उत्तराखण्ड के ज्यादातर त्यौहारों, मेलों का स्वरूप अध्यात्मिक के साथ-साथ प्राकृतिक भी दिखाई देता है. यहाँ के लोग उत्सव प्रेमी हैं और ज्यादातर उत्सव प्रकृति के साथ इंसानी रिश्तों की गाथा समेटे हुए हैं.
यह ऋतु परिवर्तन का महीना है. बरसाती हवाएं गुलाबी ठण्ड के झोंके ला रही हैं. धीरे-धीरे ठण्ड बढ़ती जाएगी. ठण्ड बढ़ने के साथ ही प्रकृति अपने हरियाली चोले में पतझड़ के रंग भर लेगी. यह बुग्यालों से पशुपालकों के नीचे उतरने का वक़्त है. यह बर्फ़बारी का स्वागत करने को तैयार उच्च हिमालयी चोटियों की तलहटी पर बसे गाँवों के ग्रामीणों का अपने दूसरे घरों में लौट आने का भी वक़्त है, इन निचले गाँवों में उनके घर बर्फ़बारी के मौसम के ज्यादा मुफीद हैं.
यह बदलते मौसम के साथ जीवन में होने वाले इन परिवर्तनों को सेलिब्रेट करने का समय है. इस मौके पर पहाड़ों में विभिन्न उत्सव मनाये जा रहे हैं. उत्तरकाशी जिले की टकनौर पट्टी भी इस समय ऋतु परिवर्तन का द्योतक त्यौहार सेल्कु मना रही है. रैथल, गोरशाली, बारशु, सुक्की, धराली, हरसिल और मुखबा समेत भटवाड़ी ब्लाक के टकनोर, और उपला टकनोर क्षेत्र के सभी गाँवों में मनाया जाता है. में इस समय सेल्कु मेला चल रहा है. सेल्कु का मतलब है ‘सोयेगा कौन’. यह उत्साव लगातार 2 दिनों तक दिन-रात मनाया जाता है. गाँव दयारा बुग्याल के रास्ते का मुख्य पड़ाव है.
माँ जगदम्बा मंदिर परिसर में समेश्वर देवता को प्रसन्न कर उनसे शांति व सुख-समृद्धि का आशीर्वाद माँगा जाता है. मेले के लिए समेश्वर देवता तीन व्यक्तियों का चयन करते हैं जिन्हें उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाले दुर्लभ फूल लाने की जिम्मेदारी दी जाती है. इन फूलों में केदार पाती, लेसर, जड़िया, भूतकेश तथा ब्रह्मकमल होते हैं. तय व्यक्ति तीन दिन में इन फूलों को लेकर लौटते हैं . गाँव में इन दुर्लभ फूलों की प्रदर्शनी लगती है. इन्हीं से मंदिर परिसर की सजावट भी की जाती है. देवडोलियाँ इन फूलों के महक से प्रसन्न होकर इनके चारों ओर झूमकर नृत्य करती हैं.
देव डोलियों के स्पर्श से फूल प्रसाद में बदल जाते हैं और इनको बाँट दिया जाता है. इन्हें हासिल करने के लिए ग्रामीणों में जबरदस्त होड़ मच जाती है, हर कोई ज्यादा फूल हासिल कर लेना चाहता है. बाद में इन्हें सभी के बीच बाँट दिया जाता है.
इस मौके पर देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ब्याहता बेटियां भी मायके लौट आया करती हैं. नवविवाहिताएँ अपनी पहली भेंट लेकर भगवान समेश्वर की देवडोली के पास पहुँचती है और अपने परिवार की रक्षा का वचन लेती हैं. आराध्य समेश्वर उसे बहन मानकर रक्षा का वचन देते हैं. इस मौके पर सभी आयु वर्गों के स्त्री-पुरुष एक दूसरे की कमर में हाथ डालकर तांदी और रासों नृत्य भी करते हैं.
आजकल इस उत्सव के राजनीतिकरण ने मेले की ठेठ स्वरूप को विकृत करना शुरू कर दिया है. राजनीतिकरण की प्रक्रिया में मेले का मूल चरित्र बदलता दिखाई दे रहा है.
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