प्रिय अभिषेक

सालों पुराना नुस्खा: छोटा कैनवास

“साहिबान, गाड़ी आपकी चलने वाली है. आपका ध्यान चाहूँगा. बस दो मिनट लूँगा आपका.
साहब, कई बार कविता सुनते हैं, उसको पचा नहीं पाते. खुद की कविता लिखने की इच्छा होती है, जिससे अपच बढ़ जाती है. क्रांतिकारी कविता से खट्टी डकारें आने लगती हैं. छंद वाली कविताएँ देखते ही पेट खौलता है, हौला उठता है. लगातार कविताएँ पढ़ते रहने से चक्कर आने लगते हैं, जी घबराता है. दीदी की कविताएँ पढ़ कर धड़कन बढ़ जाती है. पेट में गुदगुदी होती है. दो कविताएँ लिखने के बाद मुक्तिबोध, अज्ञेय जैसी फीलिंग आने लगती है. हिंदी का पहला नोबेल पाने के लिये बेचैन होने लगते है. रात-रात भर टहलते रहते हैं. तो एक बार ट्राई कीजिये हमारी ज्ञानपीट फार्मेसी वालों का फेमस- कविता हजम चूरन.
(Satire by Priy Abhishek)

हुज़ूर अगर शे’र पेट मे घूमते से लगते हैं, रुबाई रेंगती हैं, ग़ज़ल गड़गड़ाती है, नज़्म फूलती है, एक जगह बैठ नहीं पाते हैं. पेट तना रहता है. बेचैन रहते हैं. सोचते हैं ग़ज़ल निकले, पर निकलती नहीं. थोड़ी-थोड़ी करके निकलती है. या केवल ख़्याल निकल जाते हैं, पर बहर अंदर फँसी रह जाती है. सब के लिये है ख़ास हमारा, ज्ञानपीट फार्मेसी वालों का फार्मूला- कविता हजम चूरन.

कैसी भी कविता हो, नई हो, पुरानी हो. सालों से जमी कविता को निकाल देता है हमारा कविता हजम चूरन. बीमारी को जड़ से ख़तम करता है.

कई बार घर के बच्चे कवियों की, शायरों की संगत में पड़ जाते हैं. लड़के को कविता की लत लग जाती है, छुटा नहीं पाते हैं. लड़का घर के कामों से बचता है, मार-मार के थक गए हैं. लड़की झरोखे में बैठ कर ग़ज़ल लिखती रहती है, गीले कपड़े बाल्टी में धरे रह जाते हैं, चुटीला खींच-खींच कर परेशान हैं, नहीं सुनती. इलाज करा-करा कर तंग हैं, फ़ायदा नहीं होता. तो हमारा कविता हजम चूरन दें. शायरी की, कविता की, पुरानी से पुरानी लत को छुड़वाता है. सालों पुराना नुस्खा, बड़े-बड़े लोगों के अंदर फँसी कविता को निकाला है इस कविता हजम चूरन ने. इलाज की शर्तिया गारंटी.
(Satire by Priy Abhishek)

भैया जी,अगर कविता सुन चुके हैं, या खुद की लिखी दो लाइनें, जो पूरी नहीं हो रहीं, अंदर फँसी हैं, तो कुनकुने पानी से दो चम्मच फांक लें हमारा चूरन. सुबह तक कविता फूल जाएगी और सब साफ़! अगर कविता सुनने जा रहे हैं, मुशायरे का बुलऊआ है, कोई दोस्त-मित्र घर आ कर कविता सुनाने की ज़िद पकड़े हैं, तो पहले ही ठंडे पानी से फांक कर बैठें.

साहब वैसे तो इस चूरन की कीमत है पचास रुपए. पर कम्पनी अपने प्रचार के लिये आपको ये चूरन सिर्फ़ बीस रुपये में दे रही है. बीस रुपये! बीस रुपये! बीस रुपये! कम्पनी का प्रचार है, आपका फायदा है. जी अम्मा अभी आता हूँ. अभी ठहरिये! सब के पास आऊँगा. जी दीदी उधर भी आऊँगा. बस एक मिनट.

तो साहब केवल इतना ही नहीं, इसके साथ हम आपको दे रहे हैं हमारी ज्ञानपीट फार्मेसी वालों का स्पेशल- दीदी सूरमा.

जी हाँ, अंकल जी ख़ास आपके लिये, बेटा जी आपके लिये. अगर दीदी की कविताएँ देखते ही तारीफ़ करने का मन करता है, दीदी से लिपट जाने की इच्छा होती है, आँखे चुंधियाने लगती है, बैठे-बैठे दीदी के साथ पहाड़ों पर पहुँच जाते हैं, जॉइंट-वेंचर में कविता लिखने के ख्वाब आते हैं, तो ख़ास आपके लिये है ये सूरमा. सात दिन हमारा सूरमा लगाएं, गारंटी से दीदी के बजाय कविताएँ देखने लगेंगे. कविता की कमियां नज़र आने लगेंगी. आंटियां ये सूरमा अपने पति की आंखों में डालें, दीदी की फोटो देखना न भूल जाएं तो पैसे वापस.

आइटम दो, कीमत एक. बीस रुपये! बीस रुपये! बीस रुपये! कम्पनी का प्रचार है, आपका फ़ायदा है. जी भाईसाहब एक मिनट में आता हूँ. सब के पास आऊँगा. तसल्ली रखिये.

तो अभी रुकिये साहब. इन दोनों चीजों के साथ हम आपको दे रहे हैं हमारी ज्ञानपीट फार्मेसी वालों का बेहतरीन स्पेशल फार्मूला- व्यंग्यनाशक बटी.

जी साहेबान, अगर खुद अपना लिखा पढ़ कर हँसते रहते हैं. बात-बात में कहते हैं कि इस बात पर मैंने वो व्यंग्य लिखा था, उस बात पर मैंने ये व्यंग्य लिखा था. सबको जबरदस्ती अपने व्यंग्य पढ़वाते हैं. पढ़ने वाला उदास हो जाता है और खुद प्रसन्न. व्यंग्य सुनाते हैं तो माहौल ग़मगीन हो जाता है. सुनने वालों को इमाम हुसैन के नोहे याद आते हैं, लोग छाती पीटते हैं. पर दिल नहीं मानता, व्यंग्य पर व्यंग्य लिखते जाते हैं. आपके लिये है ये ख़ास व्यंग्यनाशक बटी.
(Satire by Priy Abhishek)

आइटम तीन, कीमत एक. बीस रुपये! बीस रुपये! बीस रुपये! कम्पनी का प्रचार है, आपका फ़ायदा है. जी आंटी जी, एक मिनट में आता हूँ. आपके पास भी आता हूँ भैयाजी.

जी आंटी जी कितने दूँ?”

“देंगे तो हम तुममें. बताओ कित्ते दैं? नासपीटे, अगर हम कबता लिख रहे तौ तोए का जलन है रही है? बड़ौ आओ हजम चूरन!” आंटी सवारी ने कहा.

“भारी आलोचक बना फिर रहा है रे तू तौ.” लड़का सवारी पीछे से चिल्लाई.

“अरे बासठ की उम्र में कोई अट्ठारह साल का लड़का अगर हमें दीदी बोल रहा है तो तेरी कौन सी नानी मर रही है उसमें?” कंडक्टर सीट घेरु सवारी ने ताना दिया.

“अपने अंदर की कविता को मार दें? मतलब साले हम अपने अंदर के साहित्यकार को ही मार दें?” बोनट पर तप्त हो रही बोनटी सवारी ने प्रश्न उठाया.

“अरे गड़गड़ा रही है तो गड़गड़ाने देंगे. कभी तो मुक़म्मल बन कर निकलेगी ग़ज़ल. ये थोड़ा कि उसका क़त्ल कर दें. आप तो जनाब भ्रूण हत्या का सामान बेच रहे हैं.” बीच में खड़ी मध्यमार्गी सवारी ने कहा.

“और तेरा सुरमा लगाने से तो भली हम अंधे हो जाएं. कहता है दीदी के बजाय कविता देखने लगेंगे. साले हम कविता देखने के लिये फोन चलाते हैं?” मिलीमीटर सीट पर किलोमीटर पृष्ठभाग टिकाए थोड़ा सरकना सवारी ने क्रोध से कहा.

“जो कविता ही नहीं रही तो मैं तो मर जाऊँगी. फोटो कैसे डालूँगी?” यह कह कर कंडक्टर सीट के ठीक बगल वाली विशिष्ट सीट पर विराजमान बस की रौनक सवारी सुबकने लगी.

“बना दो इसका व्यंग्यबटी. मारो साले को…” अज्ञात सवारी चीखी.

“अरे खां उठ जाओ, धूल झाड़ लो! रोज तो चलती बस से कूदते थे. आज खड़ी बस से फिंका गए?” खीरे वाले ने खीरा छीलते हुए कहा.

“बहुत ख़राब जमाना आ गिया मियां. पहले दो-चार बस में एक-आध कवि निकलता था. अब तो बसें की बसें कविओं से भर के आ रईं.”
(Satire by Priy Abhishek)

प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.

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