इन दिनों उत्तराखंड के जंगल आग से धधक रहे हैं. क्या गढ़वाल क्या कुमाऊं आग जगलों में बराबर है. जैसा की हमारा काम है, इसके लिये वनकर्मियों को गरियाना, हम वही कर रहे हैं. कायदे से अगर देखा जाये तो एक समुदाय के रूप में हम भी इसके लिये काफी हद तक ज़िम्मेदार हैं.
जंगलों से हमने अपना नाता लगभग तोड़ दिया है. हमारे पास के जगंल में आग लगने से हमें फर्क नहीं पड़ता है. इसका एक कारण यह भी है कि बढ़ती आधुनिकता के साथ जंगलों पर हमारी निर्भरता दिन पर दिन कम होती गयी है. जब निर्भरता कम हुई तो हमने जंगलों के बारे में सोचना भी छोड़ दिया.
हम पर्यावरण से कितना दूर हो चुके हैं इस बात का अंदाजा आप आज के अखबारों से लगा लीजिये. आज 30 मई का दिन है. आज ही के दिन 1930 के दिन तिलाड़ी काण्ड हुआ था. तिलाड़ी का यह आन्दोलन उत्तराखंड का ही नहीं वरन पूरे भारत का पहला आंदोलन हैं जिसमें लोगों ने जंगल पर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ी थी. इसके बावजूद आपने आज के अखबारों में तिलाड़ी आन्दोलन को लेकर कोई गंभीर लेख नहीं पढ़ा होगा हां कल के अखबार में आप माला चढ़ाते हुए कुछ तस्वीरें अखबारों के तीसरे चौथे पन्नों में देख सकते हैं.
जंगलों पर स्थानीय लोगों के इस आंदोलन को सरकार भी भूल गयी है. आप राज्य के मुख्यमंत्री का फेसबुक पेज देख सकते हैं उनका ट्विटर अकाउन्ट खंगाल सकते हैं तिलाड़ी पर एक तिल जितना शब्द उनके यहां नहीं फूटा.
यह हमारा दुर्भाग्य है कि जंगलों पर अधिकार से जुड़े इस पहले आंदोलन को हमने भुला दिया. आज जब उत्तराखंड की सरकार वन कानून में बदलाव लाकर हमारे अपने जंगलों में हमारे ही जानवरों को चरने से रोक रही है जब सरकार हमारी ज़मीन को बाहरी लोगों को बेचने के लिये सरल कानून बना रही है हम चुप है. तिलाड़ी आंदोलन आज भी प्रासंगिक है. हम इस पर बात ही नहीं करना चाहते कि तिलाड़ी आंदोलन हमारे लिये कितना प्रांसगिक है क्योंकि अगर तिलाड़ी पर बात होगी तो जंगल पर हमारे अधिकारों पर बात होगी जो हमसे छीने जा चुके हैं.
हम जंगलों से दूर हो रहे हैं जिसका हमें कोई गम नहीं है हम जारी रखेंगे सरकार और सरकार की नीतियों को गरियाना लेकिन कभी अपने गिरेबान में नहीं झांक रहे हैं. फिलहाल जंगलों पर अधिकारों से जुड़े पहले आंदोलन के दौरान हुए तिलाड़ी काण्ड की बर्बरता पर बना एक लोकगीत पढ़िए
ऐंसी गढ़ी पैंसी,
मु न मारया चकरधर मेरी एकात्मा भैंसी.
तिमला को लाबू,
मु न मारया चकरधर मेरो बुड्या बाबू.
भंग को घोट,
क्नु कदु चकरधर रैफलु की चोट.
ल्ुवा गढ़ी कुटी,
कुई मार गोली चकरधर कुई गंगा पडौं छूटी.
वाट्सएप में पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
– गिरीश लोहनी
रंवाई, लोटे की छाप की मुहर और तिलाड़ी कांड
तिलाड़ी काण्ड के अठ्ठासी बरस
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
उत्तराखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय विशेषताएं इसे पारम्परिक व आधुनिक दोनों प्रकार की सेवाओं…
अल्मोड़ा गजेटियर किताब के अनुसार, कुमाऊँ के एक नये राजा के शासनारंभ के समय सबसे…
हमारी वेबसाइट पर हम कथासरित्सागर की कहानियाँ साझा कर रहे हैं. इससे पहले आप "पुष्पदन्त…
आपने यह कहानी पढ़ी "पुष्पदन्त और माल्यवान को मिला श्राप". आज की कहानी में जानते…
बहुत पुराने समय की बात है, एक पंजाबी गाँव में कमला नाम की एक स्त्री…
आज दिसंबर की शुरुआत हो रही है और साल 2025 अपने आखिरी दिनों की तरफ…