भाषाविदों के अनुसार कुमाँऊनी एक इंडो आर्यन भाषा है जो कुमाऊँ में प्रचलित है और अलग-अलग जनपदों में थोड़े बहुत अलग सुर और ढंग से बोली जाती रही है. अब जो मीठा और लोचदार स्वर कुमय्याँ का लोहाघाट में मिलेगा उससे काफी अधिक भिन्नता गुमदेश की बोली में सुनाई पड़ेगा.
(Kumaoni Shabd Sampda Book)
सोर के इलाके में यह जरा कड़क और जै मर्यान-खै मर्यान वाली हो जाती है तो सीमांत में काली और धौली-गोरी गंगा के इनारे-किनारे की बोली पार के नेपाली शब्दों और वहां की टोन से भर जाती है. ऐसी ही विभिन्नताएं सरयू वार और पार भी आई हैं. उधर सल्ट और स्याल्दे के इलाके के विस्तृत इलाके में भी बोली और उच्चारण गढ़वाली प्रभाव के मिश्रित टोन से भरी पूरी सुनाई देती है.
सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में इसका रूप बड़े नाजो अंदाज से भरा पूरा परिष्कृत सुनाई देगा और अधिकांश लोग कुमाऊनी में ही बात करते सुनाई देंगे तो रानीखेत बागेश्वर तक यह अपने बड़े सहज रूप पर बदलती टोन में है. सबसे उन्नत रूप में कुमाऊनी बोली वह हो जाती है जो अँग्रेजी दां लोगों के बीच संप्रेषित होती है जिसने अपने भीतर हिंदी-उर्दू-अँग्रेजी सब समाहित कर लिया है और यह एफ्लुएंट पहाड़ी बन गई है. वैसे कसार देवी अल्मोड़ा के विदेशी भी इतनी साफ कुमाऊनी बोलते हैं कि जी करता है कि उन गोरी चमड़ी वालों की संप्रेषण क्षमता पर जी रै! बची रै! की आशीष वारी-न्यारी जाय पर उनके इर्द गिर्द मंडरा रहे लौंडे-मौडे फटी जीन्स भले ही पहन लें पर पहाड़ी बलाने की कोई फाम नहीं रखते.
पहाड़ में बसने का सिलसिला ही बाहर से आए लोगों से हुआ. कोई महाराष्ट्र से आया तो कोई गुजरात मूल का. कई हिमाचल वाले तो कोई कच्छ-सौराष्ट्र से. फिर यहाँ के राजा नरेश और अंग्रेज. पहाड़ में तमाम काम काज का निबटान करने मुसलमान आए और यहीं के हो कर रह गए. कोर्ट की भाषा में तो उर्दू का चलन ज्यादा था ही तो स्वाभाविक है कि स्थानीय बोली कुमाऊनी पर उसका तत्सम्बंधित प्रभाव पड़ा. टिपिकल अंदाज में नैनीताल में सौज्यू लोगों के बीच बोली गई कुमाऊनी के अलग ही अंदाज हैं जिसमें हिंदी अँग्रेजी के साथ इसका तालमेल अलग ही फ्यूजन देता है.
जैसे-जैसे पहाड़ के लोग रोजी रोटी, काम के बेहतर अवसरों, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा, इलाज की सुविधा और भी बहुत सारे कारणों से पहाड़ से बाहर मैदानी इलाकों की ओर पलायन व प्रवास कर रहे हैं तो इसका असर उस नई पीढ़ी पर पड़ रहा है जिन्हें तथाकथित अँग्रेजी स्कूलों में पढ़ाने का सपना उनके अभिभावक देखते हैं और इस कारण उन्हें वह माहौल नहीं मिल पाता जो बोली के स्वाभाविक विकास के लिए बहुत जरुरी होता है. वैसे भी नई पीढ़ी अब वर्चुअल दुनिया में जी रही जहां नये ही किसम के बोलचाल के अंदाज आ रहे. जहां हर कोई ढाँट ‘ब्रो’ बन जाता है तो तीस पार कर उम्र छुपाती ‘बेबी’ नाम से पुकारी जाती. अक्सर भावुकता के लम्हों में एक नव यौवना अपने मित्र को ‘मेरा बच्चा’, ‘माई बेबी’ कह अंकपाश में बांधे तो यह भी नये चलन का हिस्सा है. ऐसे में पहाड़ी के कुछ शब्द भी मुँह से निकल जाना गंवारपने की जद में आ जाता है. ईजा बाबू भी बच्चों के मुंह से सुनना कहाँ हुआ अब! सब मम्मी पापा वाले जो हो गए.
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कहा गया कि कुमाऊनी अपने असली रूप में यहाँ के हरिजनों व जनजातियों की बोलियों, लोक गाथाओं और जागर वार्ताओं में ही पहचान पाती रही और उसके ठेठ स्वरूप को देवनागरी लिपि में हूबहू लिखना भी काफी कठिन है. ब्रिटिश काल में डॉ जॉर्ज ग्रियर्सन ने कुमाऊनी का उदभव राजस्थानी से तो बाद में डॉ सुनीति कुमार चटर्जी ने पैशाची व खस प्राकृत से और डॉ धीरेन्द्र वर्मा ने शौरसेनी अपभृँश से होता माना. भाषाविदों के अनुसार कत्यूरी या चंद शासन काल में दान, ताम्रपत्रों व सरकारी दस्तावेजों में जो भाषा मिलती है वह कुमाऊनी का मूल स्वरूप नहीं है.
इतिहासकारों के अनुसार कत्यूरी राजा अयोध्या से और चंद शासक प्रयागराज के निकट झूंसी से कुमाऊं में आए. मध्य काल में देश के अन्य प्रांतों से आने वाली जातियों की भाषाओं से भी यह प्रभावित रही. दसवीं सदी के बाद गुर्जर राजपूतों का आगमन हुआ जिससे यहाँ की बोली पर शौरसेनी का प्रभाव पड़ा. जिससे राजस्थानी व गुजराती के अनेक शब्द भी इसमें समाहित हुए. इन सबके बावजूद कुमाऊनी शब्दों का एक ऐसा समृद्ध शब्द भंडार है जिसमें मूल कुमाऊनी का स्वरूप निहित है.
कुमाऊनी की अभिव्यक्ति शैली विशिष्ट है और इसकी शब्द सामर्थ्य इतनी समृद्ध व सार्थक है कि सूक्ष्म अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में ये पूर्णतः सक्षम प्रतीत होती है. इसमें हिंदी-देवनागरी की सभी ध्वनियों के साथ अपनी कुछ विशेष ध्वनियां भी हैं.
पहाड़ से बाहर बस गए प्रवासियों में अपनी बोली और रीति-रिवाज के बारे में एक चलन तो यह देखा गया है कि वह घर के भीतर और ईष्ट मित्रों से यथासंभव पहाड़ी में बात करते हैं. कई घरों में जिनके बुजुर्गों को भी अपने नौकरी पेशा रत बच्चों का साथ मिल गया है तो वहाँ पहाड़ में मनाये गए त्यार त्योहारों को प्राण वायु मिलती रहती है. इनमें कई अभिभावक यह भी कोशिश करते हैं कि वह अपने बच्चों को अपने रीति रिवाजों के साथ कुमाऊनी में बात चीत करने की आदत डालें. ऐसे परिवारों में पहाड़ की बोली और रीति रिवाज अकाल मृत्यु के घेरे में नहीं आते. बरस भर में एक बार गांव आ देवता का थान पूजने और भेट देने का चलन अभी हुआ ही.
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यूनेस्को की ‘एटलस ऑफ़ थे वल्डर्स लैंग्वेग्स इन डेंजर’ ने कुमाऊनी बोली को अतिसंवेदनशील श्रेणी में एक भाषा के रूप में नामित किया है जिसका तात्पर्य है कि इसे निरन्तर संरक्षण प्रयासों की जरुरत है. इसी दिशा में भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ नागेश कुमार शाह ने वर्तमान व भावी पीढ़ी के बच्चों को अपनी समृद्ध भाषा से परिचित कराने के साथ अपनी संस्कृति, लोक परंपरा को अभिसिंचित करने का प्रयास करते ‘कुमाँऊनी शब्द सम्पदा’ पुस्तक लिखी जिससे उन्हें कुमाऊनी शब्दों को सीखने में मदद मिल सके.
भारत का भाषा सर्वेक्षण पुस्तक में जॉर्ज ग्रियर्सन ने कुमाऊनी भाषा पर विचार करते हुए इसकी विभिन्न बोलियों के उदाहरण भी दिए तो कुमाऊनी भाषा के व्याकरण पर भी विचार किया. कैलाग ने अपनी पुस्तक ‘ए ग्रामर ऑव हिंदी लैंग्वेज’ में कुमाऊनी बोलियों पर काफी विस्तार से चर्चा की. कुमाऊनी भाषा पर श्री गंगादत्त उप्रेती ने कुमाऊं में प्रचलित बोलियों पर विचार करते हुए उनकी विविधता को समझाया. उन्होंने कुमाऊनी बोलियों के भिन्न -भिन्न नमूने भी प्रस्तुत किये. डॉ गुणानंद जुयाल ने ‘मध्य पहाड़ी भाषा (गढ़वाली कुमाऊनी )का अनुशीलन और उनका हिंदी से सम्बन्ध’ शोध प्रबंध में लोक में प्रचलित बोलियों के प्रचलन एवं विकास का विस्तार से उल्लेख किया. हिंदी के कई प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने अपने लेखन में कुमाऊनी भाषा एवं गीतों का प्रयोग किया जिनमें सबसे महत्वपूर्ण शैलेश मटियानी रहे. १९३८-३९ में श्री जीवन चंद्र जोशी ने अचल नामक पत्रिका निकाली जिसमे कुमाऊनी भाषा के माध्यम से काफी रचनाएँ प्रस्तुत की गई थी. प्रसिद्ध नाटककार गोविन्द बल्लभ पंत के कई नाटकों में कुमाऊनी भाषा व गीतों का सम्पुट मिलता है. श्री यमुनादत्त वैष्णव ‘अशोक ‘ के कई लेख कुमाऊं में प्रचलित बोलियों पर आधारित रहे. ऐसे ही श्री चंद्र लाल वर्मा ने कुमाऊं की कहावतों और लोकोक्तियों का संग्रह प्रस्तुत किया.अनुसन्धान के क्षेत्र में डॉ राम सिंह ने कुमाऊनी कृषि शब्दावली पर बड़ा काम किया. डॉ कृष्णानंद जोशी ने कुमाऊनी लोक साहित्य में बहुत लिखा. इसके साथ ही डॉ प्रयाग दत्त जोशी, डॉ देवदत्त शास्त्री, डॉ भवानी दत्त उप्रेती, श्री इंद्र सिंह भाकुनी, डॉ पुत्तूलाल शुक्ल’चंद्राकर ‘ डॉ केशव दत्त रुवाली व श्री पद्मा दत्त पंत ने कुमाऊनी में साहित्य सृजन की परंपरा को विकसित करने के प्रबल प्रयास किए.
इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कार्य श्री मथुरा दत्त मठपाल का रहा जिन्होंने वर्ष 1985 से कुमाऊनी में वृहद् लेखन एवं प्रकाशन का कार्य लगातार किया. उनके कुमाऊनी में पांच और हिंदी में एक काव्य संकलन प्रकाशित हुए. उन्होंने 1989-90 व 1991 में कुमाऊनी भाषा के तीन सम्मेलन आयोजित किये. साथ ही अनेकों काव्य समारोह आयोजित किये. रामगंगा प्रकाशन नाम से पच्चीस पुस्तकें प्रकाशित की जिनमें कुमाऊं के अनेक अज्ञात कवियों को प्रकाश में ला कर उनकी कुमाऊनी रचनाओं को प्रकाशित किया. उन्होंने वर्ष 2000 से ‘दुधबोलि’ पत्रिका का संपादन भी किया। जिसमें अभी तक कुमाऊनी के रचनाकारों की चार हज़ार पृष्ठों की सामग्री का प्रकाशन किया गया. समय साक्ष्य देहरादून से वर्ष 2020 में उनके द्वारा सम्पादित ‘कौ सुआ काथ कौ’ पुस्तक प्रकाशित हुई जिसमें कुमाऊं की अस्सी साल की कथा यात्रा संकलित की गयी है इसमें कुमाऊनी में सौ लेखकों द्वारा लिखी कथाएं कहानियां हैं. इसके साथ ही कुमाऊनी पत्रिका पहरू नियमित निकल रही है. कुमाऊनी के साथ गढ़वाली और जाड़ भाषा पर प्रोफेसर सुरेश ममगई का कार्य उल्लेखनीय है जो पिछले तीन दशकों से इनका शब्दकोष संकलित करने में जुटे हैं.
‘कुमाँऊनी शब्द सम्पदा’ पुस्तक में डॉ नागेश कुमार शाह ने हिंदी वर्ण माला के अनुसार कुमाऊनी-हिंदी-अंग्रेजी शब्द कोष के साथ अगले क्रम में घ्राण सम्बन्धित तथा मनोभावों को उजागर करने के लिए कुछ विशिष्ट शब्दों को संकलित किया है. इसके साथ ही कुमाऊनी लोकोक्तियाँ व मुहावरे शामिल हैं जिनका सामान्यतः प्रयोग किया जाता रहा है. फिर ऐसे शब्द हैं जिनके स्वरों के उच्चारण से अनेक अर्थ निकलते हैं. अर्थात जिनका सामान शब्द विन्यास है.इसी प्रकार एक अक्षर या अल्फाबेट से बने शब्दों के साथ कुमाऊनी के समानार्थी शब्द संग्रहित किए गए हैं. उद्देश्य यह है कि समृद्ध और सशक्त कुमाऊनी डायलेक्ट जिसमें बहुत सारे शब्दों का अर्थ सिर्फ एक वर्ण में समाहित हो उनसे आमजन परिचित हो सके. कुमाऊनी भाषा की यह विशेषता है कि विभिन्न वर्णों में उनके भिन्न -भिन्न स्थिति में प्रयोग से अर्थ भेद में विभिन्नता पाई जाती है. इस कारण कुमाऊनी भाषा के मूल उच्चारित स्वरूप को, जो कि उसकी एक ध्वन्यात्मक विशेषता है को बनाये रखने की आवश्यकता है जिससे कि उसके लिखित रूप से लोकभाषा का मूल स्वरूप बिगड़ने न पाए. कुमाऊनी में शब्द सम्पदा इस प्रकार कि है जिनमें अ, आ, ए, ओ, औ,ल तथा इ आदि वर्णों कि एक से अधिक ध्वनियां पायी जाती हैं जिनसे कि शब्द के अर्थ बदल जाते हैं. ऐसा हिंदी या अन्य भारतीय भाषा में अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई देता.
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कुमाऊनी में उच्चारण की दृष्टि से दो प्रकार की प्रवृतियाँ पायी जाती है. पहला दीर्घ स्वरों का हस्व उच्चारण दूसरा हस्व स्वरों का अति हस्व उच्चारण. हिंदी के दीर्घ स्वरों का कुमाऊनी में हस्वात्मक उच्चारण अनेक जगहों में अर्थभेद भी उत्पन्न करता है. जिस प्रकार वैदिक संस्कृत स्वर प्रधान है तथा स्वरों के उच्चारण से अर्थभेद उत्पन्न हो जाता है ठीक उसी प्रकार कुमाऊनी भी स्वर प्रधानहै. ऐसे कई शब्दों को इस पुस्तक में विशेष रूप से दिया गया है.
कुमाऊनी में बोलने और इसके लोक पक्ष का चलन ह्रास मान गति दिखा रहा है. कुमाऊनी भाषा का संवर्धन व विकास का उद्देश्य सामने रख डॉ नागेश कुमार शाह ने वर्णमालानुसार “कुमाँऊनी शब्द सम्पदा” पुस्तक में कुमाऊनी के विशिष्ट व ठेठ शब्दों के साथ ही हिंदी और अरबी-फारसी के वह शब्द जो कुमाऊनी में अपभ्रँश हो यहाँ के विशिष्ट शब्द बन चुके हैं का चयन किया है और उनके अर्थ हिंदी के साथ अँग्रेजी में भी दिऐ हैं.निश्चय ही कुमाऊनी बोलने व सीखने के इच्छुक आम जन के लिए उनका यह सराहनीय प्रयास है.लगभग डेढ़ सौ पृष्ठ की यह पुस्तक लोकभाषा को अभिसिंचित करने में सफल है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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