सितम्बर 2023 को राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित युवा कवि विहाग वैभव की कविताओं का बहुचर्चित संकलन ‘‘मोर्चे पर विदा गीत’’ की उपरोक्त पंक्तियाँ और अन्य कवितायें पढ़ने को मिलीं. पुस्तक को पढ़ते हुए जो समझा, जिन संवेदनाओं को महसूस किया वह एक पाठक के बतौर साझा करना चाहती हूं.
सत्तर कविताओं में गुंथे कवि के परिवेश, जीवन स्थितियों, अनुभूतियों और उसमें मौजूद अन्तरविरोधों को समझते और जीते हुए उनके भीतर जो प्रेम, आक्रोश, अपमान, पीड़ा, छटपटहाट और प्रतिरोध उपजा है, उसकी अभिव्यक्ति है यह संकलन. इसके साथ ही यह भारतीय समाज की जातिगत बुनावट, सवर्ण वर्चस्व से सराबोर समाज, राजनीति, संस्कृति और आर्थिकी की वास्तविकता को विभिन्न आयामों से अपने ही अन्दाज में पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास भी है. जाति और धर्म का शिकंजा भारतीय समाज में दो इन्सानों के प्रेम करने की स्वभाविक अधिकार को भी कैद कर लेता है, जिसकी सुनवाई कहीं भी संभव नहीं, यह भाव अलग-अलग रूप और प्रतीकों में व्यक्त किया गया है. वर्चस्व और शोषण पर टिके समाज पर कवि ने अपने आसपास मौजूद पात्रों, बिम्बों और घटनाओं से तीखा प्रहार किया है. कई कविताओं को पढ़ते हुए पाठक के भीतर नफरत और बैचेनी साथ-साथ उभरने लगती है. इस संकलन की अधिकांश कविताओं पर व्यापक चर्चा किये जाने की जरूरत है लेकिन मैं कुछ कविताओं का जायजा लेते हुए अपनी बात कहने का प्रयास करूंगी.
संकलन की पहली कविता ‘इस मोड़ से जो लौटना चाहते हैं, लौट जाएं’ एक महत्वपूर्ण संवाद है जो चुनौती प्रस्तुत करती है. इस कविता की प्रत्येक पंक्ति संवेदनशीलता को उद्वेलित करने में काफी हद तक सफल होती है. जितनी बेबाकी से कवि ने अपनी बात कही है, वह भारतीय समाज में सदियों से चले आ रहे सामन्ती मूल्यों, सर्वण वर्चस्व पर आधारित समाज व्यवस्था के तमाम प्रतिमानों को पलटने का आहवान है. यह कथ्य वह बिन्दु भी देता है, जहां से आगे एक नयी दुनिया की ताबीर लिखने की पेशकश भी है. कवि जातिगत उत्पीड़न और तमाम तरीके के शोषण पर टिकी इस दुनिया की पुनरव्याख्या, यानी कि अब तक स्थापित हर ‘उस’ को बदलने की मांग करता है जो कि गैरबराबरी पर आधारित है. यह कहते हुए वह एक बेहतर दुनिया को बनाने का आह्वान भी कर रहा है.
‘‘यहां से आगे
लाशों से पटे धर्मस्थलों के गर्भगृह में बर्बरता की करूणा से तर्कयुद्ध लडे़ जायेंगे
यहां दुख नहीं, दुख के कारण आयेंगे
यहां से आगे बहसों का अन्धड़ आएगा
यहां से आगे पुनरव्याख्या की लू चलेगी‘‘
जैविक संरचना के सन्दर्भ में घृणा से उपजे मानवद्रोहियों का जो चित्रण कवि ने किया है, इसमें जुगप्सा और घृणा को व्यक्त करते हुए जिस यथार्थ को वह अपने पाठकों के समक्ष रखते हैं, वह आज अधिक तीव्रता से समाज में पसरता दिख रहा है. किसी इन्सान को ब्राह्मणवादी रूढ़ियों के कारण जन्म के आधार पर निम्न और उच्च मान लेना. महज इस कारण से एक निम्न जाति में जन्म लेने वाले इंसान के सम्मान और जीवन को छीन लेने का अधिकार तथाकथित उच्च जाति में जन्म लेने वाले इंसान को कैसे मिल सकता है? इससे अधिक हिंसक समाज नहीं हो सकता. ऐसे समाज और उसको चलाने वाले तमाम नियम-क़ायदों को उलट दिया जाना लाजमी है.
‘लगभग फूलन के लिए’ बेहतरीन कविता है. गरीब, दलित परिवार की एक छोटी सी लड़की को जाति और पितृसत्ता की हिंसा ने फूलन बना दिया. फूलन ने सवर्ण और पितृसत्तात्मक वर्चस्व के खिलाफ जो संघर्ष किया था, उनको वह सम्मान नहीं मिला जिसकी वह हकदार थीं.
‘‘हां वह हमारे इतिहास की बहादुर लड़ाका है
इस देश की आधी मर्द हुई आधी आबादी के बीच
वह पहली पूरी औरत है
एक औरत जो अपने हक के लिए लड़ना सिखाती है
एक औरत जो आत्मा के घाव भरना बताती है.’’
कवि ने होलिका दहन पर जो सीधा सवाल उठाया है वह इस समाज की स्त्री विरोधी रूढ़ियों पर प्रहार है. जहां पर होलिका दहन के प्रश्न को सीधे सम्बोधित करने में प्रगतिशील कहे जाने वाले साहित्यकार भी ऊंगली उठाने से गुरेज करते हैं उसको चिन्हित करके कवि ने अपनी पक्षधरता स्पष्ट की है. ‘तुम एक औरत की हत्या का जश्न मनाते हो’. होली उत्तर भारत की संस्कृति का वह त्यौहार है, जिसमें एक स्त्री को जलाए जाने का मिथक आज तक चला आ रहा है. होली के बहाने जिन भौंडी परम्पराओं का जश्न मनाया जाता है वह पूरी तरह से अश्लील और स्त्री के अस्तित्व और सम्मान के लिए हिंसक होती हैं.
‘‘दरअसल, तुम हमेशा से यही करते आए हो
तुम हर उस औरत को जला देते हो
जो अपने हक़ और इंसाफ के लिए लड़ना चाहती है
तुम लगातार
एक बेईमान और दोगली संस्कृति को जन्म देते हो’’
सोनतारा से कवि एक लोकतान्त्रिक प्रश्न कर रहा है. जिसमें उसके मन का अंतर द्वन्द्व, उसके भीतर की अकुलाहट, पीड़ा, अतीत-वर्तमान का बहुत बारीकी संवाद है. यह कविताओं को खेत में जोतने का समय है में कवि इस देश उस तबके की पीड़ा से अपने पाठक से रूबरू कराने का प्रयास करता है जो कविताओं कहानियों और संवादों में से बिसरा दिया गया है जो अब महज भीड़ मान लिया गया है जिसका अस्तित्व महज वोट तक सीमित कर दिया गया है. बेहया के फूल पंक्तियों में बहुत सहजता से कवि ने अपनी बात कही है.
‘‘हम किसी के जूड़े में नहीं टाँके गए
हम किसी के हार में नहीं गूंथे गए
हम किसी वेदी पर नहीं रक्खे गए
यहां तक कि हम फूलों में गिने भी नहीं गए
जबकि हम हमेशा से यहीं के थे
यहीं, इसी ग्रह, इसी धरती के’’.
ब्राहामणीय सत्ता के साथ ही तमाम वर्चस्व की संस्थाओं को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में बिम्बों, घटनाओं, प्रतीकों से जिस तरह कवि ने तीखे प्रहार किये हैं वह किसी भी संवदेनशील पाठक को विचलित करने की ताकत रखते हैं. छदम संवेदनाओं को भुना लो साथी यह व्यंग्य कवि उन लोगों पर कह रहा है जो दलितों के साथ होने वाली हिंसा पर झूठी संवेदना व्यक्त करते हैं, लेकिन वास्तव में उस पीड़ा, अपमान के प्रति गहराई और संवेदना के साथ नहीं जुड़ पाते हैं. और न ही उन कारणों को सचेतन में जानने का प्रयास होता है कि महज जात के कारण कोई इन्सान छोटा और बड़ा कैसे हो सकता है? विहाग की कविताओं में प्रेम की तड़प है तो प्रेम को लेकर आग्रह भी है. कई जगहों पर सामन्ती समाज के प्रभाव की नज़र से अपनी प्रेमिका को देखने का परिदृश्य भी है. लेकिन उनकी प्रेम की अनिवार्यता पर लिखी पंक्तियां मन को मोह लेती हैं.
‘‘सांस, अन्न, जल और नींद के बिना तो
फिर भी हैं मुमकिन है जीवन
प्रेम के बगैर
भला कोई कैसे जी सकता है
एक क्षण भी’’
इन चारों लाइनों में जो द्वन्द्व है वह अद्भुत है, हालांकि सांस अन्न जल जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं, लेकिन यदि इन्सानों के बीच प्यार न हो तो यह दुनिया जीने लायक हो ही नहीं सकती. कवि का कथन निश्चित ही वह संवाद है जो इन्सानी जीवन में प्रेम के महत्व को बताता है. कई कविताओं में एक व्यक्ति से प्रेम की बात नहीं महसूस होती है बल्कि यहाँ पर प्रेम का अलग ही स्तर पर दिखता है. जब चारों और नफरत फैलाई जा रही हो, इंसान को इंसान का दुश्मन बनाने कि जुगत लगाई जा रही हो, ऐसे में प्रेम का अर्थशास्त्र जैसी महत्वपूर्ण कविता अपने मायने समझाती है.
प्रचलित परिभाषाओं के बाहर महामारी पर लिखी गई पाँच कविताओं में अपने कवित्व के माध्यम से विहाग ने जो चित्रण किया है, वह बहुत संवेदनशील है. वास्तव में यह हमारे समाज का वह कटु सत्य है जिसको अकसर ही बिसरा दिया जाता है. यह वक्त था, जिसने समाज के भीतर व्याप्त नफरत के यथार्थ को उघाड़ कर रख दिया जो सामान्य दिनों में ढका रहता था. इन कविताओं की एक-एक पंक्ति उन दिनों की याद दिलाती है. जब हर रोज शहरों से गांवों को लौटते मजदूरों के जीवन की अमानवीय यन्त्रणाओं के चित्र इन आंखों ने देखे थे. जाति, नस्ल, जेण्डर और वर्ग के आधार पर होने वाला भेदभाव इस दौर में अधिक वीभत्स और नग्न रूप में दिखा था. जब कवि कहता है कि ‘‘अर्थ, रस, गंध और स्पर्श सब अपनी सवारियों कर पलायन कर रहे हैं…” इन कविताओं से गुजरते हुए न जाने कितने ही चेहरे जेहन में बनते और बिगड़ते रहे, महामारी के दौरान कभी पास से तो कभी दूर से, कभी चित्रों से तो कभी आवाज़ से, कभी शब्दों से तो कभी खामोशी से, कितने ही भावों में, रूपों में सब कुछ जीवन्त सा हो गया. जब बीमारी से ज़्यादा लोग सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर अलग कर दिये गए थे कितना यातनादाई था. पहले से ही स्तरीकृत भारतीय समाज में एक इन्सान को दूसरे से अलग करने की परम्परा ने सामाजिक भेदभाव की खाई को अधिक चौड़ा कर दिया. ‘‘कुछ को घृणा ने मारा, कुछ को शक्ति ने, कुछ को ऐश्वर्य ने मारा, कुछ को भक्ति ने, महामारी में मरने वाले सबके सब लोग महामारी से नहीं मरे थे’’.
जब विहाग कहते हैं कि ‘‘जाति की महामारी से मारे गए लोगों की तुलना में जैविक महामारी में मारे गए लोगों की संख्यां कुछ नहीं है.’’ तो वह उस सच को सामने ला खड़ा करते हैं जिसको सचेत तौर पर सामने लाने से बचा जाता है. राष्ट्रवाद का गुणगान करने वाले भारत में दलितों पर होने वाले अत्याचारों की निरन्तरता बढ़ती जा रही है. लेकिन उसके बाद भी किसी भी स्तर पर यह मुददा् महत्वपूर्ण नहीं बन पाता है.
आज साम्राज्यवादी मुल्क अपनी सत्ता और बाजार की खातिर पूरी दुनिया को युद्ध में धकेल रहे हैं. सीरिया, यूक्रेन के कत्लेआम के बाद बाज़ार और हथियारों की भूख फिलिस्तीन के गाज़ा शहर को पूरी तरह निगल देना चाहती है. हजारों निर्दोष इन्सान सिर्फ इसलिए मार दिये गए है कि वे उस मुल्क और कौम के वाशिंदे हैं जिनको दुनिया की माहाशक्तियां खतम कर देना चाहती हैं. युद्ध की विभीषिका बच्चों के लिए सबसे यन्त्रणादायी होती है और यहीं पर नफरत के बीज भी पनपते हैं,‘सीरिया के मुसलमान बच्चे’ में कवि ने पुरजोर तरीके से इसी बात को स्थापित करने की कोशिश की है. यह कविता पढ़ते हुए गज़ा के बच्चों की क्षत-विक्षत लाशें नज़र आने लगी थीं और भीतर तक आक्रोश फैल गया, उन शासकों के लिए जिनके लिए इन्सानी जिन्दगी का कोई मोल नहीं.
‘‘वे ईश्वर का कलेजा चबा जायेंगे पलक झपकते ही
वे तुम्हारी आलीशान गगनचुम्बी इमारतों को एक फूंक से उड़ा देंगे
तुम्हारी परछाइयों तक की राख तक नहीं देंगे तुम्हारी पीढ़ियों को
वे तुम्हारे किले में घुसते ही खू़न और पानी का भेद मिटा देंगे.’’
दुनिया ही नहीं भारत में भी आज अघोषित युद्ध चल रहा है, चारों ओर डर सा पसरा हुआ है, बोलना अपराध बना दिया गया है. भारतीय जनता पार्टी पूरे देश को भगवा रंग में रंग कर युद्ध भूमि में तब्दील करने पर आमदा है. ऐसे दौर में कवि के भीतर मौजूद विद्रोही स्वर ‘‘देश का मौजूदा नक्शा बनाता हूं’’ से जो चित्र खींचा है वह निराशा में आशा का संचार करता है.
‘‘हर चीज को उसके सही रंग में रखूंगा
सच को चमकदार और झूठ को घोर स्याह दिखाऊँगा
विचार को पानी और पानी को पारदर्शी बनाऊँगा
पेड़ को हरा और दुख को नीला बनाऊँगा
इस तरह देश का सही-सही नक्शा बनाऊँगा.”
कवि ने मजदूर, गरीब किसान और अन्तिम छौर पर पड़े व्यक्ति की आवाज बनने की कोशिश की है. एक युवा कवि के बतौर विहाग ने साहित्य के वर्तमान परिदृश्य में एक निर्णायक हस्तक्षेप किया है.
मोर्चे पर विदा गीत पुस्तक की शीर्षक कविता है. यह खूबसूरत राजनीतिक कविता बन जाती मेरी नज़र में यदि उसमें मुझे स्त्री दृष्टि की कमी नहीं खलती तो… कवि समाज में मौजूद जातिगत भेदभाव को जितनी शिददत से महसूस करते हुए उस पर तीखा प्रहार करता है, सवाल उठाता है और जबाव भी प्रस्तुत करता है. कुछ कविताओं में वे स्त्री के अस्तित्व को महसूस तो कर पाये हैं और संवेदना के साथ उसको प्रस्तुत भी किया है. लेकिन वे स्त्री की स्वतन्त्रता को उस स्तर पर स्वीकार नहीं कर पाये हैं जितना कि एक अगुआ कवि से उम्मीद की जानी चाहिए, ऐसा मुझे लगता है. यदि कवि मोर्चे पर अपनी प्रेमिका के साथ जा पाते तो प्रेमिका के साथ बराबरी और समानुभूति में खड़े दिखते. जीवन के किसी भी मोर्चे पर जब स्त्री और पुरुष बराबरी और स्वतन्त्रता से भागीदार बनेंगे. वही समाज तो उन्नत और बराबरी वाला हो सकता है.
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एक महत्वपूर्ण कविता ‘चाय पर शत्रु सैनिक’ का जिक्र भी जरूरी समझती हूं. जिसकी कुछ पंक्तियां दुनिया भर के उन तमाम सैनिकों पर सटीक बैठती हैं जो अपने राजा और शासकों की हवस पूरी करने के लिए लड़ते हैं. पूरी दुनिया को राष्ट्रवाद के नाम पर युद्धों में झोंक दिये गए सैनिकों की मनःस्थिति का बेहतरीन चित्रण है कविता में. लेकिन यहां पर कवि का स्त्री पात्र के प्रति समानाभूति की कमी इसकी खूबसूरती को कम कर देता है. प्रेम कविताओं में आमतौर पर जहां पर कवि स्त्री स्वर को सामने लाते हैं तो वहां पर भी सामन्ती पितृसत्तात्मक वर्चस्व झलकता है, जो इस महत्वपूर्ण कृति में खटकता है. मैं इस उम्मीद से भी इस कमी को चिन्हित कर रही हूं कि विहाग ने जिस संवेदनशीलता से जातिगत उत्पीड़न को आवाज़ दी है यदि उसी स्वर में वे स्त्री से प्रेम करते हुए उसको अपना साथी मानेंगे और समाज बदलने में उसको भागीदार बनाएँगे तो उनकी कवितायें वर्चस्वहीन समाज की कल्पना साकार करने में मददगार बनेंगी.
पुस्तक की कविताओं ने मुझे प्रभावित किया, इसके माध्यम से उत्तरप्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र के जनजीवन, बिंबों, परिवेश, लोक की वास्तविकता मिश्रित, जातीय वर्चस्व की बेबाक आवाज़ को मैं सुन पाई. बहुत गहराई से यह कवितायें जाति की अनिवार्य सच्चाई को सामने रखती हैं, जिसके कारण एक इन्सान का सम्पूर्ण व्यक्तित्व तिरोहित हो जाता है. पुस्तक में मौजूद कविताएं ‘यह देश उनका है’ ‘कुछ लड़ाइयाँ अटल और अनिवार्य होती हैं’ ‘देश के बारे में शुभ शुभ सोचते हुए’ जैसी कई कविताओं की पंक्तियों को पढ़ते हुए, पुस्तक को तमाम आयामों को समझते हुए जब मैं गम्भीरता से इनसे गुजर रही थी तो दर्द के साथ एक सकून भी मिला कि इस दौर में भी जनता के गीत लिखने वालों कि मौजूदगी है और जनता के गीत हमेशा गाये जाते रहेंगे.
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अपने मन और विचारों को समाज से जोड़ते हुए विहाग ने एक अलग स्तर अपनी कविताओं की रचना की है. उनकी कविताओं की खास बात यह है कि वह भूख, रोटी, शोषण, ग्रामीण जीवन में मौजूद सामन्ती जातीय उत्पीड़न पर प्रहार करते हुए उसको सार्वभौमिक बनाते हुए अपनी पक्षधरता को बेबाक तरीके से व्यक्त करते हैं. मैं सोचती हूँ कि यह युवा कवि निश्चित ही हिन्दी जगत के प्रतिमानों, भाषा की सीमाओं को भेदता हुआ साहित्य में दलितों, स्त्रियों आदिवासियों और तमाम वंचितों के स्वर को मुखर करते हुए हम सबको प्रेरित करेगा और बेहतर लेखन से अपने पाठकों को समृद्व करेगा. आपको बधाई विहाग…
पुस्तक का नाम – मोर्चे पर विदागीत
लेखक –विहाग वैभव
मूल्य- 199 रुपए
प्रकाशन- राजकमल पेपरबेकस
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन करने वाली चन्द्रकला उत्तराखंड के विभिन्न आन्दोलनों में भी सक्रिय हैं और देहरादून में अधिवक्ता के तौर पर काम करती हैं.
संपर्क : chandra.dehradun@gmail.com +91-7830491584
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