[वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.]
नैनीताल पहुंचना पहाड़ के बालक का
-देवेन मेवाड़ी
ईजू, याद है, पहाड़ की वह कथा सुना कर मैंने कहा था ना कि फिर मिलेंगे? बहुत समय हो गया लेकिन अपने देबी को आप भूले जो क्या होंगे? सदा अपनी किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में ही रहने वाला हुआ मैं, आपके ही पास.
तो, बचपन की कथा सुना रहा था देबी कि कैसे गांव में पल-बढ़ कर इंटर पास हो गया. उसके बाद यह आगे पढ़ने के लिए शहर गया ईजू, बिजली से जगमगाते अपने सपनों के शहर- नैनीताल.
“ओं. तो फिर आगे क्या हुआ? कहो देबी, आगे की कथा कहो…”
“अच्छा, तो सुनो फिर.”
सपनों का शहर
और, आखिर वह दिन भी आ गया, जब हमें नैनीताल के लिए रवाना होना था. ददा और मैं, एकदम सुबह तैयार हो गए. मनाघेर तक दस-बारह किलोमीटर पैदल जाना था. चलने से पहले घोड़े वाले के घोड़े में सामान भिजवा दिया ताकि हमारे वहां पहुंचने तक सामान भी पहुंच जाए. नानी भौजी ने पिठियां-अक्षत और घी-गुड़ की शिरनी तैयार की. ददा को और मुझे पिठियां लगाया. मैंने भौजी के पैर छुए, पैलाग कहा.
भौजी ने आशीर्वाद दिया, “जीते रहो देबी, खूब पढ़ना और पास होना.”
मैं ददा के पीछे-पीछे तेज कदमा से मनाघेर की ओर चल पड़ा. वहां हमारे पहुंचने तक सामान पहुंच चुका था. लोग पहाड़पानी की ओर से आने वाली बस का इंतजार कर रहे थे. हम भी वहीं खड़े हो गए.
बस आई. हमने सामान छत में सेट करके लगा दिया और भीतर जाकर बैठ गए. बस नैनीताल को चल पड़ी.
सरगाखेत, लेटीबूंगा, भटलिया, कसियालेख, सतबुंगा, रामगढ़, गागर, भवाली से होते हुए बस हरे-भरे पहाड़ों को पार करती हुई नैनीताल डाट में पहुँची. अचानक नेपाली कुली चीलों की तरह बस पर झपटे और अपना ऐल्युमिनियम का लाइसेंस टोकन दिखाते हुए चिल्लाने लगे, “हुजूर, मेरो लाइसेंस पकड़ो. सामान मैं लि जान्या छ.” मुश्किल से बाहर निकले. एक नजर सामने देखा. आर-पार डबाडब भरा हुआ नैनीताल का ताल था. पहाड़ों पर घने हरे-भरे पेड़ा के बीच-बीच में लाल, हरी टीन की छतों वाले मकान चमक रहे थे. एक कुली से सामान उतरवाया और सामने बी.दास एंड संस की दूकान के पास ले गए. ददा ने एक मिनट रुकने को कहा. ऊपर जाकर देखा और आकर सीढ़ियों से ऊपर ले गए. वहां जाकर ददा ने मुझसे हाथ जोड़ने को कहा और बोले, “ये नेगी जी हैं. वकील साब. आज यहीं रुकते हैं. कल तुम्हारे रुकने का इंतजाम करेंगे.”
थोड़ी देर बाद हम बाहर निकले. ददा ने नीचे की ओर जाने वाली सड़क के साथ लगी दुकानों के पास नाई की एक दुकान में ले जाकर कहा, “इसके बाल थोड़ा छोटे कर दो.” नाई ने कुर्सी में बिठा कर मेरे बाल बनाए और कंधे तक लंबे बाला को काफी छोटा कर दिया.
वहां से निकले तो ददा बोले, “चलो, अब फोटो खिंचवा लें. तीन फोटो चाहिए एडमिशन के लिए.” हम डाट से आगे की ओर साफ-सुथरी रोड पर पहुंचे तो ददा ने बताया, “यह मालरोड है. और, नीचे वह लोअर मालरोड.” माल रोड पर लोग आ-जा रहे थे और नीचे की रोड पर कभी-कभी कोई आदमी घोड़ा दौड़ाता हुआ निकल जाता था. मालरोड के किनारे-किनारे मोटे तारों की रेलिंग झूल रही थी. कहीं-कहीं कोई बेंच भी रखी हुई थी. मालरोड पर चिनार के पेड़ों की लंबी कतार थी. उनके नीचे भी बैठने के लिए दो-एक बेंच थीं. सामने दो होटल थे- इंडिया और एवरेस्ट. आगे सेन्ट्रल होटल और फिर सड़क से थोड़ा ऊपर ‘लक्ष्मी टाकीज’. अगले मोड़ पर ‘नारायन बुक स्टोर’, उससे आगे कतार में दुकानें. फिर एक चर्च. हम सीधे आगे बढ़ते रहे. मल्लीताल चैराहे के पास पहुंचे. उसके पीछे, थोड़ा ऊपर कतार में दुकानें थीं. पहले माडर्न बुक डिपो, फिर किसी चीनी जूतेसाज की दूकान, आगे ‘कोहली ब्रदर्स’ फोटोग्राफर. ददा ने कहा, आओ, यहां खिंचा लेते हैं फोटो.” दीवाल पर एक से एक बढ़िया फोटो टंगे थे. मैं तो पहली बार दूकान में फोटो खिंचा रहा था, इसलिए सकपकाया हुआ था. फोटोग्राफर साब ने कहा, “यहां भीतर आकर बैठो, इस स्टूल में.” और, फिर फोटो खींच दिया. कैमरा चम्म चमका. उन्हें एडमिशन के बारे में बताया तो बोले, “यह फिल्म पूरी होने वाली है. कल दिन में ले लीजिए.”
वहां से थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि हमारे इंटर कालेज के शास्त्री मास्साब दिख गए. वे भी किसी काम से नैनीताल आए हुए थे. ददा ने कहा, “फोटो खिंचा लिया है, कल मिलेगा. कल ही एडमिशन होगा.”
“अच्छा तो अब फ्री हैं. चलिए, कोई अच्छी फिल्म देख लेते हैं,” शास्त्री मास्साब ने सुझाया.
ददा ने कहा, “ठीक है, चलिए. कल तो समय मिलेगा नहीं. कौन-सी फिल्म देखें?”
“पोस्टर देख रहा था मैं. ‘अशोक’ में गंगा-जमुना’ लगी है, ‘कैपिटल’ या ‘लक्ष्मी’ में ‘साहब, बीबी और गुलाम’ लगी है. मेरे ख्याल से गंगा-जमुना ही देख लेते हैं. इसमें दिलीप कुमार और बैजयंतीमाला हैं. अशोक टाकीज तक तो हम आ ही गए हैं,” शास्त्री मास्साब ने बताया.
हम लोग टीन की हरी छत वाले शास्त्री सिनेमा हॉल की खिड़की पर गए. टिकट लिए और भीतर जाकर हॉल के बीच में अपनी-अपनी सीट पर बैठ गए. कई लोग बिलकुल आगे बैठे थे. मैंने सोचा हमने बाद में टिकट लिए होंगे, इसलिए हमें हॉल के बीच में सीट मिली होगी. यह तो कुछ समय बाद पता चला कि आगे का टिकट सस्ता होता है. पीछे की सीटें महंगी होती हैं. मैं पहली बार किसी सिनेमा हॉल में फिल्म देख रहा था. सामने दीवाल पर बड़ा-सा, चौड़ा, सफेद पर्दा लगा था. अचानक संगीत शुरू हुआ. पर्दे पर अशोक की लाट उभरी और लिखा हुआ आया ‘फिल्म्स डिवीजन प्रस्तुत करता है…’. उसमें समाचार दिखाए गए. बाद में गंगा-जमुना शुरू हुई. मैं एकटक देखता रहा. जब ‘नैन लड़ि जइहैं तो मनवां मां कटक होइबै करी!’ गाना आया तो हॉल में लोगों ने खूब तालियां बजाईं.
फिल्म देख कर बाहर आए. शाम घिर आई थी. पूरा शहर जगमगा रहा था. हम जैसे जगमगाते तारों-भरे आकाश में खड़े थे. ऊपर आसमान में तारे. पहाड़ों, सडकों और मकानों पर जगमगाते तारे. और, हमारे सामने फैले विशाल ताल में भी तारे ही तारे. कितना अद्भुत दृश्य था. मुझे लगा, सचमुच मैं कितना भाग्यशाली हूं कि मुझे यहां पढ़ने का मौका मिला है. ताल में पूरा शहर और आसमान झिलमिला रहा था. हम जैसे सपनों के शहर में टहल रहे थे. हम लंबे-चैड़े मैदान ‘फ्लैट्स’ में उतरे. उसके एक ओर कैपिटल सिनेमा हॉल था. उसके पास से आगे नंदादेवी मंदिर में गए. वहां हाथ जोड़े. फिर बाजार में चले आए. होटल में खाना खाने के बाद नेगी जी के यहां जाकर सो गए.
अगले दिन ताल के दूसरी ओर ऊंचाई चढ़ कर देब सिंह बिष्ट राजकीय महाविद्यालय पहुंचे. संक्षेप में वह ‘डी एस बी’ कालेज कहलाता था. आर्ट्स ब्लाक का लकड़ी का भवन बहुत शानदार था. विद्यार्थी उसकी लकड़ी की चौड़ी सीढ़ियों पर फट-फट करते ऊपर-नीचे कक्षाओं में आते-जाते थे. कालेज में ऊपर-नीचे, इधर-उधर सभी इमारतें पतले, पक्के रास्तों से जुड़ी थीं और उन सब के ऊपर टीन की ढालू छत बनी हुई थी. यानी, बारिश में भी हम इधर-उधर दूसरी इमारतों की कक्षाओं में भी जा सकते थे. फीस जमा करके एडमिशन हो गया. आर्ट्स ब्लाक के भूतल पर पुस्तकालय था जहां से कुछ पाठ्यपुस्तकें भी मिल सकती थीं.
जगमगाते शहर के सौन्दर्य से मैं मंत्रमुग्ध हो गया था, लेकिन उन मास्साब की वह बात भी याद आती रही कि वहां जाकर कोई तो पढ़ लिख कर अपनी जिंदगी बना लेता है और कोई बर्बाद हो जाता है. शहर की जगमगाहट के पीछे छिपी उन चीज़ों का मुझे अभी कोई अनुमान नहीं था जो आने वाले समय में राह का रोड़ा बन सकती थीं. न यही अनुमान था कि अपरिचितों के इस शहर में कौन मेरा साथ देगा.
***
एडमिशन तो हो गया. अब रहने की व्यवस्था करनी थी. ओखलकांडा कालेज से पास होकर कुछ सीनियर लड़के पहले से नैनीताल में पढ़ रहे थे. उनमें से किसी के साथ ददा की शायद पहले बात भी हुई थी. उनसे मिले. वे ददा के विद्यार्थी रह चुके थे. वे लोग रामजे अस्पताल से थोड़ा नीचे रोहिला लॉज में रहते थे. रहने की व्यवस्था उन्हीं में से एक मुखिया सीनियर साथी देखता था जो मुझसे दो-एक कक्षा आगे था. उस साथी का बड़ा दबदबा था. हम लोग रोहिला लॉज गए. उस सीनियर साथी ने खुशी से मुझे रहने की जगह देने की बात ददा से की.
रोहिला लॉज अंग्रेजों के जमाने में बना था. उसके उस सैट में आगे सीमेंट का पक्का, कमरानुमा, संकरा बरामदा था. भीतर लकड़ी के फर्श वाला हालनुमा कमरा, जिसमें वे चारों सीनियर छात्र रहते थे. उसके भीतर किचन और फिर बाथरूम-टायलेट. ददा से मुखिया सीनियर साथी ने कहा, “यहां इस बरामदे में इसकी चारपाई लग जाएगी. कोई दिक्कत नहीं है.” कुछ देर बाद चारपाई लग गई. मैंने अपना हॉलडौल उस पर रख दिया.
ददा ने कहा, “आप लोगों के होते हुए दिक्कत क्यों होगी. आप लोग तो अपने ही हैं. घर के ही हैं. बस जरा ध्यान रख दीजिए इसका. यहां नया है और संकोच करता है. आप लोग सीनियर हैं. इसलिए इसके गार्जियन ही हुए एक तरह से. खाने का एक ठीक-ठाक होटल भी दिखा देंगे. बल्कि, जहां आप लोग खाते हैं, वहीं खा लेगा.”
“आप फिक्र मत कीजिए मास्साब. यह हमारे लिए भी छोटे भाई की तरह है. खाने के लिए तल्लीताल देवी होटल में कह दूंगा. दिखा भी दूंगा.” मुखिया सीनियर छात्र ने कहा.
“ठीक है फिर, मैं कोई चिंता नहीं करूंगा,” ददा ने कहा. वे मुझे उन्हें सौंप कर चले गए. अगली सुबह ओखलकांडा को लौट गए.
उस रात मुझे देर तक नींद नहीं आई. ‘प्यट क्वेण’ यानी मन ही मन में बातें चलती रहीं. अपने गांव, कालेज और संगी-साथियों को याद करता रहा. पहली बार ऐसी जगह आ गया था, जहां मेरा कोई परिचित नहीं था.
उस नए शहर में, अपरिचित नए लोगों के साथ मेरी नई जिंदगी शुरू हुई.
***
शाम को उन लोगों ने ‘कितने नंबर आए इंटर में’, ‘यहां क्या-क्या विषय लिए हैं’, ‘किस-किस चीज में रुचि है’, ‘यहां किस-किस को जानते हो’, ‘सिगरेट पीते हो?’ जैसे कुछ सवाल पूछे. बाद में मुखिया सीनियर छात्र ने कहा, “चलो, होटल दिखा देता हूं. महीने के 45 रूपए लेता है. तुमसे भी वही लेगा. मीट, मक्खन खाओगे तो उसके पैसे अलग से देने पड़ेंगे.”
उसके साथ तल्लीताल होटल में गया. उसने होटल मालिक देवीलाल साह जी से परिचय कराया. उन्होंने महीने के हिसाब से खाने वालों के रजिस्टर में मेरा भी नाम लिख दिया. मैंने कुछ एडवांस पैसा जमा करा दिया.
उस दिन के बाद रोज सुबह-शाम उस होटल में जाता. चुपचाप किसी खाली मेज के पास कुर्सी में बैठ जाता. खाना लगाने वाला लड़का, शायद बिशन, आता और पानी का गिलास रख जाता. फिर थाली लगा देता. बीच-बीच में गरम रोटी दे जाता. खाली समय में कभी-कभी वह इमामदस्ते में मसाले कूटता रहता. मैं खाना खाकर चुपचाप वापस कमरे में लौट आता और पढ़ने लगता.
यहां कोर्स की सभी किताबें अंग्रेजी में थीं. मैंने तो अब तक साइंस हिंदी में पढ़ा था. फिजिक्स, कैमिस्ट्री और बायोलाजी के सभी नाम हिंदी में ही जानता था. लेकिन, बी.एस-सी. की मोटी-मोटी किताबों में सब कुछ अंग्रेजी में था. एक दिन साथ रहने वाले मेरे सीनियर छात्र रघुवर सिंह नयाल एक किताब देते हुए बोले, “यह किताब रखो. फिजिकल कैमिस्ट्री की किताब है. कई लड़के कहते हैं, यह कठिन विषय है लेकिन साल भर पढ़ते रहोगे तो कठिन नहीं लगेगा. इस किताब को रट डालो.”
मैंने बाद में किताब खोली. पहले पन्ने के ऊपरी कोने में उन्होंने कभी कुछ लिखा होगा. मैंने गौर से देख कर पढ़ा. बारीक अक्षरों में लिखा था- ‘घिसते-घिसते तो पत्थर भी घिस जाते हैं. लगातार मेहनत की जाए तो कुछ कठिन नहीं रहता. सफलता जरूर मिलती है.’ मेरे लिए ये पंक्तियां मेहनत का मंत्र बन गईं.
साथ रहने वाले सीनियर छात्र कई बार पूछ लेते, “कहो, कैसा लग रहा है नैनीताल? हर समय पढ़ते रहते हो. कुछ घूमो-घामो. इधर-उधर देखो. तब तो पता लगेगा, कैसा है नैनीताल. पिक्चर-विक्चर भी नहीं देखते?”
मैंने कहा, “नहीं.”
वे बोले, “लोगों से मिलो-जुलो. घूमो-फिरो. तब कुछ सीखोगे.”
मैंने कहा, “जी”.
जुलाई दूसरे सप्ताह से कक्षाओं में नियमित रूप से पढ़ाई शुरू हो गई. वनस्पति विज्ञान और प्राणि विज्ञान में प्रैक्टिकल के लिए नया डिसैक्सन बॉक्स और रेजर खरीदा गया. प्रैक्टिकल की मोटी कापी बनाई गई जिसमें साफ-सुथरे चित्र बना कर विवरण लिखा जाता. कक्षा में जो कुछ पढ़ाया जाता, प्रैक्टिकल में उसे दिखाया और कराया जाता था. हमारी बी.एस-सी की कक्षा में सोलह या सत्रह छात्राएं थीं. लेकिन, उनसे कभी बात नहीं होती थी. बात करने का रिवाज ही नहीं था. शिक्षक अक्सर हमारे सहपाठी अजय प्रताप सिंह की कॉपी दिखा कर कहते, “काम ऐसे किया जाता है. साफ-सुथरा चित्र और संक्षेप में उत्तर. चित्र देख कर ही पता लग जाता है कि इस विद्यार्थी को प्रश्न का उत्तर अच्छी तरह आता है.”
उसी बीच एक दिन मालरोड पर पुरोहित मिल गया. मेरा पुराना सहपाठी. बोला, “मिठाई खिलाओगे तो तुम्हें एक अच्छी खबर दूंगा.”
मैंने कहा, “ठीक है, बताओ.”
पुरोहित मुझे माडर्न बुक डिपो में ले गया. वहां उसने आगरा से छपने वाली पत्रिका का नया अंक दिखाया. फिर पेज खोल कर बोला, “ये देखो, तुम्हारी कहानी छपी है.” मेरा मन खुशी से भर उठा. हमने पत्रिका खरीद ली. उसमें वह कहानी छप गई थी जो मैंने ओखलकांडा से उन्हें भेजी थी. उस दिन न जाने कितनी बार मैंने पलट-पलट कर अपनी कहानी और अपना नाम देखा. यह साबित हो गया था कि मैं भी लेखक बन सकता हूं. मेरी रचनाएं भी छप सकती हैं. उस रात अपने बरामदेनुमा कमरे की चारपाई पर लेटा-लेटा मैं करवटें बदलता रहा. नींद ही नहीं आती थी. देर रात तक मैं लिखने के तमाम सपने देखता रहा.
“सुन रहे हो क्या?”
“ओं”
(जारी)
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मॉडर्न के बगल में पीछे की तरफ चायनीज शू मेकर की दुकान क्रिप्स थी।
बक्शी फोटोग्रफर भी बगल में।ही होता था