समाज

सिद्धों व सन्तों की तपोभूमि भी रहा भवाली क्षेत्र

भवाली, कुमाऊं क्षेत्र का प्रवेश द्वार होने के कारण देश के दूरदराज के क्षेत्रों से आने वाले परिब्राजक बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि क्षेत्रों के तीर्थाटन को जब यहां से गुजरे तो इसके आस-पास का नयनाभिराम नैसर्गिक सौन्दर्य एवं शान्त वादियां उन्हें आध्यात्मिकता पूर्ण वातावरण में सराबोर कर गयी. दक्षिण-पूर्व में हैड़ाखान एवं पदमपुरी से लेकर उत्तर में काकड़ीघाट तक का इलाका अतीत में कई प्रख्यात सिद्ध-महात्माओं की तपस्थली रहा है.
(Saints of Bhawali)

भवाली शहर की पूर्वोत्तर की पहाड़ी गागर पर्वत का नामकरण ही गर्ग ऋषि के नाम से जुड़ा है. पीढ़ियों से गागर की पहाड़ी पर सिद्ध बाबा का थान बताया जाता है, लेकिन वे सिद्ध बाबा कौन थे, उनके नाम की जानकारी स्थानीय जनमानस को नहीं है. कैंचीधाम आश्रम के सामने की इस पहाड़ी की ओर इंगित कर कैंची धाम के विख्यात सन्त बाबा नीम करौली  भी इसे सिद्धों की भूमि कहा करते थे. संभवतः ये सिद्ध और कोई नहीं गर्ग ऋषि ही रहे हों. तभी तो गर्ग ऋषि की पुत्री गार्गी से इस क्षेत्र से निकलने वाली नदी का नाम भी गार्गी पड़ा, जिसे आज गौला नदी के नाम से जाना जाता है.

भवाली से महज 20 किमी0 की क्षैतिज दूरी पर एक पवित्र पर्वत है-छोटा कैलाश. जहां शिवरात्रि के पर्व पर श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ पड़ता है. मन्नतें मांगने के लिए लोग रातभर जागरण करते हैं तथा निःसंतान दम्पत्ति पूरी रात जलता दीपक हाथ में थामकर एक पैर पर पूरी रात खड़ा रहकर सन्तान की कामना के साथ कठोर व्रत करती हैं. इसी छोटा कैलाश की तलहटी पर एक गांव है- हैड़ाखान.

कहते हैं कि वर्ष 1880 में यहीं एक गुफा में रातों-रात बाबा दिखे. वे कहां से आये और किस नाम से जाने जाते हैं. किसी को नहीं पता. किसी ग्रामीण ने जब उनका नाम जानना चाहा तो उल्टा वे ग्रामीण से गांव का नाम पूछने लगे. ग्रामीण द्वारा गांव का नाम हैड़ाखान बताये जाने पर उन्होंने अपना नाम भी हैड़ाखान बाबा रख लिया. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हनुमान, परशुराम, राजा बलि, व्यास, विभीषण, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा ये सात पौराणिक पात्रों को चिरंजीवी बताया गया है, यानि आज भी ये देह रूप में इस धरती पर विद्यमान है.

हैड़ाखान बाबा के बारे में भी लोगों की मान्यता थी कि वे साक्षात् अश्वत्थामा थे. कहा तो यहां तक जाता था कि उन्हें हिमालय के ऊपर आसमान में उड़ते हुए तक देखा गया. उनके अधिकांश चमत्कारों की चर्चा जनश्रुतियों तक ही सीमित रही, क्योंकि तब उनके बारे में लिखित साहित्य का अभाव था. वर्ष 1919 में बाबा हैड़ाखान समाधिस्थ हो गये और पुनः पिछली सदी के सत्तर के दशक में नये हैड़ाखान बाबा का मूल हैड़ाखान बाबा के अवतार के रूप में अवतरण हुआ. हालांकि इनके असली हैड़ाखान बाबा के अवतार होने पर जनमानस में भ्रम की स्थिति भी बनी रही, लेकिन लोगों की आस्था नये हैड़ाखान बाबा में भी कम नहीं थी. देश के नामी-गिरामी लोग इनके दर्शनों को नियमित रूप से आते रहते थे, जिनमें बॉलीवुड के शम्मी कपूर से लेकर कई वरिष्ठ राजनेता शामिल थे.

हैड़ाखान बाबा

बताते है कि हैड़ाखान बाबा का स्वयं को अवतार बताने वाले नये हैड़ाखान बाबा ने 45 दिन तक इसी स्थान पर बिना हिले-डुले व बिना अन्न-जल ग्रहण किये एक आसन पर ध्यान लगाया. तब से जनमानस की इनके प्रति भी अगाध आस्था हो गयी. देश ही नहीं अपितु कई विदेशी भी  उनके शिष्य बन गये और इसी आश्रम के होकर रह गये. 14 फरवरी 1984 को ये भी महासमाधि में विलीन हो गये. हैड़ाखान के अतिरिक्त उन्होंने रानीखेत के पास चिलियानौला नामक स्थान पर भी मन्दिर तथा अस्पताल बनवाया जो ट्रस्ट द्वारा संचालित किया जाता है.
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चर्चा इस क्षेत्र के सन्तों की हो रही हो तो सोमवारी बाबा का नाम भी चर्चित सन्तों में आता है. इनके आश्रम भवाली से दक्षिण-पूर्व में भीमताल- धानाचूली मोटरमार्ग पर पदमपुरी नामक स्थान पर था, जो पूर्व मुख्यमंत्री स्व0 नारायण दत्त तिवारी जी का पैतृक गांव भी है. बताते है कि स्व0 तिवारी जी को भी सोमवारी बाबा का आशीर्वाद प्राप्त था. जब कि इनका दूसरा आश्रम खैरना-अल्मोड़ा मार्ग पर काकड़ीघाट में था. तब खैरना-अल्मोड़ा मोटरमार्ग नहीं बना था, हां यहां से बद्रीनाथ आदि तीर्थों को जाने के लिए काकड़ीघाट- कर्णप्रयाग पैदल मार्ग अवश्य था.

यह वही स्थान है, जहां अपने शिष्य अखण्डानन्द के साथ स्वामी विवेकानन्द अगस्त 1890 में नैनीताल से अल्मोड़ा के लिए पैदल यात्रा पर निकले और काकड़ीघाट नामक स्थान पर रात्रि विश्राम किया. स्नान के बाद स्वामी जी यहीं एक पीपल के पेड़ के नीचे एक घण्टे तक घ्यानमग्न हुए, ध्यान टूटने पर उन्होंने अपने  शिष्य व साथी अखण्डानन्द को बताया कि इस स्थान पर उन्हें दिव्य अनुभूति हुई और मुझे इस गूढ़ रहस्य का ज्ञान हुआ कि  व्यष्टि व समष्टि (विश्व ब्रह्माण्ड व अणु ब्रह्माण्ड) दोनों एक ही नियम से संचालित होते हैं. प्राप्त जानकारी के अनुसार सोमवारी बाबा का जीवनकाल 1808 से 1926 (118 वर्ष) का माना गया है. जब कि उत्तराखण्ड में उनका आगमन सन् 1900 के आस-पास बताया जाता है. जाहिर है कि स्वामी विवेकानन्द के काकड़ीघाट आगमन तक सोमवारी बाबा का आश्रम यहां नहीं रहा होगा.
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सोमवारी बाबा

सोमवारी बाबा का जन्मस्थान का कोई प्रामाणिक साक्ष्य तो नहीं है लेकिन कुछ सूत्रों के अनुसार सिन्ध, हैदराबाद का पिण्डदादन खां इनका जन्मस्थान माना जाता है. जन्म से ये ब्राह्मण थे और स्वयं को पहले ब्राह्मण उसके बाद साधु मानते थे. माना ये भी जाता है कि उनके गुरू मुस्लिम समुदाय से थे और उनके शिष्य अल्मोड़ा के कई मुस्लिम समुदाय के लोग भी थे. चूंकि सोमवारी बाबा ब्रह्मचारी थे तथा उनके आश्रम में महिलाओं का प्रवेश वर्जित था. लेकिन एक बार एक महिला महाराज जी को चावल भेंट करने आ गयी. महाराज ने खड़े होकर उसका स्वागत किया और उसके द्वारा लायी गयी भेंट स्वीकार की. लोग यह देखकर आश्चर्य में थे कि इस महिला को कैसे प्रवेश की अनुमति मिल गयी? उस महिला ने उन्हें चावल की भेंट प्रदान कर उनके आश्रम की परिक्रमा की. यह माना गया कि वह स्वयं मां अन्नपूर्णा थी.
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अन्नपूर्णा मां का ही आशीर्वाद था कि उनके आश्रम में कितने ही भक्त आ जायें, कभी प्रसाद स्वरूप खाद्य सामग्री की कमी नहीं पड़ती थी. काकड़ीघाट में जिस स्थान पर सोमवारी बाबा का आश्रम था, उसी से कुछ दूरी पर 1960 के दशक में बाबा नीम करौली ने भी मन्दिर का निर्माण करवाया गया. यह भी संयोग है कि कैंची धाम में बाबा नीम करौली का जब प्रथम बार आगमन हुआ तो उन्होंने शिप्रा नदी के उस पार जाकर स्थानीय लोगों को झाड़ी काटकर साफ करने को कहा, जिसके नीचे दबी हुई एक गुफा निकली, जिसमें बाकायदा धूनी तथा चिमटा गढ़ा हुआ था. बाबा नीमकरौली ने इसे सोमवारी बाबा की कुटिया बताकर बाद में इसी स्थान पर कैंचीधाम मन्दिर की स्थापना की.

क्षेत्र के प्रमुख सन्तों में नानतिन बाबा उच्च कोटि के साधकों में गिने जाते हैं. कुमाऊनी में नानतिन का प्रयोग छोटे बच्चों के लिए किया जाता है. माना जाता है कि कभी कभी बच्चों की जैसी लीला कर देने के कारण वे नानतिन बाबा के नाम से विख्यात हो गये. भवाली से सटे श्यामखेत में आज भी उनका आश्रम है और उनके उत्तराधिकारी शंकर महाराज अब आश्रम का संचालन करते हैं. श्रद्धालुओं का अभी भी अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए यहां तांता लगा रहता है.

नानतिन बाबा का संसार भी रहस्यों से भरा रहा. भौतिक सुख-सुविधाओं से दूर बाबा बियावान जंगलों की गुफाओं में रहा करते थे तथा कभी भक्तों के आग्रह पर उनके घर आने से भी उन्हें गुरेज नहीं था. भवाली कस्बे में प्रेम सिंह बिष्ट के निवास पर वे अक्सर आया करते थे. लड़ियाकांटा की तलहटी में बसा जाबरनाला मन्दिर, निगलाट के ऊपर गैरखान तथा कैंची धाम की पूर्वी पहाड़ी पर एक गुफा उनके प्रवास की मुख्य जगहें थी. कैंचीधाम की पहाड़ी पर उनकी गुफा को बाबा उड्यार के नाम से आज भी लोग जानते हैं. इसके अतिरिक्त भी उन्होंने कई जगहों पर आश्रम बनवाये.
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नानतिन बाबा

गैरखेत, जाबरनाला व कैंची धाम की पहाड़ी पर वे ऐसी गुफाओं में रहते थे, जहां जंगली जानवरों के भय से दिन में भी इन्सान जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. भक्त बताते थे कि ऐसे बियावान जंगलों में भी रात्रि में जब भक्त सो जाते तो नानतिन बाबा गुफा से गायब हो जाते.

अक्सर गम्भीर बीमार लोग भी उपचार के लिए उनके पास आते. जडी़-बूटी से उपचार के अलावा कभी वे मरीज को इस तरह का उपचार बता दिया करते, जैसे कई दिनों तक अन्न त्याग कर केवल दूब की रस का सेवन अथवा गाय को जौ खिलाकर उसके गोबर से निकले जौ के दानों का सेवन आदि आदि. मुझे दो बार बहुत कम समय के अन्तराल में नानतिन बाबा को देखने का अवसर मिला और दोनों बार भिन्न रूपों में. एक बार हृष्ट-पुष्ट स्वामी दयानन्द सरस्वती की डीलडौल में जब कि दूसरी बार एकदम कृशकाय.

क्षेत्र में पुराने लोग तिगड़ा बाबा तथा कमलागिरि बाबा का नाम भी प्रायः लेते हैं. लेकिन उनके बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है. कमलागिरि बाबा भी जाबरनाला गुफा  में रहा करते थे. लेखक को कमलागिरि बाबा को देखने का अवसर मिला. अपनी कैलाश यात्रा का जिक्र करते हुए वे बताते थे कि तिब्बती लामाओं के भय से भेड़ के पेट पर चिपककर उन्होंने यात्रा की. तिब्बती लामाओं के प्रति ऐसा भय व्याप्त था कि वे इन्सानों को कच्चा खा जाते हैं.
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बात विश्वप्रसिद्ध नीमकरौली महाराज की करें तो इनके कैंची धाम आश्रम ने सबसे निकटस्थ भवाली कस्बे को विश्व मानचित्र पर प्रसिद्धि दिला दी. 1964 में कैंची धाम मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद सितम्बर 1973 में महाराज जी के समाधिस्थ होने तक देश ही नहीं बल्कि विदेशी भक्तों का यहां तांता लगा रहता. बाबा नीमकरौली के चमत्कारों पर विपुल साहित्य भरा पड़ा है. हालीवुड की अभिनेत्री जूलिया, राबर्ट ने तो उनसे प्रभावित होकर हिन्दू धर्म ही अपना लिया तथा अमेरिका के गणितज्ञ प्रो. रिचर्ड एल्बर्ट जो इस तरह के चमत्कारों में विश्वास नहीं रखते थे, जब कैंची धाम में अपने मित्र के साथ महाराज जी के सम्पर्क में आये तो रिचर्ड एल्बर्ट से रामदास बनकर उनकी दुनियां ही बदल गयी.

माइक्रोसाफ्ट के मालिक जुकरबर्ग हालांकि महाराज जी के जीवनकाल में तो उनके साक्षात् दर्शन नहीं कर पाये, जब महाराज जी समाधिस्थ हो गये तो अपने कारोबार की उन्नति के लिए उनके मित्र ने कैंचीधाम आने की सलाह दी. जुकरबर्ग के कैंची धाम दर्शन के बाद अपने कारोबार में सफलता का श्रेय भी वे नीमकरौली महाराज को ही देते हैं.
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बाबा नीम करौली

विदेशी ही नहीं देश के कई बड़े बड़े राजनेता, उच्च अधिकारी महाराज जी के सम्पर्क में आये. बाबा नीम करौली के संबंध में काफल ट्री में पूर्व में प्रकाशित लेख निम्न लिंक पर पढ़े जा सकते हैं:

नीम करौली महाराज द्वारा भवाली के समीप ही भवाली- काठगोदाम पर भूमियाधार में, नैनीताल -हल्द्वानी मार्ग पर हनुमानगढ़ी में तथा खैरना-अल्मोड़ा मार्ग पर काकड़ीघाट में मन्दिर तथा आश्रम की स्थापना की. भवाली से लगभग 18 किमी की दूरी पर भवाली-ज्योलीकोट मार्ग के बीच गेठिया नामक स्थान पर पायलट बाबा ने भी आश्रम बनाया है. अभी भी पायलट बाबा यदा-कदा यहां आते-जाते रहते हैं.

कहने का आशय यह है कि भवाली के इर्द-गिर्द के ये स्थान सन्त महात्माओं को भी सदैव लुभाते रहे, जिसका भवाली के विकास व विस्तार में परोक्ष रूप से सकारात्मक प्रभाव पड़ा. लोगों की आजीविका व रोजगार के साधन बढ़ने के साथ ही इन सन्त महात्माओं के बदौलत भवाली शहर को राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली.
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पिछली कड़ी: सदियों पहले श्यामखेत का पूरा भूभाग एक झील था

भुवन चन्द्र पन्त

भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

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