समाज

वाराही देवी: आदि शक्ति स्वरूपिणी मां के धाम का इतिहास

कूर्मांचल में काली कुमाऊँ लोहाघाट से हल्द्वानी जाने वाले सड़क मार्ग पर पेंतालिस किलो मीटर की दूरी पर पौराणिक धार्मिक व आध्यात्मिक आस्था का केंद्र है देवी धूरा. अल्मोड़ा से लमगडा और सहरफाटक होते भी यहाँ पहुंचा जाता है.
(History of Maa Varahi Devi Temple)

देवी धूरा में विराजतीं है वाराही देवी. वाराही आदि शक्ति स्वरूपिणी हैं. प्राचीन काल से ही शक्ति पीठ के रूप में इसकी मान्यता समूचे उत्तराखंड में है. विष्णु के अवतार भगवान वाराह द्वारा अपने वामांग में स्थान देने से यह वाराही कहलायीं. वाराह पुराण में कहा गया- वाराह रूपिणी शिवे नारायणी नमोस्तुते. वाराही देवी में पूजन पाठ का भिन्न विधान है. यहाँ मां वाराही की प्राचीन प्रतिमा को डोले में बंद कर प्रतिष्ठित किया गया.

मंदिर के पुजारी बताते हैं कि वाराही की प्राचीन मूर्ति बहुत पहले चुरा ली गई. चोर जब इसे बेचने स्वर्णकार के पास गया तो सोने कि शुद्धता जांचने के लिए उसने मूर्ति पर छेनी चलाई. तभी मूर्ति से रक्त निकलने लगा. भयवश चोर मूर्ति को झाड़ियों में फ़ेंक भाग निकला. तदन्तर यहाँ के ठाकुर बागड़ जो देवी के पुजारी थे, को सपना आया. जिसमें देवी ने बताया कि उसकी प्रतिमा किस स्थान पर फेंकी गई. बागड़ पुजारी वहां पहुंचा तो मूर्ति मिली. पुजारी उसे ससम्मान डोली में रख लाया. तभी से मूर्ति डोले में बंद रही. मूर्ति का अभिषेक व स्नान पुजारी द्वारा आँखों में पट्टी बांध कर करने की परंपरा का निर्वाह चला आया.

वाराही देवी की पूजा अर्चना नित्य प्रातः एवं संध्या काल में होती है. सभी कर्मकांड कर भोग चढ़ाया जाता है. भक्तजन अपनी मनौती पूर्ण होने पर छत्र, ध्वज, थाली, गिलास, ताँबे के तौले व पत्र देवी को अर्पित करते हैं. नित्य देवी की पूजा, आराधना के साथ ही उचित लग्नों में यहाँ यज्ञोपवीत व विवाह के संस्कार भी विधि-विधान से संपन्न किये जाते रहे हैं.
(History of Maa Varahi Devi Temple)

जनश्रुति है कि प्राचीन काल से ही यह स्थल गुह्य काली उपासना का केंद्र था. देवी के गणों को शांत रखने के लिए नरबलि का विधान था. यह बलि हर साल स्थानीय निवासियों के चार खामों वालिक या वल्का, चम्याल या चम्पाल, लमगड़िया व गहड़वाल या गढ़वाल में बारी-बारी से एक व्यक्ति की दी जाती थी. एक बार चम्याल खाम की वृद्धा के नाती की बारी आई. यह उसके कुल का अकेला वंशज बचा था. वह देवी की शरण में गई. देवी से प्रार्थना की. उसकी भक्ति से मां वाराही प्रसन्न हुईं.

अभयदान दे देवी ने पूछा अब मेरे गणों को प्रसन्न रखने का उपाय करो. तो चारों खामों के प्रधानों ने इसके समाधान के लिए बग्वाल का उपाय निकाला. चारों खामों के पुरुष आपस में बग्वाल यानी पाषाण युद्ध करेंगे जिसमें पत्थरों की चोट से रक्त बहेगा और इससे गण संतुष्ट हो जाएंगे.

पाषाण युद्ध की यह स्थली मंदिर परिसर में खोली खांड दुर्वाचौड़ में स्थित है. श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन चारों खामों और सात थोकों के प्रधान सामूहिक पूजा अर्चना संपन्न कराते हैं. एकादशी को वाराही देवी मंदिर की पाषाणकालीन सभ्यता की याद दिलाने वाले उत्सव यानी शिला युद्ध की व्यवस्था में संलग्न चार खाम, सात तोक मंदिर के ठाकुर बागड़ पुजारी के साथ सबसे पहले डोली को पूजते हैं.

कहा जाता है कि यह डोली तुर्कों और रुहेलों के बर्बर आक्रमण के समय लमगड़िया खाम के एक साहसी नवयुवक ने रुहेलों से छीन ली थी. फिर लम्बे समय तक इस डोली की सुरक्षा भी लमगड़िया खाम ने की. तदन्तर इस डोली को आपसी सहमति से मंदिर में ही सुरक्षित रखा गया. बग्वाल आयोजन में इसी डोले का सांगी पूजन होता है.
(History of Maa Varahi Devi Temple)

बग्वाल की सुबह ताँबे की पिटारी में विराजमान वाराही, सरस्वती व काली की मूर्तियों को नन्द गृह में ला दूध से स्नान कराते हैं. फिर श्रावण शुक्ल पूर्णमासी के दिन होने वाली बग्वाल में सम्मिलित देवगण या द्योका निकेत किया जाता जाता है. निकेत में शुद्धता, आचरण की पवित्रता, साफ-सफाई से रहने के साथ स्वपाकी रहने का संकल्प मुख्य है. पून्यूं की प्रातः महामाया के सम्मुख ताम्र मञ्जूषा की सामूहिक अर्चना कर ऋषि तर्पण उपाकर्म कर वीर पूजा संपन्न होती है. सिंहासन डोला या ताम्र मञ्जूषा को नन्द गृह में रखा जाता है.

पूजा अर्चना के बाद शंख-घंट, ढोल नगाड़ों के निनाद के साथ ही दंड व फरसा धारण किए चारों खाम जुटते हैं. मंदिर की परिक्रमा होती है. युद्ध के लिए खोलीखाण दूबाचौड़ मैदान में एकत्रित होते हैं. विधि-विधान संपन्न कर चारों खामों के प्रधान अपने रण बांकुरों के साथ खोली दूर्वा चौड़ में बग्वाल आयोजन का पाषाण युद्ध संपन्न कराते हैं. पुजारी वाराही की अर्चना करते हैं. परंपरागत युद्ध पोशाकों में चारों दलों के योद्धा रिंगाल के फर्रे या ढाल हाथ में लिए रखते हैं जिससे बरसने वाले पत्थरों से बचा जा सके. पत्थर से लगने वाली चोटों से जब एक मानव के बराबर रक्त निकल जाता है तब पुजारी दैवीय अनुभूति से बग्वाल के पूर्ण होने की घोषणा करता है. चंवार गाय की पूँछ हिला इसके संपन्न होने की घोषणा की जाती है. युद्ध के बाद योद्धा आपस में गले मिलते हैं.

फोटो: सुधीर कुमार

जनश्रुति है कि जब कुमाऊं में चंद वंशी राजाओं का शासन था तब वाराही देवी के इस शक्ति पीठ में महाकाली की स्थापना हुई . महाकाली को श्रावण पूर्णिमा के दिन नर बलि अर्पित करने का विधान था. कालान्तर में यह प्रथा विलुप्त हो गई और इसके बदले पाषाण युद्ध का आयोजन होने लगा जिसमें एक व्यक्ति से निकले रक्तपात के बाद इस आयोजन को पूर्ण हुआ माना जाता. अब फूल और फलों से बग्वाल करने की प्रथा है.
(History of Maa Varahi Devi Temple)

इतिहासकारों का कहना है कि इस प्रकार के युद्ध खेल पहले उत्तराखंड में बीस से अधिक स्थानों पर होते थे. ब्रिटिश सरकार ने इन पर कड़ा रुख अपनाया था जिससे इनका प्रचलन कम होते गया. इस दिशा में कमिश्नर ट्रेल ने पहल की .

बग्वाल आयोजन के मैदान से सटे देवी मंदिर के प्रांगण में एक चबूतरा है. समीप ही अखरोट का बहुत पुराना पेड़. फिर मुख्य मंदिर की ओर जाते एक चक्के के दर्शन होते हैं. आगे एक पुरातन मूर्ति है. प्रवेश द्वार पर पहुंच चतुर्भुज गणेश जी का मंदिर आता है. सीढ़ियां चढ़ ऊपर वाराही देवी विद्यमान हैं. आदि शक्ति वाराही गुफा में अवस्थित हैं जिससे पहले स्वागत द्वार है जिसमें मन भर वजन का घंटा लटका है. फिर आगे हवन कुंड है.इसके दायीं ओर महाकाली विराजमान हैं. बलि विधान यहीं संपन्न होता है.अब गव्यूरी देवी के सत, रज व तम की प्रतीक महासरस्वती, महालक्ष्मी व महाकाली की तीन शिलाओं से संपन्न गुफा है. इसकी परिक्रमा से भक्त आत्मिक संतुष्टि का अनुभव करते हैं. गव्यूरी देवी की गुफा में प्रवेश करने के स्थान पर द्वारपाल है. गुफा संकीर्ण है इसलिए झुक कर सरकते हुए आगे बढ़ते हैं. आगे पांच फ़ीट लम्बाई चौड़ाई का गह्वर दाहिनी ओर बना है. यहाँ एक चपटे पत्थर के बीच एक प्राकृतिक लिङ्ग है तो एक शक्ति पिंड भी.

गुफा से बाहर निकल यज्ञ वेदी है जिसमें विविध कुण्डीय यज्ञ संपन्न किए जाते हैं. आगे चल करीब तीस कदम की दूरी से भीम शिला या रण शिला के दर्शन होते हैं. यह विशाल शिला मध्य से विभाजित है. इस शिला से सन्दर्भित पांडवों के वनवास से ले बुद्ध के हीनयान और महायान तथा शंकराचार्य के यहाँ आगमन और कीलन की कथाएं प्रचलित हैं. जो तर्क की दृष्टि से युक्ति संगत भले ही न हों पर यहाँ की रोमांचक तस्वीर सामने रखने के लिए प्रचलन में कही जाती हैं.

ग्रेनाइट के शिलाखंड देवीधूरा की पहाड़ियों में विद्यमान हैं. कहा गया, महाभारत काल में ये शिलाएं पांडवों द्वारा खेल खेल में फेंकी गईं. वाराही मंदिर के समीप भी दो शिलायें विद्यमान हैं. जिनमें से एक भीम शिला कही जाती है. कहा जाता है कि एक बार वाराही और भीम आपस में खेल रहे थे तो हार -जीत के विवाद में उनमें द्वन्द छिड़ गया.वाराही ने भीम से छिपने का प्रयास किया तो भीम ने क्रोधित हो कर किलमोड़े की तलवार बना शिला पर प्रहार किया. भीम के प्रहार से शिला फट गई जिसका कटा निशान दिखाई देता है. लोक प्रचलित एक अन्य कथा यह है कि पांडव द्यूत क्रीड़ा के लिए इस शिला पर बैठे थे तो एक ग्वालिन महाबली भीम से आकर्षित हो उनका सामीप्य चाहने हेतु वहां आ बीच में बैठ गई.
(History of Maa Varahi Devi Temple)

ठीक इसी समय समुद्र में यात्रा कर रहे एक भक्त का जहाज डूबने उतरने लगा. वाराही मां ने अपना हाथ पीछे किया और संकट में फंसे जहाज की स्थिति सही कर दी. मां के हाथ पीछे करने की गतिविधि से भीम को यह संदेह हुआ कि ग्राम बाला पीछे कुछ छुपा रही है. फिर उन्होंने गीला जल से भीगा हाथ देखा. क्रोधित हो उन्होंने गदा उठा ली. सामने देखा तो कोई न था. भीम ने सोचा यहीं शिला के आसपास छुप गई होगी. आवेश में आ उन्होंने अपने पंजे से ही शिला को फाड़ दिया. पर वह तो कहीं न थी. अब इस घटना को अपना भ्रम समझ उन्होंने अपने बाएँ हाथ से एक बड़ी सी शिला को उठाया और फटी हुई शिला के ऊपर रख दिया. इस शिला पर उनकी उंगलियों के निशान पड़ गए.

इसी शिला के ऊपर एक चबूतरा बना है जिस पर उपदेश मुद्रा में भगवान बुद्ध की मूर्ति स्थापित थी जो अब मंदिर समिति द्वारा संरक्षित है. कहा जाता है कि इसी पाषाण में आदि शंकराचार्य द्वारा देवी का कीलन किया गया.

आदि शक्ति संपन्न त्रिगुणात्मक शिलाओं के बायीं ओर ‘गबौरी’ नामक एक गुफा है. कहते हैं कि वाराही देवी इसी गुफा में गईं थीं. एक स्थान पर अधिक नमी रहती है, तैलीय पदार्थ निकलता है. जिसे देवी की चरणरज या ह्युंगात कहते हैं. इसे भक्त जन हाथों से घिस सर पर चुपड़ते हैं. इसी जगह से संकरी गुफा में प्रवेश होता है. जहां सरक सरक कर जाते देवी के स्थान के दर्शन किए जाते हैं.

गुफा से बाहर मंदिर प्रांगण में बटुक भैरव, कलुआ बेताल के थान हैं कलुआ बेताल को संतुष्ट करने को सात बकरी व एक कटड़े की अष्ट बलि दी जाती रही. कहते हैं कि महाभारत काल में कलुआ बेताल ने यहाँ उपद्रव मचा रखा था तो माता कुंती के आदेश पर इसी स्थान पर भीम ने गदा से उसका वध किया. कुछ इतिहासकारों का मत है कि कत्यूरी नरेश झालुराई के सुपुत्र गोलू का मुख्य सहायक था कलुआ जो बड़ा वीर था. वह निम्न जाति का था तथा उसने कत्यूरिओं द्वारा किए कई अत्याचारों का प्रबल विरोध किया.
(History of Maa Varahi Devi Temple)

अब आता है बंद गृह जहां ताम्र मञ्जूषा में मां वाराही विद्यमान हैं. श्रृद्धालु यहीं पूजन संपन्न कर आशीष लेते व रात्रि जागरण करते हैं. फिर सिँह पर आरूढ़ दुर्गा मां के दर्शन कर मचवाल मुचकुन्द ऋषि आश्रम में शिव दर्शन हेतु जाया जाता है. यहाँ पर ऐड़ी देवता वर्षीयाखाणा अर्जुन के अवतार माने जाते हैं. कहते हैं यहीं भूमिगत गुप्त सरोवर है.

जनश्रुति है कि मचवाल देवी मां का मायका है. यहीं मुचकुन्द ऋषि का आश्रम था. मुचकुन्द पहले राजा थे जिन्होंने देवासुर संग्राम में देवताओं का साथ दिया जिससे प्रसन्न हो देवी मां ने उन्हें वर दिया. मुचकुन्द ने इच्छा निद्रा की कामना की. प्रार्थना की कि जो मेरी निद्रा भंग करे वह भस्म हो जाए. कहते हैं कि एक समय में यहाँ कालियावन नामक दानव ने भयानक आतंक मचाया. जब वह कृष्ण के पीछे पड़ा तो कृष्ण ने अपना पीताम्बर निद्रामग्न मुचकुन्द ऋषि के ऊपर डाल दिया. कालियावन कृष्ण समझ उनके पीछे दौड़ पड़ा. ऋषि की निद्रा भंग हुई तो वरदान के अनुसार कालियावन भस्म हो गया.

वाराही देवी मंदिर के खुले बड़े प्रांगण में रंगमंच है. पर्व त्योहारों में यहाँ विविध सांस्कृतिक आयोजन होते हैं. बड़े आयोजनों में भंडारे व प्रसाद बनाने हेतु मंदिर कमेटी के पास पकाने व परोसने के पर्याप्त बर्तन हैं जिससे दस हज़ार लोगों के भोजन की व्यवस्था संभव है. यहाँ धर्मशालाएं भी मंदिर कमेटी के अधीन संचालित होती हैं. समीप ही पोस्ट ऑफिस के पास ग्राम पंचायत का विश्राम गृह भी है.
(History of Maa Varahi Devi Temple)

आध्यात्मिक, पौराणिक व ऐतिहासिक रूप से वाराही देवी लोक थात में आस्था व विश्वास की दृष्टि से जनविश्वास की सम्पदा के रूप में अपूर्व श्रद्धा का केंद्र है. यहाँ के शिलाखंडों में पाली लिपि के लेख हैं तो खुदाई से प्राप्त अनेक प्रस्तर खंड व मूर्तियां भी प्राप्त हुईं हैं. स्कन्द पुराण में कहा गया है कि:

कुर्मांचलोत्तरे भागे ददृशुगिरिकंदराँ.
तत्र वै बहवो लोका भवानी मिविकामपि.
स्तुवन्ति नृपशार्दूल चोपविस्टाँ शिलोपरी.
तस्योपरि महाभागा स्तन्यः सासुरभि नृपः

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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