मुक्तिनाथ मंदिर झोंग खोला घाटी के शीर्ष में स्थित है. यही झोंगखोला घाटी सामान्यतः मुक्तिनाथ घाटी के नाम से अपनी अलग पहचान बनाती है. झोंगखोला और काली गँडकी नदी के मध्य में जॉमसोम से आधे दिन की लगातार यात्रा के बाद आता है कागबेनी जिसमें हिम से ढकी चोटियां हैं. उससे लगी सटी सामने से देखने पर पर्त दर पर्त बनाती वृक्ष रहित चट्टाने हैं जिनके बीच कहीं झाड़ियों का समूह दिखता है तो कहीं छितराई सी घास और कँटीली वनस्पति. आश्चर्य तो यह है कि कागबेनी का यह परिदृश्य हरियाली के ऐसे रूप को दिखाता है जहां घने वन नहीं हैं, पहाड़ी में उगे पेड़ नहीं हैं. जहां पहाड़ की तलहटी है वहां चौड़े पाट के साथ काली गँडकी बहती है, बिल्कुल शांत -स्थिर गति से जिसका रंग दूर से काला दिखाई देता है.
(Muktinath Nepal Temple)
कागबेनी में एक प्राचीन काफी बड़ा गोम्पा है और एक बहुत पुराने किले के ध्वँसावशेष भी. उच्च मुस्ताँग और मुक्तिनाथ की पैदल यात्रा का यह मार्ग अपने आप में इसलिए अनूठा है कि यहाँ हर मोड़ से नीचे घाटी में झाँकते घाटी में चौरस तिकोने खेत दिखाई देते हैं. इनमें अनेक सुर्ख रंगों से उगी फसल और भेषज प्रकृति के अनोखे सौंदर्य बोध को लगातार देखने की ललक जगाते हैं पर ज्यादा देर तक नहीं क्योंकि अभी हवा शांत ठंडी बयार सी है तो अगले ही पल वह गालों में थपेड़े लगाती कहेगी चलो आगे बढ़ो, तुम्हारी मंजिल अभी बहुत दूर है.
पोखरा से मुस्ताँग घाटी में प्रवेश करने के लिए एक ओर एक सौ पिछत्तर किलोमीटर की यात्रा की जाती है. इसमें से आधी से अधिक यात्रा आरम्भ में बड़ी मन भावन है तो अचानक ही जब यह सड़क पंद्रह से पचपन डिग्री के चढ़ाव -उतार में हिचकोले खाती है तो श्रद्धालु भक्त जन शिव नाम -विष्णु नाम का जाप करने लगते हैं. बुद्ध की शरण में तथागत का ध्यान होता है. यहाँ सबसे अधिक महेंद्रा चलतीं हैं तो छोटी बस भी जो सब भारत निर्मित हैं बस कुछ की बॉडी गोल्डस्टार की बनी दिखती हैं. रास्तों में पास देने व हॉर्न बजाने का रिवाज नहीं. बस नौसीखिए ही हॉर्न बजाते हैं तो बजाते रहें. सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह कि ऐसी गड्ढे व धूल से भरी सड़कों में खूब तेज रफ़्तार मोटर साइकिल हवाबाजी करतीं हैं तो स्कूटी ले चली यहां की बालाओं के साहस को सलाम करने को भी आप बाध्य हो जायेंगे.
पोखरा से आगे सड़क लगातार बन रही है. नीली वर्दी वाले प्रहरी हाथ में वाकी -टाकी पकड़े रोड के बारे में खुसपुसाते भी दिखते हैं. स्थानीय मजदूरों की कमी नहीं तो कई रास्तों में उन्हें निर्देश देने वाले जो पीली जैकेट पहने हैं उनमें चीनी भाषा में कुछ प्रिंट दिखता है. नेपाल की इस पोखरा वाली सड़क के निर्माण में भारत बड़ा सहयोगी रहा है तो चीन भी अपना प्रभुत्व बनाए रखने में पीछे नहीं रहता पर अपनी शर्तों के साथ.
मुक्ति नाथ मंदिर तक मोटर सड़क बना देने के विलक्षण प्रयास के साथ यहाँ आने वाले पर्यटक बरसात खतम होने के साथ आना शुरू हो जाते हैं. इनमें पैदल चलने वाले साधु सन्यासी संत भी हैं तो अपनी भारी जेब से सुविधाओं को हासिल करने वाले पर्यटक भी जिनके लिए काठमांडू व पोखरा में हर फैसिलिटी उपलब्ध कराने वाले टूरिज्म कॉउंसलिंग सेंटर गली गली मौजूद हैं. जहां तक बियर वाइन व हार्ड ड्रिंक की बात है तो उसकी तो इफरात है.
(Muktinath Nepal Temple)
अमूमन हर स्टोर हर दुकान पर उपलब्ध. विदेशी स्वाद के ब्रेकफास्ट, ब्रँच, लंच-डिनर के साथ नेपाली थाली, बकरा, मुर्गा, बीफ और उच्च हिमाल के पशुओं का सूखा मीट तो मारवाड़ी शुद्ध वैष्णव भोजनालय भी. भोजन और खानपान की कीमत बेहद महंगी यहां तक कि आम जरूरत की चीजें भी. यह सोचना तंग करता है कि आम आदमी अपना गुजारा कैसे करता होगा. मुक्तिनाथ तक आते आते हर चीज अठगुनी दस गुनी महंगी कैसे हो जाती है इसे देखने अभी बहुत सफर बाकी है.
पोखरा से चलते उत्तर में जो काली गँड़की घाटी है वह यहाँ के अन्नपूर्णा क्षेत्र में समाहित है. काली गँड़की नदी दुनिया की उन नदियों में एक है जिसने अपने बहाव इलाके में गहरे से गहरे गोर्जेज काटे हैं. काली गँड़की नदी की गहरी घाटी और इसके उच्च पर्वत शिखरों के साथ अपने तिकोने स्वरूप में अन्नपूर्णा के दर्शन अपने भव्य रूप में पोखरा से ही किया जा सकता है. भोर होने से पहले चन्द्रमा की रोशनी हो या फिर सुरमई उजाला सूर्य के अस्त होने का झिलमिलापन अन्नपूर्णा में अपूर्व सम्मोहन है.
इस विशाल अन्नपूर्णा की विस्तार में फैली चोटियों ने यहां की बसासत को विविधता पूर्ण एथनिक ग्रुप व टेरेन से सुसज्जित किया है जिसमें सम शीतोष्ण जंगलों से ऊपर रूखी मरु सी दिखती विशाल चट्टानें हैं जो तिब्बतियन प्लेटू से मेल खातीं हैं. यहाँ की पवन कभी तो बस शांत बयार सी थपकी देती है तो कुछ ही समय में इतनी तेज होती हैं कि अपने पाँव-अपनी टेक पर भरोसा नहीं होता कि वह शरीर को संभालने में समर्थ भी होगा या नहीं.वायु का मंद स्पंदन व तीव्र प्रकोप के अनुभव सिद्ध अवलोकन के लिए जॉमसोम से मुक्तिनाथ का यह ट्रेक हमेशा रहने बसने वाली स्मृति का ऐसा ही उपहार देती है. अब यह उस धैर्य की परीक्षा पर निर्भर है कि ऐसे मौकों पर खुली हवा में निकलने का साहस संजोया जाये.
मुस्तँग के गाँव सब तिब्बती शैली में सपाट छतों वाले मकानों जिनकी छतों में लकड़ी को एक से आकार में काट बिछा दिया जाता है. सबसे नीचे की परतें बिल्कुल कोयले सी काली दिखती हैं पता नहीं कितने सालों दशकों से बिछी हैं. पत्थर के बने और बिना चिनाई वाले इन मकानों के गिर्द अद्भुत अपूर्व सज्जा वाली मोनेस्टरी हैं जिनका अलग ही आभा मण्डल है.
मुस्तँग में वृक्ष विहीन उच्च चट्टानों की तल्हटी व छोटी घाटी वाले इलाकों में जो गांव बसे हैं वह सब तिब्बती शैली में बने हैं और उनकी छतें सपात चौरस आयतकार है जबकि पोखरा से मुक्तिनाथ की घाटी को चलते हुए दस घंटे की उबड़-खाबड़ यात्रा में सड़क के किनारे व दूर बस्तियों में जो मकान हैं उनकी छतें ढालू हैं. यहां पहुँच ही यह एहसास होता है कि यात्रा के अनवरत सैलाब के चलते यात्रा पथ से छिटके इन गावों में तिब्बती समुदाय अपनी सहजता से जीवन यापन करता आपका स्वागत करता खुशी जाहिर करता है. उच्च मुस्तँग के इस इलाके के कुछ भाग ट्रेकिंग के लिए बहुत अनुकूल हैं चाहे वह मानसून का मौसम हो या शरद की शीत. नीचे मोटर से जुड़े इलाके तो वर्षा काल में बोल्डर गिरने, चट्टान खिसकने, मलवे से पटने के संकटो से घिरे रहते हैं.
(Muktinath Nepal Temple)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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