गाँधी जयंती पर देश को पॉलिथीन मुक्त करने का सन्देश लालकिले की प्राचीर से देते मोदी बाबा. हिमालय बचाओ पॉलिथीन हटाओ,ग्रेस मार्क्स की जगह ग्रीन मार्क्स की घोषणा करते मानव संसाधन मंत्री निशंक. अख़बार के  पन्नों में  रंग -बिरंगा वृक्षारोपण. बरसों से हमसफ़र रही यादों में झाँक गया वह चेहरा जिसके जुनून जिद उन्माद ने उसे बना दिया “पॉलिथीन बाबा” उर्फ़ प्रभात उप्रेती.

सीधी सरल,भोली सी,अपनी धुन में रची बसी एक शख़्सियत जो अपने गीत गाता,अपनी लहर बनाता और दूसरों तक भी इसके पंचामृत हथेली पे धर देने की जजमानी करता है. बहुत कूड़ा-करकट समेट, कितने लेख घसीट, किताबें छाप किसी पब्लिशर ने उसे अधेला तक थमाने लायक ना समझा. सम्मान पत्र मिले होंगे पर उसके घर की बैठक में फ्रेम में लटके दिखते नहीं. अख़बारों की सुर्ख़ियों में तब तक रहा जब तक उसकी ही जैसी सोच वाले रिपोर्टर उसके काम को नया काम नई पहल समझते रहे. अब कट पेस्ट का जमाना है. खबर कुछ फोटो के साथ कुछ लाइनें च्यांप कर खूब लाइक बटोर लेती हैं.

शेयर हो कर मायावी दुनियां में आदमकद से ऊंचा उठा जाती हैं. पर ये प्रभात उप्रेती बनाम पॉलिथीन बाबा की तरह हज़ारों हज़ार चेलों की बेल नहीं लहलहा सकती. उसके चहेते आम सफाईकर्मी से लेकर सेना, पुलिस, फ़ौजी, वकालत की कील ठोकने वालों से लेकर सिनेमा, नाट्य संस्थाओ, लोकगायकों, विधान सभा लोकसभा तक में मौजूद थे, मौजूद हैं.

पर क्या करे पॉलिथीन  बाबा. वो तो शरद जोशी के प्रहसन ‘एक था गधा’ का अलादाद है. जो वक़्त  का पाबंद है पर घड़ी नहीं पहनता. वह पोलिटिकल साइंस का मास्टर, प्रवक्ता रहा, उसे रीडर का स्केल नहीं मिला क्योंकि वह पी. ए. च. डी. नहीं कर पाया, ले -दे  वाले रिसर्च जर्नल में टीप -टॉप वाले शोध पत्रों से विमुख रहा. हर बार सवाल खड़ा करता रहा, इसमें नया क्या है? वह बात कहाँ गुम है जिस पर चल समस्या का समाधान हो? सेमिनार, गोष्ठियों  में खा पचा, टी. ए . डी. ए. जेब के हवाले कर अपने आभा-मण्डल के आगे दूसरों को झुकाना वह सीख ही ना पाया. वह खुद नियम-विधान से चलता है. हर समय चश्मा  लगाता है. लाइन नहीं तोड़ता. हर गड़बड़ी पे उसकी सातवीं इंद्री फड़फड़ाती है चाहे वो घर के दरवाजे पे रसोई  गैस की समय पर डिलीवरी ना होना हो या सरकारी अमलों  में इशारों में चल रहा कारबार. वह मोरल वैल्यूज की जुगाली करने वाला, आइडियल महात्मा मार्का लेखन करने वाला बौद्धिक दीर्घ स्खलन करने वाला लेखक भी तो नहीं.

वह अपनी डायरी निकाल झोले में डाल अपने सुर में किसी के दर्द, परेशानी को साझा करने घर से बाहर घंटों भटकता है. गन्दगी और कूड़े  से उसे नफरत है. ऐसा भी क्या? जो अपने घर से बाहर भनका दो और ना वह गले ना सिमटे. ना खाद बने. जानवर  खाएं तो बीमार पड़ें. मासूमियत से कही इस बात को बच्चे समझे. औरतें  मानी. लोगों में तिलमिलाहट  उपजी. उसने गली-दुकानों में कैरम-फल्लास खेल रहे लोगों को उठा दिया. बुद्धिजीवी इस एहसासे-कमतरी  में, कि  अच्छा खासा मास्टर पॉलिथीन के संकट को पहचान विकास के उजले पैरहन के पीछे छुपे नयी पीढ़ी को सौंपी जाने वाली स्याह काली रातों के अक्स पहचान रहा. आखिर कैसे?

ऐसे ही उसे मान नहीं लिया गया. 1970 के दशक से बड़े-बड़े पर्यावरण पंडित उभरना शुरू हो गये थे. गांव-कस्बों के लोगों की सरल बात को उन्होंने अख़बारों से अपनी बात बना दिया. उनके चेले-चपाटों ने एन. जी. ओ. के भंवर फैलाये. कागजों में पारिस्थितिकी संतुलन बना रहा. वन कानूनों की धज्जियाँ उड़ीं. अनायास ही चुपके -चुपके रोजमर्रा की जिंदगी में प्लास्टिक पॉलिथीन घर से जलस्त्रोत-जलागम-ग्लेशियर तक झंडे गाड़ता गया. और पॉलिथीन बाबा अपना मन्द्र-सप्तक गुनगुनाते रहा.

उसकी सनक के दीवाने उसकी पौंध तैयार होती गई. अपनी बात पर डटे  रहना,ईमानदार से जुटे रहने के  जूनून की यह ऊर्जा प्रभात को अपने पिता से मिली. जो स्कूल अध्यापक थे.जीवन भर अपना भरा-पूरा परिवार पहाड़ के सीमांत डांडों-कांडों में डुलाते रहे. पहाड़ के भूगोल-इतिहास का हर रंग दिखाते रहे. आखिरकार पुराने राजभवन से ऊपर रेंट कण्ट्रोल के मकान में सिमट गये. न  चाहने के बावजूद भी प्रभात  ने रिटायरमेंट के कई साल बाद पिथौरागढ़ से आ हल्द्वानी में विवेक विहार में अपनी ठौर जमा ली. दूरियां तय करने को साइकिल भी सीखी.

खासम-खास है पॉलिथीन बाबा. शक्ल सूरत, कपडे टीम-टॉम से बेपरवाह. बड़े प्रेम से सपोड़-सपोड़ कर खाता है. मिठाई का रसिया. कॉलेजाम तो ऐसे घपकाता कि फ़ौरन खदुआ की डिग्री मिले. श्रीनगर-गढ़वाल में बिरला कॉलेज के हम कई प्रवक्ता क्लास लेने के बाद चाय सुड़कते, धुंवा उड़ाते तो प्रभात नई स्टाइल से मूंगफली ठूंगता. पांच-सात साबुत छिलके वाली मूंगफली मुँह में डाल जुगाली करता और अवशिष्ट थूक देता. अपने छात्रों में खूब लोकप्रिय. ओमप्रकाश साह जी का योग चेला जिसका ध्यान कूटस्थ चैतन्य की जगह कहीं और होता. उनके ध्यान शिविर में खीर का भोग चढ़ता. जिसके आने की प्रतीक्षा में होंग -स्वः  व ॐ क्रियाएं दोलन करतीं.

इमर्जेन्सी का दौर था. वह ऐसा कुछ भी पढ़ा जाता कि  विभागाध्यक्ष डॉ  शर्मा अपना  सर खुजाते रहते. प्रिंसिपल साहिब श्रीवास्तव साहिब भी राजनीति शास्त्र वाले और उनकी दोनों सुपुत्रियाँ भी प्रभात पे रींझी. पर उस निगरगंड को कहाँ मोह-माया. वह या तो सीमांत में करमगति से चल रही समस्या पर लेख लिखता या जौनसारी इलाके से लड़कियों के मेरठ-आगरा-मुंबई सरका दिये जाने पर एकांकी  की सोचता. पुरोला से ऊपर लकड़ी चिरान के धंधे जिनमें उसके दबंग मोना-सरदार की मोनोपोली. और फिर गौरादेवी से लेकर झपटो-छीनो तक की वीरांगनाओं,ग्रामीणों व लेफ्टिस्टों के प्रतिरोध की सोच. अलकनंदा में भयावह बाढ़ आयी हो या कहीं राशन-रसद की कमी. सब खाते सोते प्रभात भुनगता -सुलगता-सुलगाता. अपनी बहुत सरल भाषा में गंभीर भोगी गई बात बिना किस्सागोई के उसने बड़याट की धार बना दी. वह कहीं भी लिख देता. अख़बार की खाली जगह,पुरानी कॉपी के पेज,जर्ज़र डायरी. लिखा सुनाया और पतेड़  दिया. करीने  से सब लिख सहेज छाती से चिपटाना उसे कहाँ आया. उसने खूब लिखा. अपने लिखे पर किसी की छाप न पड़ने  दी. अपने आसपास जो भी चुभा लिखा,भूल गया वह क्लास वन गजेटेड अफसर है. जहां सुना रहा वहां का मुख्य अतिथि जिलाधिकारी है. सत्ताधारी नेता है. आजकल तो लेखक पहले कुत्ते की तरह पहले सूंघते हैं. इस बात पे ये बमकेगा उस बात पे वो. सो चारण-भाटों की छाया से दूर रहा वह. अर्धसत्य को नग्न करने में कोई संकोच नहीं. सीधे चड्ढी उतारो.

बस मुद्दे चीर हरण के लिए उसके पास आ गये. गड़बड़ियों के गुणसूत्र की पछाडी पे कस के लात मारी. प्रतिभाओं  के जमघट  में घिर स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करना भी कहाँ आया उसे?

पहले कविताये थीं, फिर लेख बौद्धिक तामझाम से मुक्त. तब आये नाटक. पर भरत मुनि से लेकर गुरशरन सिंह या बादल सरकार किसी के संयोजन की छाया भी आप उनमें नहीं पाएंगे. वह सफ़दर हाश्मी का प्यारा दुलारा लाल सलाम साथी रहा. घर से बटोरी सफ़ेद चादरों  व जुगाड़ के हण्डों  में महाविद्यालय परिसर के बीच अलीगढ का ताला लगा,राजा का बाज़ा  बजा. सफ़दर पर पूरी किताब उसने लिख  मारी.

कविता पर भी अजीबोगरीब प्रयोगों  वाली किताब लिख दी. जिसका कच्चा माल रात-अधरात मेरे पेंटियम टू  पर निकाला गया. उस भव-सागर की रागात्मक अनुभूतियों पर दाद देना मेरे जैसे शुष्क अर्थशास्त्र पारायण करने वाले के लिए अबूझ पहेली ही रहा. हमने तो हम हैं खाली माल के रसिया का संतुलन साधा था. नाटक नहीं तो प्रोजेक्ट,वह मंदी में,तो कैमरा है ही बटन दबाने को. दस किताब लिख कर भी मेरठ दिल्ली  के प्रकाशक चाय भटूरा खिलाते रहे. लिख के किस मास्टर को क्या मिला?इस यक्ष प्रश्न से छिटक अब मैं आपको प्रभात की दो मौलिक विशेषता  बता रहा  हूं.

पहला तो यह की उसके हाथ से लिखे को आप पढ़ नहीं सकते. देवनागरी कैसे प्राकृत, हिब्रू और फ़ारसी में बदल  जाती है? इसका मर्म केवल रीता भाभी या बिटिया कात्या ही बूझ पाती हैं. प्रभात की गाड़ी  हांकने में भाभीजी अतुल्य हैं. उनके विशाल नैनों में तमाम उजाले हैं. पिछले तीन साल चौदह ऑपरेशन और विकिरण के तनाव-दबाव-कसाव झेल रहे और कमजोर पड़ रहे प्रभात के शरीर के भावों को पुनर्नवा की भांति उन्होंने ही पोसा है , संभाला है.

दूसरी बात जो हमारी लोकतान्त्रिक परम्पराओं से सुवासित है. पच्च से सडक पे थूक देना. स्कूल, कॉलेज,अस्पताल या डी. एम. कार्यालय का कोना कहीं भी अपना तनाव बहा देना,पडोसी के घर के सामने या अगल बगल कहीं भी खाली प्लाट में,गाड़-गधेरे-नहर-नाली में अपने महल राजप्रसाद  का कूड़ा  भनका देने की जो सामंती आदत आपने पाल रखी है उसे ताड़ने में और उसके तर्पण में प्रभात की  विशेषज्ञता अतुल्य है. तमाम मल कचरे को कार्बनिक में बदलने के फॉर्मूले भी समझा देगा.पर पॉलिथीन? इसका क्या?और जब निदान नहीं तब इसका प्रयोग क्यों?

अब  मन से भले ही प्रभात भगत सिंह को माने या परमहंस योगानंद को. तन से वह एकदम सर्वोदयी गांधीवादी है. वह पॉलिथीन का प्रयोग न करने के लिए आपसे प्रार्थना करता है. निवेदन करता है. वह सुबह तड़के ही उठ बदबू से गदबदा रहे कूड़े के ढेर से इसे निकाल फेंक नालियां साफ कर देता है. इससे दूर रहने का मन बना देता है. अब सहारे को हाथ हैं बच्चों के हाथ. उसकी बात समझ गये किशोर, युवा, महिलाएं, बूबू, आमा, बुड़जू. यह काम उसकी तरंग में तब से शामिल हो गया था जब से अपने पिता के स्थानांतरणों से उसने कई जगह पढ़ाई  की. फिर धीरे धीरे सिमार और भवन निर्माण की गाद से बेरंग  होती नैनीताल की झील जो पर्यटकों की रंगगरेलियों के सामान से भी अपने  किनारों में सहज़ ध्यान आकर्षित करने लगी थी . उसकी आँखों में खटकने लगी.

चमोली, गोपेश्वर.. जौनसार, पुरोला में इंटर की मास्टरी करने के बाद उच्च शिक्षा में प्रभात के चरण पड़े. गोपेश्वर, उत्तरकाशी, श्रीनगर गढ़वाल के बालबच्चे, युवा, किशोर, अम्मा बैणी,लोकगायक रंगकर्मी, डॉक्टर,  लाला बनिये, भैजी कोतवाल सबको याद है वो बाज़ीगर. जिसके पीछे शहर के लफंगे-मनचले तक सुट्टा-घूंट-गटक से छिटक कूड़ा-करकट के विनाश अभियान में जुड़ गये थे. कभी कविता, कहीं नुक्कड़, कभी हाथों में बेलचे -फावड़े. पाँव  धंसे हैं, जूते फंसे हैं, पोलेथिन की थैलियां पहाड़ बना चुकी हैं. लोग नित नई बीमारी की लपेट में हैं. जानवर मर रहे हैं लम्बे समय पीड़ा भोगने के बाद. कारण है पॉलिथीन. जिसे भस्मासुर मान ज़माने भर का दर्द समेटे चश्मे के भीतर स्वप्निल सी  आँखें हरियाली, साफ पानी,  जोश भरे फुर्तीले चेहरों को टटोल रहा  है. जहां भी ट्रांसफर होता वह जाता और यही आदत दृढ़ इच्छा शक्ति में बदलता. यही उसका योग था और यही आनंद.

पिथौरागढ़  की बात है. छुट्टी  का दिन. अमरउजाला  के गुरुरानी जी का फोन आया. बोले वो जो बेढब से नये  सर पोलिटिकल साइंस में आये हैं,उनका नाम क्या है? अभी वो डॉ खर्कवाल, गिरीश पंतजी खत्री गुरु के साथ नब्बे-सौ लोग टी. बी अस्पताल के ओने-कोने साफ कर दिये हैं. कइयों से पूछा बस सब कहते हैं नये सर हैं, नाम किसी को नहीं मालूम.

पॉलिथीन बाबा. मेरे मुहं से अचानक निकल गया  और दूसरे दिन खबर छपने के बाद यह नाम चल पड़ा. अजी सुपर हिट  हो गया. में नामकरण का श्रेय  ले अपने  को पंडितो में शुमार नहीं कर रहा. सोच विचार करता तो उन दिनों चल रहे नेपाल संघर्ष की तर्ज पर प्रभात प्रचंड या बड़े बिकने वाले कपड़ा धोने के साबुन की तर्ज पर प्रभात मैलकट  भी रख  सकता था. दो एक दिन उससे  कटा फटा भी रहा. पर वो मस्तमौला. उसे क्या परवाह !

सच तो ये है की इस पॉलिथीन प्लास्टिक के समूल नाश पर मुझे संदेह ही रहा. सारी पैकेजिंग इंडस्ट्री पाली  यूथरेन  के साथ चिपटी थी. इससे सस्ता विकल्प विदेशों में और कुछ  न था. अपने यहाँ भी इसने झोला ले चलने की आदत ख़तम कर दी. कुल्हड़ की जगह कांच फिर प्लास्टिक का गिलास आ गया. यहाँ तक की ताँबे की जगह फ़ोंले भी प्लास्टिक के, बाल्टी टब मग्गू सब. लोगों को हल्का चाहिए टिकाऊ भी.

कई बार इस अभियान के पीछे खबरों में बने रहने की लालसा का भ्रम  भी होता था. बस कैसे ही फोटू छप जाये. कुछ खबर बन जाये. कई थे ऐसे. एक मास्साब तो पूरे  सुसज्जित हो सेंट सुवास के साथ संध्या काल में अख़बार की सीढ़ियां चढ़ जाते. लौटने तक पींगे डगमगा रही होतीं. लोगबाग अखबारी रेपुटेशन का  बड़ा मान रखते हैं. डरते भी हैं कहीं हमारे खिलाफ कुछ न छपवा दे. वैसे तब पेड न्यूज़ का झाड़  न था.

पिथौरागढ़  में चंद भवन जी आई सी  रोड से शुरू हो महाविद्यालय, तमाम इंटर -हाई स्कूल, पॉलीटेक्निक, प्राइमरी, आंगनबाड़ी होता पॉलिथीन भगाओ स्वर समूची सोर   घाटी में फैल गया. देखादेखी अल्मोड़ा,  नैनीताल, बागेश्वर, रानीखेत, ग्वालदम, जोशीमठ, गोपेश्वर, उत्तरकाशी प्रभात के चेले सक्रिय हो उठे. हल्द्वानी, हरिद्वार ऋषिकेश, देहरादून सुप्त ही रहे. थोक सप्लाई होती थी वहां. तराजू में बात तुलती  थी.

लोग साथ चले. हर तरह के लोग. जिनकी आँखों में पहाड़ की हरियाली रची  बसी थी. वो हिमालय के साथ उस रौखड़ को भी देख रहे थे जो बहुत कुछ छीन  चुका था. अधिकांश  क्लाइमेक्स तक उसकी  बात को अपनी सोच में बसाने का जतन करते रहे हैं. ऐसे भी थे जिन्होंने इस मुद्दे को भुना खाने के लिए रंग -बिरंगे झंडे भी फहराए .

दरअसल यह बरसों पहले से कह दी गई मन की बात थी जो लोगों के आचरण और व्यवहार में  थी. जरुरत उसे उस स्फुरण की थी जिसे पॉलिथीन बाबा के जुझारूपन और नीयत की साफगोई से मिला. अवसर-वादियों ने भी सफाई अभियानों का पूरा फायदा उठाया. लोकल  राजनीति के चतुर खिलाडी  हैरान परेशान कि  एक मास्टर कैसे इतना बड़ा सवाल उठा गया? हालांकि इनमें से कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने बाबा के  काम को खूब बढ़ाया. चुनावों  में जीत के बाद  उनकी कोशिश  रही कि शासन स्तर पर पॉलीथिन रोके जाने के प्राविधान हों. विधान सभा अध्यक्ष रहते प्रकाश पंत  ने  काफ़ी प्रयास किये. पहले  भी वह प्रभात की  एक किताब ज्ञानोदय नैनीताल से छपवा चुके थे. प्रभात को कई जिलाधिकारियों ने भी खूब सराहा. पर  किसी ने राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी सम्मान देने के लिए उसका नाम अग्रसारित नहीं किया.

वह अपनी ही धुन में रहा. राजनय का बेहतरीन शिक्षक होने के साथ जन -जन के लिए घातक पॉलिथीन के खिलाफ उसने लोगों के मन को छुआ. प्रशासन  की नींद तोड़ी. कई बार डार्क कॉमेडी का भी अनुभव हुआ. नई जगहों में बच्चों को सम्बोधित करते अक्सर अगल बगल पाउच से महकी दुर्गन्ध भी आती तो प्लास्टिक के कप में चाय की दस्तूरी. हालांकि वह चाय नहीं पिता था. दारू के ठेके के आगे मद्य निषेध दफ़्तर के जलते बल्ब नियति में थे.

अचानक ही शासन -प्रशासन जग जाता. सायरन बजाती पुलिस गाड़ी की तरह पॉलिथीन जब्त करने को छापे पड़ते.  बडों ने माल  छुपा दिया. छोटों की दिहाड़ी जब्त. नगरपालिका के जुर्माने. पॉलीथिन बाबा इसे नरक पालिका वसूली कहते. एस डी  ऍम साहबों के छापे. सब लक्ष्य और आपूर्ति के खेल. सफाई -निरीक्षकों की हड़बड़ी. बड़े लाला के गोदाम तक किसी की नज़र नहीं घूमी. अब लोग भी क्या करें? एक -आध दिन झोले में राशन सब्जी चीनी ले आएं पर पार्ले जी, टाटा नमक, अमूल आँचल दूध? फिर हर माल  टेट्रा पैक, दवा की स्ट्रिप, ग्लूकोज़ की ड्रिप, कोहेनूर से सब इसी पॉलिथीन का आँचल लपेटे हैं. इसकी कार्बनिक गलन क्षमता तो अनादि -अनंत तक अविनाशकारी. साथ में समस्या को समाधान तक ले जाने वाला रवैया ढुलमुल.

जिन फर्म -फैक्ट्री -कारखानों को लायसेंस प्रदान कर पॉलिथीन स्वदेश में बन रहा था या और उत्कृष्ट  पॉलीमर विदेश से आयात हो  रहा था उस पर कोई रोक -टोक कहाँ लगी थी. अब तो इस कबाड़ के साथ निष्प्रयोज्य इलेक्ट्रॉनिक सामान भी था. प्रभात ने अपनी दृढ़ सोच और इच्छा शक्ति से इनके संकट को समझा. चेतावनी दी. भविष्य में अगली पीढ़ी को क्या देंगे जैसा सवाल खड़ा किया.

पॉलीथिन बाबा अपने विचार और कर्म में आज भी उतना ही स्थितिप्रज्ञ है. प्रभात ने भले ही अपने शरीर के अर्बुद  की लड़ाई समर्पित चिकित्सकों व परिवार के असीम प्रेम व निष्ठा से जीत कुछ समय अलगाव में बिताया हो पर उसकी आशा के चक्र फिर क्रिया योग की ओर  अग्रसर हैं.

अब सिंगल यूज़ प्लास्टिक को अलविदा और समग्र हिमालय की चिंता के प्रति संवेदनशील रहने की नीति पर स्वयं प्रधान मंत्री तथा मानव संसाधन मंत्री   के साथ उत्तराखंड के मुख्य मंत्री ने चरणबद्ध योजना की रणनीति का अवलम्ब लिया है.

उम्मीद है कि गाँधी जयंती से पॉलिथीन निवारण की मन की बात को सचमुच लागू  होता देख प्रभात को  अपनी लड़ाई पर विजयी  होने का दिली सुकून मिले.

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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  • बहजत सुंदर, प्रभातजी जैसी शख्सियत को शब्दों में समेटना हर किसी के बस का नहीं है। बहुत पहले नैनीताल में एक मुलाकात के दौरान उन्होंने बताया था कि पालीथीन बाबा नाम आपका दिया हुआ है। बार बार पढ़े जाने वाले इस जीवंत शब्द चित्र को साझा करने के लिए आभार।
    राजशेखर पंत

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