आज से हजार साल पहले का जापान उल्लेखनीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण से गुज़र रहा था. आर्थिक सम्पन्नता के उस दौर में, ख़ास तौर पर स्त्रियों के विकसित सौन्दर्यबोध को उनका नैतिक गुण माना जाता था. सुन्दर हस्तलेख, रोज़मर्रा के अनुभव को चार पंक्तियों की कविता में ढाल लेना, असल रेशम और विदेशी मसालों की पहचान कर पाना और किसी भी विषय पर वार्तालाप कर सकना जैसी चीज़ें जापान के भद्रलोक की स्त्रियों के लिए वांछित गुण समझे जाते थे.
(Murasaki Shikibu Hindi)
वह ऐसा समय था जब जापान में हज़ारों की संख्या में महिलाएं घरेलू और भावुक विषयवस्तुओं पर कविताएं और नाटक लिख रही थीं. उनका मकसद ऊंचे ओहदों पर बैठे अपने पतियों और उनके दोस्तों का मनोरंजन करना होता था. फिक्शन को साहित्य की सबसे घटिया चीज माना जाता था. सामाजिक स्थिति ऐसी थी कि इन स्त्रियों अपने स्वतंत्र नाम से नहीं अपने पिता-पतियों के नामों से जाना जाता था. वे पैदा होते ही बेनाम हो जाती थीं.
ऐसे में एक स्त्री जिसे अब उसी के रचे पात्र मुरासाकी शिकिबू के नाम से जाना जाता है, ने उस काल की जापानी स्त्रियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली ख़ास तरह की रोज़मर्रा ज़बान में तेरह सौ पन्नों का एक महाकाव्यात्मक उपन्यास रच डाला. करीब सौ साल पहले तक दुनिया उसके बारे में जानती तक न थी. 1925 में वर्जीनिया वूल्फ ने आर्थर वेली द्वारा किये गए उस उपन्यास के अंग्रेज़ी अनुवाद का रिव्यू न लिखा होता तो शायद ‘द टेल ऑफ़ गेन्जी’ को आज भी लोग नहीं जानते.
‘द टेल ऑफ़ गेन्जी’ क्योटो के एक राजपरिवार के सदस्य हिकारू गेन्जी की जीवनगाथा है. बुद्धिमान और सुदर्शन गेन्जी महिलाओं का चहेता है और उसके अनेक स्त्रियों से शारीरिक-संवेदनात्मक सम्बन्ध हैं. एक ख़ास तरह से विद्रोही स्वाभाव के गेन्जी के इन तमाम जटिल रूमानी सम्बन्धों की तफसीलों से होता हुआ उपन्यास प्रौढ़ावस्था में उसके मानसिक-भावनात्मक त्रास और उदासी का दस्तावेज है. अपनी सबसे प्रिय स्त्री मुरासाकी के चले जाने के बाद वह भिक्षु बन जाता है. उपन्यास को उसकी मृत्यु पर समाप्त हो जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं होता. किताब का आख़िरी चौथाई हिस्सा नियोऊ और कियारू नाम के प्रेमियों को समर्पित होने के बाद अचानक ख़त्म हो जाता है.
जापानी भाषा में एक शानदार शब्दपद है – मोनो-नो-आवारे. इसका मतलब हुआ सुन्दर चीजों में अन्तर्निहित करुणा और उदासी. जापानी सभ्यता में संसार के इस गुण को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. जीवन की क्षणभंगुरता के अहसास से उपजने वाली इस भावना को जापानी कला के सारे प्रतिनिधि रूप-प्रारूपों में देखा जा सकता है. अकीरा कुरोसावा या यासुजीरो ओजू की फ़िल्में हों, मात्सुओ बाशो या शुन्तारो तानीकावा की कविताओं हों, पेस्टल रंगों से बने फूल-पत्तियां हों या कात्सुशिका होकूसाई जैसे उस्ताद चित्रकार की रचनाएं – इस करुणा और उदासी को हर जगह देखा जा सकता है.
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कहना न होगा, ‘द टेल ऑफ़ गेन्जी’ का एक-एक पन्ना इस अहसास से भरपूर है. नैरेटिव आर्ट का मास्टरपीस माने जाने वाले इस उपन्यास के संसार में एक शानदार मीठा नोस्टाल्जिया है जिससे गुजरते हुए आपके होंठ मुस्कराते हैं लेकिन गला रुंधा रहता है. केवल स्मृतियों की मदद से बुना गया यह आख्यान इस कदर बांधे रखता है.
जापानी स्वर्णकाल के इस अनूठे दस्तावेज़ के भीतर घटनाएं यूं घटती हैं जैसे फूल-पत्तियों के चित्रों से सजी, खिसकाई जा सकने वाली वे स्क्रीनें बार-बार खुल-बंद हो रही हों जिन्हें आपने फिल्मों में दिखाए जाने वाले जापानी घरों में अवश्य देखा होगा. मुलायम रंगों और हाथों से बनाए गए किसी खूबसूरत चित्र की तरह ‘द टेल ऑफ़ गेन्जी’ में उस समय के जापान की अद्वितीय परम्पराओं के दीदार होते हैं – समूह बना कर बर्फ देखने जाना, अगरबत्ती बनाने की प्रतियोगिता, मछुआरों के जीवन की सादगी, तितलियों और पक्षियों के नृत्य के अनुष्ठान और न जाने क्या-क्या.
बहुत सारी औरतें हैं, उनके रेशमी वस्त्रों की सरसराहट है. भारी परदे हैं. फूल-बगीचों और पुराने खंडहरों के बीच उनका अकेला रोना है. गेन्जी के साथ केवल एक रात बिताने आई एक स्त्री बगैर शिकायत किये अपने एक पिछले ग्राहक के बारे में कहती है, “ऊजी के राजकुमार शानदार और भावुक सज्जन थे. उन्होंने मेरे साथ ऐसा सुलूक किया जैसे कि मैं किसी इंसान से कमतर होऊं.”
एंजेला कार्टर कहती हैं सपने के भीतर देखे गए किसी सपने सरीखी इस किताब में सब कुछ है बस उम्मीद नहीं है. ‘द टेल ऑफ़ गेन्जी’ लिखने वाली वह औरत अलबत्ता उम्मीद का महासागर रही होगी. मनुष्य-मनोविज्ञान के बारीक रेशों के तानेबाने से तेरह सौ पन्नों की कहानी बुन सकना मज़ाक नहीं होता. दुनिया का पहला उपन्यास लिख रहे हों तब तो और भी नहीं.
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