बीती रात दीप जोशी नहीं रहे. अल्मोड़ा नगर की पत्रकारिता के पर्याय माने जाने वाले दीप लम्बे समय से ‘अमर उजाला’ अखबार के ब्यूरो प्रमुख थे. उनके जाने से समूची पत्रकार-बिरादरी स्तब्ध है. हमारे पुराने साथी और दीप के अन्तरंग पत्रकार-फिल्म निर्देशक विनोद कापड़ी ने, जो अंत तक दीप की सहायता कर रहे थे, अपने दोस्त के अंतिम दिनों को याद करते हुए एक मार्मिक याद लिख भेजी है. दीप जोशी को काफल ट्री परिवार की हार्दिक श्रद्धान्जलि. (Senior Journalist Deep Joshi No More)
वो क्रिसमस की रात थी. इसी साल की क्रिसमस की रात जब मैं अपने दोस्त जॉन के घर जा रहा था. कार अभी डीएनडी पर पहुँची ही थी कि फ़ोन बजा.
“दीप जोशी कॉलिंग” लिखा आ रहा था. दीप – मेरा अल्मोड़े वाला दोस्त. दीप – दिल्ली, नोएडा, मुंबई से पहाड़ को देखने की मेरी एकमात्र खिड़की. दीप – उत्तराखंड में मेरी हर छोटी बड़ी समस्या का समाधान. फ़ोन उठाया तो दूसरी तरफ़ दीप नहीं था. एक महिला की घबराई हुई आवाज़ थी.
“विनोद दा बोल रहे हैं क्या? विनोद कापड़ी?”
“जी बताइए, विनोद बोल रहा हूँ”
“विनोद दा, मैं हेमा बोल रही हूँ. दीप की पत्नी”
फ़ोन पर इससे पहले कभी दीप की पत्नी से बात नहीं हुई थी, इसलिए अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था कि कुछ तो गड़बड़ है. कार की रफ़्तार अपने आप कम हो गई. फ़ोन स्पीकर फ़ोन पर ले लिया. (Senior Journalist Deep Joshi No More)
“जी बोलिए”
“मैं ये कह रही थी ना कि इनकी तबियत बहुत ख़राब है. हम लोग इनको दिल्ली ला रहे हैं. हल्द्वानी में अचेतावस्था में जाने से पहले ये कह रहे थे कि अगर दिल्ली ले जाओ तो विनोद कापड़ी को ज़रूर फ़ोन करना. वो सब देख लेगा.”
ये सब सुनते ही हाथ काँपने लगे. हेमा से बात करते हुए समझ में आया कि दीप को पहले बुख़ार था. अल्मोड़ा में तीन चार दिन तक बुख़ार समझ कर ही इलाज चलता रहा. फिर उसे हल्द्वानी लाया गया. पता चला कि टाइफस की वजह से उसके लीवर में इंफ़ेक्शन है जो बढ़ता जा रहा है और शरीर के बाक़ी हिस्सों पर भी असर करने लगा है. हल्द्वानी के डॉक्टरों ने दिल्ली ले जाने की सलाह दी है और फ़िलहाल वो उसे दीप के मित्र और नॅशनल हार्ट इंस्टीटयूट के के सीईओ डॉ. ओ.पी. यादव के पास ले जा रहे हैं.
लेकिन चूँकि दीप ने कहा था कि “दिल्ली ले जाओ तो विनोद को ज़रूर बताना” तो मुझे लगा कि मेरा फर्ज बनता है कि मैं भी इस बीमारी के बेहतर इलाज के बारे में पता करूँ. एक दो फ़ोन से पता चल गया कि दिल्ली में लीवर से संबंधित किसी भी बीमारी के सर्वश्रेष्ठ इलाज के लिए ILBS यानी इंस्टीट्यूट ऑफ़ लिवर एंड बिलियरी साइंसेज है जो कि दिल्ली सरकार के अधीन आता है.
तुरंत मित्र और आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह को फ़ोन लगा कर स्टैंड बाई पर रख दिया और कहा कि आपकी ज़रूरत पड़ सकती है. परिवार को डॉ यादव से लगातार अच्छे इलाज का भरोसा मिल रहा था, लिहाज़ा दीप को नॅशनल हार्ट इंस्टीटयूट ले जाया गया, जहां दीप ठीक भी होने लगा. (Senior Journalist Deep Joshi No More)
तीन चार दिन के इलाज के बाद दीप बात भी करने लगा था. ऐसा भी लगने लगा कि दीप को वॉर्ड में शिफ़्ट किया जा सकता है. फिर पता नहीं अचानक क्या हुआ कि दीप की तबियत बिगड़ने लगी. दीप का डायलिसिस शुरू हुआ. प्लेटलेट्स गिरने लगे. दीप का 20 साल का बेटा विक्रांत जब भी फ़ोन करता, मेरे एक फ़ोन पर छोटे भाई जैसा आप विधायक दिलीप पांडे एक घंटे के नोटिस पर प्लेटलेट्स और खून का इंतज़ाम कर देते. पर यहाँ चिंता की एक बात थी – प्लेटलेट्स और खून की माँग का ये सिलसिला रूक ही नहीं रहा था. 12 दिन में कम से कम नौ बार प्लेटलेट्स चढ़ा दिए गए और सुधार कुछ नहीं. धीरे धीरे शरीर के बाक़ी अंगों ने भी काम करना बंद कर दिया. विक्रांत ने पिता के स्वस्थ होने की कामना के साथ व्रत रखना शुरू कर दिया. जब मुझे पता चला कि वो तीन दिन से व्रत पर है तो मैंने उसे बहुत डाँटा.उसे समझाया कि 24 घंटे पिता के पास अस्पताल में रहने वाला बच्चा ही बीमार पड़ गया तो कौन देखेगा? माँ को कौन सँभालेगा? हालात विषम होते जा रहे थे लेकिन मुझे लगातार भरोसा रहा कि दीप को कुछ नहीं होगा.
अरे अभी वो पचास का भी नहीं हुआ है. अरे उसने मेरे साथ ही तो अमर उजाला में करियर शुरू किया था.
अरे ये कोई उम्र है कुछ होने की? (Senior Journalist Deep Joshi No More)
फिर एक दिन शायद 8 जनवरी थी, जब हेमा का फ़ोन आया और उन्होंने कहा कि भाईसाहब यहाँ तो डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है. कह रहे हैं कि 99.99% अब उम्मीद नहीं है. ये एक बड़ा झटका था. पर मुझे लगा कि 0.1% चांस तो अभी भी बाक़ी है. मुझे लगा कि ये चांस लिया ही जाना चाहिए. हेमा को कहा तो एक पल के लिए उन्होंने भी हिम्मत दिखाई. मैंने फिर से संजय सिंह से बात की. संजय ने टेलीकॉन्फ़्रेंस के ज़रिए ILBS के डॉक्टर से मेरी बात करवा दी. ख़तरा वो भी समझ रहे थे और ख़तरा परिवार के लोग भी जान रहे थे. ख़तरा था – इतने विषम हालात में शिफ़्टिंग के दौरान ही कुछ ना हो जाए?
दो दिन पहले ही जब मैं अस्पताल में परिवार से मिला तो ये तय किया गया कि 0.1% ठीक होने का चांस नॅशनल हार्ट इंस्टीटयूट में ही लिया जाए और एक दिन बाद कल विक्रांत का फ़ोन आया कि चाचू मैं आपको केस समरी भेज रहा हूँ. अगर ILBS के डॉक्टर बोलते हैं कि ज़रा भी चांस है तो हम शिफ़्ट कराते हैं. संजय सिंह को फिर संपर्क किया गया. पर इससे पहले कि के समरी पर डॉक्टरों की कोई टिप्पणी आती आधी रात को फिर से फ़ोन बजने लगा – “ दीप जोशी कॉलिंग”.
घड़ी पर समय देखा. रात के एक बज रहे थे. फ़ोन उठाने से पहले ही समझ आ गया था कि ये दीप के मोबाइल से आख़िरी कॉल है. डर के मारे फ़ोन ही नहीं उठाया. दो मिनट बाद एक अनजान नंबर से कॉल आया. सच से कितनी देर भागा जा सकता था ? फ़ोन उठाया तो दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई –
“विनोद दा, ललित जोशी बोल रहा हूँ … दीप नहीं रहा”
जवाब क्या दिया जा सकता था? चुपचाप फ़ोन काट दिया. सुनते ही अचानक लगा कि कुमाऊँ की पहाड़ियों में बहुत तेज गड़गड़ाहट के साथ बारिश हो रही है और बड़े बड़े पहाड़ भरभरा कर गिरते जा रहे हैं और उन्हीं पहाड़ों के बीच दीप के साथ मेरा भी नामोनिशान मिटता जा रहा है क्योंकि मेरे लिए पहाड़ का मतलब बेरीनाग में मेरे गाँव के अलावा अल्मोड़ा में मेरा दोस्त दीप भी था.
“यार दीप!! अल्मोड़े में शिखर में कमरा करा दे यार, रात को दारू पीते हैं”
“सुन दीप, इस बार कसार देवी चलेंगे यार और तेरे साथ कुमाऊँनी गीतों की महफ़िल जमाएँगे”
“यार दीप, अल्मोड़े में आजकल जाम बहुत रहता है. मैं अंदर नहीं आऊँगा. खीम सिंह मोहन सिंह के यहाँ से चार किलो बाल मिठाई ले कर बाइपास आ जा यार!”
अब ये सब मैं पूरे अल्मोड़े में किसी से नहीं कह पाऊँगा. मेरे लिए अल्मोड़ा का मतलब सिर्फ़ दीप था और दीप के लिए अल्मोड़ा का मतलब जीवन था. (Senior Journalist Deep Joshi No More)
‘अमर उजाला’ में रहते हुए दीप को कई बार अच्छे ऑफ़र आए पर वो वहीं रहा. यहाँ तक कि ‘अमर उजाला’ ने उसका प्रमोशन करके तबादला कर दिया. तब भी दीप ने प्रमोशन नहीं लिया और अल्मोड़ा ही रहा. ‘अमर उजाला’ छोड़कर जब मैं टेलीविजन में आया और अच्छा करने लगा तो मैंने न जाने कितनी बार दीप से कहा होगा कि यार दीप अल्मोड़ा छोड़, दिल्ली आ जा. लेकिन वो हमेशा यही कहता रहा कि अल्मोड़ा छोड़ूँगा तो मैं मर जाऊँगा यार.
कौन जानता था कि अल्मोड़ा छोड़ कर दीप सच में मर जाएगा.
क्या पता वो इस बीमारी में भी अल्मोड़ा ही रहता तो शायद बच जाता !! पर एक बात मुझे पक्के तौर पर पता है कि दीप का शरीर अब भले ही कभी अल्मोड़ा नहीं लौटे पर उसकी आत्मा हमेशा अल्मोड़ा में ही रहेगी.
ध्यान से देखिए. अल्मोड़ा की आत्मा का प्रकाश आज भी कितना सुनहरा है और कितना खिलखिला रहा है.
एकदम दीप के चेहरे जैसा.
देश के बड़े मीडिया घरानों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके विनोद कापड़ी फिलहाल पूरी तरह फिल्म-निर्माण व निर्देशन के क्षेत्र में व्यस्त हैं. मिस टनकपुर हाज़िर हो उनकी पहली फिल्म थी. अपनी एक डॉक्यूमेंट्री के लिए राष्ट्रीय पुरुस्कार से सम्मानित हो चुके विनोद की नई फिल्म पीहू बहुत जल्द रिलीज होने वाली है. काफल ट्री के पाठकों के लिए उन्होंने अपने संस्मरण लिखे हैं.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…
शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…
तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…
चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…
देह तोड़ी है एक रिश्ते ने… आख़िरी बूँद पानी का भी न दे पाया. आख़िरी…