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कालू सैयद बाबा: एक मुस्लिम पीर जिसे हिन्दू भी श्रद्धा के साथ पूजते हैं

उत्तराखण्ड के जनप्रिय पीर

उत्तराखण्ड में कालू सैयद बाबा के मंदिर कई जगह मिल जाते हैं. हल्द्वानी और इसके आसपास के इलाके में कालू सैयद बाबा के कई मंदिर हैं. हल्द्वानी कालाढूंगी चौराहे पर कालू सैयद बाबा के मंदिर में दिन भर श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है. यहाँ भक्त बाबा को गुड़ की भेली का प्रसाद चढ़ाते हैं.

अल्मोड़ा कैंट में कालू सैयद बाबा की 7 शताब्दी पुरानी मजार है. मजार के पास में ही बाबा के घोड़े की कब्र भी है. यहाँ हर साल होने वाला उर्स गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल बना हुआ है. इस उर्स की परंपरा भी उत्तराखण्ड के पौराणिक मेलों की ही तरह है.

कालू सैयद बाबा एक तुर्क थे. इनका जन्म तुर्की (तुर्किस्तान) के कफ्काज़ में हुआ बताया जाता है. तुर्की में ही इन्होंने धार्मिक शिक्षा ग्रहण की.

हजरत हजरत निजामुद्दीन औलिया के दर पर

कालू सैयद बाबा को आकाशीय आदेश हुआ कि वे हिन्दुस्तान जाकर हजरत निजामुद्दीन औलिया से रूहानी ज्ञान हासिल करें. इस अदृश्य शक्ति के आदेश से संचालित होकर बाबा अफगानिस्तान के बीहड़ रस्ते को पैदल पार कर हिन्दुस्तान पहुँच गए. तेरहवीं शताब्दी के उस काल में हिन्दुस्तान में गयासुद्दीन तुगलक का शासन हुआ करता था.

बाबा ने हजरत औलिया से अध्यात्मिक ज्ञान हासिल किया. हजरत निजामुद्दीन औलिया के दर पर क़व्वाली की महफिलें भी सजा करती थीं. ऐसी ही किसी महफ़िल में एक दिन एक कव्वाल के कलाम में डूबकर आध्यात्मिकता में आकंठ डूबकर नाचने लगे और कव्वाल से कहा कि वह जो चाहे मांग ले. समझदार कव्वाल ने कहा कि हुजूर का दिया सब कुछ है बस मेरी उम्र एक दिन बढ़ा दी जाये. इस अनूठे सवाल से बाबा का शरीर तेज और प्रताप से भर गया. इस आलोक से उनका जिस्म में शोले उठने लगे.

हिमालय को प्रस्थान

कालू सैयद बाबा की इस हालत कि खबर औलिया तक पहुंची. उन्होंने आकर बाबा को शांत किया. औलिया ने अपने चेलों से कहा कि कालू सैयद बाबा को हिमालय की गोद में ले जाया जाये, ताकि ठंडी हवा में उनके तेज की गरमी में थोड़ा कमी आये और वे खुदा की इबादत में गहरे डूब सकें.

कालू सैयद बाबा कई चेलों और एक सफ़ेद घोड़ा लेकर जसपुर, काशीपुर, कालाढूंगी, हल्द्वानी और रानीखेत होते हुए अल्मोड़ा पहुंचे और यहाँ इबादत करने लगे. इस यात्रा के दौरान उनके द्वारा किये गए चमत्कारों के किस्से आज भी मशहूर हैं.

बाबा के एक योद्धा होने की कहानी

यह भी कहा जाता है कि तुर्की सेना (तैमूर लंग की सेना) और राजा धामदेव के बीच पिरान कलियर (1398) ई. में भयंकर युद्ध हुआ. युद्ध में अनेकों पीर-फ़कीर और वली योद्धा मारे गए. इन मारे गए या गिरफ्तार कर लिए गए योद्धाओं में मैमंदापीर और कालू सैयद मुख्य थे.

इस तरह एक तुर्क के पहाड़ में बस जाने और एक युद्ध में मारे जाने या गिरफ्तार कर लिए जाने की किवदंतियां कालू सैयद बाबा के बारे में मिलती है. आज कालू सैयद बाबा उत्तराखण्ड के लोकप्रिय पीर हैं. हल्द्वानी, जसपुर, काशीपुर, कालाढूंगी, बसानी, भीमताल और लोहाघाट आदि अनेक जगहों पर कालू सैयद बाबा के मजार हैं.

गुड़ से लेकर बीड़ी तक का चढ़ावा

हल्द्वानी और लोहाघाट में इन्हें गुड़ का प्रसाद चढ़ाया जाता है. बसानी में कालू सैयद बाबा को बीड़ी चढ़ाई जाती है. इस सम्बन्ध में कहावत है कि एक बार यहाँ एक बूढ़ा बाबा लोगों से बीड़ी मांग रहा था और बदले में कुछ भी मांग लेने का वादा कर रहा था. लोगों ने बीड़ी तो दी मगर बदले में कुछ माँगा नहीं. बीड़ी देने वालों ने कुछ दूर जाकर मुड़कर देखा तो बाबा गायब हो गए थे.

बाबा के बारे में दंतकथाएँ चाहे जो भी कहें आज वे उत्तराखण्ड में धार्मिक सद्भाव और सामाजिक समरसता के केंद्र जरूर हैं.

(सभी फोटो: फोटो पत्रकार भूपेश कन्नौजिया के सौजन्य से)

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Sudhir Kumar

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