आज न जाने कैसे अचानक ‘चूरे’ की याद आ गई- जैसे वर्षों बाद कोई बाल सखा सामने आ जाए. सचमुच यार चूरे तू भी क्या चीज था. अब न तू है, न अपना वो बचपन. पर तेरी यादें हैं, रहेंगी.

मेरे हम उम्र वो सभी लोग जिनका बचपन अल्मोड़ा में गुजरा हो, एक चीज से जरूर वाकिफ होंगे- ‘हजारा का चूरा’. अगर जीवन की आपाधापी में कोई भूल गया हो तो थोड़ा-सा दिमाग पर जोर डालते ही याद आ जाएगा. बचपन में माँ-बाप ने जो दाल-भात खिलाया, जितना एहसान उसका मानता हूं, उतना ही लगभग हजारा के चूरे का भी मान लूं तो यह कम से कम मुझे तो अतिशयोक्ति नहीं जान पड़ता है.

इस चूरे ने हमारे बचपन को हंसाया, गुदगुदाया. कभी हैरान किया तो कभी लॉटरी लग जाने का-सा एहसास भी कराया. उन दिनों हमारे लिए नाश्ते-स्नैक्स का एक सस्ता और बेहतरीन विकल्प था यह चूरा. सबसे अच्छी बात कि इसका कोई निश्चित मूल्य नहीं था. जेब में जितने भी पैसे हों उसी हिसाब और मात्रा में मिल जाया करता था.

इस चूरे का न कोई विज्ञापन था न ही मार्केटिंग. यह एक स्थानीय उत्पाद था जो हर रोज न चाहने के बावजूद स्वतः उत्पन्न हो जाया करता था. बच्चों में मैगी-नूडल्स जितना लोकप्रिय था.

कई बार दो-तीन दोस्त इस लालच में एक साथ चूरा खरीदते कि मात्रा में ज्यादा मिलेगा और उसमें न जाने क्या-क्या हमारे हिस्से आ जाए. एकाध बार चूरे में न जाने क्या खा गया कि मुझे उल्टी-सुल्टी दोनों हो गए. नतीजन डांट खाई और पिटा भी. फिर ज्यों ही अठन्नी-चवन्नी हाथ लगी, तन-मन चूरे की ओर लपका. कई बार बड़े भी ललचा जाते और ‘देखूं तो क्या है’ कहकर वो बच्चों के चूरे में डाका डाल देते. तब बाजार में आज की तरह इफरात में फास्ट फूड नहीं था और न ही अभिभावकों के पास पर्याप्त पैंसा. ऐसे फटीचर समय में उस चूरे ने हमें पोषित किया. यह तबकी बात है जब आम आदमी के कपड़ों-जूतों में पैबन्द एक सामान्य सी बात थी. जब खाते-पीते घरों के पुरूष धारीधार कपड़े का नाइट सूट पहना करते थे. मेरी मांस-मज्जा उस चूरे से भी काफी हद तक बनी है और उसकी कर्जदार है.

दरअसल यह ‘हजारे का चूरा’ हजारा का न होकर लाला बाजार स्थित हजारा की दुकान में मिलने वाला तरह-तरह के बिस्कुटों का चूरा हुआ करता था, जो कि चूरे की ही तरह टूट-फूट कर ‘हजारा का चूरा’ के नाम से बच्चों के बीच मशहूर हो गया था. हजारा बंधु तब भी भले-चंगे थे, आज भी सलामत हैं.

लोगों के बीच हजारा की दुकान के नाम से यह कनफैक्शनरी की दुकान आज भी अपनी जगह मौजूद है. उस जमाने में वह अल्मोड़ा की अपनी तरह की शायद एक मात्र हाई-फाई दुकान हुआ करती थी. उनकी अपनी एक बिस्कुट फैक्ट्री भी थी. जहां तरह-तरह के बिस्कुट, केक, डबल रोटी वगैरा बनते थे. इन्हीं सबके बनने-पैक होने के दौरान जो टूट-फूट होती उसी को एक पेटी में भरकर दुकान में रख दिया जाता था. वही हजारा का चूरा था. अखबार के टुकड़े में पांच पैंसे का भी मिलता था तो रूपये-दो रूपये का भी.

यह चूरा कई बार सरप्राइज भी देता था. चूरे के बीच में अकसर बड़ा माल मिल जाया करता. अब क्या मिलेगा यह तो उस दिन के राशि-फल पर निर्भर होता- आधा क्रीम रोल, केक का टुकड़ा, आधा-चैथाई टुकड़ा महंगा बिस्कुट या आधा डबल रोटी … कुछ भी. कई बार चूरा इस बात की भी चुगली करता कि फैक्ट्री में चूहे भी मौजूद हैं.

कई बार लड़के झुंड बनाकर चूरा खरीदने जाते और भीड़ का फायदा उठाकर दुकान के बाहर कोने में सजाकर रखे बिस्कुट और डबल रोटी पर हाथ साफ कर देते. पकड़े जाने पर जो अच्छे धावक होते वो बच जाते, जो घबरा जाते वो थोड़ा पिट लेते और अनुभव सम्पन्न होकर फिर कभी कोशिश करते. अगर भाग्यवश ये दोनों बातें हुई तो फिर मजा. मुफत की दावत.

अब न तो ‘हजारा का चूरा’ मिलता है न आज के बच्चे इसे पसंद करेंगे. बस उस चूरे की यादें बाकी हैं. और हां, उस दौर के चूरा पोषक जो लोग आज भी अल्मोड़ा में ही रह गए, अब इतने उमरदार हो चले हैं कि अक्सर शाम ढले हजारा की दुकान से चटपटी नमकीन खरीदते दिख जाते हैं. अब इस बात से आपको क्या लेना-देना जी कि वो नमकीन चाय के साथ लें या…. अरे अंकल छोड़ो भी, देखे का अनदेखा करना भी सीख लो. बच्चे बड़े हो गए. बल्कि उनके भी बच्चे हो गए हैं.

शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’  प्रकाशित हो चुकी  है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.>

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  • Lagvag 38 saal jindagi ki jadoojahad bhool Kar, hazara ke chure wale yug main pahunchane ke liye sambhu ji ko sadhuwad

  • हमहूँ बहुत बार खाये रहे हो ये " हजारे का चूरा " ..... लिया और ले कर घर को आ गये .... शाम की चाय का टाइम फिक्स था चार बजे , ये नही कि जब मन करा बना ली , तो शाम की चाय के साथ का स्नेक्स ... बिस्किट का बिस्किट और सबसे सस्ता पेट भराऊ आयटम

  • हज़ारा की दुकान तो बहुत बाद में खुली। मुझे अपने बचपन (1961 ) की बंसी और हरकिशन की बिस्किट फैक्ट्री की याद है जिनकी दुकान तो चौक बाज़ार में महिला अस्पताल के गेट के बगल में थी जबकि फैक्ट्री नियाज़ गंज के ढाल में थी जिसमें ब्रेड,बन,फैन,पफ ,बिस्किट आदि अन्य बेकरी के उत्पाद तैयार किए जाते थे। पांच नए पैसे में बिस्किट का चूरा बहुत अधिक मात्रा में मिल जाया करता था जिसमे हर तरह का स्वाद होता था। जिनकी यह फैक्ट्री थी वे पंजाब के विस्थापित थे और विभाजन के बाद अल्मोड़ा आए थे। दूसरे विस्थापित जिन्दर के पापा थे उनके चने भूनने की दुकान भी इसी मोहल्ले में थी और तैयार माल बेचने की दुकान महिला अस्पताल के उस समय के प्राइवेट वार्ड के गेट के बगल में थी।

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