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नैनीताल के अजब-गजब चुनावी किरदार

आम चुनाव आते ही नैनीताल के दो चुनावजीवी अक्सर याद आ जाया करते हैं. चुनाव चाहे विधानसभा के हों अथवा लोकसभा के अथवा उस क्षेत्र से दूसरे उम्मीदवार कितने ही कद्दावर हों, इसका उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता था और वे स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनावी जंग में कूद पड़ते. यह भी कि सक्रिय राजनीति से उनका दूर तक कोई वास्ता नहीं था फिर भी हर चुनाव में दावेदारी उनका एक शगल बन चुका था. यह जानते हुए भी कि चुनाव में जीतना उनके बूते की बात नहीं.
(Article by Bhuwan Chandra Pant)

जुनून ऐसा कि एक चुनाव बीतने के बाद वे राजनैतिक जीवन से भले एकदम नदारद रहते लेकिन अगले पांच साल बाद होने वाले चुनाव में वे पुनः मैदान में खड़े नजर आते और अपनी पूरी दमखम से चुनाव लड़ते. इन्हें राजनैतिक नेता भी कैसे मानें? क्योंकि परिहासवश भले लोग इनके साथ दिखें, लेकिन समर्थक न के बराबर. ऐसा भी नहीं कि चुनाव लड़ने के लिए इनके पास अकूत सम्पत्ति हो. निहायत गरीबी की हालत में जीवन यापन करने वाले ये चुनावजीवी, बमुश्किल नामांकन के लिए जमानत की धनराशि जुटाते.

यदि आपने पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक में होश संभाल लिया हो और नैनीताल के आस-पास के क्षेत्र के आप वाशिन्दे रहे हों तो यकीनन इन नामों अथवा चेहरों से रूबरू होने का मौका आपको अवश्य मिला होगा.

इनमें एक नाम था – रागी बाबा. हालांकि वास्तविक नाम उनका कुछ और था लेकिन चुनाव में वे रागी बाबा के नाम से विख्यात थे. मूलतः पहाड़ के लमगढ़ा के निवासी और बाद में भवाली के पास के किसी गांव में बस गये थे. कुछ बकरियां पालकर अपनी गुजर-बसर करने वाले, चुनाव का आगाज होते ही अपनी बकरियां बेचकर जमानत राशि जुटाते और नामांकन कराकर चुनाव मैदान में कूद पड़ते. उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता चुनाव विधान सभा का हो या लोकसभा का और यह भी उनके लिए केाई मायने नहीं रखता था कि इस क्षेत्र से कौन दिग्गज चुनाव लड़ रहे हैं.

हुलिया कुछ इस तरह का कि हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करा दे. साठ बसन्त पार कर चुके, कृशकाय, मुंह में छुटपुट लम्बे दांत जो हंसने पर अक्सर बाहर झांकते नजर आते, सिर पर पहाड़ी अन्दाज का साफा, गले में लटकती बड़े-बड़े विविध रंगों की मनकों की माला, ऊपर झगुला या अचकन टाइप लबादा, जिसकी जेबों में भरे सामान से लटकती जेबें, नीचे चूड़ीदार पैजामा तथा हाथ में लाठी पर बंधी घण्टी, जिसे भाषण से पहले बजाकर वे लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते.
(Article by Bhuwan Chandra Pant)

तब हम नैनीताल के डीएसबी कालेज में पढ़ा करते. तल्लीताल डांट की रैंलिंग पर लगे पाइप छात्रों के बैठने की पसन्दीदा जगह हुआ करती और उस पर यदि डांट पर रागी बाबा की चुनावी सभा हो तो छात्रों की बल्ले-बल्ले. लड़कों के “ रागी बाबा जिन्दाबाद ’’ के नारों से माहौल गरमा जाता और रागी बाबा का उत्साह कुलाचें मारने लगता. चुनावी भाषण से पूर्व रागी बाबा अपने सामने एक रूमालनुमा कपड़ा बिछा देते जो उनका चुनाव कोष होता.

कुछ उत्साही नवयुवक उन्हें गान्धी जी मूर्ति के पास ऊॅचे स्थान पर खड़ा करते और बिना किसी माइक के रागी बाबा का चुनावी भाषण शुरू हो जाता. ठेठ पहाड़ी अन्दाज में उनका भाषण होता. अक्सर दो ही चुनावी मुद्दे उनके रहते. पहला – नैनीताल में रेल लाने का और दूसरा लोकसभा या विधान सभा जहां भी वे जायेंगे, वहां से कुर्सी हटवाना. कहते – आज लड़ाई कुर्सी की है, इसलिए मैं लोकसभा अथवा विधानसभा से कुर्सी हटवाकर दरी बिछवाऊंगा. उनके भाषणों के बीच उपस्थित लड़के ‘रागी बाबा जिन्दाबाद’ का नारा लगाते तो रागी बाबा और जोश में आ जाते. फिर उनका जूलूस बाजार के लौंडों की अगवाई में मालरोड होते हुए मल्लीताल को प्रस्थान करता. आगे-आगे रागी बाबा उनके पीछे नारे लगाते हुए लड़कों का हुजूम, बीच-बीच में उनका उत्साह बढ़ाने के लिए “जीतेंगे भाई जीतेंगे रागी बाबा जीतेंगे’’ का उद्घोष. रागी बाबा का यह चुनाव प्रचार मतदाताओं को रिझाने का नहीं बल्कि हास-परिहास का विषय रहता और क्या युवा क्या उम्रदराज प्रत्येक विनोदी प्रकृति का व्यक्ति इसका हिस्सा बनने से गुरेज नहीं करता.

इसी तरह के एक और चुनावजीवी थे – बाल किशन “अण्डे वाला’’. अब ये तो नहीं पता कि “अण्डे वाला’’ उपनाम उनके साथ कैसे जुड़ गया. हो सकता है कि कभी अण्डे बेचते हों अथवा इससे जुड़ा कोई अन्य रोचक प्रसंग हो. लगभग छः फुट लम्बे, भारी बदन, गंजी खोपड़ी ढकने के लिए सिर पर अंग्रेजनुमा ’हैट’, लम्बा सा ओवर कोट, पतलून व पैर में बूट और हाथ में एक हण्टर लिये वे हिन्दुस्तानी अंग्रेज का अहसास कराते. बड़ा बाजार मल्लीताल में नयना बुक डिपो के ठीक सामने तिरपाल के नीचे उनकी कच्ची दुकान हुआ करती, जिसमें उपन्यास, कहानी बच्चों के कॉमिक्स आदि की पुरानी किताबें वे बेचा करते. उनकी अनुपस्थिति में उनकी धर्मपत्नी भी उनका हाथ बंटाती. दुकान से अनुपस्थिति उनकी अक्सर तब ही हुआ करती, जब वे चुनाव लड़ रहे होते.
(Article by Bhuwan Chandra Pant)

चुनाव लड़ना उनका भी पसन्दीदा शौक था. शौक इसलिए कि उनको भी यह तो पता था कि चुनाव जीतना उनके बूते की बात नहीं, जमानत जब्त होने के बाद भी वे चुनाव में उम्मीदवारी से कभी पीछे नहीं हटे. नहीं पता, कि उन्होंने कितने और कब-कब चुनाव लड़े, लेकिन इस चुनाव के बहाने वे नगर में बाल किशन ‘अण्डे वाला’ के नाम से अपनी पहचान बना चुके थे.

“एकला चलो रे” की तर्ज पर वे बैटरी से चलने वाला भौंपू अपने कन्धे पर लादकर और माइक पर बोलते हुए चुनाव प्रचार को निकल पड़ते. उनका हॅसता-मुस्कराता चेहरा यह जाहिर तो कर ही देता कि बिना किसी संगी-साथी के, स्वयं का अकेले चुनाव प्रचार करने में उन्हें न तो कोई संकोच था और न तनाव. अब इसे लोकतंत्र की खूबी कहें या मखौल, ये तो आप स्वयं तय करें. लेकिन ये तो तय है कि इस प्रकार के शौक आम इन्सान को खास बना देते हैं. क्या फर्क पड़ता है चुनाव हार जाने से, लेकिन ऐसे किरदार आज भी लोगों की यादों में कम से कम जिन्दा तो हैं.
(Article by Bhuwan Chandra Pant)

– भुवन चन्द्र पन्त

भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

इसे भी पढ़ें: अबूझ पहेली से कम नहीं हैं पहाड़ की कुछ प्रचलित मान्यताएं

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