2024 के बजट में प्राकृतिक खेती की तकनीक को एक करोड़ किसानों तक पहुँचाने की नवीनतम घोषणा है. यह उम्मीद की गई है कि देश की अर्थव्यवस्था में खेती किसानी से गुणक व त्वरक प्रभाव उपजें. यह तभी सम्भव होगा जब किसान की उत्पादकता एवं आय बढ़े. पूर्ववत जैविकीय खेती पर निर्भरता की बात कही गई. अब प्राकृतिक खेती पर अवलंबित होने की पहल है. जिससे किसानों की उत्पादन लागत कम होगी बशर्ते उन्हें ऍम एस पी या न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी मिले. सरकार का उद्देश्य खेतिहर क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाना और उनकी क्षमता में विस्तार करना है.
(Natural farming Budget 2024)
कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए पारिस्थितिकी को ध्यान में रखते हुए उपज की किस्में विकसित की जानी होंगी. कृषि की बत्तीस व बागवानी की एक सौ नौ उच्च पैदावार वाली फसलें विकसित की जानी हैं. केंद्र सरकार के द्वारा सस्टेनेबल खेती व रिसर्च को प्रोत्साहित किया जायेगा जिसमें नवीनीकरण व फसल के विविधीकरण किये जाने की योजना है. 2024 के बजट में दस हजार आवश्यता आधारित जैविकी आगत या इनपुट केंद्र स्थापित किये जायेंगे तो चार सौ जिलों में डी. पी. आई. या डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर निर्मित कर खरीफ के मौसम के लिए डिजिटल फसल सर्वेक्षण किया जायेगा. योजना है कि छह करोड़ किसानों की बही और उनकी भूमि का ब्यौरा किसान और भूमि की रजिस्ट्री में दर्ज किया जाये. पांच राज्यों में नये किसान क्रेडिट कार्ड जारी किये जायेंगे.
हरितक्रांति के पुराने दौर के बाद खेती का जो कायाकल्प हुआ उसने अनाज, फल फूल, सब्जी मसाले के उत्पादन में आशातीत असंतुलित वृद्धि की तो नये बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशक का नया पैकेज किसानों की जेब में छेद करने का रास्ता खोला. छोटे और मंझोले किसान के तनाव-दबाव-कसाव बढ़ाए. उनकी माली हालत बदतर होती गई. पुश्तैनी धंधा छोड़ वह कस्बे शहर के असंगठित क्षेत्र में कामगार मजूर की रोजी रोटी पर निर्भर हुए तो इस सिलसिले ने पहाड़ से पलायन जारी रखा. होटलों में भनमजुओं से ले घरों में काम कर गुजारा चलाने वाले पहाड़ी अभी भी कमोबेश बहुतायत से है. साल में कभी पूजा के अवसर पर पर्व त्योहारों में लौट गांव के प्रति मोहासन्न पर,वहां की धरती पर अब परंपरागत बीज, सदियों से बोये गये अन्न की भरमार नहीं है.गांव में अन्न उगाने की पहल को सरकार के बंटे सस्ते राशन ने भी पलीता लगाया है. गांव में अवागमन के रस्ते भले ही अनेकानेक योजनाओं का प्रसाद पाती रहीं हैं पर अब लोगबाग उजाड़ करने वाले थलचरों से आशंकित हैं भले ही वह गूणी, बानर, सुंगर, भालू हों या खनन खड़िया के तमाम इलाका बंजर करने वाले मठाधीश, गांव गांव खुल गईं दारू के ठेके और अब पर्यटन की बेलगाम आंधी. हर साल जंगल सुलगते हैं, बादल फटते हैं आपदा का फण्ड बढ़ता है.विकास का असमंजस चौड़ा होता जाता है.
(Natural farming Budget 2024)
अब अगले दो सालों में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक कृषि से जोड़ने की पहल की जाएगी. ऐसे खेतिहरों को वैज्ञानिक संस्थानों और ग्राम पंचायतों के सहयोग से चयनित किया जायेगा. खाद्यान्न व फसलों में आत्मनिर्भरता लाने का उद्देश्य है जिसके लिए दलहन और तिलहन पर केंद्रीय स्तर पर योजनाएं बनाई जानी हैं जिससे उत्पादकता के साथ आय वृद्धि सुनिश्चित हो तथा उत्पादन, भण्डारण और विपणन की आधारभूत संरचना सुधर सके.
बजट के अनुसार खेती के तौर तरीकों को बढ़ती हुई पर्यावरण चुनौतियों का सामना करने योग्य बनाया जाएगा. आज जलवायु परिवर्तन के साथ कृत्रिम बुद्धिमत्ता के रूप में दो आपस में विरोधी दो परिघटनाएं विस्तार पा रहीं हैं जो खेतिहर को नुकसान पहुँचाती रहेंगी. वित्त मंत्री का कथन है कि सरकार उत्पादकता बढ़ाने व इलाके की पारिस्थितिकी के अनुकूल प्रजातियों के संवर्धन के लिए खेती के अनुसन्धान ढांचे में जरुरी बदलाव करेंगी. अब इसका स्वरुप क्या होगा यह स्पष्ट नहीं है.
अन्नदाता के हितों की चिंता के नाम पर प्राकृतिक खेती की तकनीक पर जोर देना आशा की किरण जगाता है पर यह भी जान-समझ लेना जरुरी है कि इसके मायने क्या हैं? क्या यह जैविक खेती पर चढ़ी नई चाशनी है या वाकई मध्यवर्ती तकनीक पर आधारित वह प्राविधि जिसे शूमाखर बेहतर भी मानते थे और कारगर भी.
(Natural farming Budget 2024)
यह जो प्राकृतिक खेती है इसका चलन परंपरागत है. देश के पर्वतीय इलाकों में सदियों से चली आ रही पुरातन प्राविधि व प्रचलन में रहे देसी बीज के साथ गोबर की खाद व जंगलों की बहुतायत से बनी कम्पोस्ट ने गुणवत्ता के साथ समझौता न होने दिया. इसे दुर्भाग्य ही समझिये कि जैसे जैसे जैविकीय व ऑर्गनिक को ब्रांड नाम मिलना शुरू हुआ इसके नाम से बाजार पट गये. इनकी कीमत बेतहाशा बढ़ी और मुनाफा कंपनियों के खाते में गया. इनको उगाने वाला किसान आज भी हाशिये में है.
सुभाष पालेकर जो कृषि विशेषज्ञ हैं यह संकल्पना लेते हैं कि प्राकृतिक खेती नाम की कोई तकनीक कहीं नहीं है. उनका दावा है कि प्राकृतिक खेती एक भ्रामक नाम है. उनके हिसाब से प्राकृतिक का अर्थ तो यह है कि प्रकृति में जो अस्तित्व में है. जिस खेती की प्रणाली को सरकार प्राकृतिक खेती कहती है वह सही अर्थ में प्राकृतिक नहीं है क्योंकि इसमें अन्तरवर्ती कृषि पद्धति के साथ आच्छादन, वाफ्सा, घन जीवामृत, जीवामृत व बीजामृत की श्रृंखला जुड़ी होती है.
जितनी भी खेती की तकनीकें प्रचलन में हैं उनमें भूमि की जुताई, बीज की बुवाई, रोपाई, निराई-गुड़ाई, सिंचाई, छिड़काव और फसल कटाई की विविध क्रियाऐं संपन्न की जाती हैं. पर प्राकृतिक कृषि में इनमें से कोई कार्य नहीं होता.सुभाष पालेकर इन सभी आदान -प्रदान व आरोपित तकनीक के संयोग को “पालेकर कृषि” के नामकरण से विभूषित करते हैं.
1970 के दशक में पहाड़ में होने वाली खेती का सार्थक मॉडल कृषि विशेषज्ञ पद्मश्री स्वामी माधवा शीष ने मिर्तोला आश्रम, पनवानौला, अल्मोड़ा में प्रायोगिक रूप से किया. उनके साथ थे पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक प्रोफेसर शंकरलाल साह. इसी सन्दर्भ में धारक क्षमता (कैर्रीइंग कैपेसिटी) का प्रायोगिक प्रारूप विकसित हुआ जिसकी संकल्पना डॉ जैकसन की थी. उन्होंने स्पष्ट किया कि किसी भी इलाके में उपज का निर्धारण करते हुए उस इलाके की धारणीय क्षमता को ध्यान में रखने के साथ वहां के अवलम्बन क्षेत्र सघनता व गहनता को ध्यान में रखा जाना जरुरी है.
डॉ जैकसन ने अल्मोड़ा जनपद के लिए इसकी केस स्टडी कर इसे अनुभव सिद्ध अवलोकन कर पुष्ट भी किया था. डॉ बोसी सेन जैसे वैज्ञानिक का काम भी उच्च इलाके की खेती की समझ विकसित करतीं थी जिनकी प्रयोगशाला तदन्तर विवेकानंद कृषि अनुसन्धानशाला के रूप में विकसित हुई जिसके वैज्ञानिकों में जगदीश चंद्र भट्ट ने बारहमासा खेती के अनुकूल कई प्रजातियों के संरक्षण संवर्धन पर खूब काम किया तो रानीचौरी में डॉ वीर सिंह ने. हर बार सीमा रेखा यही खिंची रही कि आम खेतिहर तक व्यापक रूप से यह कारगर सोच पहुँच न पाई. जिनके पास अपने परंपरागत बीज व इन्हें उगाने का हुनर था वह पीढ़ी ही गुजर गई. अब बीज, खाद व कीटनाशक का विस्तृत ढांचा और बड़ी कंपनियों की लूट ने छोटे व मझोले किसान पर जीवन निर्वाह खेती का आसरा भी संकुचित कर दिया.
(Natural farming Budget 2024)
अब शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में भूमि सुधार के कार्य अगले तीन वर्षों में समुचित राज सहायता प्रदान कर संपन्न किये जाने हैं ग्रामीण इलाकों में भूमि सुधार के लिए सभी तरह की भूमि के लिए यूएलपीआईएन या विशिष्ट भूमि पार्सल पहचान संख्या जिसे भूमि आधार का आवंटन, संवर्गीय मानचित्रों का डिजिटलीकरण,मानचित्र उप विभाजनों का सर्वे, भूमि की और किसान बही का पंजीकरण करना जरुरी समझा गया है. ऐसी व्यवस्था से अन्य कृषि सेवाएं गति प्राप्त करेंगी और ऋण प्रवाह बढेगा.
2024 के बजट में खेती व तत्संबंधित क्रियाओं में 1.52 लाख करोड़ रूपये की रकम के व्यय की गुंजाईश रखी गई है. इसके अधीन बनी योजनाएँ व कार्यक्रम किस सीमा तक अंतिम लाभार्थी तक पहुँचती हैं इसके क्रियान्वयन पर ही प्राकृतिक खेती के सबल व समुन्नत होने की गुंजाईश बनेगी. साथ ही भौगोलिक रूप से विषम दशाओं में नीतियों के समायोजन में पर्याप्त लोचशीलता बनाये रखनी भी जरुरी होगी. जो कार्यक्रम पहले से चलाये जा रहे हैं उनके साथ भी सामंजस्य बनाये रखने के क्या प्राविधान हैं यह भी स्पष्ट होना जरुरी है. वित्त मंत्री की धारणा है कि वह एक करोड़ किसानों तक प्राकृतिक खेती की तकनीक को पहुँचा देगी.
असमंजस यह है कि कई लोक लुभावन कार्यक्रम जिस तरह स्पष्ट रणनीतियों के अभाव से चरमराते रहे और उनको जारी फण्ड लाभार्थी से इतर अन्य ओनों-कोनों तक जा पहुंचे, क्या वह सिलसिला जारी थमेगा. अब किसान को मिलने वाली इस योजना से सुविचारित रूप से उसे लाभ पहुंच कृषि की गुणवत्ता में कैसे सुधार होगा इसकी नीति स्पष्ट नहीं है. इधर बहुत स्पष्ट रूप से यह देखा जा रहा है कि श्री अन्न योजना में शामिल खाद्यान्न की कीमतें नगर महानगर के ब्रांडेड बाजार तक पहुँच अनाप शनाप कीमत पर बिक रहीं. किसानों की समर्थित मूल्य यानी एमएसपी भले ही तय होने में लाख बखेड़े हों पर बढ़िया पैकिंग के साथ छपी कीमत उपभोक्ता को ठगने के लिए तत्पर रही है.साथ ही किसानों द्वारा खेती में प्रयुक्त आदाऐं भी इनके चंगुल में बुरी तरह फंसी हैं.
(Natural farming Budget 2024)
सवाल यह भी है कि ग्रामीण स्तर पर काम करने वाला पारम्परिक नौकरशाह अमला क्या इतना कुशल है कि वह इस नवीन सोच भरी किसान हित योजना के साथ अन्न व अन्य जिंसों की गुणवत्ता बनाये बचाये रखने में समर्थ होगी ?कहने को तो देश-विदेश से फंडिंग लिए गैर सरकारी संगठन व वालंटियर्स समूह की फौज मौजूद है पर सवाल यह है कि ऐसे कार्यक्रमों को सरकारी दबाव या सहयोग के साथ लागू करने की उनकी समर्थ दशा क्या दृश्य या फीजेबल सोलुशन दे पायेगी? प्राकृतिक खेती का इतना बड़ा कार्यक्रम बिना जन सहयोग के नहीं चल सकेगा और यह भी ध्यान में रखना होगा कि विपक्ष की राज्य सरकारें इसे किस तरह लागू करेंगी. फिर कुलक किसान हैं जो खेती के यंत्री करण व मंहगी आदाओं के बूते अन्न भंडार भरने में सक्षम हैं. क्या वह खेती के इस बुनियादी आर्गेनिक ढांचे की ओर आकर्षित होंगे? जिस तरह कुलक किसान आंदोलन हुआ उसके प्रदर्शन प्रभाव ने आम खेतिहर किसान को बुनियादी मुद्दों से ही भटका दिया. अब नये बजट में कृषि और उत्पादकता के लचीले पन का जिक्र भी रेखांकित है. परन्तु ऐसी किसी रचनात्मक पहल का जिक्र नहीं है जिससे प्राकृतिक खेती अपने निहितार्थ को पाने में सक्षम बने. रूसो का यह विचार था कि प्राकृतिक मनुष्य की अवधारणा बड़ी स्वाभाविक है, यह प्राकृतिक मनुष्य ही है जो पूर्ण आनंदमय जीवन जीता है और पूर्ण स्वतंत्र, संतुष्ट व आत्मनिर्भरता का जीवन जीता है. इसी आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना योजना विभाग के उन दस्तावेजों में खुली इबारत की तरह पढ़ी जा सकती है जिसमें कृषि प्रधान भारतीय अर्थ तंत्र के प्रारूप विकसित हुए जो कभी हैरोड-डोमर पर आधारित थे तो फिर महालनोबीस से सुखमय चक्रवर्ती तक किये गये मात्रात्मक परिकलन पर. अमर्त्य सेन का फलसफा था कि विकास की प्रक्रिया के साथ विषमता फलती फूलती है. नई तकनीक, निजी संपत्ति, श्रम विभाजन इत्यादि के आविर्भाव से प्राकृतिक समानता और स्वतंत्रता लुप्त होती जाती है. मार्कयूजे का कहना था कि ये जो आधुनिक प्रोद्योगिक समाज है उसने एक मिथ्या चेतना को बढ़ावा दे अपना शिकंजा कसा है जो भय और उपभोक्तावाद पर आधारित है.
प्राकृतिक खेती का बिम्ब तो यह बनता है जिसमें खेतिहर हर ऋतू का पर्व त्यौहार मना स्वागत करता है. फसल के होने पर उत्सव मनाता है. रोपाई करते हुड़का बौल की थाप व स्वर गूंजते हैं, क्या ऐसी रसानुभूति कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा सुझाई उस तकनीकी जटिलता से संभव है जिसकी आड़ में बड़े भूस्वामी कॉर्पोरेट खेती का पथ चुन चुके हैं जहाँ मनुष्य प्रकृति से पराया हो जाता है. अब प्रकृति के रमणीक दृश्य नहीं हैं, बंधे बंधाए इनपुट-आउटपुट संयोग पर चलने की मज़बूरी है, एकरसता है, बेगानापन है. न स्वामित्व है और न ही स्वतंत्रता. यह विचार भी बेमानी है कि खेती किसानी प्राकृतिक जीवन शैली है. अब तो पूंजी और संपत्ति का निजी स्वामित्व है.
प्राकृतिक खेती की इस नई योजना में किसान फसल उगाने के लिए बाजार से किन आदाओं को खरीदेंगे? खेती का वह परंपरागत स्वरुप तो विगलित हो गया है जिसके अंतर्गत किसान के पास अपने बीज होते थे जो उस इलाके के परिवेश में बेहतर उपज देने व गुणवत्ता युक्त अन्न की आपूर्ति में सक्षम होते थे. साथ में ग्रामीण परिवेश में पशुधन से प्राप्त खाद व कम्पोस्ट उसे गुणवत्ता युक्त बनाने में अहम भूमिका का निर्वाह करती थी तो रासायनिक खाद व कीटनाशकों की जरुरत भी न पड़ती थी. जैसे जैसे नई तकनीक से जुडी आदा का प्रयोग बढ़ा खेत में पानी की मात्रा भी ज्यादा पड़ी तो भू जल का दोहन बढ़ा. पहाड़ में चाल -खाल का चलन था जिसके दायरे नये बीज -खाद -कीटनाशक के उपयोग से संकुचित होते गये. अब जिस प्राकृतिक खेती का जिक्र बजट में किया जा रहा है क्या उसके अधीन जैविकीय आदाऐं क्रय करने के लिए किसान की बाजार पर निर्भरता नहीं रहेगी? क्या ग्रामीण क्षेत्र के किसान शहर में होने वाली मांग की आपूर्ति बिचौलियों व मंडी की लूटपाट से बच कर कर पाने का अवसर प्राप्त कर पाएंगे? यह यक्ष प्रश्न है.
श्री अन्न के साथ सब्जी, मसाले व अन्य कृषि खाद्य पदार्थों का मूल्य किसान व उपभोक्ता दोनों मिल का सुनिश्चित करेंगे इसके प्राविधान भी सुनिश्चित करने होंगे.
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अभी तो यह दशा बहुत शोचनीय है क्योंकि लगातार अन्न के साथ सब्जी की कीमतों में भारी वृद्धि होती रही है. पुनः इस बेलगाम वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए इनके उत्पादन व आपूर्ति श्रृंखलाओं हेतु क्लस्टर योजना पुनः दोहराई जा रही है. इसकी मुख्य कड़ियाँ किसान उत्पादन संगठन, सहकारी समितियां और स्टार्टअप को बढ़ावा देने के प्रारूप होंगे. इस दिशा में नाबार्ड की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी.
कृषि व अन्य संबधित क्षेत्रों में 2022-23 में 1.24 लाख करोड़ रूपये का आवंटन किया गया जो 2023-24 में 1.25 लाख करोड़ व 2024-25 में 1.52 लाख करोड़ रूपये रहा पर 2024 के बजट में ग्रामीण विकास पर आवंटित व्यय से लगभग पांच गुना अधिक शहरी विनियोग है. वास्तविकता तो यह है कि देश में साढ़े छह लाख से अधिक गांव हैं जहाँ शहर में होने वाले उपभोग की वस्तु व मदें उत्पादित होतीं हैं. शहरों में वस्तु रूपान्तरण होता है, क्रय – विक्रय होता है. बजट में खेती की उपज की आपूर्ति श्रृंखला को वरीयता दी गई है. यह बात ध्यान में रखनी जरुरी है कि जिन इलाकों में कृषि उत्पाद उत्पन्न होते हैं जब तक उन गावों में इनकी खरीद की प्रक्रिया सुनिश्चित नहीं होगी तब तक मंझोला व सीमांत किसान शोषण का शिकार होता रहेगा.
2024 के वित्तीय वर्ष में सरकार की योजना है कि वह चार सौ जिलों में डी पी आई या डिजिटल सार्वजनिक अंतरसंरचना के द्वारा खरीफ के मौसम के लिए डिजिटल फसल सर्वेक्षण करेगी. ऐसा करते हुए छह करोड़ किसानों और उनकी भूमि के विवरण को डिजिटल रूप से पंजीकृत व दर्ज किया जायेगा. पांच राज्यों में कृषि क्षेत्र में वित्तीय सहायता देने के लिए किसान क्रेडिट कार्ड प्रदान किये जायेंगे.
राजकोष को ध्यान में रख बाजार में विनियोग बढ़ाने पर जोर है आखिरकार खाद्यान्न सहित कृषि उत्पादों, दूध फल सब्जी मसाले व इनसे निर्मित पदार्थो की सकल मांग बढ़े बिना आपूर्ति की कोशिश असमंजस ही उत्पन्न करेंगी. गड़बड़ी यह है कि सरकार एक ओर बाजार में विनियोग गुणक के जारी रहने की पुरजोर कोशिश का दम भरती है तो वहीं कर के ढांचे में जो बदलाव किये गये हैं उनका समर्थ मांग पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा .
बजट के आरम्भ में ही चेताया गया है कि देश के सामने विश्व स्तर पर उभर रही आर्थिक अनिश्चितता है तो मुद्रा प्रसार का संकट भी उभर रहा है. ऐसे जोखिम के बीच उपभोक्ता मांग में विस्तार होना जरुरी है जिसके लिए घरेलू विनियोग तो बढ़ाने ही होंगे साथ ही टिकाऊ ऋणों का बढ़ता हुआ सामंजस्य जरुरी होगा जिससे अर्थव्यवस्था स्थायित्व की दशा में रहे. इसके लिए जिन प्राथमिकताओं को चुना गया है उसमें अंतरसंरचना का विकास, ऊर्जा उत्पादन में सुधार, शहरी विकास, नवाचार और सुधार, सामाजिक न्याय, द्वितीयक व तृतीयक क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि, प्राथमिक क्षेत्र यानी कृषि में खेतिहरों की अधिक संलग्नता व ग्रामीण विकास की परियोजनाओं व प्राकृतिक खेती पर मुख्य रूप से निर्भर रहने का रुझान है.
उत्पादकता के साथ आय वृद्धि का संयोजन वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों में इस कारण भी प्रकट अधिमान का विषय है क्योंकि बढ़ती हुई बेकारी के निवारण के लिए सरकारी स्तर पर ठोस और समर्थ प्रयास नहीं हुए हैं. 2024 के बजट में पंप प्राइमिंग के रूप में रोजगार बढ़ाने और निजी क्षेत्र में इसके विस्तार के लिए कौशल विकास के साथ लघु, सूक्ष्म व मध्यम स्तर के उपक्रमों को प्राथमिकता देते हुए समावेशी विकास व सामाजिक विकास की संरचना को मजबूती देने का प्राविधान किया गया है.
अभी बेरोजगारी का स्वरुप जटिल है, यह मौसमी व चक्रीय तो है ही जिससे दर्शन ग्रामीण व क़स्बाई इलाके में होते हैं. गांव में चलाई जा रही रोजगार गारंटी योजनाएं भी उन उद्देश्यों का सबल निर्वाह नहीं कर पाईं हैं जिनसे अंतरसंरचना मजबूत होती और वर्ष में नियत समय रोजगार की गारंटी रहती. अब कौशल विकास, परिस्थितिकी और रोजगार को ध्यान में रख एक नई केंद्रीय योजना को सामने लाया गया है जो उद्योग जगत व राज्य सरकारों के सहयोग से युवाओं को कौशल का प्रशिक्षण देंगी.
(Natural farming Budget 2024)
प्राकृतिक खेती का अवलम्ब उन दीर्घकालिक सुधारों की श्रृंखलाओं से संयोजित है जिनका सीधा सम्बन्ध भूमि, श्रम, पूंजी, केंद्र व राज्य के मध्य निहित संबंध और बेहतर व कारगर प्रोद्योगिकी के उपयोग पर निर्भर करता है. जलवायु परिवर्तन की हालिया घटनाएं भविष्य के लिए भारी खतरे का संकेत भी देती हैं तो इनका समाधान भी अल्पकालिक जोड़तोड़ से संभव नहीं. लगातार रासायनिक पदार्थों के उपयोग से भूमि की गुणवत्ता भी प्रदूषित हुई है तो भूमिगत जल के स्त्रोत सिकुड़ रहे हैं. भूमि से सम्बंधित जितने भी सुधार हैं उनका निर्वहन राज्य सरकारों के जिम्मे है. संविधान की सातवीं सूची के अनुसार भूमि पर अधिकार, स्वामित्व, लगान व किराये का संग्रह, कृषि भूमि का हस्तान्तरण व भूमि सुधार राज्य के अधिकार क्षेत्र में आते हैं. यह सुधार तब संभव होंगे जब केंद्र इनके प्रभावी निष्पादन के लिए राज्य सरकारों के साथ व्यापक परामर्श प्रक्रिया में संलग्न होगा.
ग्रामीण भारत में खेती किसानी, सब्जी पशुपालन में महिलाओं की मुख्य हिस्सेदारी है जिनमें नई पीढ़ी अब प्राथमिक कामों से आगे बढ़ सूक्ष्म, मध्यम व लघु उद्योग में अपनी संलग्नता प्रभावी रूप से सुनिश्चित कर रहीं हैं. महिला उद्यमियों के लिए नई क्रेडिट गारंटी योजना से उन्हें अब ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में मशीनरी व उपकरण क्रय करने के लिए साविधि ऋण सुगमता से मिल सकेगा. अब मुद्रा लोन की सीमा भी तरुण श्रेणी के लिए बढ़ा दी गई है तो औसत ऋण का आकार भी. ग्रामीण इलाकों में खाद्य प्रसंस्करण व अन्य लघु विनिर्माण इकाईयों की स्थापना में उनका सक्रिय योगदान और बढ़ सकता है. गैर कृषि लघु व छोटी इकाईयों के लिए मुद्रा लोन योजना है ही. महिला उद्यमियों के वित्तीय मार्गदर्शन, ऋण व विनियोग की परेशानियों के उपचार के लिए सिडबी की नई शाखाओं का विस्तार भी किया गया है.पी पी पी या सार्वजनिक निजी भागीदारी के अधीन कढ़ाई, मिट्टी के बर्तन व धातु शिल्प जैसे ग्रामीण इलाकों में स्थापित उपक्रम भी ग्रामीण शिक्षित महिलाओं के लिए खेती के साथ सहायक रोजगार में प्रभावी भूमिका का निर्वाह कर उत्पादकता व आय वृद्धि के स्टेटस को ऊँचा उठा उनके परिवार के जीवन स्तर में अभिवृद्धि करने में प्रभावी भूमिका का निर्वाह करेगा.
रोजगार और उपक्रम निर्माण को वरीयता देने के साथ कामकाजी महिलाओं के लिए कौशल विकास के कई कार्यक्रम हैं जिनसे उन्हें विकास की भागीदारी में सबल प्रोत्साहन मिलेगा.
ग्रामीण भारत में प्राकृतिक खेती के अवलम्ब के साथ महिलाओं को समुचित प्रशिक्षण प्रदान कर, वित्तीय सहायता दे उनका सशक्तिकरण एक प्रभावी उपाय है. नये उपक्रम स्थापित करने के लिए सरकार ने बजट में जो प्राविधान रखे हैं उनके प्रभावपूर्ण निष्पादन के लिए विभिन्न स्तरों पर तालमेल व सामंजस्य जरुरी है. सबसे पहले तो इनको जमीनी स्तर पर क्रियान्वित करने की जरुरत है जिसके लिए सरकारी तंत्र को ऐसा लचीला रुख अपनाना पड़ेगा जिससे वह निजी संस्थानों और गैर सरकारी संगठन के साथ मिल-भेंट कर मानव विकास सूचचांक को उन दिशाओं की ओर ओर प्रेरित करें जो आत्मनिर्भर विकास से संयोजित हों. बुनियादी रूप से खेती व उसके सहायक उपक्रमों पर उच्च प्रतिमान एक बेहतर कदम तो है ही.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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