समाज

पहाड़ों में पलायन का मनोवैज्ञानिक पहलू

पहाड़ों के दर्द की एक पुरानी कहावत है “पहाड़ों की जवानी, मिट्टी औऱ पानी कभी पहाड़ों के काम नहीं आती”. आज भी उत्तराखंड की यही दशा औऱ दिशा बरकरार है. उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों का नारा “बाड़ी मडुआ खाएंगे, उत्तराखंड बनायेंगे ” पूरा तो हो गया, किंतु समस्याए जस की तस बनी हुई हैं.
(Psychological Aspects of Migration)

समाजशास्त्री तथा अनेक विद्वानों ने उत्तराखंड की समस्याओं के लिये अनेक तर्क एवं सिद्धांत दिये हैं. किंतु, मैं इन समस्याओं के मनोविज्ञान पहलू पर अधिक बल देता हूँ. मानवतावादी मनोविज्ञान के पक्षधर अब्राहम मास्लो के ‘थ्योरी ऑफ़ मोटिवेशन’ में प्रतिपादित ‘आवश्यकता पदानुक्रम’ पर सरसरी निगाह डालें तो उत्तराखंड में पलायन के कुछ मूलभूत कारण औऱ समाधान नजर आएंगे.

उदाहरण के तौर पर आज युवा वर्ग अच्छे औऱ बेहतर जीवन की तलाश में मैदानों की तरफ रुख़ करता है. मास्लो के पिरामिड की पहली सीढ़ी शारीरिक आवश्यकता (फिजिलॉजिकल नीड्स ) को पाने की दौड़ में शामिल पहाड़ी युवा को शहरों में ही उसका हल नजर आएगा. क्योंकि पूरा परिवार नौकरी के बाद मैदानों के सुख सुविधाएं भोगने के सपने देख रहा है.

फिर वह युवा शहरों के सुख सुविधा में वहीं का होकर रह जाता है. उसका पहाड़ से अपनापन औऱ प्यार छूट नहीं पाता पर पहाड़ से केवल लगाव गडेरी, चूख, घी भट्ट आदि द्वारा बना रहता है जो की मैदानों में पहुंच जाती है किसी हीरदा के मैक्स द्वारा. कभी कभार मन हुआ तो देवता, जागर, छोल के बहाने पहुंच गये पहाड़, एक विदेशी सैलानी की तरह कार, सूट बूट औऱ हिंगलिश जुबान के साथ. उनके बच्चों से तो कुमाऊनी औऱ गढ़वाली बोली की उम्मीद क्या करें जब गाँव में रह रहे बच्चे भी अपनी बोली को जुबान पर लाने से कतरा रहे हैं. यह डर स्वाभाविक है जिस तरह शहरों में बच्चे हिंदी से कतरा रहे हैं.

हमारे नेतागण औऱ विद्वान तो कोमा में हैं उनको खबर ही नहीं की उत्तराखंड की बहुत बोलियाँ कुमाऊनी, गढ़वाली, जौनसारी, भोटिया, थारू, बोक्सा, रं, राजी विलुप्ति के कगार पर हैं. कम से कम कुमाऊनी औऱ गढ़वाली बोली को लिपिबद्ध करके भाषा का दर्जा अवश्य मिलना चाहिए क्योंकि ये बोलियाँ जुबान से तो दूर होती जा रही हैं साथ ही साहित्य में इनकी उपस्थित बहुत कम हैं. उदाहरण के तौर पर मनोहर श्याम जोशी की कसप औऱ क्याप जैसी कालजयी रचनाओं में कुमाऊनी बोली का प्रभाव है. बोली के परिरक्षण में साहित्य औऱ लोक संगीत की अहम् भूमिका है.
(Psychological Aspects of Migration)

उत्तराखंड के बड़े विद्वान, थिंक टैंक, नेता-मंत्री, प्रशानिक अधिकारी बड़े बड़े एयर कंडीशन औऱ कंप्यूटराइज्ड ऑफिस में बैठकर नीति एवं मसौदा तैयार करते हैं कि पहाड़ी संस्कृति का संरक्षण करना हैं, पलायन रोकना है. अरे! अकलमंद बड़े लोगो, आपने शहरों में अपने लिये बंगला, कोठी बना रखे हैं, बच्चे विदेश में पड़ रहे हैं औऱ उन बच्चों को शायद अपने गाँव का नाम भी नहीं पता. ये लोग संस्कृति औऱ पलायन पर नीति नहीं बना रहे, बस अपनी नौकरी औऱ कुर्सी के पीछे लगे हैं. अगर संस्कृति के संरक्षण का का इतना ही ख्याल हैं तो बुलाओ अपने विदेश औऱ बड़े इंजीनियनीरिंग कॉलेज में पड़ रहे बच्चे को, सिखाओ उसको छलिया नृत्य, ढोल दमुआ, लगाने दो उसको रात भर जागर, भगनौल.

क्या संस्कृति बचाने का कर्तव्य केवल गरीब औऱ अनपढ़ पहाड़ी का है जो बेचारा दिन रात जागर लगा कर, छलिया बनकर, ढोल दमुआ बजाकर अपना औऱ अपने बच्चों का जीवन बसर कर रहा हैं. उसकी मजबूरी हैं ये सब करना, अपने शौक के लिये नहीं करता ये सब वह. पहाड़ में शिक्षा व्यवस्था, रोजगार, स्वरोजगार के नाम पर तो छल हो ही रहा हैं. उसका बेटा जो इंजीनियर औऱ डॉक्टर बन सकता था, मजबूरन उठायेगा ढोल, दमुआ, हुड़का औऱ डाल देगा अपने सपनों के चाँद पर रोटी की चादर. फिर, एक दिन संस्कृति महोत्सव समारोह में उसको बेस्ट छलिया, जागर गायक पुरुस्कार से नावाजा जायेगा बड़े-बड़े लोगों द्वारा. संस्कृति औऱ पलायन पर हो रही ढकोसलेबाजी का सिविल सेवा परीक्षा के इंटरव्यू औऱ यूनिवर्सिटी के निबंध प्रतियोगिता में लेख के अलावा क़ोई प्रसंगिकता नहीं है.

क़ोई भी अधिकारी, कर्मचारी, सेवक पहाड़ों की दुर्गम परिस्थितियों में तैनाती नहीं चाहता. अपने बच्चों की शिक्षा औऱ स्वास्थ्य सेवाओं के आभाव में वह मैदानों की पोस्टिंग औऱ पोस्टिंग कराने वाले अधिकारी से चिपका रहता है. अगर, हमारी राजधानी पहाड़ी दुर्गम इलाके में होगी तो पूरे प्रशासन के साथ साथ विकास भी भागेगा पहाड़ों की तरफ. उत्तराखंड पहाड़ी राज्य है, जिसमें मैदानों का क्षेत्रफल केवल 14% है किंतु यहाँ सब उलटी दिशा में बह रहा है. लोग, विकास, युवा सभी पहाड़ों से मैदानों की तरफ भाग रहे हैं. जबकि पहाड़ी राज्य में सब पहाड़ो की तरफ जाना चाहिए.
(Psychological Aspects of Migration)

स्थिति ऐसी भयावह है कि पहाड़ों में अब केवल वही लोग रह गये हैं जिनके पास संसाधन नहीं हैं मैदानों में बसने के लिये. ऐसे बहुत से लोग मजबूर हैं पहाड़ों की आपदा औऱ डॉक्टर रहित अस्पतालों में जान गवाने के लिये. साथ ही, पहाड़ों में जो अच्छी दाल, मसाले, सब्ज़ी, फल होते थे, उनका व्यवसायीकरण होने से स्थानीय उत्पाद इतने महंगे हो गये हैं कि स्थानीय लोग उन्हें खरीद नहीं सकते क्योंकि इन उत्पादों की मांग मैदानों में बढ़ गयी हैं.

ऐसा नहीं है कि मैंने उक्त समस्याओं का ठीकरा कुछ विशेष औऱ अभिजात्य वर्ग के सिर पर पर फोड़ा है. इन समस्याओं के लिये क़ोई विशेष समूह या फिर व्यक्तिगत तौर पर क़ोई भी उत्तरदायी नहीं है. बल्कि एक समूह के रूप में समाज, राज्य औऱ हम सभी जिम्मेदार हैं जिसका समाधान भी हम ही कर सकते हैं.

सभी लोगों के संज्ञान में इन समस्याओं का कारण औऱ समाधान होता है किंतु उसको व्यावहारिक आयाम देना कठिन होता है जिसे मनोविज्ञान की भाषा में संज्ञानात्मक विसंगति कहते हैं. मानव विकास का इतिहास इन्हीं जटिलताओं से भरा हुआ है. इंसान की शारीरिक भूख शांत होने के बाद उसको मानसिक तृप्ति चाहिए. उसके बाद ही मानव नैतिकता औऱ आत्मा संतृप्ति की अवस्था को प्राप्त करता है. पहाड़ों की सभी समस्याओं की जड़ पलायन है औऱ इसका इलाज़ करने के लिये पर्यटन ही काफी है किन्तु इसके लिये एक मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति एवं सामाजिक संकल्प जरुरी है.
(Psychological Aspects of Migration)

दीपक कुमार जोशी

नाचनी के रहने वाले दीपक कुमार जोशी ने यह काफल ट्री की ईमेल आईडी पर भेजा है. दीपक कुमार जोशी से उनकी ईमेल आईडी deepu.i2200@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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  • Jo sarkaar itne saalon mein Kotdwar aur Dugadda ke Bus stop ko renovate tak na kar saki unse kya expect kiya jaye ki wo pahado ka vikas karengi..

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