प्राचीनकाल से ही उत्तराराखण्ड का सम्बन्ध रामभक्ति परम्परा से रहा है. डॉ0 शिवप्रसाद नैथानी के कथनानुसार – श्रीराम कथा के आदि महाकाव्य वाल्मीकि रामायण में, इस प्रदेश को लक्ष्मण के पुत्रों को राज्य के रूप में प्रदान करने का उल्लेख है “जो रमणीय और निरायमय है. तब से, अर्थात् आज से दो हजार वर्ष पहले से ही बहुत पूर्वकाल से श्रीराम-लक्ष्मण, सीता, हनुमान आदि की पूजा का यहां प्रचार हो जाना मानना चाहिए.
(History of Ramlila in Uttarakhand)
डॉ विष्णुदत्त कुकरेती इस संबंध में लिखते हैं कि, “राजा दिलीप का वशिष्ठ के आश्रम में नन्दिनी गाय की सेवा, वशिष्ठ गुफा, दशरथ का डांडा, कमलेश्वर मन्दिर (श्रीनगर), रघुनाथ मन्दिर (देवप्रयाग), रामासिराई, रामाश्रम बदरिकाश्रम, हनुमान का पर्वत श्रेष्ठ हिमालय में औषध लेने आदि के आख्यानों से सिद्ध होता है कि राम को जबरदस्ती हिमालय से नहीं जोड़ा जा रहा है बल्कि वे स्वतः ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हैं.
पुरवासी पत्रिका के सम्पादक शिवचरण पांडे के अनुसार, सन् 1860 में दन्या के बद्रीदत जोशी सदर अमील ने अल्मोड़ा के बद्रेश्वर मैदान में पहली रामलीला आयोजित की थी. ऐसी भी मान्यता है कि श्री देवी दत्त जोशी ने पारसी के आधार पर सबसे पहले बरेली और मुरादाबाद में कुमाऊंनी तर्ज पर 1830 में रामलीला आयोजित की थी और इनके द्वारा ही सन् 1860 में अल्मोड़ा में रामलीला का मंचन किया गया था जिसे कालान्तर में बद्रीदत्त जोशी, गोविन्द लाल शाह आदि ने आगे बढ़ाया.
जनश्रुति है कि दुर्गा साह जी के प्रयत्नों से सन् 1897 में रामलीला का प्रथम मंचन नैनीताल में हुआ. सन् 1902 में गंगा राम पुनेठा द्वारा लीला की प्रस्तुति पिथौरागढ़ में की गई थी. इसी तरह सन् 1930 में शिव लाल शाह द्वारा रामलीला का मंचन बागेश्वर में प्रारम्भ किया. ऐसा भी वर्णन मिलता है कि जानकीनाथ जोशी के प्रयत्नों से 1931 में शिमला में कुमाऊंनी रामलीला का प्रदर्शन किया गया.
कुमाऊं की रामलीला को अधिक समृद्ध और उत्कृष्ट बनाने में नृत्य सम्राट उदयशंकर के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता है. उन्होंने सन् 1941 की नवरात्रियों में “रामलीला-छायाभिनय” का प्रदर्शन करके रामलीला को एक रूप में प्रस्तुत किया था. उनके संगीतज्ञ के अनुभव ने रामलीला में नृत्य की मुद्राओं, पैरों के संचालन, लय-ताल तथा स्वर-संगीत का जो प्रयोग किया गया वो दर्शकों को बांधने में सफल रहे.
अल्मोड़ा की रामलीला गीत-नाट्य शैली में होने के कारण अन्य रामलीलाओं से अलग है. वास्तव में इस रामलीला का सबसे महत्तवपूर्ण पक्ष इसका संगीत है. यहां की रामलीला पर शास्त्रीय संगीत का प्रबल प्रभाव है. रामलीला में कई शास्त्रीय रागों की छाया देखने को मिलती है यथा- मालकौंस, झिंझोटी, जैजैवन्ती, देश, सिंदूरा, खमाच, भैरवी, विहाग आदि . रामलीला में गायन के ताल के विषय में श्री हरीशलाल मिरासी का कहना है,” रामलीला में अधिकांशतः सोलह मात्रा की चांचर, तीन ताल, रूपक व कहरवा ताल बजता है. पहले रामलीला में वाद्य यंत्रों में खड़ताल, ढोलक, सारंगी और सितार को प्रयोग में लाया जाता था. शनैं:-शनैं: सारंगी और ढोलक का प्रयोग कम होता गया अब सिर्फ बांसुरी, हारमोनियम, तबला और वायलिन प्रयोग में लाए जाते हैं. गीतों के अतिरिक्त दोहों और चौपाइयों की एक विशेष संगीतात्मक शैली होती है. दोहे, चौपाइयां, गज़ल, गीत, सोरठा, शेर आदि शैलियां संगीत में प्रयोग की जाती हैं. ये सभी शैलियां अभिनेताओं (पात्रों) के अनुसार भिन्न-भिन्न होती हैं. नाटक के सम्वादों का सबसे अधिक प्रयोग चौपाई शैली में होता है.
गीतों में मुख्यतः दो भिन्न लय होती है, एक अराक्षसी और राक्षसी. अराक्षसी (राम चौपाई) की धुनें अत्यन्त धीमी होती हैं और राग झिंगोटी पर निर्भर होती हैं, जिसमें शांतरस की प्रधानता होती है. परन्तु राक्षसी तर्ज इसमें एकदम विपरीत होती है. यह प्रायः उग्रता को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करती हैं.
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‘कुमांऊ की रामलीला’ पुस्तक के लेखक डॉ पंकज उप्रेती के अनुसार ब्रजेन्द्र लाल साह ने कुमाऊंनी लोक धुनों का प्रयोग करके कुमाऊंनी भाषा में “रामलीला गीत नाटिका’ की रचना की थी. जो कि उस समय उत्तराखण्ड सांस्कृतिक विकास अधिकारी थे. साह ने सन् 1957 से 1962 तक कई लोकगीतों की रिकार्डिंग की और इन्ही धुनों पर रामलीला का संगीत पिरोया गया. साह के जाते-जाते ये धुनें भी भुला दी गयी. जैसे परशुराम लक्ष्मण से संवाद (कुमाऊंनी) कहते हैं:
अब त्यरो मरण आइ गोछ रे छ्वारा, तसी जिबडी काटी यूंलो गंवारा.
तू क्या जाणं छै करतब म्यारा, धरती माजा मैंले छेतरीनी ध्यार .
‘कुमाऊं अंचल में रामलीला की परम्परा’ पुस्तक के सम्पादक चन्द्रशेखर चन्द्र तिवारी कहते हैं कि कुमाऊं अंचल की रामलीला के विकास में पं. रामदत्त जोशी, बद्रीदत्त जोशी, कुन्दन लाल शाह, नन्द किशोर जोशी, बांके लाल साह और ब्रजेन्द्र लाल शाह सहित कई दिवंगत व्यक्तियों व कलाकरों का योगदान रहा है. रामलीला परंपरा और शैलियां पुस्तक की लेखिका इन्दुजा अवस्थी कहती हैं कि अल्मोड़ा में बहुत से रामलीला नाटक इसी शैली में लिख गए और आज तक लिखे जा रहे हैं.
1927 में लिखे गए कुंदनलालशाह कृत ‘रामलीला नाटक’ और 1972 में प्रकाशित श्री नंदकिशोर कृत ‘रामलीला अथवा रामचरित्र अभिनय’ नाटकों से पता चलता है कि अल्मोड़ा के रामलीला नाटकों की शैली न्यूनाधिक वही चली आ रही है जो देवीदत्त जोशी ने चलाई थी.
गढ़वाल में मुख्यतः टिहरी, देवप्रयाग, पौड़ी, सुमाड़ी, देहरादून, और श्रीनगर की रामलीलाएं समृद्ध और प्राचीन मानी जाती हैं. टिहरी की रामलीला के सम्बन्ध मे विद्यासागर नौटियाल कहते हैं कि, “सन् 1933 में राजा नरेन्द्रशाह की रानी इंदुमति शाह दिल्ली से नरेन्द्र नगर अपनी कार मे लौट रही थी कि अचानक मुजफ्फनगर के पास कार दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई. कार वो स्वयं चला रही थीं. उन दिनों टिहरी में हर साल की तरह रामलीला की तैयारियां चल रही थी.
खबर के टिहरी में पहुंचते ही शोक का वातावरण छा गया. उस मौत के कारण हमेशा के लिए हाड़ पड़ गया था. रियासत के अंदर रामलीला खेले जाने पर हमेशा के लिए पाबंदी लग गई.” इस तरह राजशाही सामंत ने अपने स्वार्थों के चलते रामलीला को निगल लिया. इससे पूर्व रियासत के अन्दर रामलीला के राज्यभिषेक दृश्य पर भी पाबन्दी लगाई गई थीं जिसके कारण कई रामलीलाएं का मंचन हमेशा के लिए बन्द हो गया था. तदनंतर टिहरी में वर्ष 1951 में “नवयुवक अभिनय समिति” की स्थापना की गई और पुनः रामलीला शुरू हो गई.
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गढ़वाल में रामलीलाओं के इतिहास में पौड़ी की रामलीला प्रचीनतम रामलीलाओं में से एक है. सर्वप्रथम यहां के स्थानियां लोगों के सहयोग से कांडई गांव में सन् 1897 में रामलीला की शुरूवात की गई रामलीला में दीर्घ समय से सक्रिय रहे गौरी शंकर थपलियाल कहते हैं, “वर्ष 1908 से 1943 तक रामलीला का मंचन साप्ताहिक था और तदनंतर ग्यारह दिन में परिवर्तित हो गई थी. नगरपालिका के सौजन्य से वर्ष 1993 में एक स्थाई रामलीला भवन बनकर तैयार हुआ जो कि दो तलों में विभाजित है. दर्शक दीर्घा में लगभग तीन हजार दर्शक बैठकर रामलीला देख सकते हैं जो कि देखने में यूनानी रंगमंच की तरह लगता है. इस रामलीला की सबसे बड़ी मुख्य विशेषता यह है कि सन् 2002 में पहली बार बालिकों को स्त्री पत्रों की भूमिका के लिए मंच पर उतारने का प्रयोग किया गया जिसकी परीपाटी आज तक भी बिना किसी गतिरोध के कायम है. यह लीला गैय शैली और शास्त्रीय संगीत पर आधारित है. रामलीला में आधुनिक तकनिकों का प्रयोग खुलकर होता है.
सुमाड़ी की रामलीला भी गढ़वाल के प्रचीनतम रामलीलाओं में से एक है. सुमाड़ी निवासी विमल चन्द्र काला के मत्तानुसार, “सुमाड़ी की रामलीला की नींव वर्ष 1919 मे रखी गई थी और साथ ही “राम सेवक मण्डल’ की स्थापना की गई जिसके सर्वप्रथम सदस्य तथा पात्रों में ईश्वर दत्त काला, दक्षिण दत्त काला, रघुनाथ काला, महेश प्रसाद घिल्डियाल, सत्य प्रसाद घिल्डियाल, बृज मोहन रूडोला, रविदत्त बहुगुणा, परशुराम कगडियाल शामिल थे.
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भोला दत्त काला तथा गुणानन्द काला के संयुक्त सहयोग ने तुलसीदास कृत रामलीला को शास्त्रीय संगीत में परिवर्तित कर मंचीयता प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. रामलीला में कलाकारों को तालीम देने की कवायद कृष्णजन्माष्टमी में हनुमान की झण्डी लगाने के साथ होती थी. पहले नवरात्र से रामलीला आरंभ होती थी और दशहरे में संपन्न होती है. सम्पूर्ण रामलीला गेय शैली पर आधारित होती है जिसकी परिपाटी आज तक भी चली आ रही है.
गढ़वाल में श्रीनगर की रामलीला का धार्मिक अनुष्ठान की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है. यह रामलीला सदियों से दशहरे में ही होती आई है. नित्यानन्द मैठाणी के अनुसार, “श्रीनगर में 1817 में जन्में प्रसिद्ध कवि और स्वर्गीय अम्बा शायर की कविताओं में कई रामलीला की धुनों का समावेश रहा है जिससे उन्हें श्रीनगर की रामलीला का जनक कहा जा सकता है.”10
1896 में कमलेश्वर मन्दिर में तत्कालीन महन्त श्री दयाल पुरी की अध्यक्षता में एक बैठक हुई थी जिसमें रामलीला प्रारम्भ करने का निर्णय लिया गया. श्रीनगर की रामलीला गायन शैली पर आधारित है. रामलीला में राधेश्याम, गीत, चौपाइयां और रागनियों में मालकौस, भीम पालासी, जैजैवन्ती आदि रागों का प्रयोग प्रारम्भ से होता आया है. वाद्य यंत्रों में सारंगी, हारमोनियम, ढोलक, तबला का प्रयोग होता है. परन्तु सारंगी वादक फजीतू के दुनिया से विदा होते ही सारंगी रामलीला से लुप्त हो गई. श्रीनगर रामलीला की एक अद्भुत विशेषता यह है कि इस रामलीला में भूमिका निभाने की वंशानुगत परम्परा है जिसमें पिता के पश्चात पुत्र उस भूमिका को निभाते आए हैं.
देवप्रयाग की रामलीला के संबंध में जय प्रकाश पंडित कहते है, देवप्रयाग के अधिकांश पंडित व्यवसाय के लिए बद्रीनाथ जाते है और मंदिर के कपाट बन्द होने के पश्चात ही वापस लौटते हैं इसलिए यहां रामलीला अक्टूबर में होती आई है. पहले रामलीला का आयोजन दस दिन का होता था अब पन्द्रह दिन का मंचन होता है. रामलीला आरंभ होने से पूर्व मुख्य पात्रों को वरणी दी जाती है ताकि वो कुछ खास बन्धनों में रहकर रामलीला करने के लिए प्रतिबद्ध रहें.
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इस रामलीला से एक मान्यता यह जुड़ी हुई है कि जिसके बच्चे नहीं होते है वे राजा दशरथ की भूमिका करते है और उन्हें पुत्र प्राप्त होती है. संगीतज्ञ बांकेलाल टोडरिया और गोविन्द प्रसाद अलखनियां ने रामलीला की चौपाइयों को आबद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था. कुछ पात्रों की जीवन्त भूमिकाएं जिसमें विद्याधर डंगवाल (राम), भगवती प्रसाद कोटियाल (सीता), लक्ष्मीनारायण कोटियाल (सूर्पणखा), और चन्द्रशेखर कर्नाटक (रावण) आदि कलाकार शामिल है. रामलीला समिति के पास अपना एक सुन्दर मंच है.
चमोली जिले का प्रसिद्ध गांव डिम्मर जो कि डिमरी जाति का मूल गांव है और यह अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं के लिए विशेष रूप से जाना जाता है. श्री द्वारका प्रसाद डिमरी के अनुसार सन् 1918 में महान संगीतज्ञ श्री ज्ञानानन्द डिमरी द्वारा एक ‘ज्ञानान्द कम्पनी’ खोली गई जिसमें उस समय 72 कलाकार कार्यरत थे. इस कम्पनी ने उस अवधि में चमोली के कई गांव में रामलीला की प्रस्तुतियां दी और बहुत प्रसिद्धि पाई 1 रामलीला मंचन का दिन बसन्त पंचमी पर्व पर पंचांग में देखकर निश्चित किया जाता है और यह रामलीला हमेशा होली उत्सव (मार्च) पर मंचित की जाती है.
इस रामलीला की सबसे प्रमुख विशेषता यह कि अधिकांश वाचिक अभिनय संस्कृत भाषा में होता है विशेष रूप से रावण-अंगद दृश्य देखने योग्य होता जिसमें सारे सम्वाद संस्कृत में होते हैं. इसका पहला कारण तो यह है कि लीला की पटकथा पर रामचरितमानस और सामायण का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है और दूसरा आधार, डिम्मर गांव में सन् 1905-06 में एक संस्कृत विद्यालय की स्थापना हुई थी जिसके ज्ञान का प्रभाव रामलीला पर उसके सम्वादों के रूप में सुना जा सकता है.
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देहरादून कई रामलीला समितियों के उदय का केन्द्र रहा है परन्तु वर्तमान में दो-तीन समितियां ही कार्यरत हैं. देहरादून की सबसे प्राचीनतम संस्था “श्रीरामलीला कला समिति” लगभग 140 वर्षों से रामलीला का सफल मंचन करती आ रही है. इस रामलीला समिति की शुरूवात परम श्रद्धेय श्री गुरूरामराय के संरक्षण में होती आई है.
लम्बे समय से जुड़े राकेश भण्डारी बताते है – राम भक्त जमुना दास ने सेठ लक्ष्मी चन्द्र के सहयोग से तुलसी रचित रामायण और अन्य रामलीलाओं का अनुशीलन करके एक पुस्तक की रचना की जिसके आधार पर रामलीला आरंभ हुई थी. रामलीला का शुभारंभ प्रथम नवरात्रे से से कलश स्थापना, नियमित दुर्गा पाठ, एवं सुन्दरकाण्ड के पाठ से होता आया है. परन्तु कलाकरों की कमी को देखते हुए पांच-छह वर्षों से मुरादाबाद, वृदांवन आदि बाहर की मंडलियां आमंत्रित कर रामलीला आयोजित की जाती है.
देहरादून में एक और रामलीला संस्था “श्री आदर्श रामलीला कमेटी देहरादून की स्थापना सन् 1965 में सन्तराम शर्मा द्वारा की गई. रामलीला की विशेषता यह है कि पांच-छह वर्षों से इसका मंचन पांच अलग-अलग मंचों में लाइट एण्ड साउड के माध्यम से होता आया है.
अब मैं लीला रामायण की चर्चा करना इसलिए आवश्यक समझता हूं क्योंकि ये इकलोती रामलीला है जो गढ़वाली भाषा में मंचित होती थी. गढवाली भाषा, लीला रामायण के जनक गुणानन्द पथिक ने 4 अप्रैल, 1977 को अपने सहयोगियों के साथ मिलकर “गढ़ साहित्य संस्कृति विकास परिसद” का गठन किया था. परिषद ने 1977 से लगातार चौदह साल तक गढ़वाली रामलीला (लीला रामायण) का आयोजन कर अपार लोकप्रियता हासिल की थी.
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उत्तराखंड के सीमांत जनपद चमोली में विकासखंड पैनखंडा के सलूड़-डुग्रा गांव की “रम्माण” (मुखोटों की परम्परा) को 02 अक्टूबर, 2009 को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र नई दिल्ली के प्रयास से यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित की गई. रम्माण अर्थात रामलीला. इस रम्माण की मुख्य विशेषता यह रही है कि इसमें अठाराह तालें, अठाराह मुखोटे, बाराह ढोल और आठ भंकोरे प्रयोग में लाए जाते हैं. ग्यारवें, दिन वैशाखी (अप्रैल) को रम्माण का शुभ मुहूर्त निकाला जाता है. यह रम्माण सम्पूर्ण रामायण का संक्षिप्त रूप है. जो कि जागरों और ढोल-दमाऊ की अठाराह तालों के साथ मूक नृत्यों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है. आठ घन्टे तक चलने वाले इस रम्माण में कुछ मुख्य घटनाओं को ही मंचित किया जाता है जिसमें राम, लक्ष्मण आगमन, वनवास, मृग वध, सीता हरण, लंका दहन और महाभारत, नरसिंह, भक्त प्रहलाद, मोर, नंद, आदि पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं को शामिल किया जाता है. रामायण की यह दुर्लभ विधा विश्व में कहीं भी दृष्टिगत नहीं होती है.
गढ़वाल की रामलीलाओं का अनुशीलन करने के पश्चात कई बातें दृष्टिगत होती हैं कि रामलीलाओं में गढ़वाली भाषा का तनिक भी प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता है और न ही कोशिश की गई है. हां ये जरूर है कि समय और परिस्थितियों के अनुसार लीला के मंचन में बदलाव अवश्य आ रहे हैं. कई रामलीलाओं के मंचन को सौ से अधि कि समय हो गया है पर संरक्षण के नाम पर आश्वसन के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता है. क्यों नहीं इन लीलाओं का मेले-त्योहारों के रूप आयोजन होता है ? क्यों नहीं इन रामलीलाओं को स्कूली पाठ्य पुस्तकों शामिल किया जाता है? क्या यह जरूरी कि जब तक कोई नाट्य विधा अपने मरने के कगार पर न पहुंचे तब तक उसके बारे सोचा न जाए?
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डॉ. अजीत पंवार
डॉ. अजीत पंवार का यह लेख उत्तराखंड की लोक संस्कृति और रंगमंच किताब से साभार लिया गया है.
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