वास्थ्य पर केंद्र की योजनाएं जिनका व्यय वह वहन करती है. दूसरा, स्वास्थय सेवाओं पर किया गया प्रति व्यक्ति व्यय,जिसे वह व्यक्ति स्वयं वहन करता है. तीसरे धटक की व्यय धनराशि देश की मुख्य कम्पनियों या/और एन जी ओ के द्वारा अपने कर्मचारियों व चुने हुए वर्ग या समूह में खर्च की जाती है. इनके मुख्यालय कुछ चुने राज्यों में अधिक संकेंद्रित दिखते हैं तभी स्वास्थ्य से सम्बंधित व्यय की इनकी रिपोर्टिंग भी कमोबेश इन्हीं महानगरों में इनके बजट, भुगतान और कवरेज को समंजित करती है.
(Sex Ratio Report Uttarakhand 2022)

जहां तक उत्तराखंड का प्रश्न है, सरकार के पास बजट में स्वास्थ्य व जच्चा बच्चा पर व्यय करने की राशि का प्रतिशत न्यून है. बजट का बड़ा हिस्सा पहले से तैनात स्टॉफ की तनख्वाह व पेंशन की मद में जाता है. फिर स्टॉफ की कमी है. आवश्यक दवा की समय पर खरीद नहीं होती. यँत्र उपकरण हैं तो तकनीकी स्टॉफ नहीं है.मौसम की किसी भी आपदा में पहाड़ के गाड़ गधेरे, पगडंडी के साथ डोली, चारपाई, अपनों पर लद कर पार होने के बाद कब हिचखोले खाती महेंद्रा की गोद व पीठ पर लद प्रसूता को कहाँ तक पहुँचाएगी,इसका कोई भरोसा नहीं. खूब विज्ञापन के बावजूद सरकारी एम्बुलेंस अब न केवल अपना नंबर बदल चुकी है बल्कि विश्वसनीयता भी गवां गई है. शहरों में प्राइवेट एम्बुलेंस का कारबार फला फूला है.

ऐसी दशाओं के साथ यह नतीजा है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिक खर्च किये जाने व इनके संवेदनशील प्रबंधन की जरुरत है. हालांकि राज्य, चिकित्सा उपादानों पर जो व्यय करते हैं, वह चिकित्सा सुरक्षा पर किये गये प्रति व्यक्ति व्यय से प्रत्यक्ष रूप से सहसम्बंधित हो, यह आवश्यक नहीं है उदाहरण के लिए जम्मू कश्मीर के जो स्वास्थ्य सूचक हैं वह उतने ही बेहतर हैं जितने केरल के, पर यही नतीजे हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र में भी दिखते हैं जबकि वहां चिकित्सा के सूचक बहुत दुर्बल थे. बिहार, मध्य प्रदेश और असम में प्रति व्यक्ति खर्च बहुत कम रहा तो वहां चिकित्सा के सूचक भी बहुत दुर्बल दिखे जो यह जताता है कि चिकित्सा सेवा पर व्यय बढ़ाना बहुत जरुरी है व उनका संवेदनशील प्रबंध भी.

2018-19 के राष्ट्रीय स्वास्थ्य एकाउँट में जारी ये समंक यह बात स्पष्ट करते हैं कि जिन राज्यों में कुल स्वास्थ्य व्यय ज्यादा है, कमोबेश वहां लोगों ने अपनी जेब से स्वास्थ्य सुविधाओं पर होने वाले खर्च को वहन किया है, ऐसा केरल और महाराष्ट्र में तो साफ दिखाई देता है. वह राज्य जो चिकित्सा पर प्रति व्यक्ति व्यय पचास प्रतिशत से अधिक कर रहे हैं,उनमें असम (55%)हिमाचल (52%)जम्मू -कश्मीर (52%) हैं. कुल स्वास्थ्य खर्च में सरकार का हिस्सा सबसे ज्यादा उत्तराखंड में 61 प्रतिशत हुआ है.

उत्तराखंड में नियोजित विकास के दौर में महिलाओं और शिशुओं के स्वास्थ्य पर होने वाला सरकारी व्यय बढ़ती हुई प्रवृतियाँ दिखाता है पर यहां तेजी से विकसित हो रहे शहरों से जैसे जैसे पहाड़के गांव व सीमांत के कठिन दुर्गम इलाके दूर होते गये है सुविधाओं का अभाव उतना ही ज्यादा रिग्रेसिव है.

उत्तराखंड में 2014 से 2016 की अवधि में जन्म के समय लिंगानुपात 850 था जो 2018से 2020 की अवधि में कम हो कर 844 हो गया. उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों में 2017 से 2019 की समय अवधि में लिंगानुपात 853 से बढ़ कर 862 हुआ जो शहरी इलाकों में 2013 से 2015 की अवधि में न केवल केवल उत्तराखंड बल्कि देश भर में सबसे कम था.2014 से 2016 के बीच यह और सिमट कर 816 रह गया.2018 से 2020 में इसमें थोड़ी वृद्धि दिखी जब आंशिक रूप से यह सुधर कर 821 हो गया.

जच्चा-बच्चा के सरकारी अस्पतालों में समुचित सुविधाओं की कमी बनी है. अब चयन होने के बावजूद डॉक्टर गिने चुने पहाड़ के अस्पताल में आना ही अपनी वरीयता सूची में बनाए हुए हैं. उत्तर प्रदेश का पर्वतीय क्षेत्र होने की याद वाले यह अस्पताल कहाँ कहाँ के मैदानी -पठारी इलाकों से पहुँच अपनी सेवाओं की याद आज भी दिलाते हैं.

अभी सरकार अस्पताल में भवन, मशीनरी इत्यादि की स्थापना पर पर्याप्त व्यय करती है.तकनीकी स्टॉफ की भर्ती न होने से मशीनों का उपयोग नहीं हो पाता.तकनीकी रूप से उन्नत उपकरण वारंटी अवधि में ही चुक जाते हैं और फिर इनकी जांच प्राइवेट लैब से कराने का जाल विकसित होता है. देखते ही देखते ऐसी निजी जांचे अपनी तुरंत व विश्वस्त नतीजों के बूते शहरी इलाकों में अपनी कई ब्राँच के साथ कसबों तक में कलेक्शन सुविधा के साथ फैलती गईं हैं.स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए प्रति व्यक्ति अपनी जेब से दिया खर्चा भी बढ़ता जाता है. ब्रांडेड दवाइयों व सर्जिकल मदों की खरीद उसकी मजबूरी है जिनमें भारी कमीशन की गुंजाइश होती है. स्टाफ के अंतराल को उपनल की भर्ती से भर मेडिकल कॉलेजों व सरकारी अस्पतालों की गाड़ी खींची जाती है. अल्प मानदेय पर बरसों सुविधा दे रहा यह वर्ग जब काम रोकने पर बाध्य होता है, तब पता चलता है कि स्वास्थ्य सेवा पर सरकार का हिस्सा भले ही ज्यादा दिखे,मरीज को समुचित उपचार देने में यह बहुत कमजोर व लचर है.बार बार गिनी चुनी कंपनियों की औषधि को पर्चे पर लिखने की खबरें आतीं हैं और प्रधान मंत्री जन औषधि केंद्र मरीज की जेब में पड़े भार को कम करने में तटस्थ ही रहते हैं. पहले तो इनकी संख्या बहुत कम होती है फिर इनके संचालक इनके स्टॉक की कमी का रोना रोते हैं.डॉक्टर इनका जिक्र होने पर अधोमानक मानते हैं जबकि बी.पी.पी.आई (ब्यूरो ऑफ फार्मा पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग ऑफ इंडिया) इनको कड़े मानकों में बनाता है.

स्वास्थ्य उपचार की खराब दशा अब रोज ही परिवार पर चिकित्सा के व्यय को बढ़ा रहा है. बच्चों के लालन पालन पर, उनकी लिखाई-पढ़ाई पर, कपड़े जूते पर, समय असमय बीमार हो जाने पर खर्च ज्यादा है. इसलिए छोटा परिवार अकेला परिवार ज्यादा बेहतर हो गया है. लड़कियां पढ़-लिख अपने बूते अपने जीवन स्तर को समुन्नत कर मात्र विवाह व गृहस्थी के गठबंधन को निम्न प्रतिमान पर रख रहीं हैं.

लिंगानुपात में लड़कियों की गिरती दर से उपजी असंतुलन की दशाएं अब प्रभावी हैं. हालांकि कि इस असाम्य को ले कर केंद्र व राज्य के आंकड़े अलग अलग हैं. नीति आयोग के अनुसार उत्तराखंड में 2020 में लिंगानुपात 840 रह गया है. इससे पहले 2019 में यह 841 तो 2018 में 850 था. अब लिंगानुपात की तुलना में उत्तराखंड हरियाणा से भी नीचे है जहां प्रति हजार पर 843 लड़कियां हैं व उसके पडोसी राज्य दिल्ली में 843 तो बंगाल मे प्रति हजार बेटों पर 941, केरल में 957 व छत्तीसगढ़ मे सर्वाधिक 958 बेटियाँ जन्म ले रहीं हैं.

उत्तराखंड में प्रति हजार बेटों पर मात्र 840 बेटियों के जन्म पर राज्य सरकार सहमत नहीं है. उसने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के हवाले से इसका प्रतिवाद करते हुए यह स्पस्टीकरण दिया कि संभवतः नीति आयोग ने यह समँक 2018 के न्यादर्श पंजीकरण सर्वे से लिया है जो कि पुराना है. राज्य मे हेल्थ मैनेजमेंट सिस्टम हर जन्म की सूचना के आधार पर आंकड़े जारी करता है.

2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड मे बच्चों का लिंगानुपात 890 था इनमें सबसे अधिक लिंग अनुपात वाले जिले अल्मोड़ा (1,139), रुद्रप्रयाग (1,114), पौड़ी गढ़वाल (1,103) व बागेश्वर (1,090) थे जिनका अधिकांश भाग पर्वतीय है. वहीं सबसे कम लिंगानुपात वाले जिले हरिद्वार (880), देहरादून (902), ऊधम सिंह नगर (920) व नैनीताल (934)हैं जो अधिकांश शहरी इलाके हैं जहां कृषि, उद्योग व सेवा क्षेत्रों के साथ पर्यटन विकास भी तेजी से हुआ है.

उत्तराखंड मे लिंगानुपात मे कमी लड़कियों के देखभाल के दुर्बल पक्ष को सूचित करती है. जिससे यह संकेत मिलते हैं कि प्रसूति काल से पहले गर्भपात की प्रवृति पर अंकुश नहीं है क्योंकि परिवार लड़का होने को उच्च प्रतिमान देने की मनः स्थिति को बदल नहीं पाया है. ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘लाडली बेटी योजना’, ‘सुकन्या समृद्धि योजना’ जैसी सरकारी योजनाएं हों या मीडिया द्वारा चलाया गया “सेल्फी विद डॉटर”अभियान गर्भ की जाँच व गर्भपात की घटनाओं पर अंकुश लगाने में प्रभावी नहीं बन पाया है. नीति आयोग की रपट में, पूर्व गर्भाधान व प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम 1994 (पीसीपीएनडीटी) को सक्षम तरीके से लागू करने व लड़कियों के महत्व के बारे मे प्रचार करने हेतु प्रभावी कदम उठाने व राज्यों से लिंग चयन कर गर्भपात की प्रवृति को कड़ाई से रोकने पर बल दिया था. उसी नीति आयोग की ताजा रपट, “हैल्दी स्टेटस एंड प्रोग्रेसिव इंडिया” में यह स्वीकार किया गया कि देश के 21 राज्यों में 17 राज्यों में लिंगानुपात में कमी आ गई है.

अपने लेख,”मिसिंग वीमेन” में प्रोफेसर अमर्त्य कुमार सेन ने आहत हो लिखा कि स्त्री पुरुष भेदभाव की सोच बड़ी गहरी व्याप गई है. दक्षिण एशिया के जनांकिकीय समंकों से प्राप्त नतीजे तो पिछली शताब्दी में एक सौ मिलियन महिलाओं के गायब होने की त्रासद कथा सुनाती हैं. यह सिलसिला अभी थमा नहीं बल्कि अन्य विकृतियों के साथ उभरता दिखता है. यह औरत के सम्पूर्ण जीवन चक्र में जन्म से मृत्यु तक किये भेद-भाव के कारण है. एक प्रतिकूल बाल लिंगानुपात अंततः पूरी आबादी के विकृत लिंग ढांचे में परिलक्षित होता है.

महिलाओं के साथ की जा रही हिंसा का स्वरुप उसके जन्म से पूर्व ही गर्भ में उसके भ्रूण का पता चलते भी शुरू हो सकता है और या फिर उसके शैशव से आरम्भ हो जीवन पर्यंत शारीरिक या मानसिक, घरेलू स्तर या सामाजिक स्तर पर परंपराओं, रिवाजों और प्रचलित मान्यताओं में रपटता रहता है. प्रसव पूर्व लिंग चयन और बालिका भ्रूण हत्या के रिवाज, लड़कियों को शैशव काल में काल कलवित करना, बाल दुरूपयोग व बाल वैश्यावृति, कार्य स्थल पर यौन उत्पीड़न, दहेज, पति की बीमार मानसिकता, उसके पर स्त्री गामी होने और या नशे के विकार के साथ परिवार, कुटुंब या स्थानीय स्तर पर रीति रिवाजों से जुड़ी किसी विकृति, सम्बन्ध विच्छेद आदि अनेक घागों में लिपटी दशा के रूप में प्रकट हो जाता है. ऐसे सभी प्रकरण जिनमें महिलाओं की मर्यादा कमतर करी जाए , विकृत रूप से सामने रखी जाए और नकारात्मक परंपरागत रूढ़िबद्ध छवि के साथ आधुनिकता की त्वरा में नग्नता की ओर ले जाये उस संकीर्ण मानसिकता की सूचक हैं जिसकी खबरों से अखबार भरे पड़े हैं. ऐसी कई नाटकीय बना दी गई सत्य कहानियों से सावधान इंडिया बने या ओ टी टी की खुली काम केलि लीलाएं. इनसे अपने मन:रंजनम् में लिप्त रहे जन संचार. अब किसी किशोरी पर नौकरी के साथ वी आई पी को चरम सुख देने का दबाव बने और न मानने पर उसकी मुक्ति गंगा की निर्मल धारा में हो, तब? वह अब भी किसी आचार संहिता, दिशानिर्देश या अन्य किसी स्व नियामक तंत्र के विकसित होने की प्रतीक्षा है?
(Sex Ratio Report Uttarakhand 2022)

लेंगिक असमानता कई रूपों में उभर कर सामने आती है जिसमें सबसे मुख्य जनसंख्या में महिलाओं के अनुपात में आने वाली निरन्तर गिरावट है. सामाजिक रूढ़िवादी सोच और घरेलू तथा समाज के स्तर पर प्रताड़ना, भय व असुरक्षा का माहौल, उत्पीड़न व जघन्य हिंसा इसके वह रूप हैं जो सामने प्रकट हो रहे हैं. बालिकाओं, किशोरियों, युवतियों के साथ होने वाले भेदभाव व अनाचार महिलाओं की स्थिति के सन्दर्भ में परिस्थितिजन्य वास्तविकता के सापेक्ष उस लक्ष्य के बीच गहरा विवर्तन दिखाते रहे हैं जो विविध विधानो, नीतियों, योजनाओं और सम्बद्ध तंत्रो में रेखांकित हैं.जेंडर विकास सूचचांक में केंद्र व राज्य के आंकड़ों के बीच दिखने वाला अंतर क्या यह संकेत नहीं देता कि इनसे सम्बंधित एजेंसीयां अपनी विश्वसनीयता खो चुकीं हैं. अब जेंडर लेखा परीक्षा और मूल्यांकन तंत्र विकसित करने की नई पहल जरुरी है. साथ ही केंद्र व राज्य स्तर पर संस्थागत तंत्र को भी पारदर्शी बनाना होगा.

विकास की प्रक्रिया में जेंडर परिप्रेक्ष्य को शामिल करना, महिलाओं, बालिकाओं के प्रति भेदभाव व हर प्रकार की हिंसा समाप्त करना व इसके लिए विधिक प्रणलियों का सुदृढ़ीकरण करना अपरिहार्य माना जाता रहा है. उनकी स्वास्थ्य सम्बन्धी देखभाल, सभी स्तरों पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, कैरियर और कार्यालयों व व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में सुरक्षा को रेखांकित तो जरूर किया गया पर हिंसा और वैयक्तिक हमले के मामलों में क्या विधिक न्यायिक प्रणाली को अधिक अनुक्रियाशील और जेंडर सुग्राही नहीं होना चाहिए? क्यों ऐसे संवेदनशील मामले लटका दिए जाते हैं. आरोपी की बड़ी पहुँच त्वरित न्याय और अपराध की गंभीरता के समनुरूप दोषियों को दण्डित करने के बजाय साक्ष्य के साथ खिलवाड़ कर पुरानी प्रणाली को समय रहते पुनरीक्षा हेतु संवेदनशील नहीं बना पाती.

उत्तराखंड में पढ़ी लिखी युवती की निर्मम हत्या से उथल पुथल मची है. यह वही कुचक्र है जहां फंस अपने पैरों पर खड़े होने की सोच लिए न जाने कितनी किशोरियों-युवतियों क्या कुछ सहा होगा. मृत्यु दर के आंकड़े में अपना हिस्सा बढ़ाया होगा. बच्चियों ने तो आना ही कम कर दिया है न.
(Sex Ratio Report Uttarakhand 2022)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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पहाड़ में भू-कानून के पेंच

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