असल आवाज का जादू नकलची नहीं समझेंगे
-राहुल पाण्डेय
कुछ साल पहले अयोध्या में एक शायद कभी न बनने वाली फिल्म के लिए ऑडिशन ले रहा था. कला की गर्मी में उबलते लोगों की कतार लगी थी, पर हम ठंडे होते जा रहे थे. बात यह थी कि गाने वाले सारे के सारे लोग किसी न किसी की आवाज की नकल कर रहे थे. अपनी नकली आवाज से वे एक प्रसिद्ध पर बेहूदे और नकलची सूफी गायक के आसपास पहुंचने की कोशिश में लगे थे. यह नकल हमारे सपनों पर तेजाब फैला रही थी. हमने तीन-चार दिन तक ऑडिशन लिया, मगर क्या मजाल कि एक भी ओरिजनल आवाज हम तक पहुंच पाती. उस ऑडिशन में गिरी से गिरी हालत में भी लगभग दो दर्जन लोगों ने गाया, लेकिन हमें कुछ नहीं सुनाई दिया.
तंग आकर हमने कैमरे के लेंस पर ढक्कन लगा दिया. हमें कोई आशा नहीं थी कि नकल का जो ढक्कन गवैया बनने के नए ख्वाहिशमंदों ने अपनी आवाज पर लगा रखा है, उससे हमें कोई मदद मिल पाएगी. फिर कई दिनों तक उन गवैयों का फोन आता रहा, और मैं समझाता रहा कि नकल से कुछ नहीं होने वाला. अभी कुछ दिन पहले फैज अहमद फैज की गजल ‘दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के’ के लिए फिर आवाज की तलाश शुरू हुई. इसमें कोई दो राय नहीं कि फैज को चाहने वाले जितने अपने देश में हैं, उतने दुनिया के किसी दूसरे देश में नहीं. लेकिन बात जब आवाज की आई तो मैं फिर अपने देश से हार गया. कोई मेंहदी हसन बनता है तो कोई गुलाम अली. अपवादों को छोड़ दें, तो इस मामले में भी अपने यहां के नकलचियों ने नाक कटा रखी है.
हारकर मैं सीधे पाकिस्तान पहुंचा, जहां एक बंद अंधेरे कमरे में फैज को उसी हद तक गुनती एक आवाज मिली, जिसके आसपास ही कहीं मोहब्बत गुलजार होती है. आवाज शायद सिंध की थी और लहजा नात का था. उस आवाज की मोहब्बत में मैं कुछ यूं मुब्तिला हुआ कि अभी तक उसे खुद से चिपकाए हुए हूं. न सिर्फ खुद से, बल्कि अपने यहां की गुलाबबाड़ी से भी इसे चिपका दिया. बगैर किसी साज के आती उस आवाज के ऊपर मैंने अयोध्या-फैजाबाद के चित्र चस्पां किए और वाया इंटरनेट वापस उसे पाकिस्तान पहुंचा दिया. ऐबटाबाद की लुबना और कराची की नूर बेगम इनबॉक्स में उतर आईं. उनका चिपकाया सुर्ख लाल रंग का दिल मेरे इनबॉक्स में हमेशा महफूज रहेगा. और फैसलाबाद में उन मौलवी साहब की दुआ भी, जो हमारी गुलाबबाड़ी देखकर बरबस निकल बैठी होगी- ‘अल्लाह ताला आपको हर नजर बद से महफूज रखे.’ यह असल आवाज का जादू था. नकलची नहीं समझेंगे.
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