समाज

सिद्धपीठ हरियाली कांठा मंदिर

दोस्तों, बचपन में होश संभालते ही सामाजिक रीति-रिवाजों के बावत जानकारी होना शुरू हुई. इन्हीं में से एक ‘भाड़’ हो जाना, इसमें यदि किसी औरत ने सांप देख लिया हो तो वह उस दिन गाय-भैंस दोहने नहीं जाती है. इसी तरह जब कोई पुरुष सांप देख लेता है तो वह उस दिन खेत में हल लगाने नहीं जाता है. खेत में हल लगाते समय यदि उसने सांप देख लिया तो वह हल लगाना बंद कर देता है. यदि हल लगाते वक्त हल के निसुड़े के फल से सांप चिर जाता है तो उसे हल के साथ बैलों को भी त्यागना पड़ता है और हीत देवता की पूजा करने पर ही वह शुद्ध होता है. पर्वतीय क्षेत्र विशेषकर गढ़वाल में अलग-अलग गांवों में खेती के सम्बन्ध में देवी-देवताओं के उद्भव (प्राकट्य) के बाद कुछ मान्यतायें निर्धारित की गयी हैं जिन्हें ‘केर’ कहते हैं.
(Hariyali Devi Temple Uttarakhand)

उदाहरण के तौर पर हमारे गांव की केर हरियाली देवी की है. इसी तरह से किसी अन्य इलाके के गांवों की केर किसी अन्य देवी या देवता की होती है. कई बार अलग-अलग केर होने से आपस में रिश्तेदारी होने के बावजूद एक-दुसरे के हल को छूते तक नहीं हैं, हल लगाना तो दूर की बात है. फिलहाल मैं यहाँ पर हरियाली देवी की उत्पत्ति की जानकारी देना अपना नैतिक फ़र्ज़ समझता हूँ.

घटना लगभग 250 वर्ष पुरानी है. तब पहाड़ों पर बसागत काफी कम होती थी. लड़के-लड़कियों की शादी बहुत ही कम उम्र में कर दी जाती थी. आजकल के थैलीसैण तहसील के अंतर्गत पट्टी बंगारस्यूं के ग्राम सुकई स्थित किसी बंगारी रावत (भारद्वाज गोत्र) परिवार की 11 वर्ष की कन्या का विवाह पाटीसैण इलाके की पट्टी जैंतोलस्यूं के छामा गांव के किसी हरियाला रावत परिवार में संपन्न हुई थी. न जाने किन विषम परिस्तिथियों में उसकी अकाल मृत्यु हुई.

मृत्यु उपरान्त उसकी रूह (आत्मा) भटकने लगी. फलस्वरूप वह कभी किसी पर और कभी अन्य पर अवतरित होने लगी. आखिर में मायके वालों ने मृतक आत्मा की मुक्ति (शान्ति) के लिये तब के प्रसिद्ध सावरी (तांत्रिक) पं. परमानन्द गोदियाल, ग्राम गोदा, पट्टी कण्डारस्यूँ की मदद ली और भटकती आत्मा को शांत किया.

अब वह वैष्णवी देवी के रूप में प्रकट हो गई. उसने अपने वंशजों को सुदूर किसी ऊँची चोटी पर स्थापित करने का दिशा-निर्देश दिया. इस काम के लिये कुछ परिवारों ने अपने घर-आंगन, खेत वगैरह को सदा के लिये छोड़कर, जंगलों को पार करके आज के रुद्रप्रयाग जिले के अंतर्गत पट्टी धनपुर रानीगढ़ स्थित 9500 फ़ीट पर हरियाली कांठा में स्थापित कर दी. इसके लिये उन्होंने वहां पर बड़े-बड़े पठाल नुमा पत्थरों (दैड़ों) से देवी की मंडूली तैयार की. इसमें से एक पत्थर आज भी मंदिर से दूर दर्शनार्थियों के रास्ते में एक किनारे पर पड़ा हुआ है. यह 5-6 अंगुल मोटा, 3-4 फ़ीट लम्बा और 2-1/2 – 3-1/2 फ़ीट चौड़ा है. इस जगह को ‘रौतों की पठाल’ कहते हैं.
(Hariyali Devi Temple Uttarakhand)

इसके बावत धारणा है कि इसे इस वजह से छोड़ दिया गया कि जब इसे जमीन में रखने के बाद उठाने लगे तो इसके नीचे कीड़े-मकोड़े मर गये थे. अतः वह अशुद्ध हो गयी थी. कालांतर में धूप तथा बारिश के प्रभाव से वह अनेक टुकड़ों में खंडित हो गयी. विशेष आयोजनों पर दर्शनार्थी इस खंडित पठाल पर अक्षत, रौली तथा पुष्प चढ़ाते हैं.

उससे कुछ दूरी पर एक बहुत बड़ी चट्टान पर प्राकर्तिक जल स्रोत है, जो न तो रिसता है तथा न ही बहता दिखता है, लेकिन वह (पानी) 1-2 फ़ीट लम्बे, 1-1/2 फ़ीट चौड़े तथा पौने फ़ीट गहरे कुंड में इकट्ठा होता रहता है. इस जगह को पत्थर कुण्डी कहते हैं. भीषण गर्मी में भी यह पानी कभी सूखता नहीं है. जंगली जानवर, मुसाफ़िर तथा दर्शनार्थी इस पानी से अपनी प्यास बुझाते हैं.

यहाँ से कुछ ही आगे चलकर सामने पहाड़ी की चोटी पर आधुनिक सफ़ेद रंग का मंदिर दिखाई पड़ता है, लेकिन यहाँ पहुँचने के लिये एक बहुत ही तंग रास्ते को पार करना पड़ता है, इस जगह को हीतगजा कहते हैं. इसको पार करने के लिए आते जाते वक़्त एक हाथ का सहारा लेना पड़ता है. इस संकरी घाटी को पार करते ही हरियाली कांठा पहाड़ी की चढ़ाई शुरू हो जाती है.

पेड़ों के ऊपर उनकी टहनियों या कोटरों पर दर्शनार्थियों के द्वारा रखी गयी चमड़े की वस्तुयें जैसे की कमर पेटी, जूते आदि दिखाई देने लगती हैं. वैसे मई-जून के महीनों में भी यहाँ हरी घास उगी होती है, लेकिन साथ ही सुखी घास भी होती है. अतः रास्ता स्पष्ट नहीं दिखता है. घास में फिसलने के डर से जूते निकाल कर नंगे पांव ही धीरे-धीरे चढाई चढ़नी पड़ती है. विशेष आयोजनों पर मंदिर समिति द्वारा कुदाल या फावड़े से पांव जमाने के लिये मिटटी खोद कर रास्ता बना दिया जाता है, अन्यथा बगैर स्पष्ट रास्ते के चढ़ाई चढ़ना कठिन तथा खतरनाक भी है, क्योंकि इस पूरे पाखे में सिर्फ एक ही पेड़ उगा हुआ है.

नीचे की ओर नज़र डालने से बहुत दूर तक केवल घास ही नज़र आती है, फिर लम्बे-लम्बे सुरई के पेड़ों का घना जंगल नज़र आता है. यदि कोई दर्शनार्थी इस चढ़ाई पर फिसल जाये तो उसके अटकने के लिये एक पेड़ के अलावा कोई अन्य झाड़ी या पेड़ नहीं है, अतः बहुत ही संभल कर चढ़ना पड़ता है. चढ़ाई चढ़ने के बाद एक समतल रास्ता आता है, जहाँ पर बैठ कर थकान मिटती है और फूली सांस भी सामान्य होने लगती है. पहिले इस रास्ते के ऊपर की तरफ मंदिर प्रांगण की दीवार दिखती थी, लेकिन अब यह रास्ता सीधा मंदिर प्रांगण में जाता है.
(Hariyali Devi Temple Uttarakhand)

मंदिर प्रांगण में पहुंच कर चारों ओर नज़र घुमाने पर आस-पास तथा दूर-दराज़ की सभी पहाड़ियां काफी छोटी नजर आती हैं. सामने हिमालय में सफ़ेद रंग का चौखम्बा पर्वत सबसे ऊंचाई पर एक तरफ से दूसरी तरफ दिखाई देता है. उसके नीचे बद्रीनाथ तथा केदारनाथ की पर्वत श्रेणियां धुंधले हरे रंग में नज़र आती हैं. बाकी सभी एक विशाल सुन्दर घाटी का आभास कराती हैं. मंदिर प्रांगण में चारों तरफ स्टील की रेलिंग लगी हुई है. उसके ठीक नीचे जहाँ कभी पुराना रास्ता होता था वहाँ पर एक भवन बना हुआ है, जो स्टोर तथा पाकशाला के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. मंदिर खुला हुआ तथा बगैर मूर्ति तथा कपाट के नज़र आता है.

मंदिर के पृष्ट भाग में काफी ऊँची दीवार है. उसके नीचे बंज़र जमीन है, उसके और नीचे भयंकर सफ़ेद रंग की चट्टान है जो कि किसी अन्य जगह से दिखाई देती है. मंदिर के बांयी तरफ भी एक पुराना भवन बना हुआ है जिस पर भी दरवाजे नहीं लगे हुए हैं. यहाँ खाना बनाने के बड़े-बड़े चासनी, गेड़ दिखते हैं. इसी तरह से नये भवन में भी खाना बनाने के बर्तन रखे हुये हैं. मंदिर के प्रांगण से एक रास्ता सीढ़ियों के रूप में सीधे नीचे जाता है, इसी रास्ते से देवी की डोली मंदिर में लाई तथा वापिस लेजाई जाती है.

यह सीढ़ीनुमा रास्ता कुछ दूर बाद जंगल से होकर पहिले कोदिमा गांव फिर जसोली गांव तक जाता है. बायें तरफ का रास्ता भी नीचे जंगल की तरफ जाता है. लगभग 2-1/2 किलोमीटर दूरी पर पानी का स्रोत है जहाँ से पानी को विशेष आयोजनों पर खच्चरों द्वारा लाया जाता है. इस जगह को पंचरंगी कहते हैं. एक प्रकार से यह खच्चर मार्ग है और मंदिर जाने तथा वापिस आने का पुराना मार्ग है. मंदिर परिसर से सबसे नज़दीकी गांव कोदिमा जो कि 7 किलोमीटर की दूरी पर है. कोदिमा से जसोली 2 किलोमीटर की दूरी पर है.
(Hariyali Devi Temple Uttarakhand)

हरियाली कांठा देवी के विराट रूप का मंदिर है तथा जसोली स्थित मंदिर देवी के सहज रूप का मंदिर है. यह गांव के मध्य में स्थित है. आकार के हिसाब से दोनों ही मंदिर विशाल प्रतीत होते हैं. मंदिर के चारों ओर परिक्रमा के लिए काफी जगह रखी गई है. मंदिर की दाहिनी तथा बायीं ओर दो धर्मशालाओं का जीर्णोद्धार करने के बाद उन्हें आधुनिक तरीके से दो मंजिला बनाया गया है.

दायीं ओर की धर्मशाला बंगारी रावतों के पूर्वजों द्वारा स्थापित व्यक्तिगत धर्मशाला है. इसे सभी बंगारी रावतों ने चंदा इकट्ठा करके आधुनिक आकार में बनवाया है. बांयीं तरफ की धर्मशाला जो कि पहिले से सार्वजनिक थी, को स्थानीय लोगों द्वारा जीर्णोद्धार करके आधुनिक आकार दिया गया है.

इसके अतिरिक्त कुछ और भवन लोगों ने अपने पूर्वजों (माता-पिता) के नाम से बना रखे हैं, जिनमें से एक भवन मंदिर प्रांगण के ठीक नीचे श्री राजेंद्र सिंह रावत, शांतिकुंज, हरिद्वार वालों ने कुछ ही साल पहिले बनाया है.

मंदिर में पंहुचने के लिये मुख्य प्रवेश द्वार के अतिरिक्त दो रास्ते, दाहिनी तथा बांयी ओर से भी जाते हैं. मुख्य द्वार पर एक बहुत बड़ा, लगभग 30 कीलों का घंटा लगा हुआ है, दाहिनी ओर एक छोटा गेट बना रखा है जहाँ से रास्ता पानी के स्रोत के साथ पडोसी गांव कोदिमा तथा मुख्य गांव को जाता है. यही रास्ता मंदिर प्रांगण के साथ-साथ मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार होते हुये, आगे एक बहुत बड़े प्रवेश द्वार द्वारा मुख्य सड़क में खुलता है. इसके आस-पास शौचालय भी बने हुये हैं.
(Hariyali Devi Temple Uttarakhand)

वैसे जसोली गांव में पानी का एक प्राकृतिक स्रोत है. वह गांव से कुछ ही दूर है. इसमें पानी की मात्रा भी काफी रहती है. आस-पास चीड़ के जंगल होने के बावजूद जिस मात्रा में स्रोत से पानी निकलता है उससे भी देवी की महत्ता का पता चलता है. गर्मियों में पानी शीतल, स्वच्छ तथा स्वादिष्ट लगता है. यहाँ पर सभी लोग स्नान करना अपना फ़र्ज़ समझते हैं. फिर भी जल संस्थान निगम ने मंदिर तथा गांव में नल द्वारा पानी के वितरण की व्यवस्था के लिए जगह-जगह पर स्टैंड पोस्ट लगाये हैं.

गांव के मध्य में स्थित होने तथा सड़क की सुविधा होने से पास-पड़ोस के गांवों के अलावा देश-प्रदेश से भी दर्शनार्थी देवी के दर्शन करने के लिये आते हैं. यहाँ आने के लिये तीन दिन का खाने में परहेज करना पड़ता है, लहसुन, प्याज, अदरक, अंडा, मांस, मछली, शराब तथा घर में सूतक का न होना विराट रूप के मंदिर जैसा ही है. आदमी, औरत, बच्चे तथा बूढ़े हर प्रकार के दर्शनार्थी किसी भी दिन सुबह या शाम को दर्शन करने यहाँ आते हैं. भाद्र महीने की नवमी के दिन यहाँ मेला लगता है. इसलिये हरियाली देवी को आम लोग नौमी की हरियाली भी कहते हैं.

धनतेरस के दिन देवी को विग्रह रूप में डोली में बिठा कर गाजे-बाजों के साथ शाम को खाना खा चुकने के बाद हरियाली कांठा मंदिर के लिए विदा किया जाता है. रास्ते में कोदिमा गांव में डोली कुछ देर के लिये वहां के पदान के घर पर रूकती है. वहां से वह बगैर बाजों के जंगल के रास्ते कांठा की ओर प्रस्थान करती है.
(Hariyali Devi Temple Uttarakhand)

आधा रास्ता तय करने के बाद डोली एक समतल जगह, (बनासु) पर रुक जाती है. वहाँ पर आग जला कर पूरी रात देवी का भजन कीर्तन किया जाता है. रात के अंतिम पहर में दर्शनार्थी डोली के साथ आगे की चढाई चढ़ते हुये पंचरंगी नामक जल स्रोत पर पहुँचते हैं. वहां पर सभी लोग नित्य कर्म से निपटने के बाद देवी के विग्रह को भी स्नान कराते हैं.सुबह होते ही डोली को सूरज निकलने से पहिले कांठा मंदिर में पहुँचा दिया जाता है.

वहां समिति के कार्यकर्ता एक दिन पहिले ही पहुँच कर सभी आवश्यक काम कर लेते हैं. देवी के विग्रह को मंत्रोचार द्वारा मंदिर में स्थापित करके उसकी पूजा अर्चना की जाती है तथा उसे खीर का भोग लगाया जाता है. दर्शनार्थियों के लिये भी हलवा, सब्जी और चाय का प्रसाद तैयार किया जाता है. प्रांगण में हवन किया जाता है. सभी दर्शनार्थी देवी के दर्शन करते हैं और फिर विग्रह को डोली में रखकर लगभग 9:30 बजे वापिस जसोली स्थित मंदिर के लिए प्रस्थान करते हैं.

7 किलोमीटर की उतराई पार कर देवी की डोली रात की तरह कोदिमा गांव के पदान के चौक में रूकती है. कुछ देर विश्राम करने के बाद वहाँ पर गाजे-बाजों का आगमन होता है. लोग नाच-गान करते हैं. देवी की जय जयकार करके वे जसोली के लिए प्रस्थान करते हैं. लगभग 12 बजे के आस-पास डोली मंदिर प्रांगण में पहुँच जाती है. देवी के विग्रह को डोली से मंत्रोचार द्वारा मंदिर के गर्भ ग्रह में यथास्थान स्थापित किया जाता है. उसके बाद पूजा, आरती, भोग तथा प्रसाद वितरण होता है. जो दर्शनार्थी देवी के विराट रूप के मंदिर हरियाली कांठा नहीं जा सकते या फिर जिनका वहां जाना वर्जित होता है, वे यहाँ पर अपनी भेंट चढ़ाते हैं. भोजन व्यवस्था होने पर सभी लोग भोजन करते हैं और फिर अपने-अपने घरों को प्रस्थान करते हैं.  
(Hariyali Devi Temple Uttarakhand)

कुछ विशेष अवसरों पर हरियाली कांठा स्थित मंदिर में साप्ताहिक आयोजन किया जाता है. ऐसा ही एक आयोजन 2005 में लगभग 60-62 साल बाद संपन्न हुआ था, जिसके लिए इस्तेहारों से अग्रिम सूचना दी गई थी. यह आयोजन 10 जून से 16 जून को आयोजित हुआ था. रात को ठण्ड से बचने के लिए दर्शनार्थियों ने पेड़ों की टहनियों – घास-फूस से छप्पर बनाये थे. बाकी लोगों ने रात को मंदिर प्रांगण में विशाल हवन कुंड की आग से अपने को ठण्ड से बचाया था. रात्रि में कुछ लोगों ने मंदिर की ओट का सहारा लेकर या फिर राशन सामग्री के लिए बनी धर्मशालाओं के सहारे बरफार्नी हवाओं से अपने आपको बचाया था.

आखिरी दिन देवी की डोली को ठीक वैसे ही जसोली स्थित मंदिर लाते हैं जैसे की इसे धनतेरस के दिन कांठा ले जाया तथा वापिस लाया जाता है. खास बात यह है की विशेष मौकों पर बड़ी संख्या में भीड़ जुटती है, तो उसे नियंत्रित करने के लिए देवी के वंशजों की मंदिरों के प्रवेश द्वार पर नियुक्ति होती है.

यह उनका अधिकार होता है भले ही आज के समय में यह एक परिपाठी बन कर रह गयी है, लेकिन फिर भी कुछ विशेष काम जैसे हवन करना, गाय दान, जो कि भागवत कथा के समापन के बाद किया जाता है या फिर प्रवेश द्वार पर भीड़ को नियंत्रण करने के लिए बंगारी रावतों की नियुक्ति आवश्यक है, भले ही उनकी मदद स्थानीय युवक भी करते हैं.

वर्तमान में पं. अनसूया प्रसाद चमोली मंदिर के पुजारी हैं और पं. विनोद मैठाणी मंदिर के रावल हैं. वैसे जसोली गांव ब्राह्मण बहुल गांव है जहाँ जसोला, नौटियाल, खंडूरी, चमोली, मैठाणी आदि जातियां निवास करती हैं.
(Hariyali Devi Temple Uttarakhand)

डॉ. पी. एस. रावत

रुद्रपुर में रहने वाले डॉ. पी. एस. रावत ने यह लेख काफल ट्री की ईमेल में भेजा है. डॉ. पी. एस. रावत से उनकी ईमेल आईडी dr.psrawat47@gmail.com पर संपर्क किया जाता है.

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

23 hours ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

1 week ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

1 week ago

इस बार दो दिन मनाएं दीपावली

शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…

1 week ago

गुम : रजनीश की कविता

तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…

1 week ago

मैं जहां-जहां चलूंगा तेरा साया साथ होगा

चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…

2 weeks ago