समाज

हम इन सारी गुलामियों से बाहर आएँगे और असल आजादी का जश्न मनाएँगे

कल रात आज़ादी सपने में आई थी. उदास, गुमसुम सी सिरहाने पर बैठी किसी सोच में डूबी हुई. तफ्तीश की तो पता चला कि आजादी, आजाद भारत में गुलामी देखकर दुखी है. पहले तो बात ही समझ नहीं आई कि आजाद भारत में गुलामी! हम तो गुलामी की जंजीरों को 1947 में ही काट चुके हैं. आखिर आजादी किस गुलामी की बात कर रही है? वह कहती है क्या सिर्फ कैदखानों (अंग्रेजी कैद) से आजाद हो जाना ही आजादी है? या सिर्फ शारीरिक प्रताड़नाओं का दूर हो जाना आजादी है? यह आजादी का एक हिस्सा तो है लेकिन यह पूर्ण आजादी नही है. (Real Meaning of Independence Day)

वह कहती है जब 15 अगस्त 1947 को मैं पैदा हुई और खुली हवा में सॉंस लेने को आजाद हुई तब लगा कि अब मेरा परिवार यानि इस देश के लोग आजादी के मायने समझेंगे और अंग्रेजों के इतर हर किसी को हर तरह की आजादी का हक देंगे. लेकिन आजादी तो दूर इन्होंने अपनों को ही गुलाम बनाने के नए दरवाजे खोल दिए. पहली गुलामी की नींव रखी मोहम्मद अली जिन्ना ने, जिन्होंने ‘टू नेशन थ्योरी’को आधार बनाकर मुसलमानों को मानसिक रूप से गुलाम बनाया और एक अलग देश पाकिस्तान की मॉंग रख दी. उस मानसिक गुलामी का परिणाम यह हुआ कि हम दो देशों में बँट गए और लाखों हिन्दू-मुस्लिम इस बँटवारे की भेंट चढ़ गए. (Real Meaning of Independence Day)

नेहरू ने समाजवाद से प्रभावित होकर एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की कल्पना की और ‘अनेकता में एकता’को देश की ताकत बताकर सरदार पटेल की मदद से देशी रियासतों के विलय के साथ ही भारत की नींव रखी. लेकिन इस विविधता से भरे बगीचे (देश) में हम हर पेड़-पौधे (नागरिकों) को काँट-छाँटकर एक जैसा बनाने की राह पर चल पड़े हैं. जिन्ना का अनुसरण कर एक बार फिर लोगों को धार्मिक मानसिकता का गुलाम बना हिन्दू राष्ट्र की भावनाएँ भड़काने लगे हैं. संविधान की धर्मनिरपेक्षता की आजादी को ठुकराकर, चंद समूहों के प्रभाव में आकर हम उनके धार्मिक गुलाम होने लगे हैं.

आजादी आगे कहती है कि कहने को तो हम कृषि प्रधान देश हैं लेकिन हम भुखमरी और कुपोषण के गुलाम होने लगे है. दुनिया में सबसे ज्यादा 40% कुपोषित बच्चे हमारे देश में पाए जाते हैं. जहॉं एक छोटी सी बच्ची संतोषी भात-भात चिल्लाते हुए अपनी जान गंवा देती है. हम किसानों की आत्महत्या की मजबूरी के गुलाम होने लगे हैं. हम साल-दर-साल बढ़ती बेरोजगारी के गुलाम होने लगे हैं. पिछले 45 सालों की तुलना में आज हम बेरोजगारी के शिखर पर खड़े हैं.

महात्मा गांधी जब तक ज़िंदा रहे हमेशा सत्य अहिंसा का पाठ पढ़ाते रहे लेकिन आज हम फेक न्यूज और मॉब लिंचिंग के गुलाम होने लगे हैं जहॉं धड़ल्ले से झूठी खबरों को सोशल मीडिया में परोसा जाता है और हम चटकारे लेकर उन खबरों को और आगे परोसते जाते हैं. मॉब लिंचिंग की गुलामी की दास्ताँ तो यह है कि लोगों द्वारा चुने गए एक सांसद महोदय मॉब लिंचर्स के जेल से बाहर आने पर फूल-मालाओं से उनका स्वागत करते हैं. देश अंतरिक्ष में तरक़्क़ी की नई कहानियॉं लिख रहा है लेकिन हम विज्ञान को ठुकरा कर धार्मिक अंधविश्वास के गुलाम हुए जा रहे हैं जिसमें अंग्रेज़ी में बोलता एक दक्षिण भारतीय तथाकथित संत यह कहता है कि आज मैंने सूरज को 15 मिनट देरी से उगने का आदेश दिया और मेरी आज्ञा को मानते हुए सूरज 15 मिनट देरी से उगा और उसकी इस मूर्खतापूर्ण बात पर उसके अंधविश्वासी गुलाम भक्त जोर-जोर से तालियां पीटने लगते हैं.

आजादी कहती है कि हम बेटी बचाओ का शोर तो बहुत करते हैं लेकिन हम भ्रूण हत्या के गुलाम होते जा रहे हैं. उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के 133 गाँवों में तीन महीने का डेटा लिया गया और परिणाम यह आया कि इस दौरान एक भी बेटी पैदा नहीं हुई. यह महज एक इत्तेफाक तो नहीं हो सकता. कारण जो भी हों लेकिन एक के बाद दूसरी बेटी को लेकर हम भारतीयों की मानसिकता राष्ट्रीय औसत लिंग अनुपात (933) देखकर समझ आ ही जाती है. संवैधानिक रूप से तो हम सब को बराबरी का हक है लेकिन आज भी हम जातिवाद की गुलामी जंजीरों में जकड़ते जा रहे हैं. सुबह के अखबार से लेकर सोशल मीडिया तक हजारों खबरें जातिगत मारपीट और भेदभावों से भरी मिलती हैं.

आजादी इस बात से दुखी है कि हम परिवारों, रिश्ते-नातों से दूरियॉं बढ़ाते हुए टेक्नॉलजी के गुलाम हुए जा रहे हैं. दिन के अधिकतम समय को हम बिना किसी से बातचीत के सिर्फ मोबाइल में स्क्रालिंग करते हुए बिता देते हैं. लोकतंत्र में कहते हैं जनता शासक होती है लेकिन हम नेताओं, अपने सांसदों और विधायकों के गुलाम हुए जा रहे हैं. आज देश में सबसे बड़ी आजादी किसी चीज से चाहिये तो वह है राजनीतिक पार्टियों की चाटुकारिता से. हम सरकारों से सवाल पूछने की अपनी मौलिक आजादी को खोते जा रहे हैं और पार्टियों की सही गलत नीतियों को दरकिनार कर उनकी हॉं में हॉं मिलाने के गुलाम हुए जा रहे हैं. हम फ्री प्रेस की आजादी तो लगभग खो ही चुके हैं और रात 9 बजे प्राइम टाइम पर आने वाले एंकरों के गुलाम बनते जा रहे हैं. हमारा खबरों की तत्थ्यात्मकता, प्रामाणिकता और सत्यता से वास्ता समाप्त सा हो चुका है और हम राजनीतिक पार्टियों के आईटी सेल के गुलाम बनते जा रहे हैं.

आखिर में आजादी कहती है इस तरह की न जाने कितनी ही गुलामियों के बीच मेरे पैदा होने का जश्न मनाया जाता है. लेकिन यह सब देख मुझे बहुत दुख होता है. मैंने ऐसे भारत की कल्पना कभी नहीं की थी. मुझे उम्मीद है कि एक दिन हम इन सारी गुलामियों से बाहर आएँगे और असल आजादी का जश्न मनाएँगे.

नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.

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