हिमाचल प्रदेश की सुरम्य पहाड़ियों में कांगड़ा जिले में स्थित है ज्वालामुखी का पवित्र तीर्थ जहां पठानकोट से लगभग तीन घंटे और कांगड़ा से दो घंटे की बस यात्रा कर पहुंचा जाता है. पंजाब से जिला होशियार पुर से चल गगरेट भरवाई तथा चिंता पूर्णी होते गोपीपुरा डेरा नामक स्थान पड़ता है जिससे तीन घंटे की दूरी पर ज्वालामुखी देवी पहुंचा जाता है. ज्वालामुखी तीर्थ में ज्योति दर्शन की महिमा है.
(Jwala Mai Mandir Himachal Pradesh)
ज्वालामुखी तीर्थ में मंदिर के मुख्य द्वार के समीप चांदी के जाले में अवस्थित सबसे बड़ी ज्योति है जिसे महाकाली के रूप की संज्ञा दी जाती है. यह पूर्ण ब्रह्म ज्योति ही ज्वालामुखी के नाम से मुक्ति व भुक्ति देने का प्रतिमान रखती है. इसके नीचे अन्नपूर्णा की ज्योति है तो इसके दूसरी ओर शत्रु विनाशक चंडी की ज्योति है. समस्त रोग-व्यधियों का निवारण करने वाली ज्योति हिंगलाज भवानी के नाम से जानी जाती है तो शोक मुक्ति-विंध्यवासिनी की ज्योत करती है. धन-धान्य सम्पदा प्रदान करने वाली महालक्ष्मी की ज्योति कुंड से निसृत है तो विद्यादात्री सरस्वती, संतान सुख प्रदान करने वाली अम्बिका व दीर्घायु प्रदान करने वाली अंजना की ज्योति भी कुंड से प्रसारित होती हैं. मान्यता है कि यहां अधिकतम चौदह ज्योतियाँ हैं जिससे चतुर्दश दुर्गा-चौदह भुवनों की रचना करती है. यह देखा गया है कि कभी यह नव ज्योतियाँ मात्र तीन भी रह जातीं हैं जिसका भावार्थ यह कि चौदह भुवनों में तीन ही गुण सत, रज व तम पाए जाते हैं जिनके द्वारा नव ज्योतियाँ विश्व का निर्माण करतीं हैं.
ज्योतियों के मुख्य दर्शन के साथ ज्वालामुखी तीर्थ में मुख्य मंदिर के समीप ज्वाला देवी का शयन स्थान “सेजा भवन” है जहां प्रवेश करते चांदनी लगा संगमरमर का चबूतरा है. सेजा भवन के चारों ओर दस महाविद्याओं के साथ महाकाली, महा लक्ष्मी व महा सरस्वती की मूर्तियों के साथ श्री गुरु गोविन्द सिंह द्वारा प्रदत्त श्री गुरु ग्रंथ साहिब की हस्तलिखित प्रतिलिपि के दर्शन होते हैं.
सेजा भवन के समीप वीर कुंड व योगिनी खप्पर है. योगिनी खप्पर का पूजन वार्षिक होता है. वीर कुंड का स्नान समस्त भूतादि बाधाओं को दूर करता है व लोक विश्वास है कि इस कुंड के स्नान से संतान सुख की प्राप्ति होती है. इस कुंड के समीप ही एक कुंड में प्रवाहित जल खौलता सा प्रतीत होता है पर छूने पर शीतल. यहीं कुंड के समीप जलती धूप दिखाने से जल के ऊपर बड़ी ज्योति प्रकट होती है. मंदिर की परिक्रमा करते दाईं ओर दस सीढ़ी चढ़ यह स्थान आता है जिसे रुद्र कुंड कहते हैं. यह स्थल गुरु गोरख नाथ की तपस्या स्थली रहा जिनके नाम पर इसे गोरख डिब्बी भी कहा गया. नाथ संप्रदाय के साधु यहां विशेष रूप से साधना करते हैं. गोरख डिब्बी के समीप राधा-कृष्ण का छोटा प्राचीन मंदिर है जिसका निर्माण कटोच राजाओं द्वारा किया गया बताते हैं. वहीं गोरख डिब्बी से पंद्रह सीढ़ी ऊपर शिव-शक्ति में शिव लिंग स्थापित है जिसके साथ ज्योति के दर्शन भी होते हैं. शिव -शक्ति से कुछ और ऊपर लाल शिवालय है जिसके और आगे सीढ़ियां चढ़ करीब डेढ़ फिट ऊँची काले पत्थर की मूर्ति है जिसे सिद्ध नागार्जुन कहते हैं. इससे कुछ दूरी पर पूर्व की ओर को उन्मत्त भैरव तथा अम्बिकेश्वर महाराज कहा जाता है. इससे आगे चढ़ाई पर एक ओर झुका प्राचीन मंदिर है जो एक ओर को झुका दिखता है इसलिए इसे टेढ़ा मंदिर भी कहा जाता है.. ज्वाला मुखी मंदिर से एक किलोमीटर दूर की ओर पश्चिम की ओर अष्टभुजा देवी का मंदिर है व एक तालाब भी जिसकी प्रचलित मान्यता के अनुसार इसमें स्नान करने से श्वेत कुष्ट व त्वचा रोग ठीक हो जाते हैं.शारीरिक पीड़ा के निवारण हेतु भक्त जन काली -भैरव मंदिर के दर्शन करते हैं. अष्ट दश भुजा मंदिर के समीप शमशान स्थल है.
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“तंत्र चूड़ामणि” ग्रंथ के अनुसार ज्वाला मुखी में भगवती सती की महाजिह्वा गिरि तथा यहां शंकर उन्मत्त भैरव के रूप में आसीन हुऐ –
ज्वालामुख्याँ महाजिह्वा देव उन्मत्त भैरव:.
ज्वाला देवी मंदिर के निर्माण में सम्राट भूमि चंद्र की कथा का उल्लेख है जिसके अनुसार विष्णु भगवान के धनुष से कटी सती की जिह्वा हिमालय की धौलीधार पर्वत श्रृंखलाओं में गिरी. सम्राट ने उस स्थान को खोजने के बहुत प्रयास किये व फिर नगरकोट कांगड़ा में भगवती सती का मंदिर निर्मित किया. कुछ समय बाद एक चरवाहे ने सम्राट को बताया कि उसने समीप की एक पहाड़ी पर ज्योति देखी है जो ज्वाला की तरह निरंतर जलती है. सम्राट ने उस पहाड़ी के वन में आ ज्वाला के दर्शन किये व मंदिर का निर्माण करवाया. ज्वाला की पूजा अर्चना के लिए दो भोजक ब्राह्मण शाक द्वीप से आमंत्रित किये गये जिनका नाम पंडित श्रीधर व पंडित कमलापति था.उन्हीं के वंशज वर्तमान में ज्वाला माई की पूजा अर्चना सम्पन्न कराते हैं. महाभारत में भी पांडवोँ द्वारा इस स्थान की यात्रा व मंदिर के जीर्णोद्धार का प्रसंग है. तभी यह भेंट यहां गाई जाती है –
पंजा-पंजा पांडवाँ तेरा भवन बनाया
अर्जुन ने चंवर डुलाया…
माता के दरबार में चढ़ाया सवा मन सोने का छत्र खंडित दशा में विद्यमान है जो मुग़ल बादशाह अकबर द्वारा प्रायश्चित स्वरूप अर्पित किया गया था. कहा जाता है कि यहां की दिव्य ज्योत को बुझाने की असफल कोशिशों के उपरांत अंततः उसने ज्वाला माई के चरणों में सर झुकाया और स्वर्णछत्र चढ़ाया.
इस प्रकरण में ध्यानू भगत के देवी के प्रति अखंड विश्वास की कथा श्रद्धा पूर्वक कही जाती है. अकबर के शासन काल में अपने गाँव से माता का भक्त ध्यानू सहस्त्र साथियों के दल के साथ चला तो बादशाह के सैनिकों ने उसे चांदनी चौक में रोक लिया और उसे पकड़ दरबार ले गये. दरबार में बादशाह अकबर ने ध्यानू से पूछा कि इतने लोगोँ के साथ उसके जाने की मंशा क्या है? ध्यानू ने ज्वालामाई का श्रद्धा पूर्वक स्मरण कर उनकी अखंड ज्योत का वर्णन कर मनोकामना पूर्ण करने की उनकी शक्तियों के बारे में बताया तो बादशाह विस्मित हुआ. उसने कहा कि अगर तुम्हारी ज्वाला माई में इतनी ताकत है तो उसका करिश्मा हमें भी दिखाओ. ध्यानू ने सरल भाव से कहा कि वह तो माता का भक्त है वह भला कोई चमत्कार कैसे कर सकता है. तब बादशाह अकबर ने कहा कि वाकई तुम्हारी बंदगी पाक साफ है तो तुम्हारी देवी तुम्हारी इज्जत रखेगी. और अगर वह तुम्हारी पुकार न सुने तो ऐसी इबादत का क्या फायदा? अब तुम्हारी भक्ति की जाँच करने, तुम्हारा इम्तहान लेने हम तुम्हारे घोड़े का सर कलम कर देते हैं, अब जाओ,कहो अपनी देवी से कि इस घोड़े को जिन्दा कर दिखाऐं.
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ध्यानू ने घोड़े के कटे सर व धड़ को एक माह तक सुरक्षित रखने की प्रार्थना बादशाह से की और अपने जत्थे सहित कांगड़ा की ओर रवाना हो गया. ज्वालामुखी पहुँच उसने शीश नवाए, रात भर जागरण किया व प्रातः की आरती के समय प्रार्थना की कि बादशाह अकबर तेरी शक्ति व उसकी भक्ति की परीक्षा ले रहा. अब उस घोड़े को जीवित कर चमत्कार कर मां. प्रार्थना स्वीकार कर. यदि यह पुकार न सुनी तो वह अपना शीश काट यहीं तेरे चरणों में अर्पित कर देगा.यह कह ध्यानू ने तलवार से अपना शीश काट देवी के चरणों में रख दिया.
साक्षात ज्वाला माई प्रकट हुईं. भक्त ध्यानू का मस्तक धड़ से जुड़ गया और दिल्ली में उसके घोड़े का भी. मां ने उसे अभयदान दिया व कहा कि वह दिल्ली जाये और कोई कामना हो तो बताए. ध्यानू भक्त ने निवेदन किया कि आप तो सर्वशक्तिमान हैं पर हम तो अज्ञानी, भक्ति की विधि भी हमें नहीं मालूम. जगतमाता!अपने भक्तों की इतनी कठिन परीक्षा न लें. हर कोई अपना शीश काट आपको अर्पित करने का साहस -बल नहीं रखता. तब देवी ने उसे आश्वस्त किया कि सच्चे ह्रदय से की प्रार्थना व नारियल की भेंट से ही मनोकामना पूर्ण होगी.
ज्वालामुखी का वरदान मिला ध्यानू भक्त को तो दिल्ली दरबार में बादशाह अकबर और दरबारी-वज़ीर हैरत में पड़ गये क्योंकि घोड़े का सर धड़ से जुड़ गया था. उसमें प्राण आ गये थे. अब इस तीर्थ का रहस्य जानने अकबर ने अपने कुछ सैनिक कांगड़ा रवाना किये कि वह जाकर हालात का जायजा लें. सैनिक लौटे और उन्होंने बादशाह को बताया कि वह जगह तो हैरत अंगेज करतबों से भरी पड़ी है. वहां की सरजमीं से रोशनी फूटती है. शायद यही वह ताकत है जो करिश्मा कर डालती है. आगे गर हुजूर हुक्म दें तो जहां से ये लपट ये रोशनी फूटती है उन जगहों को ही बंद करवा दें. कुछ इतिहासकारों का कहना है कि बादशाह ने हामी भर दी तो कुछ यह लिखते हैं कि अकबर ने ऐसी स्वीकृति नहीं दी. सैनिकों ने ज्वाला देवी में निकलती जोत के ऊपर लोहे के मोटे तवे रख दिए और ऐसे सभी स्थानों को पाटने की भरपूर कोशिश कर डाली. पर ज्वाला तवे गला फिर फूट आई. फिर इस जोत के ऊपर नहर के पानी को प्रवाहित किया तो भी ज्वाला बनी रही. तमाम कोशिशेँ बेकार होते देख शाही सैनिकों ने बादशाह को अग्नि के लगातार जलते रहने की खबर दी.
अब बादशाह अकबर ने इस दैवीय करतब के बारे में अपने दरबारियों और विद्वानों से रायशुमारी की. ब्राह्मणों ने बादशाह से कहा कि वह खुद जा माता के दर्शन करें, यह चमत्कार देखें और विधि -विधान से भेट पूजा कर माता का आशीर्वाद लें.देवी के चढ़ावे के लिए सवा मन वजन का स्वर्ण छत्र ले बादशाह अकबर ने ज्वालामुखी आ दिव्य -ज्योति के दर्शन किये, श्रद्धा से देवी के चरणों में शीश नवाया और छत्र अर्पित किया. पर छत्र गिर कर न केवल खंडित हो गया बल्कि किसी विचित्र सी धातु का हो गया. यह भेंट अस्वीकार करने का संकेत था. अकबर ने देवी से अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगी, पश्चाताप किया व विधिवत पूजा अर्चना कर दिल्ली लौटआया.
कहा जाता है कि चौदहवीं शताब्दी में फिरोज तुगलक कांगड़ा में नगरकोट आया. ज्वालामुखी में उसने तीर्थ यात्रियों पर कर लगाया व मोहरों की वसूली की. मूर्ति खंडित करने के लिए उसने जब भगवान दत्तात्रेय की मूर्ति पर गुर्ज मारा तो अनगिनत भ्रामरियों ने उसकी फौज पर हमला कर उसे भागने पर मजबूर कर दिया. इसी इरादे से औरंगजेब भी कांगड़ा तक आ गया था जहां उसकी फौज पर भी मौन ने हमला कर उसे खदेड़ दिया.
पंजाब केसरी महाराजा रणजीत सिंह ज्वाला देवी के अनन्य भक्त रहे. उन्होंने स्वर्ण भेंट सहित कांगड़ा के मंदिर में दर्शन किये व देवी भगवती का मंदिर अमृतसर में चौक पासियाँ में बनवाया. उनके सेनापति सरदार हरि सिंह नलुआ ज्वाला जी के अनन्य उपासक हैं.बताया जाता है कि उनके हस्ताक्षर यहां के प्रधान पुजारी श्री हसित भोजक की बही में दर्ज हैं. महाराजा रणजीत सिंह के पौत्र कुंवर नौनिहाल सिंह भगवती के दर्शन पूजन में संलग्न रहते थे. उनके द्वारा मंदिर में चांदी के द्वार स्थापित किये गये.
सिद्धशक्ति पीठों में श्री ज्वालामुखी तीर्थ की मान्यता है जहां महाशक्ति श्री धूमावती का निवास रहा. श्री धूमावती की गणना विद्वानों ने ‘दश -महाविद्याओं’ में की है. भुवनेश्वरी अर्थात मूल-प्रकृति जब अपने दश-रूप धारण कर सृष्टि की उत्पत्ति, संचालन और संहार करती है तो इन दश रूपों या महाशक्तियों को तांत्रिक सन्दर्भ व पुराणों में “महाविद्या”कहा गया.
वैदिक साहित्य में तम युक्त अर्थात अंधकारमय-बिंदुरूप स्थिति को ‘काली ‘ कहा गया. काली शब्द बना काल या समय से. भुवनेश्वरी की शक्ति जब रचना या संहार की ओर उन्मुख होती है तब चारों ओर काली या अंधकार की स्थिति होती है. घोर तम की अवस्था में रचना से पूर्व या संहार के उपरांत सृष्टि का कोई रूप नहीं होता मात्र घोर तम की अवस्था होती है. यही काली है.
अगली अवस्था में शिव रूपी अग्नि से धूम्र की व्युत्पत्ति होती है जिसमें शक्ति की ज्वाला है इसे दिव, नाक या त्रिदश भी कहा गया. धूम्ररूप यह स्वरूप धूमावती या ज्वाला के रूप में ज्वालामुखी सम्बोधित हुआ. आरम्भ में पहले ऊर्ध्व ज्वालायुक्त प्रज्वलित ज्योति तमोगुण रही .जब वह तिरछी ओर फैली तो इस ज्योत का प्रसार रजो गुण युक्त माना गया. तदन्तर आनंद व मोद देने वाली चंद्र सी ज्योत सत्वगुण युक्त रही. इन तीनों ने क्रमशः अग्नि, सूर्य व सोम के मण्डल बनाए. जिनके तीन बिंदुओं से बना त्रिकोण दिव्याक्षर-स्वरूपा आद्याशक्ति का स्वरूप हुआ. देवी यन्त्रों में यही त्रिकोण प्रतीक रूप में विद्यमान रहता है.
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प्रारम्भ में धूम्र रूप का देवी का स्वरूप धूमावती व ज्वाला रूप में होने से ज्वालामुखी कहलाया. अंधकार को सूर्य रश्मि हर लेती हैं अतः इसे हिरण्यगर्भ की संज्ञा दी गई जिसकी प्रकाशयुक्त शक्ति ‘श्री तारा ‘ या तारा देवी कही गई. सूर्य प्रचंड व दग्ध रूप में स्थिर है अतः इसे अक्षोभ्य कहा गया. इसके प्रचंड -उग्र रूप को शांत किये बिना निर्माण कैसे हो अतः उसमें सोम की आहुति हुई जिससे वह शांत हुआ. दशमहाविद्या साहित्य में इसे ‘षोडषी’ कहा गया जिसमें काली, तारा, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व श्री कमला निहित हैं. सार रूप में प्रकृति ही दस महाविद्याओं के रूप में परिणत हुई. देवी भागवत के बारहवें अध्याय में इनका निवास ‘चिंतामणि गृह ‘ वर्णित है. दसों शक्तियों के साथ मूल-प्रकृति भुवनेश्वरी जिस मंच पर विराजतीं हैं उसके चार पाए -स्तम्भ ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र व सदाशिव हैं. दस महाविद्याओं से जगत में प्राण शक्ति का संपादन व ब्रह्माण्ड में सृजन, धारण, नियंत्रण, परिवर्तन, आकर्षण-विकर्षण जैसी क्रियाऐं संपन्न होती हैं.
सूर्य के ताप से ही वनस्पति जगत व पदार्थ इत्यादि का निर्माण संभव है. जीवधारियों को भी इसी से ऊर्जा प्राप्त होती है. सूर्य से लोक उपयोगी ऊर्जा का अलग होना ‘छिन्न शीर्ष’ कहा गया जिस प्रक्रिया को महाविद्या के ‘छिन्न मस्तिका’ स्वरूप में वर्णित किया गया. क्रिया-प्रतिक्रिया, आकर्षण-विकर्षण से जो परिवर्तन होते हैं, भावी क्रिया संपन्न होती है उन्हें ‘भैरवी’ या त्रिपुर भैरवी कहते हैं.
समस्त प्राणियों को एक दूसरे से बांधे रखने वाली मोह व ममता सी प्रवृतियाँ हैं जिन्हें ‘मातंगी’ कहा गया. विज्ञान, प्रगति, उपक्रम, सुख -संतोष व आनंद प्रदान करने वाली शक्ति ‘कमला’ के नाम से जानी गई. धूमावती देवी स्थितप्रज्ञता की प्रतीक मानी जातीं हैं. इनका वाहन काक है जो निरंतर अतृप्त रहता है. यह वासना ग्रस्त मन का प्रतीक है. अंधकार या तम से घिरी बुद्धि या अविवेक ही धूमतनु है. जीव की पशु अवस्था भूख, प्यास, दरिद्रता व कलह से घिरी रहती हैं जिनका हरण देवी की कृपा से ही संभव है. तांत्रिक ग्रंथों में धूमावती ‘उग्रतारा कही गईं –
धूमव्याप्तशरीरात्तु ततो धूमावती स्मृता.
यथोग्रतारिणीमूर्ति: यथा काली पुरा सती.
छिन्न मस्ता यथा मूर्ति : तथा त्वँ परमेश्वरी.
प्रसन्न होने पर देवी रोगों का नाश करती है, विपत्ति का शमन कर संपन्न कर देती है. दुर्गा सप्तशती में इनका उल्लेख ‘वाभ्रवि’ व ‘तामसी’ के नाम से है तो ऋगवेदोक्त ‘रात्रिसूक्त’ में इन्हें ‘सुतरा’अर्थात सुख पूर्वक तरने योग्य व आगमों में तारा व तारिणी कहा गया.ज्योति रूप हो काम को छिन्न करने वाली देवी मोक्षदा कही गई. ज्वाला स्वरूप ज्वालामुखी देवी तेजस्विनी हैं, तीनों लोकों की जननी हैं –
या स ज्वालामुखी देवी त्रेलोक्य जननी स्मृता.
रुद्रयामलतंत्र, ज्वालामुखी सहस्त्रनाम
ज्वालामुखी स्त्रोत में कहा गया कि जो माता की भक्ति भावना में लीन हैं उनके परिवार में लक्ष्मी का वास होता है –
पारावार सुता नित्यं निश्चला तदगृहेवसेत.
जल, थल, आकाश व तीनों लोकों में विद्यमान ज्वालामुखी को नमन –
जले ज्वाला स्थले ज्वाला ज्वाला आकाश मंडले.
त्रेलोक्यते व्याप्यते ज्वालामुखी नमोस्तु ते..
मान्यता है कि ज्वालामुखी में किये हवन-पूजन होम का सर्वाधिक महत्व है. अन्य स्थानों में लक्षाहुति होम करने से जो फल प्राप्त होता है वही ज्वालामुखी में दस आहुतियाँ प्रदान करने का होता है. ज्वाला जी की पूजा के मुख्यतः तीन विधान हैं. इनमें पहला पंचोपकार है जिसमें गन्ध, पुष्प, धूप, दीप व नैवेद्य अर्पित होते हैं. दूसरा दशोपचार जिसमें पाद्य, अर्घ्य, आचमन,स्नान, वस्त्र, आभूषण, चन्दन, इतर, पुष्प,धूप, दीप, नैवेद्य व चंदन तथा तृतीय में षोडषोपचार जिसके अंतर्गत – आसन, स्वागत, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, आभूषण, चन्दन, इतर, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य के साथ प्रणाम की क्रिया संपन्न की जाती है.
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ज्वालामुखी तीर्थ में तंत्र शास्त्र के कुब्जिका तंत्र,योगिनी तंत्र, वृहन्नील तंत्र, रुद्रयामलतंत्र व मन्त्र महोदधिग्रंथों में वर्णित विधान के अनुरूप कन्यापूजन किया जाता है. विश्वास है कि कन्याओं को भोजन कराने से देवी आनंदित होती है व कुमारी कन्या के रूप में अवतीर्ण होती हैं. रूद्रयामल के अनुसार, कुमारी कन्यका प्रोक्ता सर्वज्ञा जगदीश्वरी.
श्री ज्वालामुखी मंदिर हर घड़ी-हर पहर भक्ति संगीत की लहरियों से भक्त जनों को भाव-ताल-उल्लास के अपूर्व आनंद से समवेषित करता है. नियम से पांच बार की आरती वातावरण को देवी की महिमा के स्तम्भन से सिक्त कर देती है. नित्य ही पहली आरती ब्रह्ममुहूर्त में सम्पन्न होती है जिसमें देवी को खोया, मिश्री व मालपुए का भोग लगता है. इसके एक घंटे पश्चात् मंगल आरती होती है जिसमें पीले चावल व दही का भोग लगता है. मध्यान बेला की तीसरी आरती में चावल, षटरस दाल व मिष्ठान्न अर्पित किये जाते हैं. सायंकालीन चौथी आरती में पूरी, चने व हलुए का भोग चढ़ता है. रात्रि के दस बजे दूध, मलाई व ऋतुफल अर्पित कर श्री शँकराचार्य द्वारा विरचित ‘सौंदर्य लहरी’ का गायन शयन आरती के रूप में होता है जिसमें जगदीश्वरी-विश्वजननी ज्वाला माँ के अनंत स्वरूप की महिमा है. चारों दिशाओं में अमृत का समुद्र जिसके मध्य कल्पवृक्ष से घिरा मणिदीप, कदम्ब वृक्षों के मध्य सुवासित समीर से पूर्ण चिंतामणि मंदिर. शिव रूपी बिछोने पर विराजी उदारहृदय ज्ञान-आनंद की प्रतिमूर्ति महामाया.
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प्रथम मूलाधार चक्र पृथ्वी तो मणिपुर चक्र अग्निमय. स्वाधिष्ठान पद पर स्थित माता. ह्रदय में प्राणवायु व वाह्य चक्र नभ. भोंहों के मध्य आज्ञा चक्र को पार कर लगी समाधि. कुंडलिनी को जागृत कर सहस्त्रार में प्रवेश तो वहीं अपने चैतन्यरूप पति के साथ विहार करती मां ज्वाला की अप्रतिम छवि के दर्शन होते साधक को.साधक की हृदय रूपी गुफा में विहार करती माता जिनके श्री चरणों से अमृतधारा बह समस्त विश्व को अभिसिंचित करती है.
आनंदमयी माँ के शुभ यँत्र में चार श्री कंठ अर्थात दिशाएं हैं. पांच युवतियाँ अर्थात पंचतत्व रूप है. शिव की नौ मूल प्रकृतियों, तेंतालीस रूपों, अष्टदल कमल व षोडशदल कमल के तीन चक्रोँ के मध्य तीन रेखाओं से आपका “भुवन कोण” नामक यँत्र बनता है.
सर्वकाम प्रदाँ देवी सर्वारिष्ट विनाशिनीम
सर्व स्वरूपाँ सर्वेडयाँ वन्दे ज्वालामुखी महम
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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