बात सन् 1921-22 की है. तब मेरी उम्र लगभग 5 वर्ष होगी. हम अपने गाँव (नौगाँव, पो. कफड़ा, विकास खण्ड द्वाराहाट) से 8 मील दूर रानीखेत में रहते थे. जरूरी बाजार में मेरे पिताजी की दुकान थी. रानीखेत एक छावनी थी. यहाँ अंग्रेजी फौज रहती थी. कुछ अंग्रेज परिवार सहित रहते थे. मुझे बचपन में नजदीक से गोरों की गतिविधियाँ देखने को मिलीं.
(Memoir of a Freedom Fighter of Uttarakhand)
रानीखेत का छोटा सा बाजार काले लोगों का माना जाता था. कुछ खाते-पीते लोगों को छोड़कर बाकी जनता में बेहद गरीबी थी. अज्ञानता, निरक्षरता, बेकारी एवं निराशा का माहौल था. उबड़-खाबड़ रास्ते, धुआँ-धक्कड़, गंदगी, कूड़े के ढेर एवं आम लोग मैले-कुचैले दीखते थे. बाजार में खाद्यान्न हल्द्वानी से घोड़े/ऊँटों पर लदकर आता था. बाजार के चौराहों पर लकड़ी के खम्भों पर लैम्प से रोशनी की जाती थी. हलवाई लकड़ी के मोटे गिल्टों को जलाकर मिठाई बनाते थे. दुकानदार मशाल जलाकर उजाला करते थे. गढ़वाल के लोगों द्वारा लाये गये घी के बदले नमक से अदला-बदली मुख्य व्यापार था.
अंग्रेजों के बीबी-बच्चों को सड़कों पर घूमते देखना बाजार के हम छोटे-छोटे बच्चों के लिये उत्सुकता का विषय हुआ करता था. एक दिन पिताजी अपने कंधे पर रखकर मुझे बाजार दिखाने ले गये. उन्होंने माल रोड पर पैर रखा ही था कि एक अंग्रेज ने देख लिया और हमें रोक कर पैर पड़े स्थान की मिट्टी हमसे हमारी टोपी में भरवा कर हमें वापस लौटा दिया.
तब मेरी उम्र लगभग 8-10 वर्ष रही होगी. रानीखेत के हमारे पड़ोसी किशोरी लाल जी अपने हाथ में तिरंगा झण्डा लिये कुछ बड़बड़ाते हुए बाजार की ओर निकले. कौतूहलवश मैं भी उनके साथ हो लिया. आगे जाकर बाजार के किनारे एक मन्दिर में जाकर कुछ लोग थे, हम जमा हो गये. कुछ लोग बोन रहे थे उसे मैं नहीं समझ सका. सिर्फ इतना सुना कि ‘गाँधी जी की जै, विदेशी माल की होली जलाओ’.
इसके बाद कोई अपनी टोपी तो कोई अन्य वस्त्र जलाने लगे. वही पर एक आदमी सफेद गांधी टोपी दे रहा था. मैं समझा कि टोपी जलाने पर टोपी मिलती होगी. झट से मैंने भी अपनी पुरानी टोपी आग में डाल दी. तब मैंने भी टोपी माँगी तो मालूम हुआ कि टोपी तीन पैसे की है. मैं रुआँसा सा खड़ा रह गया. किसी बाल प्रेमी ने मुझे भी टोपी दी और मैं बड़ा खुश हुआ. उसने कहा घर जाओ और गांधीजी की बात मानना तथा अपने पिताजी से भी कहना. मैं टोपी को बार-बार देखता हुआ घर आया और पिताजी को सारी बात बताई. पिताजी ने कहा, ठीक है, अब तू भी गाँधी हो गया.
बड़ा प्यार था मुझे उस गाँधी टोपी से. सिर में डालकर कई बार शीशे में देखता. सोते समय रात को बड़ी सावधानी से रखता. माँ-बाप भी खुश थे. मैं गाँधी टोपी वालों को बड़े आदर से देखता. बाजार में जहाँ गाँधी टोपी वाले बैठे मिलते, उनकी बातें सुनता था. जब कभी कांग्रेस वाले सभा, जुलूस या प्रदर्शन करते, मैं भाग-भाग कर वहीं पहुँच जाता. माता-पिता मुझे रोकते न थे. घर लौटकर पूछते, ‘क्या देखा-सुना तूने?’| मैने कहीं से गाँधीजी का एक चित्र लाकर घर में लगा दिया एवं रोज सुबह उठते ही उस चित्र के आगे हाथ जोड़ने लगा.
इस समय तक बाजार की महिलायें भी खादी की धोतियाँ पहन कर प्रभात फरियाँ एवं जलूस निकालने लगीं. रानीखेत बाजार में जलियाँवाला बाग काण्ड, चौरा-चौरी काण्ड, साइमन कमीशन, केन्द्रीय विधानसभा में भगतसिंह व बटुकेश्वर दत्त द्वारा बम काण्ड, अवज्ञा आन्दोलन, नमक कानून तोड़ना, करबन्दी, शराबबन्दी, लाहौर में पं. जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में पूर्ण स्वराज की माँग आदि अवसरों पर आयोजन होते रहते थे, जिनमें मुझे सक्रिय रूप से भाग लेने का मौका मिला.
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सन् 1930-31 तक सारा देश पूरी तरह जागृत हो चुका था. अंग्रेजों के खिलाफ जनसमुद्र की लहरें उठने लगीं. बालक गांधीजी से जुड़े लोकगीत गाते फिरते-
आब है गई भारता में गांधीज्यू अवतारा,
भाजो अंगरेजो सात समुन्दर पारा.
सन् 1927-28 में रानीखेत शराब की भट्टी में अपने पड़ोसी गाँव बरगला के पूरनसिंह, जौहरसिंह, हिम्मतसिंह, नौगाँव के मदनसिंह, भोलादत जोशी, प्रेमसिंह आदि के साथ मैंने धरना दिया. समय के साथ-साथ मेरी समझदारी बढ़ती चली गई. सन् 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान हमारे गाँव के पास धुनियाबगड़ नाम के मैदान को कार्यस्थली बनाया गया. इस स्थान पर सन् 1929 में तहसील और इलाका स्तर पर कांग्रेस के दो सम्मेलन हो चुके थे. निकट ही उभ्याड़ी गाँव के मार्ग कांग्रेस मंडल का कार्यालय श्री शिवदत की दुकान में था, जहाँ मैं, मदन मोहन उपाध्याय, गुसाई सिंह, रामसिंह आदि आन्दोलन के लिये योजनाएँ बनाते थे.
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‘गांधीजी की जै’ कहने और तिरंगा फहराने पर प्रतिबन्ध था. इस प्रतिबन्ध को तोड़ कर मैंने मदनसिंह, हिम्मतसिंह, रतनसिंह आदि के साथ धुनियावगड़ में एक बड़े से खम्भे पर तिरंगा फहरा दिया. अगले दिन गाँव के कुछ लोग गांधीजी की जय-जयकार का नारा लगाकर प्रतिबन्ध तोड़ने वाले थे. मुझे, जयकृष्ण जोशी और गंगादत्त पाठक को ढोल-नगाड़ों के साथ धनियाबगड़ की ओर ले जाया गया. उस स्थान से पहले ही पुलिस तैनात थी.
हम तीनों के साथ पुरुषोत्तम पाठक, टीकाराम जोशी और बाजा बजाने वाले बचेसिंह अधिकारी और प्रेमसिह नेगी को गिरफ्तार कर रानीखेत हवालात ले जाया गया. अगले दिन रानीखेत अदालत में पेशी के बाद प्रेमसिह नेगी, बचेसिंह अधिकारी और पुरुषोत्तम पाठक को छोड़ दिया गया. जयकृष्ण जोशी, गंगादत पाठक, टीकाराम जोशी को कैद की सजा दी गई. चूंकि मैं ही अकेला नाबालिग था, अतः साहब के इशारे पर मुझे चार डण्डे लगाकर छोड़ दिया गया. बड़ा नगाड़ा और छोटा दमुआ जब्त कर लिये गये.
1937 में प्रान्तीय चुनाव हुए और अनेक प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बनी. अनेक सुधार कार्य कर कांग्रेस संगठन शक्तिशाली बना. प्रान्त, जिला, तहसील और मंडलीय स्तर पर कांग्रेस कमेटियों का प्रभाव बढ़ा. बड़ी संख्या में लोग कांग्रेस सदस्य बनने लगे. गाँवों में कांग्रेस कमेटियाँ अनुशासित और व्यवस्थित ढंग से काम करने लगी. मैं अपने अनेक साथियों के साथ मंडल कार्यकारिणी उभ्याड़ी में सक्रिय खीम सिंह नेगी रूप से कार्य करने लगा. तब हम बहुत से कार्यकर्ता रामसिंह की अध्यक्षता में कार्य करते थे. मैं गाँव-गाँव जाकर कांग्रेस सदस्यों की भर्ती एवं सुधार कार्यों में सहयोग देता था. मेरा सम्पर्क गाँवों से अधिक होता गया. इस संयिता से उत्साहित होकर हमारे साथियों ने अपनी कार्यस्थली धुनियांबगड़ में एक जिला कांग्रेस सम्मेलन का आयोजन किया.
इसमें जिला, तहसील और इलाके के प्रभावशाली लोगों ने अधिक संख्या में भाग लेकर इसे बड़ी कान्फ्रेंस का रूप दिया. यह विशाल सम्मेलन आचार्य नरेन्द्रदेव जी के सभापतित्व से सम्पन्न हुआ. इस सम्मेलन में सेठ दामोदर स्वरूप, पूर्णानन्द, मदन मोहन उपाध्याय आदि बड़े-बड़े नेताओं के भाषण हुये. यह सम्मेलन 1939 में अक्टूबर 29 से 31 तीन दिन तक चला. इसी दौरान विश्वयुद्ध छिड़ गया. अग्रेजों ने इस युद्ध में भारतीय जनता को अपने साथ बताया. इसके विरोध में कांग्रेस मंत्रिमण्डल का इस्तीफा हो गया. इधर गाँधीजी ने अपना आन्दोलन फिर शुरू कर दिया. आन्दोलन दिनों-दिन जोर पकड़ता गया. गाँधी, नेहरू, पटेल, अब्दुल कलाम, बिनोवा भावे, राजगोपालाचारी आदि गिरफ्तार कर लिये गये. फिर सारे भारत में गिरफ्तारियों का जोर चला.
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इन दिनों व्यक्तिगत सत्याग्रह जोरों पर था. उतर प्रदेश की जेलें ठसा-ठस भर चुकी थी. इससे सरकार ने आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारियाँ कम कर दी. जिनको गिरफ्तार किया जाता उन्हें जुर्माना कर छोड़ दिया जाता था या गिरफ्तार कर कही दूर बीहड़ जंगलों में छोड़ दिया जाता था या फिर पुलिस द्वारा लाठी चार्ज कर भगा दिया जाता था.
1940-41 के राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के लिये हमने भी कांग्रेस कमेटी उभ्याड़ी में एक संचालक मण्डल का गठन श्री नरसिह, ग्राम सुनोली के संचालन में गठित किया था. वह बारी-बारी से हमें सत्याग्रह करने के लिये नम्बर देता था. 13-14 अप्रैल 1941 को मेरी और लीलाधर पाण्डे, कुमाल्ट वाले की बारी पड़ी. हम दोनों के अवज्ञा आन्दोलन की सूचना डी.एम. अलमोड़ा को पहले ही दे दी थी.
इस दिन हम दोनों ने कफड़ा में निश्चित जगह अंग्रेजी लड़ाई में सहयोग न देने का नारा लगाया. तब हम दोनों को पटवारी द्वारा गिरफ्तार किया गया और कुमाल्ट ग्राम के शिवदत पाण्डे, प्रधान के सुपुर्द कर रानीखेत हवालात को रवाना किया गया. रात में हमें देवीराम सिनौला, उभ्याड़ी की दुकान में टिकाया गया. दिन भर के भूखे थे, रात को खाने की माँग करने पर मालगुजार शिवदत पाण्डे ने सिर्फ गालियाँ दी. हमने चुपचाप भूखे रहकर रात बिताई. अगले दिन पटवारी हमें एस.डी.एम. कोर्ट, रानीखेत ले गया.
संक्षिप्त कार्यवाही के बाद हमें एक दिन की कैद और 50 रुपये जुर्माना किया गया एवं जुर्माना न देने पर दो माह की सख्त कैद. यह कैद 17 अप्रैल 1941 को हुई. कैद भुगत और जुर्माना भरकर मैं अगले दिन 10 अप्रैल 1941 को घर आया और पुनः असहयोग में जुट गया. आन्दोलन के प्रचार-प्रसार के लिए मैंने हाथ से बड़े- बड़े पोस्टर बनाये और जिलाधीश अलमोड़ा को पूर्व सूचना के साथ आसपास के गाँवों के चौराहों दुकानों, सार्वजनिक स्कूलों, मन्दिरों, घरों पर चिपकाये. इस पर पुलिस द्वारा मुझे फिर गिरफ्तार कर रानीखेत हवालात में बन्द कर दिया गया.
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3 मई 1941 को एक वर्ष की सख्त कैद और 100 रुपये जुर्माना, जुर्माना न देने पर 2 माह की कड़ी सजा सुनाई गई. अगले दिन अलमोड़ा जेल भेज दिया गया. इन दिनों यहाँ 6-7 ही अपराधी थे, बाकी कांग्रेसी आन्दोलनकारी भरे पड़े थे. गोविन्द बल्लभ पंत भी वहाँ थे. मैं और पीताम्बर पाण्डे सबसे कम उम्र के थे. अन्य कैदियों की भाँति हमें भी चक्की पीसनी पड़ती थी. मेरी और पीताम्बर पाण्डे की चक्की में जोड़ी थी. अन्य कैदियों से कुछ कम पीसने को मिलता था. एक दिन हम दोनों छोटे बच्चों को भारी परिश्रम करता देख दूसरे ही दिन से हमारे हिस्से की सेर, दो-सेर चक्की पंत जी और उनके साथी द्वारिका प्रसाद पीस जाया करते थे. यहाँ से 19 सितम्बर 1941 को हमें बरेली भेज दिया गया.
बरेली जेल में उस दिन भूखे रहे. अगले दिन एक मुसलमान रोटी देने आया तो हमारे अधिकतर साथियों ने खाने से इन्कार किया. मेरे समझाने से अधिकांश ने रोटी ले ली और खाने लगे. अधिकतर ब्राह्ममण दो-तीन दिन तक भूखे रहे, फिर वे भी खाने लगे. जेल में हमें 200 गज बान बँटने की डयूटी करनी होती था. उतना न कर पाने पर सजा मिलती थी. मैं जिस बैरिक में था, उसमें खूखार अपराधी थे. उनकी बातें भयावह होती थीं और मैं रात को चौकन्ना सोता-जागता रहता था. मुझसे वे कहते थे. माफी माँग कर घर चला जा और स्कूल पढ़. गांधी जी के बारे में वे इतना ही जानते थे कि गांधी महाराज एक महात्मा है एवं अंग्रेजों से राज लेना चाहते है. यहाँ एक छोटी सी लाइब्रेरी भी थी, जहाँ मैंने मुंशी प्रेमचन्द का साहित्य, फ्रान्स क्रान्ति, रूसी क्रान्ति आदि के बारे में पढ़ा. सजा की अवधि खत्म होने से पहले ही 17 दिसम्बर 1941 को एक राजाज्ञा के अनुसार मुझे मुक्त किया गया.
घर में खाने के लाले पड़े थे. पिताजी का देहान्त मेरे कैद के समय में हो चुका था. घर में बूढ़ी माँ के अलावा कोई नहीं था. 19-20 साल का एक भाई बाहर कहीं मजदूरी करने गया था. घर का सामान नीलाम हो चुका था. खाना बनाने को बर्तन नहीं थे. बेहद गरीबी थी. कई दिनों तो एक-दो रोटी पर ही निर्भर रहता था. कभी ढेर लौकी या कद्दू का साग खाकर पेट भरना पड़ता था. तब मैंने भी लोगों का सहयोग लेकर एक ऊनी वस्त्र-करघा उद्योग लगाया. उन दिनों ऊन आठ आना प्रति सेर था. लोग पंखियाँ, चुटके, गरम कपड़े बुनवाने लगे. इलाके में उद्योग लग जाने से लोगों में ऊन कताई का बड़ा प्रसार हुआ.
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18 अगस्त 1942 को बम्बई में कांग्रेस के सम्मेलन में ‘अग्रेजो भारत छोडो’ प्रस्ताव पास किया गया. अगले दिन गाँधी सहित सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिये गये. जेल जाने से पूर्व गाँधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया. देखते ही देखते यह आन्दोलन आग की तरह सारे भारत में फैल गया. इधर कार्यकर्ता भूमिगत होने लगे. अपने उद्योग की जब्ती होने के भय से मैंने अपने नाम के सारे कागजात नष्ट कर दिये और उद्योग पर अपने साझीदार पानदेव के नाम का बोर्ड लगा दिया.
अगस्त का महीना था. खेत फसलों से भरे पड़े थे. जंगल, झाड़ियों तथा खेत भादों की बरसात से झूम रहे थे. हम दिनभर खंडहरों, पहाड़ों की चोटियों, जंगलों, फसल भरे खेतों में छिपे रहते, रात को मिलकर आन्दोलन चलाने का परामर्श करते थे. इनमें प्रमुख मैं, शिवदत्त (उभ्याडी), तारादत्त बिष्ट (मासर), मोहनसिंह (बिजेपुर), बास्वादत्त (ताड़ीखेत) आदि थे. हम पटवारी पुलिस चौकी, पला अठागुली पर कब्जा करने का ताक में थे कि 15 या 16 अगस्त की शाम पटवारी किशनानन्द की अपने गाँव मिरई जाने की खबर मिली. तब मैंने, तारादत्त विष्ट एवं शिवदत्त ने उन्हें घेर कर सारे सरकारी कागजात छीन लिये.
इसके बाद हमने द्वाराहाट के समीप चरिया और उखलेख (दूनागिरी के पास) लीसा डिपो में आग लगाने की कोशिश की, जो पहरेदारों के जग जाने के कारण सफल नहीं हुई. बाद में मजखाली के लीसा डिपो को वहाँ के चौकीदार की मदद से जलवाया गया. इस घटना में 6-7 कांग्रेसियों को सजा हुई. प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी मदनमोहन उपाध्याय से उन दिनों लगातार मिलना होता था. एक बार मुझे रानीखेत कचहरी में आग लगाने का कार्य सौंपा गया. किसी कारण से वह काम आधे में छूट गया. इन दिनों सल्ट, चौकोट आदि में आन्दोलन जोरों पर था.
इधर रानीखेत से लगे इलाके में पुलिस नहीं थी, क्योंकि उसकी ड्यूटी कचहरी, पुलों, सरकारी कार्यालयों, बन्दूक लाइसेन्सधारियों, मालगुजारों, रायसाहबों, थोकदारों, खानसाहबों और सयानों के यहाँ लगी थी. व्यापक धरपकड़ होने से आन्दोलन ढीला पड़ने लगा. जगह-जगह गिरफ्तारियाँ और गोलियाँ चलाकर आन्दोलन दबाया जा रहा था. मदन मोहन उपाध्याय और रामसिंह छिप कर बम्बई चले गये. कुछ साथियों के पकड़े जाने के बाद मैं भी इन दिनों अपने गाँव में भूमिगत रहने लगा.
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सितम्बर के महीने एक दिन पुलिस ने घर पर छापा मारा. घर पर होने के बावजूद मैं बच गया. पुलिस एक नोटिस मेरी माँ को थमा कर चली गई. नोटिस में लिखा था कि 29 सितम्बर 1942 की सुबह 10 बजे चौखुटिया एसडीएम की अदालत में मुझे हाजिर होना है, वरना इकतरफा कार्यवाही की जायेगी. आन्दोलन दब चुका था. मैं गाँव के आस-पड़ोस में ही घूमता था. मुझे अपने साथी कार्यकर्ता नहीं मिले. पल्ले में पैसा नहीं था, कहीं बाहर जाना और कार्य करना कठिन हो गया. मैंने सोचा कि मुझे आत्मसमर्पण कर देना चाहिये. नियत दिन घर से निकला भी, लेकिन एक मित्र की राय मान कर शाम को घर वापस चला आया.
घर में न अनाज था और न बर्तन. एक बैल था उसे भी नीलाम कर दिया. गाँव-पड़ोस में भारी आतंक छाया था. हमें कोई भी अपने घर में नहीं आने देता था. मेरी माँ दमे से पीड़ित थी. फिर भी पेट की भूख मिटाने खेतों में काम करने जाती थी. गाँव की एक बुढ़िया से अन्न उबालने के लिए एक कढाई माँग कर अन्न के दाने डालकर एवं उबालकर पी लेती थी. इन्हीं दिनों पुलिस के एक सिपाही रतनसिंह ने मुझे बहला-फुसला कर, कई तरह से मेरी मदद की और मुझसे हमदर्दी का नाटक कर एक दिन मुझे गिरफ्तार करवा दिया. इसके बाद उम्याड़ी में शिवदत को गिरफ्तार किया गया. वह एक टोकरे के अन्दर छिपा पाया गया.
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1942 के सितम्बर में हुई इस गिरफ्तारी के बाद रानीखेत जेल में कुछ दिन रखने के बाद हमें अलमोड़ा जेल में डाला गया. अक्टूबर में हम दोनों जेल से बाहर लगी अदालत में विशेष मजिस्ट्रेट मेहरबान सिंह की अदालत में पेश किये गये. फर्जी गवाह बना कर उसी वक्त दो-दो वर्ष का कठोर कारावास और 50 रूपये जुर्माना, न देने पर 2 माह की सख्त कारावास की सजा हुई. आन्दोलन जारी था. झुंड के झुंड इसी तरह जेलों में ठूसे जा रहे थे. जेल में पैर रखने की जगह न थी, इसलिये हमारा एक बड़ा बैच 20 नवम्बर 1942 को बरेली जेल भेजा गया. रवाना होते समय जब हम रानीखेत छावनी से गुजर रहे थे तो वहाँ बहुत से गोरे ब्रिटिश फौजी हमारी चलती गाड़ी की ओर पत्थर बरसाने लगे और गालियाँ देते रहे. मेरा एक हाथ गाड़ी से बाहर निकला था. किसी गोरे ने मेरे हाथ में जोर से डंडा मारा तो मेरी एक उंगली तोड़ दी.
हम देर रात बरेली जिला जेल पहुचे. मैं वहां मलेरिया से पीड़ित हो गया था. दिन-रात भजन गा-गाकर भूख भुलाने की कोशिश करता. जिस बैरक में हमें डाला गया वहाँ पहले से भी कांग्रेसी कैदी भरे पड़े थे. हमारा बैच उसी में डाले जाने से उनका साहस भी बढ़ा. हमें भी उनको पाकर खुशी हुई. सीखचों के गेट वाले ऊँची बैरक के अन्दर दीवार में लगे दोनों ओर कैदियों के सोने के चबूतरे बने थे. रात को एक सरकारी बादर (पहरी) अन्दर सोते कैदियों को हिला-हिलाकर गिनती करता रहता था. फिर जोर-जोर की आवाज से गिनती की रिपार्ट जेल अधिकारी के निवास की ओर मुखातिव होकर ‘बैच न. 1 के कैदी, गिनती सब ठीक है’ कहकर फिर गिनती शुरू कर देता था.
मुँह अंधेरे सुबह कैदियों को चबूतरे से नीचे बनी गैलरी में सिर झुकाकर दो-दो की जोड़ी से लाइन लगाकर बैठना पड़ता था, तब सुबह की ड्यूटी वाला अपना चार्ज लेता था लेकिन हम कांग्रेसियों को सिर झुकाकर बैठना अखरता था. हमने देश के सम्मान के लिये सुबह चबूतरे पर ही खड़े होकर गिनती देने का निश्चय किया. अगले दिन सुबह से हम अपने-अपने चबूतरे पर खड़े हो गये. इस पर पहरी ने जेलर को रिपार्ट दी. बस क्या था, देखते-देखते ताई साहब के नाम से जाना जाने वाला एक लम्बा तगड़ा अंग्रेज, जो जेल सुपरिटेन्डेन्ट था, अपने पूरे अमले सहित कुछ लम्बी सजायाफ्ता वाले लठैत क्रिमिनल कैदियों की फौज लेकर हमारी बैरक में घुसकर बोला-कैसा नहीं बैठेगा, हम देखता है, कहता हुआ हम पर दनादन डंडे बरसाने लगे. देखते ही देखते बैरक के सारे कैदी रोते-चीखते लहूलुहान हो गये.
इतफाक से मेरी पिटने की बारी आखिर में पड़ी, तब तक मैं अपने चबूतरे पर चुपचाप खड़ा देखता रहा. इन सब सत्याग्रहियों में मैं सबसे कम उम्र का था. इस अंग्रेज ने देखा इतना छोटा बालक सब कुछ देखता हुआ भी बड़े साहस से खड़ा है. मेरे पास आकर मेरी पीठ थपथपाते हुए बोला-देखो ये है गाँधी का ठीक भगट, टुम सब साला रोटी खाने आया है. मुझे पूछा क्या है टुमारा नाम, मैने बताया, बोला ठीक है. लम्बी सजा काटे क्रिमिनल कैदी, जिनकी छूटने की अवधि कुछ ही बची होती हैं, को लाल टोपी पहननी होती थी. उन्हें एक-एक डंडा देकर अन्य कैदियों को पीटने का काम दिया जाता था. ऐसा न करने पर हुक्म अदूली का कार्यवाही चलाकर जेल कायदे के मुताबिक सजा बढ़ा देते थे.
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इस प्रकार बरेली जेल में 14 नवम्बर 1942 से 6 अगस्त 1943 तक अनेक कष्टों और काण्डों के बीच दिन बीतते रहे. जब कभी भारी कष्टों एवं अत्याचारों से लड़ने की बात आती तो गाँधी जी का वह कथन कष्ट सहने का बल देता था कि ‘जेल के नियमों का पालन करना जरूरी हैं, चाहे जितने भी कष्ट सहन पड़े.’ मैं मलेरिया से पीड़ित होने से बहुत कमजोर हो गया था. डाक्टर ने मुझे जेल के अस्पताल में भर्ती कर लिया. 3 माह तक कोई फायदा नहीं हुआ. दवा में एक हरा पानी मिलता था. एक दिन एक सिविल सर्जन ने अस्पताल के राउण्ड में मुझसे पूछा तुम्हें दवा मिलती और मैंने हाँ करते हुए हरे रंग की पानी वाली दवा बताई तो सिविल सर्जन साहब डाक्टर पर बहुत बिगड़े. राउण्ड खत्म होने पर डाक्टर मुझ पर बिगड़े. एक बोतल कुनीन लाकर मेरा मुँह पकड़कर बहुत सारी दवा उड़ेल दी. मुझे गाली देते हुये वापस चले गये. इससे ये शायद दो या तीन दिन ठीक दवा मिली. फिर ठीक हो जाने पर मुझे डिस्चार्ज कर दिया गया. इस बीच हमारे बैरक के सारे कैदी 6 अगस्त 1943 को लखनऊ कैम्प जेल में भेज दिये गये, जिसमें मैं भी शामिल था. हम रात को एक आग की स्टीम से चलने वाली बंद गाड़ी में भेजे गये.
सुबह करीब 4 या 5 बजे हम लखनऊ जेल पहुंचे. जेल के बाहरी और भीतरी गेट के बीच की बंद जगह में हमें रखा गया. कुछ देर बाद कुछ लठैत बाडरों ने आकर हम पर सटासट लट्ठ बरसाने शुरू कर दिये. हम कैदी विलखते-विलखते अर्धमूछित हो गये. तब हमें छोड़कर पीटने वाले वापस चले गये. हमें कराहते-कराहते दिन चढ़े बहुत देर बाद जेल के अन्दर किया. अन्दर बहुत से कांग्रेसी कैदी अन्य जेलों से आकर भरे पड़े थे उनसे मिलने पर कुछ भरोसा बधा. हमने अपनी-अपनी चोट दिखाई. पिटाई का कारण पूछने पर उन्होने बताया कि आतंक फैलाने के लिये ऐसा किया गया.
इस कैम्प जेल में लगभग 26 सौ कांग्रेसी कैदी बताये गये. यहा टिन की सकरी-सकरी बैरकों की लाइन बनी थी. बैरक की एक लाइन को दूसरे से घने कटीले तारों से बाँटा था. यह जेल लखनऊ से दूर जंगल में बनी थी. जेल की बाहरी रक्षा दीवार कटीले तार और लोहे की चादरों से बंद थी. बैरक की छत बहुत नीची थी. सकरी बैरक के अन्दर दोनों ओर जमीन में लाइन से कैदी रहते थे. गर्मियों में टिन की बैरक की तपन से तड़प-तड़प कर जमीन और शरीर में पानी डाल-डाल कर दिन बिताने पड़े. खाने को सुबह कुछ चने और दोपहर को पानी ही पानी वाली दाल एवं पाँच रोटी. आटे में मिट्टी होने से राटी चबाई नहीं जाती थी. हम रोटियों का चूरा बनाकर पानी वाली दाल में भिगोकर पी लेते थे. इसी प्रकार दिन निकलते गये.
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एक दिन कैदियों का स्वास्थ्य देखने के लिये बाहर से सिविल सर्जन का दौरा था. हम कैदी बैरक के बाहर अपना तसला-चटाई लेकर खड़े थे. सिविल सर्जन राउण्ड पर आये. मैं और मेरे दो साथी उम्र में सबसे छोटे थे. साहब ने हमसे पूछा- तुम अलमोड़ा के लोग बनियान बुनना जानते हो, हमने हामी भर दी. साहब ने बच्चों की बनियान बनाने को ऊन और सीक भेज दी. अगले दिन से हम बनियान बनाने लगे. जब जेल सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब को मालूम हुआ तो उन्हें बड़ा गुस्सा आया. हमारा सामान छीन लिया. यह बात जब सिविल सर्जन को मालूम हुई तो उन्होंने कैदियों के स्वास्थ्य निरीक्षण को फिर हुक्म दिया. सिविल सर्जन आये एवं हम अधिकतर कमजोर कैदियों की ड्यूटी माफ कर दी और दूध की खुराक लिख गये. तब क्या था 10-12 दिन तक कैदियों को बड़ी राहत और आराम मिला.
गर्मियों में सुपरिटेन्डेन्ट दूध का प्रबन्ध नहीं कर पाये. बड़ा झगड़ा चला. कायस्थ सुपरिटेन्डेन्ट और अग्रवाल सिविल सर्जन में आखिर समझौता हो गया और कैदियों की सुविधा वापस और दुर्दशा शुरू हो गई. इस जेल में मैं कुछ कम्युनिस्ट विचार वाले कैदियों के साथ रहा. इससे मुझ पर कम्युनिज्म का प्रभाव पड़ा. वैसी ही किताबें पढ़ने को मिली.
जेलों की दुनिया भी अजीबोगरीब है. हँसी खुशी कुछ देखने-सुनने को नहीं मिलती. तीज-त्यौहारों का भी पता नहीं रहता. दुनिया में क्या हो रहा है कुछ मालूम नहीं. हम लोग गाँधीजी के भजनों को गाकर अपनी आत्मा को शान्त करते. शाम जेल बन्द होते समय झंडा प्रार्थना नियमित तौर पर करते. जेल में अधिकतर कैदी अलमोडा व गोरखपुर के देहाती किसान थे, शहरी बहुत कम.
आखिरकार 29 जून 1944 को मेरी और मेरे एक साथी शिवदत्त की जेल से रिहाई हुई. हमारे साथ जेल का एक बादर लखनऊ रेलवे स्टेशन से काठगोदाम तक का टिकट काटने आया. हम अगले दिन काठगोदम पहुच गये. वहाँ एक देशप्रेमी दुकानदार ने हमें खाना खिलाया. गाड़ी में बैठने को पैसा तो हमारे पास था नहीं, पैदल रात को गरमपानी पहुचे. अगली रात अपने घर पहुचे. मैं घर के अन्दर गया तो घर सुनसान खुला पड़ा था और अंधेरा छाया था. घर में खाना बनाने या अन्य कोई सामान नहीं था. पड़ोस में अपने ताऊ के घर गया तो देखा कि माँ एक फूटे तसले में गुंथा मडुवे का आटा रखे उनकी अंगीठी में रोटी पकाने का इन्तजार कर रही है.
मैं मां से लिपट गया. बहुत देर हम दोनों रोते रहे. फिर आशल-कुशल पूछने के बाद एक दूसरे को अच्छी तरह देखते रहे. माँ फटे हाल एवं चेहरा सूखा था. थकी हारी मेरे वियोग से पीड़ित थी. मुझे कमजोर देखकर उसे दुख हुआ. एक एक रोटी नमक से खाकर घर के एक कोने में पुआल बिछाकर सोये. माँ से मालूम हुआ कि घर के बर्तन आदि कुर्क हो गये हैं. एक बैल एवं बछिया भी कुर्क कर ली गई. ओढ़ने, बिछाने के गुदड़े, कपड़े सब पुलिस ने जला दिये. भय से किसी ने खाना बनाने के बर्तन भी नहीं दिये. गाँव के उस पार बाँस के झुरमुट के नजदीक एक बुढ़िया अकेले रहती थी. वह चोरी छिपे माँ को एक कढाई दे गई. माँ उसी झाड़ी की ओट में कुछ अन्न उबालकर पी आती तथा कढ़ाई साफकर वापस कर आती थी. किसी न किसी प्रकार दिन निकालने की बात माँ ने मुझे बतलाई.
जब मैं गाँव में किसी से मिलने जाता तो वह मुझे शंका की निगाह से देखता था. जेल से छूटते समय अपने अन्य कैदी साथियों से कह आया था कि घर जाकर अपने इलाके के आन्दोलन की हालत और तुम्हारे घर की भी खबर भेजूंगा. कैसे भेजता? मुझे पोस्ट कार्ड खरीदने को 3 पैसा भी नहीं मिल पाया. फिर मैं अपने एक सत्याग्रही साथी केशव दत पाण्डे, कुमाल्ट वालों के पास गया. उन्होंने मुझे एक तवा, कर्छी, तसला और एक छोटी सी तौली दी और पत्र लिखने को एक पोस्ट कार्ड.
(Memoir of a Freedom Fighter of Uttarakhand)
मैं अपना कर्घा और कुछ सामान पड़ोसी पानदेव को सौप गया था. वह भी आना-कानी करने लगा. किसी तरह मिन्नत करने पर उसने मुझे अपने साथ बिनाई का काम करने दिया. फिर हमारी यह ऊनी उद्योगशाला रोटी कमाने लायक हो गई. इन दिनों ऊन आठ आना सेर बिकती थी. गाँव के घर-घर में इसकी कताई खूब चली. लोगों ने ओढ़ने को पंखी, पहनने को कपड़े इसी से बनवाये. इससे हमारी उद्योगशाला 2-3 साल तक खूब चली.
इस प्रकार मुझे 1930 में एक रात हवालात, चार डंडे सजा, 1941 में 1 दिन की कैद और रु. 30 जुर्माना न देने पर 2 माह की सख्त कैद हुई. फिर 1941 में ही एक वर्ष की कैद तथा रु. 100 जुर्माना न देने पर छः सप्ताह की कैद की सजा हुई. 1942 में दो-दो साल की कैद व रु.50 जुर्माना न देने पर दो माह की सख्त कैद हुई.
(Memoir of a Freedom Fighter of Uttarakhand)
–खीम सिंह नेगी
स्वतंत्रता सेनानी खीम सिंह नेगी का यह ऐतिहासिक संस्मरण पहाड़ पत्रिका के 2002-03 में छपे अंक से साभार लिया गया है.
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