पहाड़ में अनेक पेड़-पौंधों से रेशा निकला जाता जिनमें रामबांस, भाँग, बबिला, मालू, मूँज, मोथा, अल, उदाल, धान का पुवाल, गेहूं का नलौ, कुचिया बाजुर, यूका, थाकल मुख्य थे. भाँग के रेशों से खूब नरम और गरम कपड़ा बनाया जाता. भाँग और अल को भिगा कर खूब धोने और चूटने के बाद छिलका उतार लिया जाता व रेशों से न केवल पहनने का कपड़ा बुना जाता बल्कि इसके रेशों से बने धागों से अलग-अलग प्रयोग की सुतली और रस्सियां भी बनती इनसे कुथले और बुदलों या कम्बल बनाये जाते. Natural Fiber Products in Uttarakhand
भाँग का धागा बहुत मजबूत होता है. पुराने कपड़ों को भाँग के धागों से सिल कर उनके खोल भी बनाये जाते जिनमें सेमल की रूई भर कर ओढ़ने बिछाने के गद्दे-रज़ाई बनते. इनके तकिये भी खूब मुलायम गुदगुदे होते. ऐसे ही धान का पुआल भर कर भी गद्दे बनते जो ठंड के मौसम में खूब काम आते. बैठने बिठाने के लिए पिरूल भी डाला जाता.
धान के पुआल और गेहूं के नलौ को बबिला घास, रामबांस और भाँग के रेशों से बनी सुतली, रस्सी के जाल से बांध कर फीणा भी बनता. इनको मानिरा या मिनरा भी कहा जाता है. मोथा घास को भाँग की सुतली से बुन कर मजबूत चटाई बनती.
कुथलिया बौरे द्वारा बनाई भाँग की बोरी, कुथले व कपड़ा खूब चलता. हल्दी की सूखी पीली पत्तियों को बट कर मालू की छाल की रस्सी और नलौ के साथ भी खूब टिकाऊ और मजबूत फीणा बनाया जाता. रामबांस का कृषि यंत्रो में भी उपयोग किया जाता रहा जैसे बैलों के मुंह की जाली जो ‘म्वाल’ या ‘मुहाली’ कहलाती इसी के मज़बूत रेशों से बनती. इसे निंगालु या रिंगाल तथा बांस के रेशों से भी बनाया जाता.
इसी तरह भाँग के रेशों से बनी टाट या चद्दर ‘बुदल’ या ‘बुदव’ बनाई जाती जिससे घास या पत्तल वगैरह सारे जाते. इसके रेशों से बना बोरा या थैला ‘कुथव’, ‘कुथलो’ कहलाता. घासें तराई भाबर से ज्यादा आती जिनमें कांस से टोकरी, सींक से झाड़ू, बेंदू, नल और ताँता से छप्पर, पडेरू व मोथा से चटाई, मूँज से रस्सी बनती. पाली पछाऊं व सल्ट में मजबूत चटाई जिसे मिनिरे कहते, अच्छी बनती.
बांस और रिंगाल का उपयोग पहाड़ के कुटीर उद्योग में बहुतायत से होता रहा. रिंगाल ज्यादा टिकाऊ होता. इनके बाहरी छिलके और डंठल के समान लम्बे टुकड़ों से रोजमर्रा तथा खेती में काम आने वाली अनेक वस्तुएं तैयार की जातीं, जिनके मोड़ या घुघि में जालीनुमा बुनाई के बीच भोजपत्र की छाल के टुकड़े या मालू की पत्तियां लगायी जातीं.
रिंगाल से टोकरी, कंडी, डलिया, डाला, छापरी जैसे छोटे उपयोगी पात्र तो बनते ही, अनाज के संग्रहण के लिए डोका, मोस्टा, पुतका भी बनते. साथ ही गोदा, पसोल्या, थलिया कुरा, फारा, सोजा, टुपर, छत्री, कचयल जैसे अलग-अलग उपयोग में आने वाले पात्र व बर्तन भी बनाये जाते. अनाज साफ करने को सूपा, तमाकू पीने को हुक्के की नली, रंग या पानी फेंकने को पिचकारी, द्वार व खिड़की के परदे या झिड़की भी बनती. Natural Fiber Products in Uttarakhand
बांस निंगवा का डाला टोपरा के साथ बांस की बांसुरी तो प्रसिद्ध थी ही. दानपुर में निंगाल खूब होता . इसकी कलमें भी बनतीं. मसालें (छिलुके) भी अच्छी होतीं. मोस्टे, डबाके, बल्लम, पिटारे, गोदे, सूप आदि भी बनते.
निगाल से ही शौका शगुन के समय काम में लाया जाने वाला ‘कीच मयंङ’ तैयार करते. निंगाल के बारे में कहा गया ‘दातुली काट्यो निगाल हुक्का में छिनकायो’. भडाँव, भेकू, बाबिल, कपास, बांस, निंगाल से रोजमर्रा की कई चीजें बनती. कांस फूस घास झोपड़ी छाने में लगती. कहा गया काँस झोपड़िया में सियाजी विराजे.
मूँज घास से मजबूत रस्सी बनती. जानवरों को बाँधने के साथ अनेक घरेलू कामों में इसका प्रयोग होता. भीमल घास को भी पानी में भिगा उसकी छाल जिसे ‘सेलू’ कहते, से नाड़ा, भेंतुला, दावां बनता जो खेती और जानवरों से जुड़े कामों का सामान होता.
निंगाल और रिंगाल से पुतके भी बनते जिनमें अनाज का भण्डारण किया जाता है. लोहाघाट में इन्हें ‘क्वार्गा’ कहा जाता. पुतका बड़ा गोल कम ऊँचा संकरे मुंह वाला होता जिसे बाहर-भीतर गाय के गोबर से अच्छी तरह लीप दिया जाता जिससे कोई छेद या दरार न रह जाये. बाहर से कोई कीड़ा मकोड़ा न घुसे. इनमें धान, गेहूं, मड़ुआ, मादिरा, भट्ट, मसूर, उड़द, इत्यादि भर देते और निंगाल के बारीक़ जालीदार ढक्कन जो गोबर से पुता होता से बंद कर देते. लकड़ी के तख्तों से बने बक्से को गोबर से लीप पोत कर बने छोटे भकार को ‘कोठि ‘ कहा जाता जिसके तल से एक दो अंगुल ऊपर अनाज नकालने के लिए छेद बना देते.
टोपरी भी बांस की बनी गोल टोकरी होती. इसे ढोका, टोपर या ढोकर भी कहा जाता. अनाज को इसमें भर कर बांस से बना ढक्कन लगा इसे गोबर-मिट्टी से लीप देते. इसे प्रायः रसोई में ही रखा जाता जिससे रसोई से निकलने वाले धुंवे से यह और मजबूत भी हो जाता और छोटे मोटे कीड़े भी इसमें घुस नहीं पाते. टोपरी के ऊपर अखरोट, तिमुर, भांग, पाती, बासिंग, स्याई, पिस्सू घास जैसे पौधों की पत्तियां डाल दी जातीं. नीम और हींग का भी प्रयोग होता. निन्गालु से टोकरी बनती जिसे ‘टोकरि ‘या ‘टोपोरो ‘भी कहा जाता. इसी से बनी डलिया ‘डाललो -डालिे ‘तथा अनाज रखने का भकार ‘पुत्तको ‘-‘पुतुक ‘कहलाता.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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यही है अनुभव और ज्ञान से बना पुल। सार्थक और ज्ञान प्रदक आलेख हेतु सहृदय प्रणाम गुरुदेव