गुजरात के शहरों और कस्बों से हिंदी बोलने वाले बिहार, यूपी, एमपी के भइया लोग देसी गालियां और लात देकर भगाए जा रहे हैं. सबको गुजराती अस्मिता के डंडे से हांकने का बहाना एक कुंठित युवा द्वारा एक चौदह महीने की बच्ची से बलात्कार के बाद मिला. मीडिया में दिख रही तस्वीरों में, बाल-बच्चों के साथ बसों के दरवाजों में घुसने की हड़बड़ी से उनके डर का अंदाजा होता है. उनके चेहरों पर जो लाचारी है, बताती है कि वे जहां वापस जा रहे हैं वहां उन्हें फिर से भूख और जाने पहचाने सामाजिक नर्क का सामना करना पड़ेगा.
जो उन्हें भगा रहे हैं, उनके औरतों के प्रति कोई ऊंचे विचार नहीं हैं. हो सकता है कि उनमें से बहुतेरे कन्या भ्रूण हत्या के समर्थक, दहेज लेने वाले, पत्नियों को पीटने वाले, बलात्कारी, उत्पीड़क हों या शीघ्र ही होना चाहते हों लेकिन इस समय वे मीर हैं. यह परिस्थितिजन्य नैतिक आभामंडल सबको मिला करता है और कुछ दिनों बाद छिन जाया करता है. जो चतुर हैं वे इसे अर्जित करते हैं और अधिकतम दिनों तक टिकाए रखने की कोशिश करते हैं.
इसी समय फिल्म उद्योग और मीडिया में मी टू #MeToo का दौर शुरू हुआ है जिसमें अंग्रेजी में यौन उत्पीड़न की दबी छिपी वारदातें बताई जा रही हैं और अंग्रेजी में ही माफी मांगी जा रही है या जवाब दिया जा रहा है. आठ साल पहले फिल्मी कैरियर छोड़ने के लिए बाध्य की गई अभिनेत्री तनुश्री दत्ता द्वारा शूटिंग के दौरान यौन उत्पीड़न की शिकायत के बाद यह सिलसिला शुरू हुआ है. आरोपों के मुताबिक नाना पाटेकर और फिल्म निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने तनुश्री शूटिंग के राजी नहीं होने पर गुंडो के जरिए धमकाया भी था. इसके बाद से नारी सशक्तीकरण का बिल्ला लगी फिल्म ‘क्वीन’ बनाने वाले डाइरेक्टर विकास बहल, सर्वाधिक बिकाऊ लेखक चेतन भगत, टाइम्स आफ इंडिया और डीएनए संपादक गौतम अधिकारी और कई अन्य की आंशिक करतूतें बाहर आ चुकी हैं. यह दौर लंबा चल सकता है क्योंकि कोई कानूनी कार्रवाई हो न हो लेकिन यौन उत्पीड़न करने वाले के चेहरे को ढंके शराफत की नकाब को उठाने की कोशिश में ही बड़ी राहत है.
जिस उजड्ड मजदूर ने गुजरात में बच्ची से बलात्कार किया उसमें और इन भद्र लोगों में कुछ समानताएं हैं. उसने बच्ची को अबोधता और असहायता के कारण अपना शिकार बनाया. इन आधुनिक लगते भद्र पुरूषों को भी लड़कियों की असहाय स्थिति ने ही दुष्प्रेरणा दी. ये कहीं ज्यादा शातिर हैं जिन्होंने अपनी विशेषाधिकार प्राप्त हैसियत का इस्तेमाल करते हुए ऐसी परिस्थितियां बनाईं जिससे वे यौनउत्पीड़न के बाद लड़कियों की चुप्पी की गारंटी कर सकें. सहज ही मन में आता है कि इन्हें कोई भीड़ उनके शहरों और दफ्तरों से पीटकर भइया लोगों की तरह क्यों नहीं खदेड़ने क्यों नहीं आ रही है?
एक की करनी के लिए हजारों लोगों की किस्मत का न्याय भीड़ करने लगे, यह जाहिलपना है लेकिन इस तुलना से हिंदी और अंग्रेजी का अंतर पता चलता है. जो लोग आदतन अंग्रेजी बोलते हैं भीड़ उन तक नहीं पहुंच सकती. उनके गिर्द आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा का घेरा होता है. पुलिस को हुक्म देने वालों, कानून लागू करने वालों और मानवाधिकार की चिंता करने वालों तक उनकी पहुंच तुलनात्मक रूप से बहुत आसान होती है. उन्हें बालासाहेब ठाकरे जैसे दुर्लभ तत्व भीड़ का डर दिखाकर गरीब की जोरू जैसी ही असहाय स्थिति में पहुंचा देते हैं और लंबे समय तक अन्यायी ढंग से दुहते रहते हैं.
जो लड़कियां फिल्म, कारपोरेट, मीडिया के चमकदार दफ्तरों तक पहुंचने के बाद भी अंग्रेजी में अपने उत्पीड़न के हलफनामें लिखने की हालत में बनी रह पाती हैं, उनके साथ इससे भी बड़ी त्रासदी पहले ही घटित हो चुकी होती है. घरों से निकल कर यहां तक पहुंचने की प्रक्रिया में उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ता है जिसके नतीजे में भारतीय समाज उन पर संदिग्ध, बिगड़ी हुई और कुछ प्रतिशत बदचलन होने का ठप्पा लगा चुका होता है. वे सामाजिक समर्थन और सहानुभूति खो चुकी होती हैं. जो बहुमत लड़कियां ऐसा नहीं कर सकतीं, वे सीता-सावित्री बनकर घरों में ही पड़ी रहती हैं तो भी समाज उन्हें चैन से नहीं जीने देता. तब वे सामाजिक विशेषाधिकार प्राप्त पुरूषों की मनमानी का कहीं ज्यादा आसान शिकार होती हैं. कहने का मतलब यह है कि समाज की मुख्य दिशा औरतों की स्वतंत्र सोच को कुंद करके नियंत्रित करने और उनका मनचाहा इस्तेमाल करने की है. मीटू जैसी चिंगारियां इन्हीं दो विरोधी ताकतों की टक्कर का नतीजा हैं.
इस बीमारी की भयावहता को समझने के लिए कल्पना जरूरी है. जरा सोचिए इस वक्त कितनी लड़कियां मीटू के टैग से परहेज करने की कीमत वसूलने के लिए सौदेबाजी कर रही होंगी, कितनी ब्लैकमेल का दांव खेल रही होंगी और गुजरात में कितने मकान मालिक मजदूरों की कोठरियों का किराया बढ़ाने और उन पर अपनी मनमानी शर्तें लादने की तिकड़में कर रहे होंगे. कोई और रास्ता नहीं है. हिंदी में भी और खेत खलिहानों तक मीटू मीटू का स्वागत किया जाना चाहिए. कड़वा भले लगे लेकिन हमारे पाखंडप्रिय समाज के लिए स्वीटू है.
अनेक मीडिया संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर अपने काम का लोहा मनवा चुके वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव बीबीसी के ऑनलाइन हिन्दी संस्करण के लिए नियमित लिखते हैं. अनिल भारत में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले स्तंभकारों में से एक हैं. यात्रा से संबंधित अनिल की पुस्तक ‘वह भी कोई देश है महराज’ एक कल्ट यात्रा वृतांत हैं. अनिल की दो अन्य पुस्तकें भी प्रकाशित हैं.
(मीडियाविजिल से साभार)
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