समाज

कितना सही है तराई की उपजाऊ भूमि पर बड़े उद्योगों का लगना

गोविन्द बल्लभ पंत कृषि प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय को स्थापित किए जाने के पीछे क्षेत्र में जिस व्यवहारिक व मूलभूत क्रांति का उद्देश्य निहित था, विपरीत उसके क्षेत्र अधकचरी औद्योगिक क्रान्ति की ओर बढ़ रहा है और क्षेत्र की हरितिमा को रेगिस्तान की ओर ले जा रहा है. Industries around Haldwani

क्षेत्र का नेतृत्व भी हरित क्रांति की ओर अभिरूचि पैदा करने के बजाए औद्योगिकीकरण का पक्षधर रहा है, क्योंकि उसे क्षेत्र के भविष्य से अधिक अपने पक्षधरों का घेरा मजबूत बनाना था, बात ऐसी नहीं है कि पन्तनगर विश्वविद्यालय ने कृषि एवं प्रौद्योगिकी में सफलता न पाई हो लेकिन व्यवहारिक धरातल पर उन उपलब्धियों से क्षेत्र के लोग जुड़ नहीं पाए.

होना तो यह चाहिए था कि कृषि और कृषि आधारित उद्योगों के साथ इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को जोड़ा, क्षेत्र के विकास का नारा इस विश्वविद्यालय की उपलब्धियों से तय किया जाता, लेकिन ऐसा न होकर क्षेत्र के कथित विकास की योजनाओं को धुंआ-धूल और अशान्ति वाले असफल उद्योगों के साथ जोड़ दिया गया.

विश्वविद्यालय के जन्मकाल के समय जहां इसके पास 16000 एकड़ उपजाऊ भूमि थी, औद्योगिक आस्थान सिडकुल को बसाये जाने के बाद अब मात्र 10000 एकड़ पर सिमट कर रह गई है. रूद्रपुर व पन्तनगर के बीच हरी-भरी लहलहाती वादी के 6000 एकड़ में कंक्रीट और लोहे के प्रदूषण का जहर उगलते कारखाने हैं.

अभी तक इस क्षेत्र में जिन उद्योगों को स्थापित किए जाने का प्रयास किया गया और किया जा रहा है उनके लिए इस क्षेत्र की परिस्थितियां बिल्कुल भी अनुकूल नहीं है. न तो यहां ऐसी अनुपाजाऊ भूमि है, जिसका उपयोग केवल उद्योग को विकसित करने के लिए किया जाय, न किसी किस्म का कच्चा माल ही यहां उपलब्ध है, न कुशल तथा अकुशल मजदूर ही यहां उपलब्ध हैं और न उत्पादित माल का बाजार ही उपलब्ध है.

सिर्फ यहां की उपजाऊ भूमि को कंक्रीट के जंगलों में बदल डालने के अलावा इन उद्योगों का कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता. अधिक धन के लालच में किसान अपनी जमीन गवां रहे हैं और प्राप्त धन का दुरूपयोग कर या तो नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं और या फिर ऐसे मार्ग की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं. जिस पर चल कर अपने आप को भूले जा रहे हैं.

अपनी संस्कृति व विरासतों को नष्ट किए दे रहे हैं और एक घातक समाज की संरचना कर रहे हैं. मजदूरों के अभाव को पूरा करने के लिए जो श्रमिक बाहर से लाए जा रहे हैं उससे जनसंख्या का दबाव व असंतुलन भी क्षेत्र में बढ़ता जा रहा है और कृषि योग्य भूमि मकानों से पटती चली जा रही है.

यह भी सच है कि औद्योगिक विकास से क्षेत्र की बेरोजगारी हल हो सकती है, लोगों के जीवन स्तर में सुधार आ सकता है लेकिन अभी तक जितने भी उद्योग इस क्षेत्र में स्थापित हुए हैं उनका जो हस्र हुआ है उससे साफ जाहिर होता है कि यह क्षेत्र भारी उद्योगों के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है.

यहां का सबसे बड़ा उद्योग सेंचुरी पल्प एण्ड पेपर मिल, औद्योगिक विवादों में जन्मकाल से ही घिरा रहा है. कई एकड़ जमीन, जिस पर यहॉं के भूमिहीन परिवार बसाये जा सकते थे, उसमें क्षेत्र के कुछ ही लोगों को रोजगार मिल पाया है. जंगलों को इस उद्योग के हवाले होना पड़ा है, प्रदूषण से यहॉं का वातावरण प्रदूषित होता गया है. यहाँ तक कि इस मिल से निकलने वाला रासायनिक जल धरती में समाकर आसापास के जल को भी प्रदूषित कर गया है, तराई क्षेत्र में फसलों को भी इससे नुकसान पहुंचा है.

सोयाबीन एवं वनस्पति उद्योग जिस उद्देश्य से स्थापित किया गया, परिणाम उसके विपरीत निकले. एचएमटी घड़ी कारखाना सदैव आर्थिक संकट से ही जूझता रहा है. प्रबंधन ने इसे यहाँ बनाए रखने में कभी अभिरूचि नहीं दिखाई. दस हजार लोगों को प्रतिवर्ष रोजगार देने की घोषणा के साथ स्थापित ‘जेम पार्क’ भूमि घोटालों की ओर प्रवृत्त होकर समाप्त हो गया.

21 एकड़ भूमि पर स्थापित 73 करोड़ की लागत का नोवा स्टील प्लांट कुछ ही दिन में 17 करोड़ की विद्युत बिलों की देनदारी व बैंक बकाया छोड़ कर पलायन कर गया. भवाली-भीमताल को इलैक्ट्रानिक घाटी बनाने का सपना भी सपना ही बना रहा.

तराई क्षेत्र में खुले अनगिनत ऐसे उद्योग क्षेत्रीय जनता व सरकार को बेवकूफ बनाकर बन्द हो गए. सब्सिडी और अन्य सुविधाओं के लोभ में यहाँ स्थापित किए गए ऐसे तमाम उद्योग इस बात के उदाहरण है कि यह क्षेत्र इस तरह के उद्योगों के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है.

अब वर्तमान में ठगी को भी उद्योग में शामिल कर रहे उद्योगपति राजनीति में घुसपैठ कर अदूरदर्शी राजनेताओं को बहला फुसला कर पन्तनगर विश्वविद्यालय की भूमि को हड़पने में लगे हैं. रुद्रपुर में स्थापित सिड़कुल इसका उदाहरण है. तराई की हरी भरी भूमि जो 80 के दशक तक सोना उगल रही थी अब कंक्रीट के जंगल में तब्दील होती जा रही है. Industries around Haldwani

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर

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Girish Lohani

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