समाज

अथ आपदा राहत कथा

सौदा
सुभाष तराण

वैसे तो उत्तर भारत के पहाड़ी राज्यों में प्राकृतिक आपदाएं अपना कहर अमूमन साल दर साल बरपाते रहती हैं लेकिन जब से भारतीय राजनीति की कोख ने विकास को जन्मा है तब से इनकी मारक क्षमता कई गुना अधिक हो गई है. पहले के समय में पहाड़ पर यहाँ के बाशिंदों का इन आपदाओं से निपटने का अपना एक स्थानीय तरीका होता था लेकिन विकास के पैदा होते ही सरकार के लिए आपदाओं के मायने ही अलग हो गए.

ऐसे ही एक बार की बात है. उत्तर भारत के एक पहाड़ी राज्य के सुदूर गाँव के ऊपर आषाढ़ महीने की एक काली रात को अचानक से बादल फट पड़े और आपदा आ गई. इस अचानक आई आफत से लोगों के घर और माल मवेशी पानी के सैलाब में बह गए. गाँव में आपदा के कारण हुए नुकसान की सुबह में जब सरकार को जानकारी हुई तो उन्होने आनन फ़ानन में आपदा संबंधित विभाग को राहत सामग्री की व्यवस्था करने के आदेश जारी कर दिये. आदेश का तुरन्त पालन हुआ. अगले कुछ घंटों में मातहतों के अमले ने सरकार को सूचित किया कि राहत सामग्री की खेप पहाड़ पर चढने को तैयार खड़ी है. सरकार ने जब भेजी जाने वाली राहत सामग्री मौका मुआयना किया तो पाया कि राहत सामग्री से भरे कई ट्रक पंक्तिबद्ध खड़े होकर सरकार द्वारा हरी झण्ड़ी दिखाए जाने का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. मौका मुयायना करने के दौरान सरकार ने मातहतों से पूछा – “ट्रकों में लदी राहत सामग्री बाँटने कौन जा रहा है?”

मातहतों की टोली में एक उम्रदराज अफ़सर विनम्र भाव से बोला – “सर, इसकी जिम्मेदारी तो अमूमन संबंधित क्षेत्र के परगना अधिकारी और तहसीलदार को दी जाती है.”

सरकार अफ़सर की बात सुन कर बिगड़ते हुए बोले – “यह क्या बात हुई भला? इन प्रशासनिक अधिकारियों को राहत सामग्री के वितरण से दूर रखा करो. एक तो ख़ैरात बाँटने के बाद ये लोग खुद को खलीफ़ा समझकर नौकरी करने की बजाय नेता बनने के ख़्वाब पालने लगते हैं. दूसरे, विपक्ष यह अफ़वाह उड़ा सकता है कि यह राहत सामग्री तो उन के प्रयासों से भिजवाई जा रही है. मेरा मानना है कि ऐसे कामों के लिए तो किसी ऐसे आदमी को भेजना चाहिए तो हमारी पार्टी का भले ही न हो लेकिन हमारी पार्टी का विश्वासपात्र हो.”

क्षेत्र में राहत सामग्री बाँटने किसे भेजा जाए, इस विषय पर सरकार और मातहतों के बीच गहन मंथन चल ही रहा था कि तभी सरकार के सामने सुरक्षा कर्मियों को ठेलते हुए एक स्वनामधन्य बुद्धिजीवी आ धमके. उनको देखते ही सरकार ने मुस्कुराते हुए कहा – “अरे! हमे आपका ही इंतजार था. आइये,आइये.”

बुद्धिजीवी पैंतीस डिग्री झुके, आँखे बन्द की और सरकार को प्रणाम करते हुए कहने लगे – “मेरे अहोभाग्य कि आपने मुझे याद फ़रमाया. मैं तो आपके दर्शन को ही इधर आया था.”

सरकार ने मुस्कान को और गहरा करते हुए अपने मक्खन से मुलायम चेहरे को और मुलायम किया और कहने लगे – “मैं जानता हूँ आप मानवता और पहाड़ को लेकर बहुत चिंतनशील रहते है. पहाड़ पर ऐसी कोई जगह नहीं होगी जहाँ आप नहीं गए होगें. आपकी धर्म निरपेक्ष प्रवृति को कौन नहीं जानता. विपक्ष की नालायकी और अदूरदर्शिता के चलते मैं आपके लिए अभी तक कोई ऐसा पद सृजित नहीं कर पाया जो आपके रुतबे को चार चाँद लगा देता और आप भी शहर के वातानुकुलित दफ़्तर में बैठ कर पहाड़ की सेवा-सुश्रूषा करते. इसका मुझे खेद है, लेकिन यकीन मानिए, यदि मैं पहाड़ के कल्याण को लेकर कोई आयोग बनाने में सफ़ल रहा तो उसका आयुक्त आपको ही बनाया जाएगा.”

गला खंखारते  हुए सरकार ने थोड़ा विराम लिया और एक बार फ़िर से बुद्धिजिवी के गले में बांह डालते हुए कहने लगे – “ख़ैर, ये तो रही बाद की बात. अभी आपके लिए एक जरुरी काम आन पड़ा है. मैं जानता हूँ कि जिस काम को मैने आपके लिए तय किया है उस काम को आपके सिवाय कोई और ठीक से कर ही नहीं सकता.”

यह सुनकर तथा कथित बुद्धिजीवी की आँख़े डबडबा गयी. वे कहने लगे – “बताईए! मुझे आपके लिए क्या करना होगा. आपके लिए तो जान भी हाजिर है?”

जान देने की बात सुनकर सरकार ने बुद्धिजीवी को हिकारत भरी नजरों से देखा लेकिन तुरत ही परिस्थिति अनुसार अपनी आवाज में दर्द को गहरा किया और कहने लगे – “आपको पहाड़ के गाँव में बादल फ़टने की घटना के बारे में तो मालूम ही होगा. आपदाएं भले ही जनता के जान माल के नुकसान का कारण बनती हों लेकिन राजनीति के लिए यह वरदान की तरह होती है. खासकर मेरे लिए तो. आपको भी यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि पार्टी के भीतर और बाहर मैने अपने कितने ही प्रतिद्वन्दियों को आपदाओं के माध्यम से ही ठिकाने लगाया है. मैं नहीं चाहता कि पार्टी या सत्ता के भीतर और बाहर के मेरे प्रतिद्वन्दी इस आपदा के बहाने मेरे लिए कोई नया बखेड़ा खड़ा करे. बाहर राहत सामग्री से भरे कुछ ट्रक खड़े है. मैं चाहता हूँ कि आप इन ट्रकों में से एक ट्रक छाँट लें और आपदा ग्रस्त इलाके में जाकर प्रभावित लोगों में हमारी सरकार की तरफ़ से इसमे लदी राहत सामग्री बाँट आएं.”

बुद्धिजीवी सरकार के परम भक्त थे. परजीवी होने के नाते वैसे तो वे किसी भी मालदार और रसूखदार के आगे पूँछ हिला लिया करते थे लेकिन सरकार ने उन्हे सत्ता में आते ही अपना पालतू बना लिया था. सरकार जब कभी भी मुसीबत में होते, बुद्धिजीवी सरकार के लिए, सरकार की तरफ़ से सरकार के विरोधियों पर दिल से भौंकते. सरकार के बहुत से मातहतों को पता था कि बुद्धिजीवी सरकार के मुँह लगे हैं. इनके सामने जब कभी या जब कहीं सरकारी महकमों का कोई मातहत पड़ता, ये गुर्रा या गिड़गिड़ा कर उससे कुछ न कुछ झटक लेते और अपनी भावी शाम गुलजार करते. सरकार से अपनी नजदीकियों का फ़ायदा ये सरकार के मातहतों से ही नहीं, हर उस व्यक्ति से उठा लेते जो इनके झाँसे में आ जाता. सरकार को इनके बारे मे सब जानकारी थी. सरकार को मालूम था कि इस किस्म के लोग भले ही देश दुनिया की संस्कृति, इतिहास, भूगोल राजनीति और नैतिकता की बात हाँकते हो लेकिन अपने मामले में ऐसे लोग पेट की क्षुधा से उपर नहीं उठ पाते. सरकार को इनकी खूबियों और खामियों का अच्छी प्रकार से भान था. बुद्धिजीवी भी अक्सर सरकार की शरण में आ धमकते ताकी सरकारी मातहतों और व्यापारियों पर उनका दबाव बना रहे. आज भी रोटी-बोटी की गरज के चलते वे किसी ठेकेदार के काम को लेकर सरकार के सम्मुख हाजिर हुए थे लेकिन राहत सामग्री के वितरण के कार्यभार की बात सुनते ही अब वे उसे भूल चुके थे. बुद्धिजीवी के ख़्यालों में अब राहत सामग्री से भरा ट्रक था और आपदा में तबाह हुए लोगों को देने के लिए भाषण था. सरकार ने दरबार को बर्ख़ास्त करते हुए मातहतों को निर्देशित करते हुए कहा – “आपके सम्मुख जो मान्यवर खड़े हैं वो नितांत निरपेक्ष व्यक्ति है. यह ऐसे व्यक्ति है जिन्हें हमारे वर्तमान लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष से भी उपर रख़ा जाता है. इनसे राहत सामग्री के सारे ट्रकों की पावती लेकर, एक ट्रक़ इनके हवाले कर दिया जाय. आपदा सामग्री से लदे बाकी ट्र्कों को अगला आदेश मिलने तक यहीं रहने दिया जाए. ख्याल रहे, ये हमारे मित्र सरीख़े है. इन्हे किसी भी किस्म की कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए. और हाँ, इन्हे फौरन से एक राजकीय वाहन उपलब्ध करवाया जाए ताकि इन्हे आपदा क्षेत्र में भ्रमण के दौरान किसी किस्म की दिक्कत पेश न हो.”

बुद्धिजीवी गुरु-चेला परंपरा को मानने वाले व्यक्ति थे. उन्होने जीवन में जो कुछ भी हासिल किया था वो केवल और केवल चेलागिरी और चमचागिरी कर ही हासिल किया था. अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर थोपी गई शिक्षा पद्वत्ति का वे उतना ही विरोध करते थे जितना आजादी के दौरान स्वतंत्रता सैनानी फ़िरंगी हुकूमत का विरोध किया करते थे. बुद्धिजीवी अपने प्रवचनों में भले ही प्रगतिशील विचारों को महत्व देते थे लेकिन वे ऋषि मुनियों वाली परंपरा के वाहक थे. उनका विश्वास था कि जैसे राजा का अस्तित्व आज्ञाकारी प्रजा से निहित है वैसे ही अपने इर्द-गिर्द गुजारे भर के चेलों का अपने गुरु के प्रति समर्पण अत्यन्त आवश्यक है. बुद्धिजीवी अपने चेलों और चाहने वालों को अक्सर बताते कि वे विचारों से भले ही प्रगतिशील हो लेकिन वे संबंध तो ऋषि के कुल से ही रखते हैं. ऋषिकुल में जहाँ गुरु-चेला परंपरा के द्वारा पीढ़ियों से अर्जित ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थान्तरित किया जाता वहीं चेलों के संख्या बल द्वारा गुरु की पोजिशन तय करने में की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती. लेकिन बुद्धिजीवी इस परंपरा को इतना ही मानते थे जितने में इनका काम चल जाय. इन्हे ज्ञान को दूसरी पीढी तक पहुँचाने से कोई इत्तेफ़ाक न था. ये जब तक खुद चेले थे तब तक इन्होने वक्त मिलते ही अपने गुरुओं की जेबें टटोली, अब जबसे खुद को गुरु घोषित किया, तब से ये अपने चेले चपाटों की जेबें टटोलते थे. सरकार से नजदीकियों के चलते बुद्धिजीवी बहुत से युवाओं को मूर्ख बना कर उनकी जेबें झाड़ चुके थे. अपनी इस परंपरा के तहत बुद्धिजीवी अपने चेलों को दुतकारते, उनसे नौकरों की तरह अपने जूते साफ़ करवाते. लेकिन जब कभी कहीं से कुछ मिलता वो उनके आगे भी ईमानदारी से डाल देते और इस तरह अपने गिनती के चेलों की नजरों में महान हो जाते.

बहरहाल, बुद्धिजीवी ने अपने कुछ खास चेलों को फ़ोन के माध्यम से सूचित कर डाला कि सरकार साहब के एक खास मिशन के तहत हमे कल सुबह पहाड़ के लिए रवाना होना हैं. सभी लोग फ़लाने समय तक फ़लानी जगह पर मिलें. अगले रोज सुबह के मुँह अंधेरे सरकारी मातहतों ने झटपट से एक सादे समारोह का आयोजन कर डाला और नारियल फ़ोड़ कर राहत सामग्री की ख़ेप के सारे ट्रकों को पंक्तिबद्ध खड़ा कर एक प्रेस काँफ़्रेंस बुला ली. सादे समारोह में चाय पकौड़ों की दावत के बाद जैसे ही पत्रकार तितर बितर हुए राहत सामग्री से भरे बाकी ट्रकों को वहीं रोककर मातहतों ने मय ड्राईवर के एक सरकारी कार, दो बोतल उम्दा शराब, दो हजार के नए पाँच नोट और राहत सामग्री से लदे एक ट्रक को बुद्धिजीवी के हवाले कर दिया. सरकारी कार में बैठे बुद्धिजीवी ने नीयत स्थान से अपने उस दौरान के खास चेलों को उठाया और पहाड़ के आपदा ग्रस्त क्षेत्र की ओर कूच कर दिया.

आपदा से ग्रस्त लोगों के लिए राहत सामग्री से लदे ट्रक के पीछे दौड़ती कार में बैठे अमल के शौकीन चेलों ने जब अपने तथाकथित गुरु से शाम की व्यवस्था की बात की तो बुद्धिजीवी ने किसी पहुँचे हुए संत की तरह चेहरे पर हल्की सी मुस्कान ओढ़ी और मोबाईल से आँख़ें हटाते हुए पैरों के पास पड़ी प्लास्टिक की थैली में रखी शराब की बोतलों को हाथ में उठाते हुए शाही अंदाज में कहा -“हो जाएगा सब, चिंता क्यों करते हो, मैं हूँ न.”

“आज तो माल असबाब का पूरा का पूरा ट्रक साथ चल रहा है, ऐसे में पीने खाने की क्या चिंता,” – चेहरे पर हरामीपन की परत चढाते हुए एक चेले ने गिरोह के बीच में जुमला फेंका.

पहले चेले की बात सुनकर दूसरा चेला चेहरे पर चिंता की परत चढाते हुए बोला – “जहाँ हम जा रहे हैं वो कोई शहर या कस्बा नहीं है. एक छोटा सा गाँव हैं. वहाँ खाने की ठीक ठाक चीजें तक नहीं मिलती.”

तीसरे चेले ने दूसरे चेले को डपटते हुए कहा –“तुम गुरुजी को नहीं जानते, गुरु जी चाहें तो हवा में हाथ लहराकर दारू शिकार पैदा कर सकते हैं. आज तो वैसे भी गुरुजी जनसेवा के वास्ते पहाड़ चढ रहे हैं.”

दूसरे चेले ने अपनी बची खुची शंकाओं के समाधान हेतु अगला सवाल किया – “लेकिन फिर भी, विषय पर बात करने में कोई बुराई थोड़े ही है. गुरु जी तो वैसे भी वाद-विवाद के समर्थक है.”

आगे की सीट पर बैठे बुद्धिजीवी ने पीछे मुड़कर दूसरे नंबर के चेले की पीठ पर धौल जमाते हुए कहा – “बच्चे, जितनी तुम्हारी उम्र है उतना समय मैने शराब और शिकार के साथ ही गुजारा है. बाकी तुम जानते ही हो हम जहाँ होते हैं, सुविधाएं हमारे आगे पीछे नत मस्तक हुए फ़िरती है.”

बुद्धिजीवी की बात खत्म होते ही सरकारी खर्चे पर दौड़ती हुई कार के अन्दर जोर का ठहाका गूँज पड़ा.

बुद्धिजीवी ने मुनादी वाले अंदाज में चेलों को संबोधित करते हुए अपनी बात आगे बढाई – “देखना आज तुम्हारी कैसी खातिर होती है.”

जोशो ख़रोश से लकदक बुद्धिजीवी और उनके चेलों का दल सरकार द्वारा मुहैया करवाई गई कार से ट्रक को आगे-आगे हाँकते हुए दिन के चौथे पहर तक आपदा ग्रस्त गाँव में पहुँच गए. आपदा ग्रस्त गाँव के लोगों तक राहत सामग्री पहुँचने की सूचना विश्वस्त सूत्रों के माध्यम से पहुँच चुकी थी लिहाजा गाँव के लोग पहले से ही उनके स्वागत के लिए फ़ूल मालाएं लेकर तैयार बैठे थे.

आपदा ग्रस्त गाँव में बुद्धिजीवी और उनके चेलों का स्थानीय लोगों द्वारा विधिवत स्वागत किया गया. बुद्धिजीवी ने भी एकत्र हुई भीड़ में से एक गरीब सी शक्ल वाले शख़्स को अपने पास बुलाया और चेलो की मार्फ़त अनाज-असबाब से लदे ट्रक में से एक आटे का बोरा उतरवाया और उसे लेकर उस गरीब के साथ तस्वीर उतरवानी चाही. आटे का बोरा थोड़ा वजनी था. बुद्धिजीवी ने आटे के बोरे को उठाकर जब उस गरीब को देना चाहा तो वह उनसे न हो सका. चेलों ने मदद की गुहार लगाई लेकिन बुद्धिजीवी ने सपष्ट मना कर दिया. बुद्धिजीवी अपने इस कृत्य की तस्वीर उतरवाते हुए किसी की मदद लेते हुए नहीं दिखना चाहते थे लेकिन आटे का बोरा तीस किलो का था. उम्र भर बेकाम और निठल्ले रहने वाले बुद्धिजीवी के पास इतने से श्रम के लायक भी ताकत नहीं बची थी. मौके की नजाकत को देखते हुए चेलों ने आटे के एक बोरे को ट्रक के डल्ले पर ख़ड़ा किया, तब जाकर बुद्धिजीवी आपदा राहत सामग्री बाँटते हुए अपनी तस्वीरें उतरवा सकें. चेलों ने इस समारोह की विभिन्न कोणो से तस्वीरें उतारी और बिना समय गंवाए उन्हे जय जयकार हासिल करने के लिए सोशल मीडिया पर अपने चाहने वालों के लिए यहाँ वहाँ परोस दिया.

जिस आपदाग्रस्त गाँव में बुद्धिजीवी ओर उनके चेले जनता की मदद हेतु सरकार द्वारा मुहैया करवाई गई जरुरी वस्तुओं की खेप लेकर पहुँचे थे उसी गाँव में लछमन नाम के बनिये की इकलौती दुकान भी थी. अधेड़ उम्र का हट्टा कट्टा लछमन खानदानी बनिया था. लछमन ने अपने दादा और पिता से ख़रीद फ़रोख़्त के गुण ग्रहण किए थे. बिजनेस मेनेजमेंट के आधुनिक गुरुओं से भी पहले से लछमन को यह बात पता थी कि इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं जो बेचा या खरीदा ना जा सके. वह यह बात किसी किताब से पढकर नहीं बल्की अपने निजी तजुर्बों के आधार पर इस नतीजे पर पहुंचा था. वह अपने जीवन में आबरू, आन से लेकर ईमान तक की खरीद फ़रोख्त कर चुका था. वह अच्छे से जानता था कि मजबूर की मजबूरी का फ़ायदा कैसे उठाया जाता है. वह कड़ियल सौदेबाज था. अचानक आई आपदा ने सारे गाँव को अपनी चपेट में ले लिया था लेकिन गाँव से हटकर ऊँचाई पर होने के कारण लछमन की दुकान साफ बच गई थी. आपदा में बरबाद हुए लोग समझते कि लछमन पर ईश्वर की बड़ी कृपा है लेकिन लछमन की ईश्वर पर उतनी ही आस्था थी जितने से वो लाभ कमा सके. अपनी दुकान के बच जाने के कारण को वह बाकी आस्तिकों की तरह ईश्वर की मर्जी नहीं बल्की अपने उन बाप दादाओं की दूरदृष्टि मानता था जिन्होने दुकान के लिए ऐसी जगह का चयन किया था जो पहाड़ में होने के बावजूद लगभग हर तरफ़ से सुरक्षित थी. उसके बाप दादाओं ने ही उसे यह भी बताया था कि दूसरों पर आई आफ़त ही व्यापारियों को ज्यादा मुनाफ़ा कमाने के अवसर पैदा करती है. वह गाँव में आई इस आपदा को एक मौके की तरह देख रहा था. हालांकि गाँव के लोगों के पास कुछ ख़ास नहीं बचा था लेकिन लछमन को भरोसा था कि एक सौदागर के जीवन में कमाई के ऐसे विरले ही मौके नसीब होते हैं.

सड़क के एक ओर बनी लछमन की दुकान के ठीक दूसरी तरफ़ सरकारी डाक बंगला था. सड़क में डाक बंगले और लछमन की दुकान के बीच आपदा ग्रस्त ग्रामीणों का जमघट लगा हुआ था और उन में से कई लोग बुद्धिजीवी के लिए वैकल्पिक मंच की व्यवस्था कर रहे थे.

लछमन बुद्धिजीवी को बचपन से जानता था. वह उसकी कमजोरियों से वाकिफ़ था. वह जानता था कि बुद्धिजीवी को शराब का ऐब है और वह बिना नशा किए हुए एक रात भी नहीं रह सकता. वह सोच रहा था कि ये काश, इसके पास आज शराब न होती. अगर ऐसा हो जाता, तो ट्रक में लदे माल का एक बडा हिस्सा अपने गोदाम में पहुँच जाता. माल असबाब से भरे ट्रक को देख कर अब तक वह मुंह में लगातार आ रहे पानी के कई घूँट गटक चुका था. लछमन का दिल जोरों से धड़क रहा था. वह रात ढलने का बेसब्री से इंतजार कर रहा था. लछमन ने दिल बहलाने के लिए दुकान के अन्दर बेपरवाही से दाना चुग रहे अपने पालतू देसी मुर्गे को पकड़ कर गोद में खींच लिया और धीरे से उसकी पंखों को सहलाने लगा. जहाँ एक ओर बुद्धिजीवी अपने चेलों चपाटों, ग्रामीणों और राहत सामग्री से लदे ट्रक के साथ खड़े होकर भाषण दे रहे थे, वहीं लछमन बनिया अपनी दुकान में बैठा थड़े पर रख़ी ऊँची संदूकची को मोर्चे की तरह इस्तेमाल करते हुए सामने सड़क पर हो रही सभा पर नजर गडाए हुए मुर्गे की कलगी पर कुछ इस तरह से हाथ फ़ेर रहा था मानों वह कोई ऐसा चिराग हो जिसके अन्दर मनोकामनाओं को पूरा करने वाला जादुई जिन्न सोया पड़ा हो.

सूरज अस्त हो चुका था. बुद्धिजीवी का भाषण अपने चरम पर था. वह अपने भाषण में गाँव वालों का आह्वान कर रहे थे कि पहाड़ के लोगों को आपदा से ऐसे ही लड़ना चाहिए जैसे अंग्रेजों से भगत सिंह लड़े थे, गाँधी और नेहरू लड़े थे. आपदाग्रस्त गांव वालों के लिए बुद्धिजीवी के भाषण का लब्बों लुआब यह था कि यदि आपदाओं का अंग्रेज समझकर मुकाबला किया जाए तो वे नहीं आती. इधर बुद्धिजीवी का भाषण चल रहा था उधर चेलों का झुंड ढलती शाम के चलते बैचेनियों के साथ आस पास का मुआयना कर रहा था. अमल के मारों की यह विडंबना होती है कि वे बिना नशे पत्ते के शाम की कल्पना भी नहीं कर सकते. नशेड़ी अपने नशे की ख़ुराक को लेकर उतना ही प्रयत्नशील रहता है जितना सत्ता को लेकर नेता रहा करते है.

बुद्धिजीवी ने सभा को विसर्जित करते हुए लोगों से कहा – “मित्रो! शास्त्रों में कहा गया है कि शाम के समय दान क़ी वस्तुओं का वितरण शुभ नहीं होता. मैं समझता हूँ कि कल सुबह की शुभ बेला पर इसका वितरण करना उचित रहेगा. दूसरे, क्योंकि यह रसद सरकारी है इसलिए इसके वितरण के हिसाब किताब के लिए एक रजिस्टर भी बनाना पड़ेगा.”

शास्त्रों और लिखत पढ़त का हवाला सुनकर आपदा के कारण बरबाद हुए गाँव के धर्मावलंबी लोगों ने बुद्धिजीवी की इस बात को सहर्ष ही स्वीकार कर लिया.

बुद्धिजीवी के द्वारा सभा समाप्त करने की घोषणा के साथ ही गाँव के लोग इधर उधर हो गए. फ़िजा में अब अंधेरा तैरने लगा था. बुद्धिजीवी के आदेश पर चेलों द्वारा डाक बंगले के चौकीदार को तलब किया गया. चौकीदार हाजिर हुआ तो कार के बोनट पर अपना पिछवाड़ा टिकाए बैठे बुद्धिजीवी ने बड़े साहबी अंदाज से डाक बंगले के बुकिंग परमिट की कापी थमाते हुए उसे अपने आगामी ईरादों से अवगत करवाते हुए कहा – “हम लोगों के लिए खाना भी बनाना पड़ेगा.”

चौकीदार मिमियाते हुए बोला – “बना दिया जाएगा साहब, लेकिन तेल-मसाले और राशन मेरे पास नहीं है.”

बुद्धिजीवी ने लापरवाही से गुटखे की पीक को सड़क पर थूकते हुए चौकीदार से कहा – “तुम उसकी चिंता न करो, तुम्हे जो-जो चाहिए, वो सारा सामान हमारे ये लड़के तुम्हे लाकर दे देंगे.”

शाम गहरा कर रात होने के मंसूबे बाँध चुकी थी. दो रोज पहले किसी अंधड़ की तरह मोटी-मोटी बूँदें बरसाने वाला आसमान आज शफ़्फ़ाक होकर ऐसा प्रतीत करवा रहा था जैसे उसे हाल के दौरान गाँव में आई आपदा के बारें में कोई जानकारी ही न हो. सरकारी खर्चे पर चल कर आई कार किसी नौकरशाह की तरह डाक बंगले के खुले पोर्च में खड़ी हो चुकी थी जबकि आपदा सामग्री से लदा ट्रक बाहर मुख़्य सड़क पर किसी प्रवासी मजदूर की तरह एक किनारे ख़ड़ा नजर आ रहा था . बुद्धिजीवी के आदेश पर चौकीदार कार में से सभी का सामान उतार कर कमरों तक पहुँचा चुका था. डाक बंगले के कमरों में सौर ऊर्जा की मंदिम रौशनी गुजारे भर का उजाला फैलाने में कामयाब होती नजर आ रही थी. जहाँ एक ओर चेले चुहलबाजी में व्यस्त थे वहीं दूसरी ओर बुद्धिजीवी प्लास्टिक की थैली में रखी शराब की बोतलों को सीने से लगाए डाक बंगले के कमरों में किसी ऐसी जगह को तलाश कर रहे थे जहाँ इसके बाद महफ़िल जमाई जा सके.

काफ़ी देर मौका मुयायना करने के बाद उन्होने दोनो शयन कक्षों के बीच स्थित डाईनिंग कम ड्राईंग रुम को रात होने बैठकी के लिए चयनित कर लिया था. उन्होने सारी संभावनाओं पर गौर करने के बाद ही इस जगह का चयन किया और चौकीदार को आदेश दिया कि वो बाकी सारे काम छोड़ कर सबसे पहले गिलास और पानी की व्यवस्था करें. हाथ में मिट्टी तेल की ढिबरी लिए भूत की तरह नजर आने वाले चौकीदार के रुखसत होने के बाद बुद्धिजीवी ने चेलों को तलब किया और उन्हे रात के लिए खाने पीने का जरुरी सामान लाने के निर्देश देते हुए पास की ईकलौती दुकान पर भेज दिया.

इसमे कोई दोराय नहीं थी कि बुद्धिजीवी के पास ज्ञान का अथाह भंडार था लेकिन रात होने के साथ ही उनकी शराब की तलब पराकाष्ठा के पार पहुँच जाती थी. शाम ढलते ही उनकी हालत उस नवजात बछड़े के जैसी हो जाती थी जिसने कई दिनों से थन न देखा हो. बुद्धिजीवी की बहुत सी कमजोरियों में शराब की लत एक प्रमुख कमजोरी थी. इसके लिए अक्सर वे किसी भी हद तक चले जाते थे. बुद्धिजीवी शराब को साम्यवाद का सूचक मानते थे. उनके अन्दर जो कुछ भी थोड़ा बहुत अहम और आत्म सम्मान रहता था वो उनके अन्दर केवल शराब पीने से पहले तक विद्यमान रहता था उसके बाद वे सभी जीवों को बराबर की दृष्टि से देखते थे. शराब पीने के बाद उन पर फ़कीरी सवार हो जाती थी. उसके बाद उन्हे सड़कों, नालियों और वहां ठौर बनाए पशु मवेशियों के साथ तक में लोटने से कोई परहेज न था.

दस मिनट का समय गुजरने के बाद भी जब चौकीदार पानी और गिलास लेकर नहीं लौटा तो बुद्धिजीवी अधीर हो उठे और शराब की बोतलों वाली थैली को काँख में दबाए डाक बंगले से हटकर बाहर की तरफ़ बनी रसोई की तरफ़ चौकीदार को पुकारते हुए निकल पड़े. रसोई की तरफ़ वाले उबड़ खाबड़ और अंधेरे रास्ते में वे चार कदम ही चले थे कि अचानक उनका पैर खड़ंजे के पत्थर से उलझ गया. नतीजा यह हुआ कि चौकीदार को पुकारते हुए अपनी रौ में जा रहे बुद्धिजीवी ऐसे गिरे कि चारो खाने चित्त हो गए. उनके साथ-साथ उनकी काँख के नीचे दबी शराब की बोतलों वाला थैला जब फ़र्श पर गिरा तो फ़िजा में ऐसी आवाज गूँजी मानो किसी नृतकी के पैरों के घुँघरू टूट कर गिर गए हो. बुद्धिजीवी के जमीन पर गिरने से हुई धप्प की आवाज के बाद बोतलों के टूटने की छनकार से वातावरण में जो संगीतमय स्वर लहरी फैली वह बहुत ही हृदय विदारक थी. निपट अंधेरे में गिरने और टूट फ़ूट कि आवाज सुनते ही सामने रसोई के दरवाजे पर हाथ में मिट्टी तेल की ढिबरी लिए डाक बंगले का चौकीदार अचानक से जार्ज रामसे की फ़िल्म के भुतहा किरदार की तरह प्रकट हुआ और कहने लगा – “क्या हुआ बाबू साहब?”

बुद्धिजीवी उम्मीद भरे स्वर में चौकीदार पर चिल्लाए – “जल्दी से उजाला इधर ले आ, देख कहीं बोतलें टूट तो नहीं गयी हैं.”

चौकीदार उजाला पास लाया. पत्थर के ढालदार और उबड़ ख़ाबड़ खड़ंजे पर काँच के टुकड़े प्लास्टिक की थैली से बाहर निकल कर यहाँ वहाँ बिखरे पड़े थे. थोड़ी देर पहले तक बोतल में बंद स्कॉच ढालदार और खुरदुरे फर्श से बहती हुई मिट्टी में मिल रही थी. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों बुद्धिजीवी की दुनियां ही लुट गई हो. वे तेजी से उठे और किसी प्यास से व्याकुल बैल की तरह खुरदुरे फर्श पर पड़ी शराब चूसने लगे. यह देख कर चौकीदार ने उनका कालर पकड़, कर उन्हे खड़ा करते हुए डपटने वाले अंदाज में कहा

“क्या कर रहे हो बाबू साहब? देखते नहीं, काँच बिखरा पड़ा है. काँच की एक किरचन भी पेट में गयी तो कल सुबह सीधा मुर्दाघाट पहुँचोगे. आप कमाल करते है.”

विक्षिप्तों जैसी हालत में अपने बालों को नोचते हुए बुद्धिजीवी कहने लगे – “अरे पापी, यह सब तेरी वजह से हुआ है. तू समय से गिलास और पानी ले आता तो ये अनर्थ न होता.”

“बाबू साहब, इसमे मेरी क्या गलती है? आप इन बोतलों को कमरे में रख कर भी तो मुझे बुलाने आ सकते थे.” –
चौकीदार बड़े कातर स्वर के साथ अपनी बात खत्म की.

“चुप हो जा हरामखोर!” – बुद्धिजीवी जख्मी शेर की तरह दहाड़े.

सदमे में पड़े बुद्धिजीवी चौकीदार को कुछ और बुरा भला कह पाते कि तभी पास की ईकलौती दुकान से लौटकर आया चेलों का झुंड सामने प्रकट हो गया. बुद्धिजीवी की नजर चेलों पर पड़ी तो वे कुछ इस तरह से असहाय होकर उनकी तरफ़ देखने लगे जैसे अभी-अभी उनके सामने उनके किसी अजीज की कोई जवान मौत हुई हो.

“सब सत्यानाश कर दिया.” – हाथ मलते हुए बुद्धिजीवी ने अपनी बात को विराम दिया.

“अरे, यहाँ तो शराब महक रही है. ये क्या हुआ गुरुजी?” – चेला नंबर दो अंधेरे की बेखबरी के मारे चौंकते हुए सवाल करने लगा.

“होना क्या था, नसीब फ़ूट गए हैं. इस चौकीदार के बच्चे को आवाज देने के लिए बाहर निकला था कि अचानक अंधेरे के चलते पत्थर पर पैर पड़ा और मैं गिर गया.” – बुद्धिजीवी पश्चाताप भरे स्वर में बुदबुदाए.

“लेकिन गुरु जी, आप गिरे तो गिरे ये शराब कैसे गिर गई?” – चेला नंबर दो ने काउंटर क्वेश्चन कर डाला.

बुद्धिजीवी ने झुँझलाते हुए कहा – “अरे मूर्ख, शराब की बोतलें मेरे हाथ में थी. मैं गिरा तो वो भी हाथ से छूट कर गिर गई. समझा कुछ, या कुछ और समझाऊँ?”

चेला झेंप कर चुप हो गया. चारों ओर चुप्पी का साम्राज्य स्थापित हो गया. जिस स्कॉच को उन लोगों के पेट में होना चाहिए था वो मिट्टी में मिलने के बाद भी अपने गंध से उनके नथूने फ़ड़का रही थी. उत्सव का माहौल गमी में बदल गया था. बुद्धिजीवी ने अपनी बिखरी ऊर्जा को समेटा और वातावरण में छाई खामोशी को तोड़ते हुए चौकीदार को संबोधित करते हुए कहने लगे – “यहाँ किसी के पास दारू मिलेगी क्या?”

चौकीदार ने थूक सटकते हुए कहा – “बाबू साहब, लछमन के पास मिल सकती है. क्या मैं पता करुं?”

बुद्धिजीवी ने खीजते हुए कहा – “तुम रहने दो, हम खुद ही पता कर लेंगे. अब जो होना था वो हो गया, अब तुम खाना बनाओ, हम अभी आते हैं.”

“लछमन राशन देने से मना कर रहा है. कहता है वह सामान पैसे के बदले नहीं बल्की केवल सामान के बदले सामान देगा.” – चेला नंबर एक निराश भाव से बोला.

“ठीक है, ठीक है. ये हरामजादा भी राहत सामग्री का ट्रक देख कर सौदेबाजी करना चाहता है. दुनिया का दस्तूर है, हड़्ड़ी को देखते ही कुत्तों की नीयत में फ़र्क आ जाता है. खैर, तुम चलो रसोई में, हम अभी आते हैं.” – बुद्धिजीवी ने चौकीदार को आदेश देते हुए अपनी बात कर डाली.

इधर बुद्धिजीवी का मूक संकेत पाकर जहाँ चेले उनके पीछे हो लिए वहीं हाथ में ढिबरी लिए डाक बंगले का चौकीदार भी किसी पारदर्शी प्रेत की तरह फिर से रसोई में विलीन हो गया.

बुद्धिजीवी चेलों के झुंड के साथ जब लछमन की दुकान पर पहुँचा तो लछमन बनिया दुकान बढाने की तैयारी कर रहा था. लछमन को देखते ही बुद्धिजीवी ने बड़े जोशो खरोश के साथ उसे संबोधित करते हुए कहा – “प्रणाम दादा, क्या हाल खबर है?”

लछमन ने बुद्धिजीवी को गौर से देखा और फ़िर बाहर रखे आलू के बोरे को दुकान के अन्दर धसीटते हुए कहने लगा –“सब खैरियत से है, तुम सुनाओ? अब तो बड़े आदमी हो गए हो. बड़ी खुशी हुई यह जानकर.”

“बस दादा, आपके दर्शन की इच्छा हुई, सो चला आया आपके पास सोचा आपके साथ हुक्का पानी साझा करूं, इसी बहाने नई पुरानी बात भी हो जाएगी. एक सिगरेट पिला दिजिए.” – लछमन ने चुपचाप से बुद्धिजीवी को एक तीली सिगरेट थमा दी.

बुद्धिजीवी ने सिगरेट की एवज में लछमन को बीस का नोट पकड़ाना चाहा तो लछमन ने ख़बरदार की मुद्रा में हाथ उपर उठाया और कहने लगा – “सामान के लिए पैसे का लेन देन बंद. जब तक गाँव आपदा से नहीं उबरता तब तक केवल वस्तु विनियम और कुछ नहीं. गाँधी जी भी यही चाहते थे. तुम तो अपने हो, ये सिगरेट मेरी तरफ़ से पी लो.”

“लेकिन दादा, शहर के बाजार से दुकान के लिए माल असबाब फ़िर कैसे ख़रीदोगे?” – बुद्धिजीवी ने सिगरेट सुलगाते हुए सवाल किया.

दुकान के किवाड़ को दुरुस्त करते हुए लछमन लापरवाह होकर बोला – “यह बाद की बात है. फ़िलहाल तो मैने यह तय किया है कि माल के बदले माल, बस, और कुछ नहीं.”

बुद्धिजीवी सिगरेट के कश लेते हुए असल मुद्दे पर पहुँचने से पहले लछमन से नैतिकता को लेकर इधर उधर की बोलने बताने लगे. लछमन ने पूरे धैर्य का परिचय दिया और पूरी बातचीत के दौरान अपने चेहरे पर घाघ शिकारियों वाला छलावरण ओढे रखा. सिगरेट खत्म होने को हुई तो आखिरकार बुद्धिजीवी ने नैतिकता की सारी बातों को एक ओर धर कर लछमन से सीधा ही पूछ लिया – “दादा, आपके पास दारू मिल जाएगी क्या?”

बुद्धिजीवी का सवाल सुनकर लछमन की बाँछे खिल गई लेकिन मजाल है कि उसने इसका कोई प्रभाव अपने चेहरे पर आने दिया हो – “बिरादर, मेरे पास तो सब कुछ मिल जाता है. हम जैसे लोग पहाड़ के इन बीहड़ों में आखिर बैठे ही किसलिए है. हमारे पास हर किस्म का माल मिल जाता है. बस, आजकल उसकी एक शर्त है. सामान की कीमत मैं रुपयों में नहीं ले सकता.”

रात गहराने को हो रही थी. रात के गहराने के साथ-साथ बुद्धिजीवी की रगों में दौड़ता लहू सुस्त पड़ने को हो रहा था. उनका दिमाग उनके दिल पर जोर ड़ाल रहा था कि अब तक शराब पेट में क्यों नहीं पहुँची. कनख़ियों से ताकते लछमन ने ताड़ लिया था कि बेचैनी के मारे बुद्धिजीवी व्याकुल हो रहे हैं.

बुद्धिजीवी ने दुकान के अन्दर कोने में ऊंघ रहे देसी मुर्गे की तरफ़ ईशारा करते हुए लछमन की तरफ़ अगला सवाल उछाला – “ये मुर्गा भी क्या बिकाऊ है क्या दादा?”

“हाँ, हाँ, मुझे छोड़कर यहाँ सबकुछ बिकाऊ है. ये दुकान मकान और इसके अन्दर की हर चीज बिकाऊ ही है.”

बुद्धिजीवी ने सिगरेट को अपने जूते के नीचे मसलते हुए लछमन की तरफ़ हिकारत भरी नजर डाली और कहने लगा – “दादा, हम कौन से यहाँ मुफ़्त का खाने आए हैं. ऐसा करते हैं दो बोरे आटा और दो बोरे चावल आपके लिए ट्रक से उतरवा देते हैं. बदलें में आप हमे आप रात के खाने भर का राशन और दो बोतल शराब दे दो.”

लछमन ने उसकी बात को ऐसे नजर अंदाज किया जैसे सुना ही न हो. लछमन ने बुद्धिजीवी के अगल बगल में खड़े चेलों को एक नजर देखा और फ़िर अपनी बात को आगे बढाते हुए बोला – “वैसे तुम्हारी और तुम्हारे चेलों की क्या कीमत होगी, बेटा?”

लछमन के मुंह से अपनी कीमत की बात सुनकर बुद्धिजीवी सकपका गए. उन्होने खींसे निपोरते हुए कहा – “आप मजाक अच्छा कर लेते हो दादा.”

लछमन उसकी बात खत्म होते ही बोल पड़ा – “इसमें मजाक की क्या बात है. ये पूरी दुनिया ही अपने आप में एक सामान है. आपके पास माल और मौका होना चाहिए, लोग झख मार कर मुंह माँगे दाम देंगें. तुम्हारी कीमत की बात इसलिए कर रहा हूँ कि तुम लोग भी मौका पड़ने पर बेश कीमती साबित हो जाते हो. लेकिन जब किसी को तुम्हारी जरुरत नहीं रहती तब तुम्हारी कोई पूछ नहीं होती. बाकी तुम समझदार हो. यहाँ जरुरत तुम्हारी है. तुम्हारे पास राहत सामग्री से भरा ट्रक है, जिसे वैसे ही लोगों के बीच बाँटा जाना है और मेरे पास तुम लोगों के लिए एक पेकेज है जिसमे चार बोतल रम, एक देसी मुर्गा और सिगरेट के पांच पेकिट, राशन अलग से. मेरा यह पेकेज तुम्हारी आज रात की जरुरत है, रही बात राहत सामग्री की तो इसे मेरे हवाले कर दो. तुम्हे तो कल वैसे भी वापिस शहर लौटना ही है लेकिन मुझे तो कहीं जाना भी नहीं हैं. तुम गाँव के कितने लोगों को जानते हो? कौन जरुरतमंद है कौन नहीं, इस बात का तुम्हे कैसे पता चलेगा, लेकिन मुझे एक-एक का मालूम है. मैं तुम्हारे काम को आसान कर सकता हूँ और मेरे पास तुम्हारी रात को रंगीन करने का सामान भी मौजूद है. मुझसे ज्यादा फ़ायदे का आदमी आज रात तुम्हारे आस पास और पहुँच में नहीं है. बाकी गेंद तुम्हारे पाले में है.”

“दादा, ये तो सरासर मौका परस्ती है. आपसे मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी” – बुद्धिजीवी अधीर होकर बड़बड़ाए.

लछमन ने दुकान का किवाड़ बंद करने के लिए खैंचेते हुए बेरुखी से कहा – “तो फ़िर आप अपना रास्ता नापें और मुझे बख़्शें.”

लछमन की बात सुनकर बुद्धिजीवी का संतों जैसा चेहरा अचानक से विकृत हो उठा. बुद्धिजीवी को ऐसा महसूस होने लागा जैसे लछमन दुकान का किवाड़ नहीं बल्की फ़ाँसी का वो तख़्ता खैंच रहा हो जिस पर उन्हे गले में फ़ंदा लटका कर ख़ड़ा किया गया हो. डूबते हुए की आखिरी कोशिश की तरह बुद्धिजीवी ने दुकान के बंद होते किवाड़ के बीच में अपनी टाँग फ़साकर गिड़गिड़ते हुए कहा – “दादा, ऐसा न करो, मुझे आपकी सारी शर्ते मंजूर है. आप बस जल्दी से एक बोतल तो पकड़ा ही दिजिए.”

लछमन के चेहरे पर विजयी योद्धा वाली मुस्कान तैर गई. उसने दुकान एक किवाड़ को एक हाथ से बाहर की तरफ़ ठेलते हुए दूसरा हाथ दीन हीन से दिखाई दे रहे बुद्धिजीवी के कंधे पर रखा और पुचकारते हुए कहा – “देखो भाई, मैं तुम्हारे जैसे लोगों की वजह से, तुम्हारे जैसे लोगों के लिए ही तो यहाँ बैठा हूँ. क्या मैं शहर नहीं जा सकता था? मैं भी शहर चला गया होता, लेकिन पहाड़ियों की सेवा के भाव का ख़्याल मेरे मन से कभी जा ही नहीं पाया. भाषण तो वैसे भी तुम्हारा हो चुका है. राहत सामग्री मैं अच्छे से बाँट दूँगा. तुम चिन्ता न करो.” अचानक लछमन को जैसे कुछ याद आ गया हो, वह सकपकाया और ख़ींसे निपोरते हुए कहने लगा – “मैं भी कहाँ प्रवचन देने लग गया. भूल ही गया था कि ये काम तो बुद्धिजीवियों का होता है. अच्छा एक मिनट रुको, तुम्हे अभी जल्दी होगी”

इतना कहकर लछमन दुकान के अंदर की तरफ़ के कमरे में गायब हो गया. दुकान के बाहर खड़े बुद्धिजीवी और चेलों के चेहरे पर किसी गुजर चुके तूफ़ान के बाद वाली शान्ति छाई हुई थी. दो मिनट भी नहीं गुजरे होंगे कि लछमन टाट के एक झोले में चार बोतल रम की लेकर कमरे से बाहर दुकान में लौट आया.

“ये लो!” लछमन चहका. “केंटीन का माल है. एक दम ओरिजिनल.”

थैला बुद्धिजीवी को पकड़ाते हुए लछमन पलटा और दुकान के अन्दर कोने में दुबके देसी मुर्गे को दबोचकर पकड़ लिया और उसे बुद्धिजीवी के सामने कर दिया.

“पौने तीन किलो से कम माल नहीं निकलेगा. ये फ़ारम की मुर्गियों की तरह नहीं है. वो तो एक दम आलू की तरह होते हैं. इसके शिकार की तासीर इतनी गर्म होती है कि चार बोटी खाने के बाद बरफ़ में लोट जाईए, मजाल है कि खाने वाले का सर्दी कुछ बिगाड़ पाए. कोई इसकी एक कटोरी तरी पी ले, तो बड़े से बड़े नजले जुकाम से निजात मिल जाती है. तुम्हे देर हो रही होगी बिरादर, तुम थैला लेकर पहुँचो डाक बंगले. और हाँ, ट्रक ड्राईवर से कहकर जरा ट्रक मेरे गोदाम के पास ख़ड़ा करवा दो. तुम जाकर मजे से खाओ पियो, तब तक मैं भी आपदा के लिए इस राहत सामग्री को जाँच पड़ताल कर लेता हूँ. सामान ट्रक में पड़ा रहेगा तो उसका बिना बात भाड़ा देना पड़ेगा.”

बुद्धिजीवी ने एक चेले को इशारे से मुर्गा पकड़ने को कहा और लछमन को मुखातिब होते हुए उसे अपनी अंतिम फरमाइश से अवगत करवाते हुए कहा – “दादा, लड़कों को जरा जल्दी से सामान दे दिजिए. और हां, सबसे पहले प्लास्टिक के डिस्पोजेबल गिलास और एक पानी की बोतल तो मुझे ही दे दो.”

“अभी लो प्यारे,” – लछमन ने बोतल से निकले जिन्न की तरह मुस्कुराते हुए जवाब दिया.

रम का एक बड़ा पेग बना कर एक सांस में गटकने के बाद बुद्धिजीवी ने टाट का थैला बगल में टाँगा और खामोशी के साथ डाक बंगले की तरफ़ लौट पड़े. रम पेट में उतर चुकी थी. बुद्धिजीवी के चेहरे पर पश्चाताप के कोई भाव नहीं थे. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो बुद्धिजीवी के चेहरे के सारे गम टाट के इस थैले ने पौंछ दिए हो. लछमन की दुकान के बाहर थोड़ी देर पहले दरिद्रता का जो रुप उनके समूचे चेहरे और हाव भाव पर नजर आ रहा था, उसकी जगह अब सौम्यता और गंभीरता ने ले ली थी. उनको देख कर ऐसा लग रहा था जैसे उन्होने जो फैसला लिया है वो जनता की भलाई के लिए लिया हो. उनके चेहरे पर ऐसा आत्म विश्वास झलक रहा था जैसा उन राष्ट्राध्यक्षों के चेहरों पर दिखाई देता है जो दो देशों के बीच के सदियों से लटके मसले को सुलझाने के बाद कांफ़्रेंस रुम से बाहर निकलकर मीडिया के सामने ब्यान जारी करने के लिए जा रहे होते हैं. उनके चेले भी उनके पीछे-पीछे खामोशी के साथ डाक बंगले की तरफ चले जा रहे थे. हर तरफ शांति छाई हुई थी. अगर थोड़ी बहुत छटपटाहट कहीं थी तो वो उस देसी मुर्गे में थी जिसे बुद्धिजीवी का एक चेला पैरों से पकड़ कर उल्टा लटकाते हुए उस रसोई की तरफ़ ले जा रहा था जहाँ डाक बंगले का चौकीदार उनका बेसब्री के साथ इंतजार कर रहा था .

 

स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे. 

 

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