समाज

पहाड़ी फौजी की कथा मारफ़त छप्पन ए. पी. ओ.

फ़ौज की मुश्किल नौकरी से छुट्टियों के लिए पहाड़ के घर लौट रहे एक मामूली सिपाही से अपनी कविता ‘रामसिंह’ में वीरेन डंगवाल इस तरह मुखातिब होते हैं:

ठीक है अब ज़रा ऑंखें बन्द करो रामसिंह
और अपनी पत्थर की छत से
ओस के टपकने की आवाज़ को याद करो
सूर्य के पत्ते की तरह काँपना
हवा में आसमान का फड़फड़ाना
गायों का रंभाते हुए भागना
बर्फ़ के ख़िलाफ़ लोगों और पेड़ों का इकठ्ठा होना
अच्छी ख़बर की तरह वसन्त का आना
आदमी का हर पल, हर पल मौसम और पहाड़ों से लड़ना
कभी न भरने वाले ज़ख़्म की तरह पेट
देवदार पर लगे ख़ुशबूदार शहद के छत्ते
पहला वर्णाक्षर लिख लेने का रोमाँच
और अपनी माँ की कल्पना याद करो
याद करो कि वह किसका ख़ून होता है
जो उतर आता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलने से पहले हर बार ?

कहाँ की होती है वह मिटटी
जो हर रोज़ साफ़ करने के बावजूद
तुम्हारे बूटों के तलवों में चिपक जाती है ?

कौन होते हैं वे लोग जो जब मरते हैं
तो उस वक्त भी नफ़रत से आँख उठाकर तुम्हें देखते हैं ?

आँखे मूँदने से पहले याद करो रामसिंह और चलो

पीढ़ियों से सेना और सैनिक उत्तराखण्ड की सामाजिक-आर्थिक जीवनरेखा की रीढ़ रहे हैं. पहाड़ों में शायद ही कोई घर ऐसा होगा जिसके किसी न किसी सदस्य ने कभी कभी फ़ौज में नौकरी न की हो. सेना में अपना पूरा जीवन खपा देने वाले इन वास्तविक देशभक्तों की दशा पर एक मार्मिक आलेख कोई तीस साल पहले मशहूर कथाकार मोहन थपलियाल ने लिखा था. यह लेख ‘नैनीताल समाचार: पच्चीस साल का सफर’ में संकलित है. पेश है:

मारफ़त छप्पन ए. पी. ओ.

– मोहन थपलियाल

नौकरीपेशा लोगों में पहाड़ के प्रवास का लगभग 90% सेना, पुलिस और अर्ध-सैनिक संगठनों में है.पहाड़ के जो लोग सेना में नौकरी कर रहे हैं, कई मायनों में उनका प्रवास बेहद दयनीय और भयावह भी है. यह ऐसा प्रवास है जिसमें वह प्रदेश में अपना स्थाई कुछ भी नहीं जोड़ सकता. मसलन सेना के रोल-कॉल में हर सिपाही को सूबेदार मेजर यह हिदायत देता है कि वह अपने पास कम से कम सामान रखे. ज्यादा से ज्यादा एक बिस्तर, एक ट्रंक और एक किट. पता नहीं किस घड़ी उसे छावनी छोड़कर दूसरी छावनी जाना पड़े. ऐसे मौकों पर उसे हर समय के लिए लगभग तैयारी की स्थिति में देना होता है. मूवमेंट ऑर्डर हाथ में आते ही उसे फौरन चल देना होता है. ले देकर पहाड़ी फौजी का असली मोह अपने घर-परिवार से ही होता है. वह बेताबी से अपनी सालाना छुट्टियों का इंतजार करता है जो लगभग साठ दिन की होती हैं.

रेलगाड़ी के डिब्बे से उतर कर जब वह ऋषिकेश, कोटद्वार, काठगोदाम, रामनगर या देहरादून के बस अड्डों पर पहुंचता है तो बस का टिकट खरीदने से पहले ढेर सारा सामान इन मंडियों से घर के लिए खरीदता है. इस सामान में उसका पूरा घरेलू मोह भरा होता है. गुड़ की भेली, तेल, मसाला, तवा, तसला से लेकर लोहे की कील, पेंट का डिब्बा, कपड़े और जरूरी दवाइयां इसमें शामिल होती हैं. पहाड़ के अधिकांश गांव ऐसे होते हैं जिन के सभी नौकरी पेशा सदस्य फौज में हैं. एक भाई सेना में, दूसरा नेवी में तीसरा किसी अर्धसैनिक बल में, और चौथा और पांचवां भी फौज के ही किसी संगठन में मिलेगा. ऐसे संयोग भी बहुत कम आते हैं जबकि पांच भाई इकट्ठे हो सकें. परिवार में घटने वाली सबसे बड़ी त्रासदी अर्थात मौत पर भी पांचों भाई इकट्ठा नहीं हो सकते हैं. अक्सर ऐसा भी होता है कि एक भाई आज सुबह विदा हो गया है तो दूसरा भाई उसी दिन शाम को पहुंच रहा है.

फ़ौज के कड़े कानूनों में बंधा इनका दुखद प्रवास शायद मानवीय रिश्तों के हिसाब से अत्यधिक दारुण है. फौजी की पत्नी ओबरे में लेटी है. प्रसव वेदना शुरू है. शायद घंटे भर बाद नया शिशु जन्म ले लेगा लेकिन फौजी एक मिनट भी अपने बच्चे को देखने के लिए घर पर नहीं टिक सकता. उसकी बस छूटने वाली है. वह चल पड़ा है – जबरन, एक कठोर चेहरा ओढ़े हुए, जालंधर मेरठ या रुड़की छावनी की ओर.

साठ दिनों का निजी जीवन बिताने के बाद फिर यह फौजी छावनी की बैठकों में सामूहिक जीवन जीने के लिए बाध्य हो जाता है. यह सामूहिक जीवन कुछ मायनों में अच्छा है तो अधिकांश मायनों में बुरा. अच्छा इस मायने में कि फौजी अपना सुख-दुख आपस में मिल बांट लेते हैं और बुरा इन मायनों में इस जीवन में फिट हो जाने के बाद फौजी बिना हुक्म के न कभी पीछे देख सकता है, न आगे बढ़ सकता है, न हंस सकता है, न बोल सकता है. यहां तक कि कभी-कभी अपने लाख चाहने के बावजूद वह ‘जैसे थे’ की पूर्व स्थिति में भी नहीं आ सकता.

लड़ाकू और बहादुर कौम होने के नाते गढ़वाल राइफल्स और कुमाऊं रेजिमेंट की अधिकांश बटालियनें सीमावर्ती क्षेत्रों में ऐसे नाजुक मोर्चों को संभाले होती हैं कि इनके सिपाही अपने स्वजनों को तक को यह खबर नहीं भिजवा पाते कि हम कहां हैं. ऐसे फौजियों की छुट्टियां मार्फत 56 या 99 एपीओ के पते पर ही आती-जाती हैं. गोपनीयता झेलने की यह त्रासदी बड़ी अजीब है. यानी अपने प्रवास का सही पता ठिकाना बताने से भी ये मजबूर हैं. चिट्ठियों में भी इन्हें बताया जाता है कि वह मामूली समाचार ही लिखें. अपनी चिठ्ठी खोले जाने के भय से इनकी चिठ्ठियाँ अंतरंग नहीं होती हैं. नई नवेली पहाड़ी दुल्हन के हाथों में जो चिट्ठी फौजी पति की ओर से आती है वह नीरस कागज का एक टुकड़ा होती है जिसका कि सिर्फ रंग हरा होता है.

और लड़ाई शुरू हो जाने पर पहाड़ के अधिकांश घरों में टेलीग्राम आने शुरू हो जाते हैं. यह टेलीग्राम फौजियों के लापता हो जाने के बारे में होते हैं. लेकिन इनका सीधा अर्थ ज्यादातर मौत होता है और यह सत्य हर भोली भाली फौजी पहाड़ी की मां या पत्नी बखूबी जानती है. इन तारों का सिलसिला काफी पुराना है – प्रथम विश्व युद्ध के दिनों से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध और फिर भारत-पाक, भारत-चीन और भारत-बांग्लादेश की लड़ाइयों तक. कुछ फौजी ट्रेनिंग के दौरान भी मरते हैं. उनके तार बेवक्त कभी भी आ सकते हैं. फिर भी यह पहाड़ियों का ही जिगरा है जो इन फौजी प्रवासियों के ऊपर छाए आसन्न मौत के अनवरत संकट को भी दिलेरी से झेल जाता है. जिले और तहसील के ट्रेजरी ऑफिसों में फौजी पेंशनरों के हुजूम में ज्यादातर चेहरे औरतों के ही होते हैं – कुछ जवान फौजियों की बीवियां और कुछ इनकी वृद्ध माताएं. दफ्तर का चपरासी रुक रुक कर आवाज लगाता है – “ मिलिट्री पेंशनर … मुसम्मात धनेश्वरी बेवा जीवन सिंह हाजिर हो …”

लेकिन धनेश्वरी कितना गरीब हुई है यह न तो भारत सरकार जान सकती है और न ही उसका रक्षा मंत्रालय.

पूरी जवानी फौज में खपा देने के बाद जब पहाड़ का फौजी अपने गांव लौटता है तब वह शारीरिक रूप से काफी थक-टूट चुका होता है. एक मामूली रकम उसे पेंशन के तौर पर मिलती है. जमा फंड की मोटी रकम वह जो पाता है उसे वह या तो मकान बनाने में खर्च कर देता है या फिर अपने बेटे बेटियों की शादी में. कुछ रकम वह अपने टूटे खेतों की मरम्मत पर खर्च कर देता है और कुछ बैल भैंस खरीदने में. लगभग 20-25 वर्षों का उसका अस्थाई प्रवास कितनी जल्दी खत्म हो जाता है!

घर पहुंचने पर उसे अपना बेकार हो जाना बहुत बुरी तरह अखरने लगता है. अधिकांश पेंशनयाफ्ता फौजी अधेड़ अवस्था की दहलीज में होते हैं और परिवार की तमाम बड़ी जिम्मेदारियां इनके आगे पसरी होती हैं. शारीरिक टूटन के साथ साथ आर्थिक और मानसिक टूटन भी शुरू हो जाती है. फौज में रहते हुए उसको खाना कपड़ा और अन्य कई सुविधाएं मुफ्त मिलती हैं – हफ्ते में तीन-तीन दिन मांस खाने को मिलता है और पीने को शराब भी मिलती है. अब घर में मडुवे की रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल से हो पाता है. पीने की ललक में कच्ची दारू पीने को विवश होता है, रिसेटेलमेंट दफ्तर में चक्कर लगाता है लेकिन पढ़ा-लिखा न होने की वजह से कहीं सेटल नहीं हो पाता. चौकीदारी चपरासीगीरी जैसी छोटी नौकरियों पर लगना वह अपनी तौहीन समझता है. नौकरी में रहते हुए दनादन मनीऑर्डर घर भेजता था अब उधार मांग कर काम चलाता है. कुछ ही महीनों के बाद पहाड़ी फौजी की हालत यह हो जाती है कि जब उसकी फुल पैंट घुटनों और पूरे बांह की कमीज़ कुहनियों से फटने लगती है तो वह बिना दरजी के ही उनको हाफ पैंट और हाफ आस्तीन की कमीज़ में बदल देता है.

नौकरी में रहते हुए वह बाल बच्चों की उचित देखभाल और संरक्षण भी नहीं कर पाता. लिहाजा उसके बच्चे भी अब स्कूल छोड़कर भागने को तैयार रहते हैं. इस तरह फौजी का बच्चा फिर किसी छावनी में जाकर रंगरूट बन जाता है और उस की पहली चिट्ठी जब बाप को मिलती है तो उसमें यह खुशखबरी भी होती है कि उसने चिठ्ठी के साथ साथ अलग से सौ रुपयों का मनीआर्डर भी किया है. इस भागे हुए बच्चे की चिठ्ठी में अब कई हिदायतें होती हैं मसलन भुली-भुलियों के लिए नए कपड़े बनवा देना, उन्हें खूब ज्यादा पढ़ाना, खर्चे की चिंता न करना आदि आदि.

फौज का नकली प्रवास जलने के बाद जब यह बच्चा पेंशन लेकर घर लौटता है तो कुछ महीनों के बाद उसके हाथ में फिर एक भागे हुए बच्चे की चिट्ठी होती है. यह क्रम टूटता नहीं है.

मोहन थपलियाल: जन्म : अगस्त, 1942 में दयाराबाग (टिहरी), मूल निवास : पौडी गढ़वाल जिले का श्रीकोट खातस्यूँ गाँव. दसवीं तक पढाई के बाद स्कूल छोड़ दिया, फिर इंटर तक पढाई और नौकरी एक साथ. चार-पाँच नौकरियाँ करने के बाद 1973 में सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर 1974 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में दाखिला लेकर जर्मन भाषा में बी०ए० ऑनर्स तक पढाई । अगस्त, 1979 से लखनऊ के लिटरेसी हाउम में अतिथि लेखक के रूप में कुछ माह तक काम करने के बाद नवंबर, 1979 से दैनिक ‘अमृत प्रभात’ लखनऊ के संपादकीय विभाग में काम संभाला. जून. 1990 में ‘अमृत प्रभात’ बिक जाने के बाद स्वतंत्र लेखन और छिटपुट नौकरियों का दौर शुरू, जो मृत्युपर्यन्त जारी रहा. 1983 में पहला कहानी-संग्रह ‘सालोमन ग्रुंडे और अन्य कहानियाँ’ प्रकाशित.1995 में ‘अलबर्ट आइंस्टाइन की जीवनी’ तथा 1998 में जर्मन कवि एवं नाटककार बेर्टोल्ट ब्रष्ट की 71 कविताओं और 30 छोटी कहानियों के मूल जर्मन से हिंदी अनुवाद प्रकाशित.

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