शिवालिक की सुरम्य पहाड़ियों में प्रकृति ने अनूठे रंग भरे हैं. यहाँ का जन जीवन भी विविधता से भरा है तो आद्य शक्ति के रहस्यों की गाथाओं का केंद्र भी. इनमें उत्तराखंड के साथ हिमाचल के सीमांत की लोकथात के बहुविध स्वरुप की बानगी झलकती है. धार्मिक संकल्पना हैं कि टोंस उपत्यका का ईष्ट देव “महासू” का अपभ्रंश है जो यहाँ परंपरागत रूप से चली आ रही शिव पूजा के संकेत देता है. सिरमौर गज़ेटियर में कहा गया कि इन पर्वत उपत्यकाओं में शिव पूजा प्रत्यक्ष रूप से नहीं होती, यहाँ महासू देव तथा श्रीगुल संप्रदाय शैव धर्म की शाखाएं थीं जो यहाँ आराध्य बनीं.
(Jaunsar Bawar Uttarakhand)
शिवप्रसाद डबराल के अनुसार यक्ष भी शिवोपासक थे तो नाग भी. यक्षों में विनायक , कुष्मांड, महाकाल, नंदी, महेश्वर व मणिभद्र लोकप्रिय रहे. वहीं नागों में शेषनाग, सिन्दूरीनाग, वेरिंग नाग, खावडा नाग, बोख नाग, पेखे का नाग,नागादेऊ, कवल नाग व बेखांण महत्वपूर्ण रहे. वहीं बेड़ा या वादधी ने शिव को अपना कलागुरु माना. शिव की तरह अपनी जटाएं रखीं.
गढ़वाल में पुरातन काल से विद्यमान शिव लिंगों, प्रतिमाओं की कालावधि पांचवी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी आंकलित की गई. तभी यह शिव के नाम पर शिव की भूमि या केदारखंड के नाम से लोकप्रिय हुआ. केदारखंड के भाग 98/11 में विष्णु तीर्थ का वर्णन है. पुरातत्व सर्वेक्षण की रपट (1980, पृ.35-43)के सन्दर्भ से स्पष्ट होता है कि पहले यह विष्णु तीर्थ हनोल रहा होगा क्योंकि यहाँ सातवीं से सातवीं सदी की अनेकानेक विष्णु प्रतिमाएं मिलतीं हैं. प्रहलाद सिंह रावत ने महासू के ऐतिहासिक मंदिर लेख ( गढ़ सुधा, 1998., पृ.35-42)में यह स्पष्ट किया कि सोलहवीं शताब्दी के उपरांत यह विष्णु तीर्थ हनोल शैव तीर्थ के रूप में आस्था व भक्ति का केंद्र बन गया.
देहरादून जिले की तहसील है चकराता, जिसका उत्तरी हिस्सा बावर और दक्षिणी जौनसार कहलाता है. कुल मिला यह इलाका जौनसार -भावर के नाम से जाना जाता है. यहाँ पूरब में यमुना तो पश्चिम में जुब्बल व सिरमौर, उत्तर में टोंस तो दखिन में है पछुआ दून का इलाका. फिर आकर्षण से भारी पर्वत माला है लोखांडी और देववन. देववन के पास ही है चकरौता. चकरौता से सटा पहाड़ कुषाण टिब्बा कहलाता है.
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कुल मिला जौनसार भावर में पड़ते हैं करीब चार सौ सत्रह गाँव जो अपनी लाख भर की आबादी से अड़तीस खातों में जीवन जीने के अपने अलग से ढब और सार -बार से कहीं कुछ भिन्न रीति रिवाजों की छटा दिखाते हैं तो कहीं धीरे -धीरे लोगों के व्यवहार व मानी गई आस -विस्वास से बाहर के लोगों के लिए कौतूहल के साथ झसक भी उपजाते रही है . जौनसार के नर हट्टे कट्टे हैं तो नारियां अपूर्व रूपवती जो इस भू भाग में ऊबड़ -खाबड़ चूने के पाथर को समेटे विहंगम पहाड़ियों के बीच एक अनूठी संस्कृति के दर्शन कराता है.
जौनसार -भावर के असमतल ऊँचे नीचे ढालों की जमीन खेती के लिए अनुपजाऊ है और जो कुछ भी पानी जमीन को मिलता है वह इंद्रदेव की कृपा पर टिकता है. गूल और नहर बनाना काफ़ी मुश्किल और श्रम साध्य काम है यहाँ. पर प्रकृतिदत्त संसाधनों का खजाना है ये इलाका, जैव -विविधता के लिहाज से बहुत ही महत्वपूर्ण.
जौनसार भावर का सबसे बड़ा आकर्षण है यहाँ विद्यमान महासू देवता जिसका प्रमुख मंदिर हनोल में है. महासू के चार स्वरुप बताये गए पहला वासक, दूसरा पिवासक, तीसरा बैठा और चौथा चलता. हनोल टोंस के किनारे है जहां महासू देवता के पहले तीन स्वरुप विद्यमान हैं. चौथा अपने दर्शनार्थियों के लिए गाँव गाँव चलता फिरता रूप कहा गया. यह जो चलता फिरता स्वरुप है वह एक स्थान से दूसरे स्थान, एक पत्ती से दूसरी पट्टी, ‘खाग से खाग खात से खात ‘अपने भक्तों को दर्शन देने उनकी भेंट पूजा लेने आता जाता रहता. इसलिए न्यायकारी देवता के रूप में उसे चलती फिरती कोर्ट कहा गया. महासू के चारों स्वरूपों में वासक और पिवासक टिहरी रियासत के जौनपुर और उत्तरकाशी इलाके को गए. हनोल के साथ महासू का दूसरा मंदिर तहनू खात पंजगाँव में तीसरा अनवार में और चौथा वैराट में स्थित है.
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डॉ शिवप्रसाद नैथानी के अनुसार वैदिक रूद्र और सिंधु सभ्यता का ‘पशुपति’का मिश्रित स्वरुप आज का शिव, महादेव अर्थात आर्य -अनार्य संस्कृति के मेल से बना है. कश जाति के गढ़ हिमाचल और रवाईं में उसे कहीं महासू नाग तो कहीं महासू के चार रूपों में भी जाना जाता है. महासू को कंश जाति के साथ कश्मीर से आया माना गया. कश्मीर की शिव पूजा ब्राह्मण मत के अनुरूप रही तो लकुलिन संप्रदाय या पाशुपत मत दंड, जटा, मद्य, रुद्राक्ष, लिंग पूजा और वाममार्ग पर अधिक मह्त्व देता रहा. जैसा कि कूर्म पुराण सोलहवें खंड में वर्णित है:”कापालं लाकुलं वाम भैरवं पूर्व पश्चिमम. पञ्च शतरं पाशु पतं तत्रान्यानि सहस्त्रशः”
जनश्रुति है कि करीब पांच सौ साल पहले कश्मीर से ऊना भाट नामक भक्त ने महासू को टोंस घाटी के हनोल में निमंत्रित किया. ऊना भाट ने किरवीर दानव के आतंक को समाप्त करने के लिए महासू देवता की शरण ली. यह वही दैत्य था जिसने समूचे इलाके में त्राहि -त्राहि मचा रखी थी. महासू के आगमन के बाद ही आसुरी प्रवृतियों पर रोक लगी.ऊना भाट का पुत्र ही महासू देव का पहला पुजारी रहा तो उनके भाई रक्षक राजपूत और बाजगी बन देवता के अभिन्न बने. महासू देवता के पुजारी सरसूति ब्राह्मण कहलाते हैं.
बड़कोट तहसील में महासू देवता के सात मंदिर हैंजो क्रमशः जखोल, कोटि बनाल, भंकोली, लखवाड़, गंगटाड़ी, कुथनोर व हनोल में हैं. महासू प्रारंभ में वैष्णव तीर्थ रहा. यहाँ के संग्रहालय में शेषनाग पर लेटे विष्णु, विष्णु स्थानक, लक्ष्मीनारायण, उमा -महेश्वर पार्वती माता के साथ बलराम व गणेश जी की मूर्तियां सज्जित हैं. पुरातत्व विभाग की रपट के अनुसार महासू के वर्तमान मंदिर की स्थापना ग्यारहवीं सदी में हुई जिसमें पहले विष्णु भगवान की मूर्ति थी जहां तदन्तर महासू चार स्वरूपों की धातु निर्मित मूर्तियां स्थापित कर दी गयीँ. और यह महासू मंदिर के नाम से लोकप्रिय हो गया. यह छत्र शैली पर बना है.
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त्रिरथ पर स्थापित यह मंदिर चार भागों में विभक्त है. चौथा भाग कालान्तर में बना. पहला हिस्सा खुला मंडप है जिसमें मंदिर की सामग्री और वाद्य यँत्र रखे जाते हैं तो दूसरे हिस्से जो अर्ध मंडप स्वरूप का है. इसकी दायीं ओर की दीवार में महासू के चार वीरों कैलू, कैलाथ, कपला व सैड़ाकूड़े के अंकन हैं. यहीं से गर्भ गृह यानि तीसरे कक्ष का दरवाजा खुलता है जहां भेंट चढ़ती है. भेंट बाहर से ही चढ़ाई जाती है.गर्भ गृह का द्वार चांदी के पत्रों से मढ़ा हुआ है और इस पर राधाकृष्ण, नाग, शिशुपाल वध वा रामलीला प्रसंग के चित्र विस्तीर्ण हैं. गर्भ गृह में काष्ठ की चौकी आसन पर चार भाई महासू की धातु की मूर्तियां विद्यमान हैं जो क्रमशः वोटा, भासोक, और पवाती और चालदा यानि कि चलते हुए देवता की हैं.
महासू मंदिर के अहाते में पांसी थात और साठी थात अर्थात दो चबूतरे हैं. भाद्रपद की अमूस में होने वाले तीन दिन के जागरण में सांठी और पांसी अपने अपने निर्धारित स्थानों में बैठते हैं. बिना अनुमति दूसरे के चबूतरे में प्रवेश करने पर दंड या डाँड लगाया जाता है. मंदिर की पिछली ओर ‘वीर खंब’ स्थापित है जो बुरी शक्तियों से बचाव करता है. वहीं मंदिर में आते हुए प्रांगण में शीशे के दो गोले रखे हैं जिन्हें हाथों में उठाने का प्रयास कितने ही बल से किया जाए पर ऐसा करना संभव नहीं होता.
देहरादून से 188 कि.मी. दूर भावर परगना में टोंस घाटी में तीर्थ यात्रियों, श्रद्धालु जनों, पर्यटकों के साथ लोकथात के चितेरों के लिए महासू का प्रसिद्ध मंदिर आकर्षण का केंद्र रहा है. हिमाचल में शिमला, हाटकोटी जुब्बल, नाहन से त्यूणी होते हुए मार्गों से भी यहाँ आते हैं. हिमाचल के अंचलो के साथ ही विसहर, डोडराकंवार, रोहड़ू, उत्तरोच, जुब्बल के साथ जौनसार और रवाईं से अपने आराध्य ईष्ट को पूजने भक्तजन यहाँ आ अपने न्याय के देवता की शरण लेते हैं. उत्तरकाशी से सड़क मार्ग से हनोल की दूरी 150 कि. मी. है.
हनोल का यह प्राचीन आराधना स्थल काष्ठ मंदिर शैली में निर्मित है. जिसमें काष्ठ के लम्बे चौड़े शहतीर हैं जिसकी छत, प्रांगण के खम्बे, मंडप सभी लकड़ी कि सुन्दर नक्काशी में उकेरा गया है. कलात्मक और पारम्परिक सज्जा का यह काष्ट शिल्प गंगा राम उर्फ़ ‘छुइयाँ ‘ की कारीगरी का उत्कृष्ट उदाहरण है. महासू न्याय का देवता है. उसके साथ “संगटारूवीर “के मंदिर हैं. जनश्रुति है कि जहां महासू जाता है वहां उसके वीर पोखू और संगटारू भी साथ साथ रहते हैं. महासू के वज़ीर चौहान, असवाल हैं और उसके थाणे मिस्त्री हैं जो ‘खूंद’ देवता को नचाते हैं. भ्रमणशील, यायावर चालदा महासू के बारे में मान्यता है कि यह बारह बारह वर्षों के प्रवास में सांटी खत और पांसी खत में गतिशील रहता है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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