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परदेस में रहने वाले पहाड़ी को पत्नी की प्यार भरी चिठ्ठी

परदेस को चिठ्ठी लिखने का भी कोई कायदा होता होगा. बाबू ने ही तो कहा था – “दुःख में जो-जो मुंह से निकला सब लिख देना हुआ क्या?” फिर तो परदेस में चिठ्ठी बांचने का भी कोई कायदा होता होगा. लेकिन बाबू ने यह तो कभी नहीं कहा. मोहन की चिठ्ठी तो वे पूरी पढ़ देते थे. तो जो-जो चिठ्ठी में लिखा ठहरा वह सब बांच देना हुआ क्या?
(Letter to Husband)

वह पीतांबर, जो गुसांईं दत्त के क्वार्टर में रहता था, किसी-किसी शाम पुष्कर को चुपचाप बुलाकर हाते के बाहर, कालोनी की सड़क पर लगे बिजली के खम्भे के नीचे ले जाता था. बिजली के लट्टू के पीले प्रकाश में जांघिये की कमर में खोंसा लिफ़ाफ़ा निकालता और कहता था – “पढ़ तो यार, क्या लिखा है.”

पीतांबर तेईस-चौबीस बरस का हट्टा-कट्टा लड़का था और चीफ़ साहब की कोठी में काम करता था. चर्चा होती थी कि उसकी बेली पतली-पतली रोटियां मेमसाहब को बहुत पसंद हैं. पहाड़ी नौकर तो उन्हें खूब पसन्द थे, मगर आमतौर पर उनमें यह नुक्स होता था कि वे रोटियां मोटी-मोटी बेलते थे. पीतांबर अपवाद था और ऐसे फुल्के बेलता था कि फूंक मारो तो उड़ जाएं. यह बात अक्सर गुसांईं दत्त कहते थे जिनसे पीतांबर की पकाई रोटी खाई ही नहीं जाती थी. वे उससे सारा काम करा लेने के बाद रोटी पकाने खुद बैठते थे.

पीतांबर पांच भाइयों और दो बहनों में सबसे बड़ा था. घर में भाई-बहनों के अलावा बूढ़े मां-बाप थे, जिन्होंने पीतांबर के नौकर होते ही उसका ब्याह कर दिया था. कभी स्कूल का मुंह न देखने वाले पीतांबर को सौभाग्य या दुर्भाग्य से पांच पास दुल्हन मिली थी जो ‘प्राणनाथ’ सम्बोधन से उसे चिठ्ठी लिखती थी. शादी हुए दो बरस हो रहे थे और इस दौरान पीतांबर दस और फिर पंद्रह दिन की छुट्टी लेकर कुल दो बार घर गया था. शादी से पहले माता-पिता या भाई-बहन की चिठ्ठियां वह गुसांईंदत्त जी से पढ़वा लिया करता था. लेकिन अब चिठ्ठी पाते ही उसे पाजामे के भीतर जांघिये की कमर में खोंस लेता और शाम को कोठी की रसोई निबटा आने के बाद पुष्कर को पकड़कर सीधा बिजली के खम्भे के नीचे ले जाता.
(Letter to Husband)

बाद में पुष्कर को उसकी चिठ्ठियां पढ़्ते हुए अजीब सा महसूस होने लगा था, जिसमें एक हिस्सा अपराधबोध का भी था. पति के नाम पत्नी की अंतरंग चिठ्ठी, बल्कि प्रेमपत्र पढ़ते हुए वह अचकचा भी जाता था. वह सोचता, क्या उसे यह सब पढ़ना चाहिये? लेकिन न पढ़े तो पीतांबर को कैसे पता चलेगा कि उसकी बीवी ने रात को अंधेरी कोठरी में, छिलुके की कांपती लौ में अपने एकाकी दिल का क्या-क्या हाल लिखा है. वह अनपढ़ा रह जाने के लिए तो नहीं लिखा गया. लेकिन यह लड़की कैसी पागल है, जो यह भी नहीं सोचती कि उसका पत्र उसके पति को किसी और के द्वारा पढ़कर सुनाया जाएगा और जो उन दोनों के बीच कहा-सुना जाना चाहिये, वह किसी तीसरे के होंठों से उचारित होगा.

“पढ़ यार, रुक क्यों गया? साफ़ नहीं लिखा है क्या?” उसका असमंजस देखकर पीतांबर उतावली मचाता. चिठ्ठी सुनते हुए वह कैसा – कैसा तो करने लगता था. बार बार अपने बैठने का तरीका बदलता, चिठ्ठी के ऊपर झुककर टेढ़ेमेढ़े हरफ़ों को घूरा करता, जैसे कि जो पढ़ा जा रहा हो, उसकी पुष्टि करता हो. वह बिल्कुल ही भूल जाता था उसकी पत्नी का पत्र कोई तीसरा, बड़ा होता हुआ लड़का पढ़ रहा है.

मरती हूं तुम्हारी याद में जिंदा न समझाना
लिखती हूं पत्र खून से स्याही न समझना

उसकी हर चिठ्ठी इसी शेर से शुरू होती थी और कागज़ पर यह सबसे ऊपर बीचोबीच ऐसे लिखा होता था जैसे कुछ लोग ‘ऊं श्री गणेशाय नमः’ लिखते हैं.

“प्राणनाथ, ईश्वर की कृपा से आपको कुशल से चाहती हूं. यहां सब कुशल है. दिन भर की थकी रात को छिलुका जलाकर यह चिठ्ठी लिख रही हूं. पूरे बदन में दर्द होता है. आज दिन भर खेतों में पोर्सा (खाद) फेंका. कम से कम चढ़ाई में ही पचास चक्कर लगाए होंगे. गर्दन में बहुत दर्द हो रहा है. नींद नहीं आती. दिन तो किसी तरह काम करके निकल जाता है, मगर रात कैसे काटूं?

“क्या करूं, यहां ऐसे लोगों के बीच फंसी हूं. आपके ईजा-बाबू एक बार भी नहीं कहते कि दुल्हैणी थोड़ी देर आराम कर ले. अपनी लड़कियों का तो बड़ा खयाल रखते हैं. उनसे घर के सामने वाले खेतों में खाद डलवाई. मुझे ऊपर चढ़ाई वाले खेतों में लगा दिया. दिन भर जुती रही. एक आपका सहारा हुआ तो आप परदेस ठहरे. किससे अपना दुःख कहूं. कभी-कभी आपकी सूरत याद करती हूं. दो बरस में ठीक से देखा भी नहीं. आप कोठरी में आते ही छिलुका बुझा देने वाले हुए. खुसफ़ुश बात भी करने देने वाले नहीं हुए. कितनी बार उन रातों की याद करती हूं. कैसे फुर्र से उड़ गए आठ-दस दिन. दो-चार दिन की छुट्टी लेकर आ जाओ या मुझे भी अपने साथ ले जाओ. जब बूढ़े होंगे तब ले जाओगे क्या.

दिल्ली बटी जहाज उड़ो, बंबई सहर
या तु ऐ जा, या मैं ल्हि जा, कि दी जा जहर.

(दिल्ली से जहाज उड़ा, पहुंचा बम्बई शहर. उसी तरह तुम आ कर मुझे ले जाओ या भेज दो जहर.)

“उस रात आपसे मेरी दो चूड़ी टूट गई थी और आपकी ऊंगली से खून आ गया था. हाथ की चूड़ी बजती है तो भी आपकी नराई लग जाती है.

कुर्माई ले घोल लगायो, धरती कोरी-कोरि
त्वीलो मेरो मांस खायो, रात चोरी-चोरि

(जैसे कुर्माई धरती कोर-कोर कर अपना घोंसला बनाती है, वैसे ही आप रातों को चोरी-चोरी मेरा मांस खा जाते हैं.)

अच्छा प्राणनाथ, अब लिखना बन्द करती हूं. छिलुका भी बुझ रहा है. कलम की गलती माफ़ करना. पत्र का जवाब आप ही आना.

आपकी प्राणप्यारी
जानकी
(Letter to Husband)

इसके बाद भी कागज़ में ऊपर-नीचे. दाएं-बाएं जो जगह बच रहती, वहां कुछ न कुछ लिखा रहता – यहां क्या लिखा है, ये तिरछा-तिरछा? चिठ्ठी का बारीक मुआयना करता हुआ पीतांबर पूछता और उसे पढ़ना पड़ता.

ह्यूं पड़ो बरफ सुवा, ह्यूं पड़ो बरफ
पंछी हिनी उड़ी ऊनी, मैं तेरी तरफ

(मेरे प्रिय, यहां पड़ रही है बर्फ़. पंछी होती तो चली आती मैं तुम्हारी तरफ़!)

काटन्या-काटन्या पौली ऊंछौ, चौमासी को बन
बगन्या पाणी थमी जांछौ, नी थामीनो मन.

(बहते पानी को तो थामा जा सकता है लेकिन मन को थामना असंभव है.)

और इन चिठ्ठियों के जवाब में पीतांबर क्या लिखवाता था?

किसी दोपहर वह आता और पुष्कर से लिखवाता – “सिद्धी सिरी सर्वोपमायोग्य पूज्य इजा-बाबू को पैर छूकर नमस्कार. भाई बहनों को प्यार. मैं यहां राजी-खुशी हूं. आप सबकी कुशल के लिए सुबह-शाम भगवती मां से हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूं. एक सौ रुपए का मनीआर्डर कुछ दिन पहले किया था. मिलने पर चिठ्ठी देना …”

“पीतांबर दा, भाभी के लिए कुछ नहीं लिखाएगा? पुष्कर पूछता.

“क्या लिखाऊं?” वह भोलेपन से कहता – आशक-कुशल तो हो गई.”

“लेकिन वह तो तुम्हें बराबर इतनी चिठ्ठियां लिखती है. इतनी-इतनी बातें.”

पीतांबर चुप लगा जाता, मग्र उसका चेहरा उसके मन की चुगली करने लगता. पुष्कर सोचा करता कि भाइयों के कुर्ते-पाजामे, बहनों के फ़्राक, मां की धोती, पिता की वास्कट और हर महीने एक मनीआर्डर का जुगाड़ करते हुए जवान पीतांबर के पास पत्नी की ऐसी चिठ्ठियों के कहां और कितनी जगह होती होगी?
(Letter to Husband)

कुछ वर्ष बाद एक साल जाड़ों में पीताम्बर अपनी घरवाली को लखनऊ लाया था. तब पुष्कर ने उसे देखा था और यह कल्पना करना भी मुश्किल हो गया था कि कुछ वर्ष पहले अपने पति को वैसे प्रेम पत्र लिखने वाली जवान पत्नी का चेहरा कैसा रहा होगा. पीतांबर उसे लखनऊ लाया था, घुमाने फिराने नहीं इलाज कराने. तब वह दो छोटे-छोटे बच्चों की मां थी और सूखकर पीली पड़ गई थी. पीतांबर ने उसे सरकारी अस्पताल में और प्राइवेट में भी दिखाया. लेकिन जब दो महीने लखनऊ रहकर वह पहाड़ के लिए रवाना हुई, तब भी उसके चेहरे का पीलापन और रातों का बुखार बरकरार था. धूप, आराम और साबुन-पानी से धोने के बाद तेल के लेप से एड़ियों की खतरनाक बिवाई ज़रूर कुछ भर गई थी.

वे उत्कट प्रेमपत्र कब के आशल-कुशल के लेखे और परिवार की ज़रूरतों के मांगपत्रों में बदल चुके थे.
(Letter to Husband)

नवीन जोशी

यह लेख नवीन जोशी के उपन्यास ‘दावानल” का हिस्सा है.  ‘दावानल’ सामयिक प्रकाशन से 2006 में छपकर आया था. बीसवीं सदी के सन अस्सी के दशक में छिड़े चिपको आन्दोलन को इस उपन्यास की पृष्ठभूमि बनाया गया है. बहुत सारे आत्मकथात्मक तत्व भी इस कृति में पिरोये गए हैं. कुमाऊंनी ग्रामीण परिवेश और पलायन को अभिशप्त निर्धन कुमाऊंनी समाज के युवाओं की कई छोटी-बड़ी कहानियां इस उपन्यास की सतह के ऐन नीचे सांस लेती रहती हैं.
(कबाड़खाना से साभार)

नवीन जोशी ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र के सम्पादक रह चुके हैं. देश के वरिष्ठतम पत्रकार-संपादकों में गिने जाने वाले नवीन जोशी उत्तराखंड के सवालों को बहुत गंभीरता के साथ उठाते रहे हैं. चिपको आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास ‘दावानल’ अपनी शैली और विषयवस्तु के लिए बहुत चर्चित रहा था. नवीनदा लखनऊ में रहते हैं.

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